Monday, November 30, 2015


हैप्पी टु ब्लीड... क्योंकि दाग अच्छे हैं

हाल ही में  में सबरीमाला मंदिर के धर्माधिकारियों  द्वारा स्त्रियों के लिए मासिक धर्म फ्रिस्किंग़् मशीन लगाने की घोषणा से   धर्म के जरिए स्त्री की सत्ता को नियंत्रित करने की कुरुचिपूर्ण घटना सामने आई है |  इस प्रकार की विषमतापूर्ण कार्यवाही से  देवस्थलों  की क्रूरता  जगजाहिर तो हुई  साथ ही  दूसरी  ओर सभ्य समाज द्वारा स्त्री को बराबरी व सम्मान की दृष्टि से देखने के दावे खारिज हुए हैं । स्त्री के रजस्वला होने की एक सहज और प्राकृतिक अवस्था को धर्म और प्रथा के जरिए नियंत्रित करने के पीछे सामंती व्यवस्था को कायम रखने का सुनियोजित षड्यंत्र है । इस प्रकार के आडंबरपूर्ण , विषमता की भावना से भरे , अमानवीय फतवे को जारी करने का विरोध करने के लिए एक ओर सोशल मीडिया पर एक बड़े आंदोलन को तैयार किया जा रहा है तो दूसरी ओर इस तरह के विरोध और उसके तरीकों पर सवाल उठाकर उन्हें अनावश्यक और धार्मिक व्यवस्था में हस्तक्षेप बताने वाला एक पूरा वर्ग भी सक्रिय है ।  
 दरअसल धर्म के जरिए स्थापित मान्यताएं व प्रथाएं स्त्रियों के लिए सवार्धिक क्रूर रही हैं । धर्म ही सामंती व्यवस्था , गैरबराबरी और शोषण का दमदार व अचूक माध्यम है ।  पितृसत्ता को कायम रखने के लिए प्रथाओं और परंपराओं का मूल लक्ष्य् स्त्री की योनि व कोख को नियंत्रित करना है । कोई भी नियंत्रण बिना भय और बिना दमन और बिना दंड के संभव नहीं है । अत: धर्म और ईश्वर के नाम पर स्त्री के लिए व्यवहार और आचरण की लंबी फेहरिस्त लगभग हर समाज में पाई जाती है । स्त्री के लिए शुद्धता - अशुद्धता , पाप -पुण्य , करणीय - अकरणीय की विभिन्न कोटियां पितृसत्तात्मक समाज की नींव की भांति काम करती हैं । मासिक धर्म ,  यौनिकता , गर्भ और योनि से जुड़े सभी मिथ , प्रथाएं और प्रतिबंध स्त्री की अस्मिता को गौण बनाए रखकर व्यवस्था की सामंतीयता को बचाए रखने की क्रूर युक्तियां हैं । 
हैरत की बात है कि विश्व के अधिकतर धर्मों और सामाजिक आचरण सरणियों में मासिक धर्म को  एक टैबू बनाकर रखने  का प्रपंच पाया जाता है । मासिक धर्म की अवस्था में स्त्री को अशुद्ध घोषित कर उसके लिए अमानवीय और अन्यायपूर्ण आचार संहिताएं बनाई गईं हैं । आज भी विश्व के प्रगतिशील व विकसित माने जाने वाले देशों में धर्म या सामाजिक - सांस्कृतिक प्रतिबंध के जरिए मासिक धर्म को लज्जा , अशुद्धता , असहजता , दुराव और घृणा से जोड़कर देखा जाता है । जिन देशों में काम की अभिव्यक्ति व उसके  प्रदर्शन की सीमाएं अत्यधिक उदार हैं वहां भी मासिक धर्म किसी प्रकार के  संवाद , कला माध्यमों में अभियव्क्ति  या सामाजिक रूप से चर्चा के लिए निषिद्ध माना जाता है । दुनिया के सभी बड़े धर्म स्त्री की इस प्राकृतिक अवस्था में स्त्री को त्याज्य , अस्पृश्य और अशुद्ध मानकर उसकी अस्मिता का दमन करते रहे हैं ।  सबरीमाला मंदिर में लगाया जाने यंत्र मासिक धर्म की जांच कर न केवल यह बताएगा कि स्त्री रजस्वला है या नहीं बल्कि उसके जरिए यह भी अनावृत्त होगा कि अपने रजस्वला होने को छिपाकर कोई स्त्री ईश्वर के समीप जाने का दुस्साहस कर देवता और देवस्थल् को अशुद्ध कर  धर्म के अहंकार और विकरालता को चुनौती न दे सके । यदि मानव शरीर की स्वाभाविक अवस्थाओं और प्रक्रियाओं से शुचिता भंग होती है तो यह मान्यता केवल स्त्री से संबद्ध क्यों हो । क्यों नहीं समाज में पुरुषों द्वारा बलात्कार या संभोग करके पवित्र स्थलों में प्रवेश करने को  शुचिता भंग होने से  जोड़ा जाता और इस अपराध को रोकने हेतु उपायों का आविषकार किया जाता ? 

तेरह से पचास साल की उम्र तक लगभग 444 बार और अपनी प्रजनन उम्र के तकरीबन साढ़े आठ साल हर स्त्री रजस्वला रहती है । यह गौर करने योग्य तथ्य है कि आयु का यही दौर किसी भी व्यक्ति की कार्य -क्षमता का , उत्पादकता का, जीवन से तमाम अपेक्षाओं को तलाशने और उनके लिए समर्पित होकर श्रम करने के लिहाज से स्वर्णिम काल माना जा सकता है । किंतु पूरी दुनिया के विशॆषकर विकासशील् और अविकसित देशों में मासिक धर्म की शुरुआत से ही बालिकाओं को दुराव , दबाव , अवसाद , मिथों , भ्रांतियों के साथ जीना पड़ता है जिसके परिणाम स्वरूप  बालिकाओं को अपने व्यक्तित्व के विकास के शैक्षिक और सामाजिक अवसरों से वंचित रह जाना पड़ता है  । दुनिया के तमाम समाज खून के लाल  धब्बों के कलंक से आतंकित समाज हैं । विकसित समाजों के विज्ञापन जगत में  जहां  उपभोक्ता कंडोम के कामुक से कामुक विज्ञापन की अपेक्षा रखते हैं और विज्ञापनदाताओं में इस विषय में प्रतिस्पर्धा का माहौल रहता है , वहीं  मासिक धर्म से संबद्ध वस्तुओं  जैसे सैनेटरी पैड के विज्ञापन में नीली स्याही को लाल रक्त का प्रतीक बनाकर पेश किया जाता है । कंडोम के विज्ञापनों  और फिल्मों में  काम क्रीड़ा पर उन्मत्त् होने वाला समाज सैनेटरी पैड पर रक्त देखकर या मासिक धर्म  पर स्पष्ट चर्चा पर् जुगुप्सा से भर उठता है , ऎसा दोगलापन स्वस्थ समाज का संकेत नहीं हो सकता । 

हमारी सामाजिक संरचना में स्त्रियों के पास अपने शरीरांगों , उसकी अवस्थाओं , उनसे जुड़ी पीड़ाओं और समस्याओं को अभिव्यक्त करने के लिए न तो  भाषा है और न ही इस अभिव्यक्ति की कोई आवश्यकता और अभिप्राय ही समझा जाता है । घर से लेकर कामकाज के क्षेत्र भी वर्जनाओं से भरे हैं । पुरुषों का खुलेमान मूत्र विसर्जन करने , गालियों से भरी भाषिक अभिव्यक्तियां करने , स्त्री का उत्पीड़न करने  और  यहां तक कि बलात्कार करने तक को भी सामंती परिवेश का संरक्षण प्राप्त है लेकिन स्त्री को अपनी प्राकृतिक अवस्थाओं से होने वाली पीड़ा या असहजता को अभिव्यक्त् करने के लिए स्पेस उपलब्ध नहीं है । जिस समाज में लड़कियों के वस्त्रों पर एक लाल धब्बा उनके सम्मान और अस्तित्व को संकट में डाल सकता हो  और सार्वजनिक स्थलों पर निवृत्त होने की कल्पना तक किसी भी स्त्री के लिए असंभव हो उस समाज में सबरीमाला मंदिर जैसी घटनाएं व घोषणाएं स्त्रियों के लिए परिवेश को और अधिक दमघोटू बना सकती हैं । परिवेश की असमानता वाले समाज में स्त्रियों को यदि अवसरों की समान उपलब्धता प्रदान कर भी दी जाए तो उसका क्या लाभ ? अपने शरीर की सहज नियमित अवस्था के प्रति अपराध बोध और दुराव से भरी बालिकाएं व स्त्रियां  एक असंवेदनशील समाज में अपने लक्षयों के लिए अग्रसर हो पाएं  इसको सुनिश्चित करना सबरीमाला जैसी घटनाओं के बाद और अधिक दुष्कर प्रतीत होने लगा है । 
अभी हाल ही में लंदन मैराथन में किरण गांधी द्वारा  सैनेटरी पैड का प्रयोग किये बिना भाग लेने की घटना एकबारगी चौंकाने वाली प्रतीत होती है  परंतु साथ ही यह भी संकेतित करती हैं हमारे क्रूर व असंवेदनशील समाज की मनोवृत्ति को ऎसी शॉक ट्रीट्मेंट् की आज तीव्र आवश्यकता है । स्त्री पुरुष असमानता की गहरी खाई वाले सामाजिक परिवेश में  दखल देने के लिए इस प्रकार के विरोध से ही परिवेश की चुप्पी को तोड़ा जा सकता है । शोषण के लंबे इतिहास को भोगने वाली स्त्री के पास परिवेश को झकझोर कर अपनी उपस्थिति और अस्मिता को दर्ज करवाने के सिवाय अन्य कोई उपाय शेष नहीं रह गया है । ब्लीड फ्रीली एंड हैप्पी टु ब्लीड जैसे सोशल मीडिया के आंदोलनों के जरिये एक जड़  समाज को शर्मिंदगी और चुनौती देने का साहस करना स्वागत योग्य कदम है ।  यह  साफ देखा जा सकता है कि वर्जनाओं और वंचनाओं से भरे क्रूर सामंती परिवेश को चुनौती देकर ही स्त्री अपनी अस्मिता को स्थापित करने योग्य स्पेस बना पाएगी । 

Thursday, November 05, 2015

एक मुलाकात

तख्ती डॉट कॉम पर प्रकाशित मेरा एक साक्षात्कार -

हिंदी साहित्य की गहन अध्येता एवं संवेदनशील कविमना व्यक्तित्व, नीलिमा चौहान "आँख की किरकिरी" एवं "लिंकित मन" और "चोखेरबाली" ब्लॉगों के माध्यम से हिंदी ब्लॉगोस्फियर में विशेष उपस्थिति रखती हैं। विभिन्न हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में लेखों और कहानियों के जरिए रचनात्मक योगदान के साथ स्त्रीवादी तेवर के कविता लेखन के लिए चर्चित नीलिमा चौहान, दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन सांध्य महाविद्यालय में ऎसोसिऎट प्रोफेसर के रूप पठन-पाठन से सम्बद्ध हैं। उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश: # नीलिमा जी... आप शिक्षिका है, साहित्य में विशेष रूचि रखती हैं, बराबर लिखती-पढ़ती रहती हैं, आप दोनों ही भूमिकाओं में क्या कोई अंतर्विरोध महसूस करती हैं...? - नहीं मुझे यह अंतर्विरोध की स्थिति नहीं लगती बल्कि मैं तो स्वयं की ऎसे शिक्षक के तौर पर कल्पना भी नहीं कर सकती जो लेखन रचनात्मक कार्यों में रुचि न रखता हो। अध्यापन कोई एकांगी कार्य नहीं है। अपने अध्यापकीय व्यक्तित्व को, अभिव्यक्ति को लगातार धार देने के लिए यह जरूरी है रचनात्मक या आलोचनात्मक लेखन किया जाए। एक सक्रिय शिक्षक ही जिंदा शिक्षक है। ऎसा महसूस करती हूँ। हाँ, समय को नियोजित करने की दिक्कतें जरूर आती हैं पर लेखन की जिद के कारण यह सामंजस्य भी बैठा लिया जाता है। # निश्चित तौर पर एक रचनात्मक शिक्षक वर्तमान समय से जरूरी कन्टेन्ट उठाकर अपने छात्रों को सही दिशा दे सकता है। क्या आपको लगता है कि, जिस समय में हम जी रहे हैं वहाँ शिक्षक और छात्रों के बीच जरूरी संवाद कम हुआ है, इसी तरह वर्तमान छात्र, शिक्षक को किस भूमिका में देखता है? - हाँ, कुल मिलाकर ही शिक्षा से संवाद गायब हो गया है। शैक्षिक मूल्यों में गिरावट आई है और पठन पाठन की प्रक्रियाओं में बहुत ही यांत्रिकता दिखाई देती है। शिक्षा का व्यावसायीकरण इतनी तेजी से हुआ है कि चाहकर भी अच्छे शिक्षक अच्छे तरीकों से नहीं पढ़ा पा रहे हैं। केवल परीक्षापयोगी तरीकों से पढ़ना-पढ़ाना कारगर समझा जा रहा है। बेहतर नागरिक, विवेकशील व्यक्ति और स्वस्थ मानसिकता का विकास करना अब शिक्षा का लक्ष्य नहीं रह गया है। ऎसे दौर में छात्र भी शिक्षक से यही उम्मीद करते हैं कि अधिक अंक लाने में शिक्षक उनकी सहायता करें। इस व्यावसायीकरण के चलते एक अच्छे शिक्षक की पहचान करने लायक समझ उनमें विकसित नहीं हो पाती है। उनके समक्ष एक दोस्त मार्गदर्शक प्रेरक के रूप में देखे जा सकने वाले शिक्षकों के उदाहरण कम ही होते हैं। इसलिए वे भी अपने शिक्षकों से बहुत अधिक की उम्मीद लेकर नहीं चलते। यह स्थिति निराशाजनक है, पर यही आज के शिक्षाजगत का यथार्थ बनता जा रहा है। # आपने बताया कि आप साहित्य की गहन अध्येता हैं, जिस दौर में आप पढ़ रही थी (एक छात्र के रूप में) तब साहित्य की दिशा वर्तमान साहित्य निश्चित रूप से भिन्न रही होगी... साहित्य के बदलते कलेवर, बदलते कथ्य और शिल्प को आप कितना सकारात्मक मानती हैं? क्या वाकई साहित्य को यथार्थ और आदर्श के मानकों पर चलना चाहिए? वर्तमान युवा पाठकों के सन्दर्भ में आप इसे किस रूप में ग्रहण करती हैं? - निश्चित तौर पर साहित्य के तेवर और कथ्य में बदलाव आया है। साहित्य के आदर्श और यथार्थ के मानकीकरण ध्वस्त हुए हैं। प्रयोगशीलता और परिवर्तन, साहित्य और भाषा दोनों की मूल चेतना में ही रहा है। 90 के बाद जिस गति से तकनीकी और सूचना क्रांति हुई उसका साहित्य पर असर डालना लाजमी था। संवेदना और उसकी अभिव्यक्ति को नए आयाम मिलना, जीवन की बढ़ती हुई जटिलताओं का साहित्य के साथ अंतर्क्रिया करना, भाषा व शैली का नयापन यह सब हम नए साहित्य में पाते हैं। मेरे विचार से साहित्य और समय की अंतर्क्रिया को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। भाषा के प्रवाह व शैलीगत संभावनाओं को तलाशना चाहिए। परम्परा के मोह में पड़कर साहित्य अपने समय के साथ न्याय नहीं कर सकता। विशुद्धतावाद का समर्थन मैं नहीं करती। यूँ भी नए व प्रयोगशील साहित्य का आस्वादन पूर्वधारणाओं से आजाद होने के बाद ही संभव है। युवा पाठक भी साहित्य में अपने समय को तलाशना चाहेगा। उसे क्यों निराश किया जाए। उसके जीवन का प्रतिबिंबन करने वाला साहित्य युगसापेक्ष साहित्य कहला सकता है। भाषा और स्तरीयता को इससे खतरा नहीं है बल्कि यह तो संभावनाओं की तलाश में बहुत दूर तक जाने के समान है और इस प्रक्रिया मॆं श्रेय और प्रेय (प्रिय) दोनों की रचना हो रही है। # नीलिमा जी... साहित्य का एक वृहद् दायरा है... वर्तमान साहित्य में विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों से उत्पन्न खीझ और तनाव, पारम्परिक स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का द्वन्द्व, हाशिए के लोग सब की भागेदारी बढ़ी है... जो जरूरी भी है, इन सबके बीच आप स्त्री मूल्य और स्त्री शक्ति की मनोदशा को कहाँ पाती हैं या इसे अभी भी एक संक्रमण काल ही माना जाय जो विस्तार की प्रक्रिया में है...? - वर्तमान साहित्य में स्त्री और हाशिए की सभी अस्मिताओं का स्वर मुखर हुआ है। इस सभी अस्मिताओं की आपसी टकराहट से पैदा हुई संवेदनाएँ भी नए साहित्य में दिखाई देती हैं। साहित्य में स्त्री पुरुष संबंधों की परम्परागत छवि धूमिल हुई है। स्त्री स्वातन्त्र्य और स्त्री अस्मिता पर केन्द्रित साहित्य प्रमुखता से रचा जा रहा है। स्त्री देह की स्वायत्तता, आर्थिक स्वतंत्रता उसकी बौद्धिक और रूहानी जरूरतों के प्रश्नों को संवेदना का आधार बनाने वाला साहित्य प्रकाशित हो रहा है। अभी स्त्री की यौनिकता जैसे प्रश्नों को उठाने का कम ही साहस दिखाई दे रहा है, शायद इसलिए कि भारतीय संदर्भों में अभी स्त्री के मौलिक अधिकारों की प्राप्ति भी एक दुर्गम लक्ष्य है तो दैहिकता और यौनिकता के सवाल गौण दिखाई देने लगते हैं। हाशिए पर केन्द्रित समस्त साहित्य स्त्री के जीवन संघर्ष और पीड़ा से रू-ब-रू करा रहा है। दलित साहित्य में भी दलित स्त्री अस्मिता का अतिदलित अस्मिताओं के संघर्ष को चित्रित किया जा रहा है। सामाजिक विषमताओं के सबसे निरीह शिकार के रूप में कई स्तरों पर संघर्ष करती स्त्री का बयान है यह साहित्य... इस लिहाज से साहित्य अपनी संवेदना में और गहराई और विस्तार पाने का प्रयास करता नजर आ रहा है # धीरे-धीरे ही सही, पर असहजता पूर्वक पुरुष भी यह स्वीकारते हैं कि पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं को लगभग उन सभी जरुरी आवश्यकताओं या कहें कि जरूरी परिवेश से वंचित रखा था जो उन्हें बेहतरी, ज्ञान और समानता के अवसर दिला सकते थे... आज महिला सशक्त दिखती है, मेरा सवाल इसी "दिखने" से है... क्या वाकई आपको लगता है की उतने बड़े स्वरुप में स्त्री अधिकारों या उनके पैरोकार पुरुषों ने ज़रा भी लचीला रुख अख्तियार किया है... सारे विमर्शों, बहसों की बीच कहीं मात्र यह सिर्फ लगने या दिखने का मामला है या फिर व्यावहारिक जीवन में भी कुछ सहजता आई है? - स्त्री के आजाद दिखने और आजाद होने में बहुत फर्क होता है। तमाम तरह की बंदिशों से, वर्जनाओं से, परम्पराओं की जकड़ से खुद को आजाद महसूस करना एक अलग ही अहसास है जिसे पाना बहुत मुश्किल है। इसलिए मुश्किल है क्योंकि हमारे समाज में स्त्री की जेंडर ट्रेनिंग इतनी मजबूत होती है कि एक स्तर से जयादा आजाद होने में स्त्री भी असहज महसूस करने लगती है। ज्यादातर तो यह आजादी दिखने मात्र की आजादी है। इस दिखने में बहुत सतहीपना है। खुलकर जीने के लिए सुरक्षित, सहज, मुक्त और बराबरी का माहौल पाने के लिए स्त्री को अपनी बहुत सी उर्जा लगानी होती है। पितृसत्तात्मक समाज इसका भरपूर प्रतिरोध करता है। वैसे भी हमारे समाज में स्त्री की गुलामी के जितने स्तर हैं उतनी ही तरह की आजादियाँ भी गढ़ ली गई हैं। किसी स्त्री के लिए दो वक्त का भोजन जुटा पाना ही आजादी है तो दूसरी स्त्री के लिए यौनिकता के दैहिक स्वतंत्रता आजादी है। विकास के अलग-अलग सोपानों वाले समाजों में स्त्री के अधिकारों और आजादी की लड़ाई का मतलब अलग-अलग होने के कारण ही शायद आजादी का असली मायना अभी तक गढ़ा नहीं जा सका है। स्त्री की आजादी के सवालों पर होने वाली सारी बहसें आखिरकार या तो किताबी जंग बनकर रह जाती हैं या फिर कभी कभार किसी आंदोलन की शक्ल ले लेती हैं। लेकिन एक आम स्त्री न बहसों से फायदा पा सकती है न ही आंदोलनों से। उसके लिए व्यावहारिक जीवन में पुरुषों की मुट्ठी में बंद दुनिया में अपने लिए साँस लेने लायक जगह बनाने का मुद्दा ज्यादा जरूरी होता है। मुझे लगता है हमारी शुरूआती शिक्षा में जेंडर ट्रेनिंग के कुछ सबक शामिल किए जाएँ। और पारिवारिक वातावरण बच्चों को आपसी उदारता और तालमेल तथा सम्मान से जीने की ट्रेनिंग लायक माहौल दे सकें तो स्त्री के लिए बेहतर समाज की कल्पना की जा सकती है। दिखने की आजादी तो एक भुलावा है, आजादी जब तक महसूस न की जा सके तब तक उसका होना एक वहम भर ही होता है। स्त्री की अजादी के पैरोकार पुरुषों को भी इस आजादी के लिए अपने भीतर के ट्रेण्ड मर्द से लगातार लड़ना होगा वरना स्त्री की आजादी का मतलब हमेशा से पुरुष का अपने अधिकारों का कुछ हिस्सा खो देना होता है। विमर्श के स्तर पर औरत की आजादी का पैरोकार आदमी निजी जीवन में भी स्वस्थ मन व मंशा से स्त्री की अस्मिता और आजादी का सम्मान करता हो यह कम ही पाया जाता है। # अभी हाल ही में दख़ल प्रकाशन से आपके द्वारा संपादित किताब 'बेदाद ए इश्क रुदाद ए शादी' प्रकाशित हुई है, जिसमें कुछ बागी प्रेमियों की कहानियाँ हैं.. इस अलग कन्टेन्ट की किताब को आप बतौर महिला किस तरह देखती हैं? क्योंकि तमाम वैवाहिक विसंगतियों के बीच पारम्परिक स्त्री-पुरुष एक तरह सेक्रीफाईज कर रहे होते हैं... घिसी-पिटे जुमलों पर जीवन कितना मुश्किल हो जाता है, बावजूद आज भी यही परम्परा है... यह किताब समाज में कोई मानक तय करना चाहती है या परम्परा से टकराव इसका मूल स्वर है? - स्त्री का प्रेम का अधिकार दरअसल स्त्री का स्वयं को पीड़ित करने वाली परम्पराओं से विद्रोह है। प्रेम में पगी स्त्री का विद्रोह अपने जड़ समाज को एक गति में लाने की अचेतन कोशिश होती है। यह किताब प्रेम के उस बागी स्वरूप से पुराने मूल्यों को विस्थापित करने की कोशिश है। समय के साथ समाज में जाति वर्ण और वर्ग के अंतरों के धूमिल पड़ जाने की जरूरत पर बात करती है यह किताब। विवाह के नए मानकों को तय करने की कोशिश में विवाह संस्था की विकृतियों पर सवालिया निशान लगाने का प्रयास है यह। यह अपनी तरह का पहला प्रयोग है जिसमें जिंदा कहानियों को शामिल किया गया है। इस किताब की कहानियाँ स्त्री पुरुष के संबंधों की परम्परागतता के अर्थहीन हो जाने की घोषणा करती हैं। इस तरह हमने प्रेम और बराबरी के मूल्य को स्त्री पुरुष संबंध के मूल आधार के रूप में पहचानने की कोशिश की है।

Sunday, November 01, 2015


करवा के व्रत की प्रचंडता पर कुछ उद्दंडता भरे  नोट्स 

करवाचौथ के व्रत की कथा की प्रचंडता हर सुहागन को डराती है ।
न रखने वाली पत्नी नौकरानी बन जाती है तो घर में काम करने वाली नौकरानी वेकेंसी पैदा होते ही मालिक की पत्नी बन जाती है । साथ ही पति भी अकाल मृत्यु के मुंह में जाने लगता है जिससे एक के स्थान पर दो सुहागिनों का सुहाग उजड़ने की नौबत आ जाती है । ऐसे में ओरीजनल पत्नी को अपना स्थान वापस पाने हेतु इस व्रत को पूरे विधि विधान व शर्तों से रखना होता है । पत्नी की पोस्ट पर बने रहने के लिए मालिक की सलामती जरूरी है । मालिक की सलामती के लिए दूसरी लालायित औरतों से कॉंपीटीशन जरूरी है । इस कॉंपीटीशन में जीतने के लिए ऐसा व्रत ज़रूरी है जिसकी महिमा ही पूरे साल की गारंटी का आत्मविश्वास देने से जुड़ी हो । 
... ईर्ष्या असुरक्षा और ऐसे हीनता बोध से भरी कथा सुनकर जिन सुहागिनों के मन में श्रद्धा और आस्था पैदा होती है उनके प्रति सहानुभूति होती है मुझे ।

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ब्रा खरीदवाने के लिए दूकान पर पत्नी से सटकर अपनी पसंद का डिजाइन चूज़ करवाते हुए दुकानदार का भेजा खा जाने वाले ,
टेलर की दुकान पर पत्नी के ब्लाउज़ के बैक में मोती की झालर न लगाने पर टेलर को झिड़कने वाले , 
अंगुलियों में मुंदरी और गले में दहेज में मिली सोने की चेन पहनने वाले , 
देर रात मस्ती बाहर मारकर लौटे और सीधे बिस्तर में टूट पड़्ने वाले , 
बात बात पर मेरी बीवी मेरी वाइफ कहकर पत्नी को नामहीन कर देने वाले , 
आए दिन पत्नी के हाथ नोट थमाने वाले
और पत्नी के जन्मदिन व त्यौहारों पर उसे नियम से तोहफा पेश करने वाले ,
यारों के बीच रिश्तेदारों में पत्नी के खाने की तारीफ की माला जपने वाले,.......
..ऎसे पति पूरी तरह डिज़र्व करते हैं पत्नियों द्वारा अपने लिए करवा चौथ रखा जाना । ऎसे ही पति सबसे ज्यादा कूद फांद मचाकर पत्नियों को ऎसा कठिन व्रत रखवाने में सपोर्ट करते हैं । इस दिन का इमोश्नल फिज़िकल सपोर्ट पूरे साल की हैपीनेस की गारंटी ।
ऎसे हैप्पी ,कॉंफिडेंट , सेटिस्फाइड ,मर्दाने पतियों को पतित्व को हाइलाइट और् ग्लोरिफाई करने वाले इस त्यौहार की जय हो !!


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तलाक के खूंखार कॉंन्ट्रास्ट के सामने के शादी के बंधन से पैदा हुए सारे दुख , तकलीफें , झगड़े , अनबन , खटपट् कितनी हसीन व मामूली लगने लगती है न । उतना ही टकराते हैं हम एकदूसरे से कि तलाक की नौबत आने से ठीक पहले अपनी हाई स्पीड में बहती हुई ईगो एक्स्प्रेस को ब्रेक लगा सकें । उतना ही ऎंठते हैं जितने उस ऎंठन की एवज में आने वाले संकट हम सह सकें । ज्यादातर तो वाक युद्ध से ही अंदर के सारे अरमान निकाल लेना व अकेले में बकबकाकर बाकी के एंगर - विस्फोट के मुंह पर सेफ्टी वॉल्व लगा लेने में ही भलाई दिखती है । मध्यम वर्गीय हया हमारी शादी को ठीक वहीं बचा लेती है जहां से तलाक या अलगोझे की रपटीली कांटेदार अपमान भरी पगडंडी शुरू होती है । घर का खुशनुमा सच तलाक की बदनुमा इमैजिनेशन के जरिए ही महसूस हो पाता । शादी कर तो बचकाने भी लेते हैं उस शादी को निभाना बचाना मंझे हुओं का खेल है जनाब ।

Saturday, June 06, 2015

मातृदिवस के बहाने बेटियों को पतनशील सीख 

 मातृदिवस के अवसर पर स्त्री को मातृत्व की प्रतिमूर्ति के रूप में महिमामंडित किए जाने के उत्सवपूर्ण माहौल में एक मां होकर भी असहज महसूस कर रही हूं । जब भी स्त्री को अतिरिक्त सम्मान देने के पारम्परिक या इस प्रकार के नए उत्सव मनाए जाते हैं तो न चाहते हुए भी  मेरा ध्यान  उन उत्सवों,  मान्यताओं ,आयोजनों की पृष्ठभूमि में सक्रिय निहितार्थों की ओर चला जाता है । आज  मातृत्व के  ऎसे प्रबल उत्सवीकरण पर स्त्री की स्वतंत्रता और अस्मिता से संबद्ध् यह सवाल मन में उठ रहा है कि  क्यों धरती की हर स्त्री को मां बनने की बाध्यता का बोझ सहना चाहिए..क्यों हर स्त्री को संतानोत्पत्ति को एक पुनीत कर्तव्य मानना चाहिए. ।  मातृत्व जैसी प्राकृतिक स्थिति पर सामाजिक दबावों का सक्रिय होना एक स्त्री के लिए अस्वीकार्य बात होना चाहिए । स्त्री को इस परम्परागतता से मुक्त होने की शुरुआत करनी चाहिए कि   मातृत्व और स्त्रीत्व परस्पर पूरक हैं । ...

 संतानोत्पत्ति के यंत्र  होने से से इतर भी स्त्री का अस्तित्व है इस बात की कल्पना  को ही  भयावह बना दिया गया है |   हर स्त्री अपने लिए सबसे पहले संतानवती होने की कामना करती है ।   घर परिवार और समाज में बच्चों की उपस्थिति के बावजूद प्रत्येक  स्त्री को अपनी कोख को उर्वर सिद्ध  करने के लिए ओढ़ी हुई मातृत्व की इच्छा के वशीभूत हो जाना बहुत सहज व स्वाभाविक बात लगती है । कोई स्त्री स्वयं भी यह मानने के लिए तैयार नहीं होती कि संतानोत्तपत्ति के विचार को लेकर वह दुविधा में है  !  प्राय: स्त्री यह जान ही नहीं पाती  कि संतानोत्पत्ति और उत्तराधिकार के लिए , प्रकृति की अपने प्रति अनुकूलता को सिद्ध करने के लिए , समाज में सम्मान पाने के लिए , व विवाह संस्था में स्वयं को बनाए रखने के लिए वह अक्सर  यह निर्णय स्वेच्छा  से नहीं ले रही होती  । और सच तो यह है कि मातृत्व के निर्णय को वह अपना अधिकार मानती भी नहीं है । विवाह , ससुराल की मांग , सामाजिक दबाव  उसे मातृत्व की ओर धकेलते हैं  ।  मां बनने की शारीरिक योग्यता भर से मां बन जाने की विवशता  स्त्री को अपने अस्तित्व के विरुद्ध ही नहीं मानवाधिकार के विरुद्ध बात भी लगनी चाहिए । 
गुड़िया से घर घर् खेलती बच्चियों को हम बचपन से ही मां होने की ट्रेनिंग देते हैं दरअसल हम अपने सामाजिक संस्कारों को बच्चियों पर सगर्व लादते हैं , मेरी पड़ोसन कहती थी कि आस पास जब भी कोई गाय बछड़ा देती है मैं बेटियों को जरूर दिखाती हूं ताकि वह बचपन से ही मां बनने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो जाए.. ।  मुझे याद है कि सोलह सत्रह साल की उम्र में ही मैं डरने लगी थी कि अब बस कुछेक सालों में मुझे इस अनचाही यातना से दिखावटी खुशी के साथ गुज़रना पड़ेगा ...मुझे मां बनने व बच्चा पालने की प्रक्रिया बहुत बड़ा दबाव लगती थी । उस उम्र में मुझे यह लगा करता था कि पढ़ाई और जीवन में कुछ नया करने की कामना के आड़े यही दबाव सबसे बड़ी अड़चन है । इसी दबाव के चलते मुझे विवाह भी एक बहुत भयावह विचार लगता था । उन दिनों मैंने अपनी एक अध्यापिका को यह कहते सुना कि उसके फौजी पति ने पहली रात उनके तत्काल मां नहीं बनने की इच्छा के बारे में सुनकर यह उत्त दिया कि तब तो तुमको अपने मातापिता के घर से खुद ही परिवार नियोजन के लिए सामान लाना चाहिए था ऎसे कैसे आ गईं । 
कॉलेज में प्रथम वर्ष  की पतली दुबली गर्भवती बच्चियों को देखकर मैं गहरी पीड़ा व आवेश से भर जाती हूं और बाकी बच्चियों को यह सीख देने का मन करता है कि मातृत्व ही एकमात्र तुम्हारी पहचान नहीं है  । मां बनने से पहले इंसान होने का दर्जा तो हासिल जरूर कर लेना मेरी बच्चियों । यह जो शरीर तुम्हें मिला है तुम्हारा ही है । इसे और अपनी कोख को कभी गुलाम मत बने देना । अपने स्त्रीत्व को , अपने मां बनने की काबिलियत सुहागन होने या बहू होने की काबिलियत से कभी मत आंकना । तुम अपने पैरों पर खड़ी होना ताकि तुम अपने गर्भ और उससे पैदा बच्चे को अपनी पूंजी मानकर गुलाम की जिंदगी ,आश्रित की ज़िंदगी जीने के परम्परागत खयाल से नफरत कर सको । तुम इस्मत चुगताई की कहानी पढती हो न ? बस उस कहानी की छुईमुई मत बनना ।  और हां बांझ या निपूती होने की धमकियों में कभी मत आना । तुम बस कोख नहीं हो मेरी प्यारी बच्चियों बहुत कुछ हो । अपने होने की संभावनाओं को खोजो ।  अपनी आजादी को महसूस करो । मातृत्व तो स्त्रीत्व का एक पक्ष भर  ही है और उसे बस  उतना ही मह्त्त्व देना। 
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आज मातृ दिवस पर हर स्त्री को मां बनने के अपने फैसले को अपनी इच्छा ,आवश्यकता , क्षमता ,ऊर्जा व हर्ष के साथ स्वाधिकार की तरह समझना शुरू करना चाहिए! भूमि और सम्पत्ति के वारिस पैदा कर सामंती व्यवस्था को बनाए रखने के लिए यह समाज उतावला है ।  स्त्री के गर्भ को साधन के रूप में देखने वाले भाव की निर्लज्जता को छिपाकर उसे   महिमापूर्ण्और दैवीय सिद्ध करने  के पीछे   तमाम सामंती ताकतें काम करती हैं और मां बनकर स्त्री  समझती हैं कि उसने स्त्रीत्व की पूर्णता का  निहायत ही अनिवार्य मेडल समाज से जीत लिया ! स्त्री को इस प्रपंचपूर्ण परम्परा की गुलामी से मुक्त महसूस करना शुरू करना चाहिए । 

Tuesday, May 12, 2015

क्या बताउं एक अधखिंची हैंडब्रेक ने क्या क्या गुल खिला दिए.... smile emoticon
मेरे हाथ से लगी गाड़ी की हैंडब्रेक लगी न लगी बराबर ही होती है । अक्सर यह बात इसलिए छिपी रह जाती है कि गाड़ी जहां पार्क की वहां की ज़मीन समतल निकली वरना एक दो बार गाड़ी धीमे धीमे बहते हुए ' जीले अपनी ज़िंदगी सिमरन ' वाली अंतर्चेतना से काम लेती पाए गई है और अक्सर किसी भलेमानस के द्वारा पहिए के नीचे लगाए गए पत्थर की बदौलत गाड़ी की और न जाने किस किस की जान बची है ।
कल गाड़ी जहां पार्क की पता नहीं था कि वहां की जमीन ऎसी ढलुवां निकलेगी । और हुआ वही जो हो सकता था । मेरे गाड़ी से उतरते ही अधलगी हैंडब्रेक से तुरंत रिवोल्ट करते हुए गाड़ी आगे को बहते हुए एक स्टॆशनरी दुपहिया को गिराकर शांत हुई । जूस की दूकान की भीड़ के कानों और आंखों को भिडंत के नाद् से उम्मीद जगी कि अब कहासुनी होगी और हमें काटो तो खून नहीं पर । मुझे लगा गाड़ी का मालिक इनमें से न हो बाकी तो संभाल लेंग़े पर उसी पल जूस पीते हुए गाड़ीवाला युवक अवतरित हो ही गया और मुझे लाड भरे शब्द सुनाई दिए " ओहोहोहो मैम कोई बात नहीं " और दिखाई दिया मेरे घबरा गए चेहरे को तसल्ली देता निहारता और गाडियों की गुत्थमगुत्थी को भी छुड़ाता एक शांत और प्यार भारा चेहरा । लगा यकीनन इन जनाब की कल्पना में दोनों गाड़ियां नहीं भिड़ीं बल्कि गाड़ियों के मालिक लतावेष्टित आलिंगन में बंधे हैं । उसकी कल्पना की कल्पना करते हुए मेरे मन ने शायद कहा कि अब जाने भी दीजिए "इतनी भी खूबसूरत नहीं हूं मैं " और उनका धराशायी हो गया बैग उनको थमाते हुए न अपना लजाना छिपा सकी न अपनी घबराहट । नज़रें मिलाई थीं ' आए एम वेरी वेरी सॉरी ' कहने के लिए पर जनाब की आंखों में बिल्कुल अनेक्स्पेक्टिड सा जवाब तैर रहा था " इट्स माय प्लैज़र ' । मैंने पूछा कहीं लगी तो नहीं तो जवाब में बस चमकती हुई आंखें देखीं और धड़कता हुआ दिल ही सुनाई दिया कि 'लगी तो ज़रूर है ' । दिल तो मेरा भी धड़क रहा था कि जाने आज क्या क्या होता होता रह गया पर छिपाने का हुनर मेरे पास उसके मुकाबले ज़्यादा था ।
घर जाकर बढ़ी हुई धड़कनों की कहानी कहते ही यही सुनने को मिलेगा कि' तुम भी न कितनी केयरलेस हो यार चलो अब एक सिपलार टेन ले लो वरना हांफती फिरोगी ' । पर मैं कहूंगी कि ' दिल का तेजी से धड़कना हर बार किसी बीमारी का ही नतीजा हो ज़रूरी नहीं जानू ' । और ज़रूर कहूंगी कि ' आप जो इतनी बेरहमी से कसी हुई हेंडब्रेक लगा देते हो कि मुझे अक्सर बहुत जद्दोजहद करनी पड़ती है और आखिरकार बगल से गुजरते किसी भलेमानस को बुलवाकर नीचे करवानी पड़ती है ' वगैरह वगैरह ... । ...खैर घर जाकर क्या बताना है क्या नहीं बताना है कैसे बताना है यह तो घर पहुंचने पर ही डिसाइड होगा रास्ते भर् तो दिल की चहक को सुन लूं ।

Wednesday, April 08, 2015


लाखों प्रकाशवर्ष दूर टिमटिमाते तारे 
इन काले चमकदार कैमरों में
दर्ज हो रहा है परत दर परत
हमारी बेशर्म नस्लों की कारगुजारियों का गंदला इतिहास
ये सफेद काली आंखें 
कोई सवाल नहीं पूछ्ती
कोई शिकायत भी नहीं करती
किसी को तलाश भी नहीं करतीं
ये सिर्फ देखती हैं चुपचाप
और फिर भेदती हैं अंदर तक हमारी जमी जमाई जिंदगियों के सुकून को
ये आंखें तमाम अनाथ सीरियाई बच्चों की आंखों से मेल खाती हैं
पेशावरी बच्चों की भून दी गई आंखें भी तो ऎसी ही रही होंगी
क्या कालाहांडी के अकाल से मरते बच्चों की आंखों से कोई अलग हैं ये आंखें
इन आंखों से असर से कैसे बचूंगी मैं
इनकी धार के चिर गए अपने कलेजे को कैसे सियूंगी मैं
बचपन को निगल जाने को बेताब जमाने के आगे
सरेंडर से पहले की फड़फड़ाहट से भरे गोल गोल चक्कर काटते पंछी जैसी
या फिर
अंधेरों में यात्रा करते करते अंगिनत शापित आकाशीय पिंडों की तरह
किसी बिग बैंग के इंतजार में किस पृथ्वी की परिक्रमा करती हैं ये आंखें
मुझे इन आंखों से डर लगता है
मुझे उस विस्फोट की कल्पित आवाजों से डर लगता है
मुझे आकाश में टूट्कर बेआवाज़ बिखर रहे तारों की आखिरी चमक से डर लगता है
मुझे कई सौ प्रकाश वर्ष पहले मर चुके तारों के हाहाकार से डर लगता है
देखो हमारे सिर पर मर चुके अनंत अनंत तारे कैसे टिमटिमा रहे हैं
मुझे इस भ्रम भरी दिपदिपाहट से डर लगता है
मुझे नींद में भी इन आंखों से डर लगता है

Thursday, March 12, 2015





एक जननेता के मंचीय स्त्री  विमर्श की दिक्कतें 

अरविंद केजरीवाल का महिला दिवस वाला संदेश असावधानीपूर्ण शब्द चयन के कारण  स्त्री विमर्श करने वालों के हत्थे चढ़ गया । स्त्री की  सहनशीलता के लिए चट्टानी  ताकत और उफ्फ तक न करने की बात से और अपने परिवार की  दो स्त्रियों को अपने होने का क्रैडिट देकर वे दरअसल अपनी  स्त्री के प्रति अपनी संवेदनशीलता का परिचय देना चाहते थे । अपने संदेश के उत्तरार्ध में उन्होंने अपनी  बात को संभालने की कोशिश भी  की  । 
यदि मुझे भी उनके इस वक्तव्य की बखिया उधेड़नी  हो तो उनके इन्हीं शब्दों का आसरा लेकर मैं भी  उन्हें स्त्री विरोधी  सिद्ध कर सकती  हूं । लेकिन  भाषा के अध्येता के नाते , मंशा और शब्दों के बीच की  फांक  को आसानी  से पकड़ सकती  हूं  ।  इसी  वजह से  मैं उनपर यह आरोप नहीं लगा सकती । अरविंद पर्याप्त विद्वत्तापूर्ण  भाषा बोल सकते होंगे । पर लोक सम्मत भाषा  बोलने की  उनकी  जिद  के पीछे  उनकी  शायद  कई  पूर्वधारणाएं काम करती  हैं । अबतक भी  उन्होंने इसी  अतिसाधारण भाषा के बल पर अपने लिए बहुत बड़ा जन समर्थन जुटाया ही  है । पर कभी  कभी  बेहद संवेदनशील मसलो और विमर्शों पर बोलते हुए हमें भाषा को  कुछ हद तक विद्वत्तापूर्ण भी बना लेना होता है । स्त्री  विमर्श जैसे मसले पर किसी   बोलना वह भी एक पुरुष जननेता के लिए  चुनौतीपूर्ण काम है । वैसे ही जैसे दलित मुद्दों पर किसी  सवर्ण को संवेदनशीलता से बात करनी  हो तो भी  वह किसी न किसी शब्द या वाक्यव्यंजना के आधार पर बहुत आसानी  से असंवेदनशील  घोषित किया जा सकता है । 
अरविंद ने जिस प्राकृतिक सहनशीलता की  बात की  वह दरअसल समाजीकरण  के जरिए जेंडर ट्रेनिंग  के जरिए स्त्री  में जबरन आरोपित गुणावली  का हिस्सा मात्र है ।  स्त्री  को अपने हिस्से आई  शोहरत और कामयाबी  का क्रेडिट देकर वे मोदी के स्थापित मूल्यों का विस्थापित करना चाह रहे होंगे  ।  आज के समय में स्त्री और पुरुष की बराबर भागीदारी  से समाज आगे बढ़ रहा है पर परिवार को दोनों में से किसी  एक व्यक्ति की  उर्जा चाहिए होती  है । यही सवाल बस स्थापित स्त्रियों से भी पूछा  जाना बनता है कि क्योंकि उनकी  कामयाबी और शोहरत के पीछे भी  पति या कामवाली  बाई या अन्य किसी  सहायक  का हाथ जरूर होता है ।  स्त्री जब अपने पति या परिवार के पुरुष को क्रेडिट दे तो वह हमें पितृसत्ता  से प्रभावित परतंत्र स्त्री  लगती  है । पुरुष जब अपनी  पत्नी  या परिवार की स्त्री  को क्रेडिट दे तो हम उसे उत्पीडक और  अति महत्वाकांशी  मान लेते हैं । इसलिए विमर्शों  को भी अपनी  प्रकृति में उदार होना होता है । आलोचनाओं  की  मंशा से  भी  मिनिमम सदाशयता की  उम्मीद तो की  ही  जानी  चाहिए । बेरहम कुतर्कों , भाषिक समझ की उदारता  और सदाशयता के अभाव में किया गया  स्त्री  विमर्श  हमारे लिए किसी  काम का नहीं  हो सकता ।  एक आम स्त्री  के लिए उनका यह वक्तव्य सम्मान और बराबरी के अर्थ  देने वाला रहा होगा पर किसी  स्त्री  विमर्शकार के लिए इसका सकारात्मक अर्थ होना  विमर्शकार की उदार समझ के स्तर पर ही निर्भर होकर रह जाएगा । वैसे भी जननेता मंच से या तो जनसमर्थन जुटा सकता है या फिर बेहतर विमर्शों को अंजाम दे सकता है । दोनों को एक साथ साध्य बनाने लायक भाषिक और वैचारिक योग्यता फिलवक्त किसी राजनेता में नहीं  दिखती ।

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Thursday, February 12, 2015


  दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 ; डायरी से 


आइ एडमिट कि मुझमें बदलाव और विरोध की तड़प है पर हिम्मत नहीं । आई एप्रिशिऎट कि उसमें बदलाव और विरोध की तड़प के साथ हिम्मत भी है । इसलिए अपनी ताकत मैं उसमें देखती हूं । बस चेक रखती हूं खुद पर कि जिंदगी में कभी बौद्धिकता के बोझ से झुका नौटंकीबाज बर्जुआ न बन जाउं । 
ज्ञान के लोड से टूटी कमर वाले बौद्धिक बुर्जुआ की दिक्कत है कि बहुत अल्ट्रा च्यूज़ी , ओवर सोफेस्टिकेटिड , एक्स्ट्रा क्रिटिकल , एनालिटिकल होकर क्रांति के वक्त खुद को सेव कर जाता है । उसके लिए क्रांति करने आसमान से देवता आएगा न जब वो हरकत में आएंग़ें । भाई लोगों आजकल भगवान ने अवतार लेना बंद कर दिया है इसलिए आप चादर तानकर सोवो या फिर सिगरेट के छ्ल्ले उड़ाते हुए अपनी आने वाली किताब पर और क्रांति के लूपहोल्स पर गप्प चेपो । वी लेट यू रेस्ट इन पीस ।
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वुडलैंड का सेल में खरीदा हुआ मेरा नया सैंडिल पच्च से ढेर सारे पाखाने में सन गया । जिस दरवाजे को हमने खटखटाया था उसमें से निकली महिला ने सहानूभूति जताते हुए कहा कि "यहां तो जी जानवर वगैरह का मल मूत्र और सीवरों से निकली हुई गंदगी ऎसे ही बिखरी रहती हैं , हम तो इसमें जीना जानते हैं ,आप जरा देखदाख के चलो बिटिया "। पता नहीं वह कौन सी चेतना थी भीतर कि न हीं कैसे मुंह से न छी निकला न ही आउच्छ ।
चुनाव प्रचार के लिए निकली हुए हमारी टोली जिसमें विश्वविद्यालय के कई शिक्षक , वकील , डॉक्टर वक रोजाना शहर से इसी तरह रूबरू हो रहे हैं । ऎसे कई नए लोगों से रोज परिचित होने का मौका मिलता है जो बस अपनी अंदर की आवाज़ के पीछे खिंचे चले आए हैं । हम घूमते हैं एक एक खुले दरवाजे को खटखटाते हुए । ....तंग बस्तियां बेहद तंग गलियां , तमाम तरह की गंदगी , ढेर सारी मुसीबतों के पहाड । किसी बुजुर्ग महिला या पुरुष से बात करने लगो तो गले लगाने से लेकर सरकारों को कोसने और अपनी किस्मत पर रोने तक सब कुछ गवाह बनना ; और अगर युवा वोटर है तो उसकी सलाहें और जोश और गुस्से को उम्मीद में बदलते देखना । आप तो जी बेफिक्र रहो . और किसे वोट देंगे , सब चोरों ने मिलकर देश को लूटा है अबतक , हां बेटा जी आप कह रहे हो तो जरूर वोट करेंगे ।
गलियों में घूमती एक टीम रोजाना हमसे टकरा जाती है रेवाड़ी से आई इस टीम में योगेन्द्र यादव जी की बहन अपने कई डॉक्टर्स , पेशेवर वकील और मीडिया व इकोनोमिक्स के विद्वान के साथ दिखती हैं । शक्ल मिलती लगी तो पूछ्ने पर पता चला कि वे तो यादव जी की बहन हैं ...।
सुविधा सम्पन्न , विकसित और जागरूक वर्ग का बदहाल और समाज के सताए हुए लोगों के साथ संवाद होता देखने भर से रोज रोज मुझमें नई उम्मीद जागती है । कई दिनों से मुझपर जम रही काई जैसे साफ हो रही हो । जंग खाए दिमाग की रिपेयरिंग हो रही हो मानो । फ्लसफों और निचुड़ी हुई संवेदनाओं से थका हारा क्रिऎटिव पीस उपजाने की शर्मिंदगी जरा जरा कम सी होती जाती है । आवाज बुलंद कर नारे लगाते हुए सीवर की बगल में पड़े शहर के मवाद से नफरत कम होती है क्योंकि मैं यह महसूस कर पा रही होती हूं कि ये वही मवाद और मल ही तो है जिसे हम सुविधाभोगियों ने इधर ट्रांस्फर कर दिया है ।
मुझ सफाई पसंद , नाजुक मिज़ाज को जमीन पर चलने के लिए मजबूर कर देने वाली इस उम्मीद को सलाम ।
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इस ऐतिहासिक जीत का अर्थ यही है कि लोकतंत्र में बडे से बडे तानाशाह को परास्त करने की ताकत होती है । लोक की शक्ति को किसी भी धन बल या विज्ञापन से जीतने की कोशिश करने का इतना तीखा प्रतिरोध कर जनता ने लोकतत्र की शक्ति प्रदर्शन का नमूना भर पेश किया है अभी तो ।
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अपने पैंरों में पड़े एक एक छाले पर प्यार आ रहा है उन सारी आंखों पर प्यार आ रहा है जो पांच साल कहने पर जवाब में केजरीवाल कहकर लाड बरसाती मिलीं . लपककर टोपी मांग लेने वाले मेहनतकश हाथों पर प्यार आ रहा है . मतलब आप सबके प्यार पर प्यार आ रहा है .
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अरविंद तो केवल एक प्रतीक भर हैं । आज वह हैं कल कोई और होगा । परिवर्तनविरोधी ताकतों का विरोध होते रहना चाहिए बस । इसका अगुवा संयोग से अरविंद हैं या हम उनमे यह क्षमता देख लेते हैं । निर्भय के कमेंट का केवल यही मतलब है शायद । या होना चाहिए । बाकी हम सब मित्र हैं और दिल से अच्छे हैं 
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यानि यह कि साहित्य की ही तरह राजनीति की भी साधनावस्था ही उद्वेलित करती है मुझे..राजनीति की सिद्दवस्था नहीं । ..
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Friday, January 09, 2015

अर्चना  तुम  तो अपराजिता  थीं ..

पिछले बारह सालों से 31 दिसम्बर की रात और 1 जनवरी की सुबह मेरे भीतर गहरे अवसाद को पैदा करती आ रही हैं । वह 1 जनवरी 2002 की वह स्याह सुबह । दिल्ली यूनिवर्सिटी की रीडस लाइन के सरकारी मकान के पंखे से झूलती तुम्हारी देह । जब गई रात पूरा शहर और तुम्हारा सूरज अपने दोस्तों के साथ जश्न में डूबा था तुम अपने दर्द की गहरी नदी में डूब रही थीं । एकदम अकेली ।
और बार बार यह सब एक बदशकुन सपना लग रहा था । पर ये सच था कि सपनीली आंखों वाली ,मंद मंद मुस्काने वाली खामोश सी लड़की अर्चना अब अपने परास्त मन की कहानी कहने से बेहतर आइ क्विट की शैली में हमें छोड़कर जा चुकी थी । दुनिया को नहीं पता था कि युनिवर्सिटी की आर्ट्स लाइब्रेरी के आहातों में एक दलित लड़के सूरज् से एक ब्राहमण लड़की का प्रेम गुपचुप पनप रहा था । पर तुम्हारे जानने वाले जानते थे कि यह चुपचाप सी दिखने वाली लड़की कितना बड़ा कदम उठाने जा रही है । परम्परा से , जाति से , परिवार से , तुम्हारे शांत विद्रोह के हम चंद गवाह आज तुम्हारे बहुत बड़े गुनहगार हैं ।
जो तुम्हारे लिए प्रेम था वह उस लड़के के लिए उपलब्धि थी । जिसे तुम भावना समझती रही वह उस लड़के के लिए गणित था । जिसे तुम विद्रोह और क्रांति समझ रही थी वह उस लड़के के लिए सदियों पुरानी कुंठा की जीत से ज्यादा कुछ नहीं था ।
ओह ! तुमने कभी भी तो नहीं बताया ।
तुम तो हर बार मिलती और बस धीमे से मुस्कुरा जाती थीं बस ।
हम दोस्त तुम्हें डोली में बैठाकर लौट गए थे कि चलो आज समाज की दूरियों को कुछ तो कम कर पाए हम । हम जिस सपनों भरी दुनिया में जी रहे थे वहां बस प्यार जायज था बाकी के सब बंधन नाजायज , बेमानी और फालतू थे ।
काश तुम परम्परा और सामती दीवारों में घुटते प्रेम के बारे में कुछ तो बताती हमें । शायद तुम्हें अंत तक कोई उम्मीद रही होगी । शायद तुम्हें अंत तक बंजर में ओई कोंपल फूटने की आस बंधी होगी । शायद तुम हर दिन मौत को कायरता और हार मानकर दुरदुराती रही होंगी ।
जिस जमाने से तुम नहीं डरी थीं वह जमाना तुम्हारा उपहास बनाने के लिए तैयार बैठा था कहीं तुम्हें यह तो नहीं लगा अर्चना ? ........काश कि तुम कभी तो कुछ कहतीं ।
अब बस घिसटते हुए कोर्ट केस की फाइलों में दफ्न कुछ पन्ने बचे हैं पास हमारे ।
फोटोस्टेट पन्ने ।
तुम्हारी किताबों और एम .ए के नोट्स के हाशिए पर तुम्हारे लिखे वाक्य ।
इन शब्दों में कैद तुम्हारी तकलीफ ,तुम्हारी अंत तक जूझने की कहानी ।
हमारे लिए ये सब कथाएं बोतल में बंद जिन्न की तरह हैं । इनके कैद से छूटते ही न मालूम कितने भयावह सवाल आसपास् बिखर जाएंगे ।
............. नए साल की जो सुबह दुनिया के लिए नई उम्मीदें और सपने लाने वाली होती है वह तुम्हारे लिए अंधियारी ,डारावनी और आखिरी -अकेली रात बनकर क्यों रह गई।
एक अंतहीन रात ।
12 साल से किसी नए साल की नई सुबह ने यह जवाब नहीं दिया ! मैं शर्मिंदा हूं अर्चना ।
किसी नई सुबह की किसी पहली किरण के मिल जाने के इंतजार में.................. ।

Tuesday, December 30, 2014

एक बुझे  हुए  वक्त  में  कविता 

जैसे किसी माटी सने बच्चे को छूकर
दरवाजे से आ लगी हो हवा
जैसे देता हो दस्तक कोई लगातार
खुले दरवाज़े की चौखट पर
जैसे आंगन में मुरझाए पौधों को 
सींचती मां का उड़ता हो आंचल
जैसे कारा की मोरी से झांकता
नीला टुकड़ा देता हो दिलासे
जैसे अंधेरे की उदासी को चीरता
गुनगुनाता हो कोई आदिम राग
ऎसे ही बुझे हुए वक्त में
कौंध जाती है कविता कोई
जब - जब जिंदगी की बेकाबू चाल
देती है पटखनी और जब कभी
हारती सी लगने लगती हैं सांसे
मेरी घबराई सी चेतना
तलाशती है कविता को
और कविता में तुमको

Monday, December 29, 2014


कोहरे के कफन में लिपटी  लाशें 
ये लाशें किनकी हैं
कोहरे की सुफेद चादर में
लिपटे हुए इन शवों का
कौन है मालिक कहां है दावेदार
भूख जिनसे हो गई पराजित
ठंड जीत गई उनसे
पास में जलाकर लकडियां चार
चिथड़े कपड़े में लिपटे वे शरीर
हर रात एक जंग झेल जाते जो
गरीबी और सर्द रात के बीच
गरीबी और किस्मत बीच
भूख और ठिठुरन में से
कौन ज्यादा निर्मम है ?
हर सुबह ज़िंदा पाकर खुद को
यही सोचते होंगे कि
जिंदगी कितनी बेशरम है
ताउम्र ज़माने की मार
मौसम के बदमिजाज नखरे
खुदगर्ज शहर के लफड़े
झेल गया ये शरीर आज जो
अकड़ी हुई लावारिस लाश है
अपने गर्म लहू के ताप से
उम्र दर उम्र शहर को सेंकने वाले
ये नहीं तो कोई और सही
बहुतेरे मिलेंगे हाड- मांस के पुतले
चमचमाते शहर को तो बस चाहिए गर्मी
ठठरियों से सोखी हुई गर्मी
लाशें किसकी हैं क्या अंतर पड़्ता है
शहर का तो दावा है गर्मी पर

Sunday, December 14, 2014

शब्दों के  यायावर हम

कभी लगता है कि
शब्द सोहबत हैं
कभी महसूस होती है
इनके व्यामोह की तंग गिरफ्त
कभी दिखाई देता है 
इनसे रचा जाता व्यूह

कभी ये लगते हैं वहम जैसे
कभी इनके आदर्शों के
ताने बाने में जितने उलझती हूं
उतनी ही तीखी वंचना
छल जाती है
भर जाती है विषाद 

शापित अर्थों के साये
रात दिन पीछा करते हैं
पुरानी ऊन की उधेड़ बुन से
अंगुलियों की सिकाई करते शब्द
इनकी ढाल में छिपकर हारी हुई
हर लड़ाई खोलती है तिलिस्म
और हर शब्द बन जाता है
विस्मृत इतिहास की पीड़ा सा

शब्द की खोह में
एक अनवरत अंतर्यात्रा
और इन सूनी यात्राओं में
नहीं मिलता साथी कोई
इन अंध यात्राओं के
अकेले यायावर हम .........

Sunday, December 07, 2014

आपकी पैट्रीआर्की को खतरा बढ़ रहा है भाई जी

मैडम अपने पति और ससुराल से परेशान रहती हैं ।
अरे फ्रस्टेटिड लेडी है।
झगड़ालू नेचर है शुरू से इसका तो हम तो कबसे जानते हैं ।
ब्यूटी का घमंड है इसको ।
किसी के भड़काने पर चल रही है वरना इसका न इतना दिमाग है न इतनी हिम्मत ।
शक्की और डिप्रेस्ड है पर्सनल लाइफ में ।
खुद कइयों पे लाइन मारती है ! तब कुछ नहीं होता ।
औरत को जी औरत की तरह ही रहना चाहिए सोफेस्टिकेटिड बनके । चालू औरतें हमें नहीं पसंद आतीं ।
अजी ज़रा कुछ कह क्या दिया इसने तो बवाल ही मचा दिया कौन सा इसके ब्लाउज़ में हाथ धुसेड़ा था ।
अजी वैसे तो बड़ा रस लेती है पर इस बार ऊपर चढ़्ने के लिए बेचारे को फंसा रही है
अजी हमें पता है कैसे इसकी नौकरी लगी कॉम्प्रोमाइज़ कर कर के आज सती सावित्री बन रही है ।
यार इससे बचके रहना किसी पर भी केस बा सकती है ये तो \
सीधे सीधे नौकरी करे सबको खुश रखे अपना घर जाए पर इसे तो अड़ंगेबाजी करनी है न ।
यार मैं बताउं सब सेक्सुअली डिप्राइव्ड औरतें ऎसी ही होती हैं । ज्यादा प्राब्लम है तो घर क्यों नहीं बैठती भई ?
अपने कामकाजी जीवन में एक बार कोई स्त्री अपने खिलाफ किए गए हैरास्मेंट पर आवाज़ उठा भर दे । मैं अपने अनुभव से कह रही हूं उस स्त्री को यही और ऎसा ही बहुत कुछ सुनने को मिलेगा । वर्क प्लेस पर स्त्री - उत्पीड़न का भी अपना एक समाजशास्त्र है । मर्यादामर्दोत्तम सब जगह समान रूप से पाए जाते हैं और सब जगह समान रूप से ही विरोध के स्वरों को दबाने के लिए तत्पर रहते हैं ।
लड़के रेप जैसा जधन्य अपराध कर दें तब भी आप कहते हैं कि लड़के हैं गलती हो ही जाती है और लड़कियां अपने बचाव में मारपीट भी करें तो आप उनकी संघर्ष के पीछे महान कारण की खोज करते हैं और कारण आपको कनविंस होने लायक न लगे तो आप अपनी अपनी अदालतों में लड़कियों के खिलाफ फतवे जारी करने बैठ जाते हैं । दोगले हैं आप । डरपोक हैं आप । लड़कों के लक्षण अख्तियार करती लड़कियों से आपको अपने सपनों तक मॆं डर लगता है । आपको तो लड़की के बलात्कार के कारण भी लड़की के शरीर में ही खोजने की आदत हो गई है । और अगर लड़कियां हिंसा कर दें लड़कों के साथ तो भी कारण उन लड़्कियों के भीतर ही दिखाते हैं आप । यारों पिट लेने दो छोकरों को भी थोड़ा बहुत । सारा सोशल जस्टिस इसी हाथापाई पर एप्लाई मत कर डालो । आवाज उठाती लड़कियां आपको क्यों भाएंगी । ये उनके बढ़ते हौसलों का सबूत है जिससे आपके समाज की बुनियादी सेटिंग को भरपूर खतरा है । सारा समाज जब एक तरफ हो जाता है असल लड़ाई तो तब शुरु होती है । चुप चाप प्रताड़ित होती रहतीं वे तो सहानुभूति पातीं बलात्कृत हो जातीं तो टुच्चा सा केस बनता और लड़के ऎड़ी चोटी का जोर लगाके , सोशल प्रेशर एप्लाई करके बरी हो लेते , मारी जातीं तो आप इंडिया गेट पर दिये लगाते , खबर बनाते , कैंदिल मार्च करते । आपकी जरा दिनों की हाय हाय से मृतक लड़कियों की आत्मा को शांति मिल जाती । और बाकी की लड़कियां कोई न कोई सबक पातीं और अपने लिए इसी सड़ी गली सोसाएटी में कोई कोना तलाश कर चुप हो लेतीं । 

संभाल लीजिए ! आपकी पैट्रीआर्की को खतरा बढ़ रहा है भाई जी !!

Wednesday, October 01, 2014


पतनशील पत्नियों के नोट्स
नीलिमा चौहान

अब मैं सुधरने की सोच रही हूं ! घर ,परिवार ,पति ,बच्चे बस इन्हीं के लिए जीना ! अचार मुरब्बे डालने और रायते के लिए बूंदी तक खुद घर में तलने वाली ,पति के आगे जवाबतलब न करने वाली ममतामयी मां और आज्ञाकारी सेविका बनकर सबका दिल जीत लेने वाली औरत बनूंगी ! ईश्वर ने साफ - साफ तौर पर अलग -अलग भूमिकाएं देकर हमें धरती पर भेजा है हम नाहक ही एक दूसरे की फील्ड में टांग अडाते रहते हैं ! अपनी बाउंडरी डिफाइन जितनी महीनता से करूंगी उतना ही पति को अपने कर्तव्यों व जिम्मेदारियों को निभाने के लिए मजबूर कर पाउंगी ! मुझे तरस आता है उन औरतों पर जो बेफिजू़ल एक बटन पति की कमीज़ पर न टांकने या थाली देर से परोसने पर पति से लताड़ी जाती हैं ! उनपर भी रहम खाने का मन करता है जो औरतें आदमियों की फील्ड में पैर जमाने की जद्दोजहद में न घर की रहती हैं न घाट की ! जितना पति पर निर्भर रहोगी व पति को खुद पर निर्भर रखोगी उतना ही तुम्हारी शादी व प्यार प्रगाढ होगा ! हम सुधर जाएं बस पति तो खुद ब खुद सुधर जाएगा !
अब तो आप सब की ही तरह इस नारीवादी औरतवादी नारेबाजी - बहसबाजी से मैं भी तंग आ चुकी हूं ! सब सही कह रहे हैं ये इंकलाबी ज़ज़्बा हम सब औरतों के खाली दिमागों और नाकाबिलिय़त का धमाका भर है बस ! हम बेकार में दुखियारी बनी फिर रही हैं ! सब कुछ कितना अच्छा, और मिला मिलाया है ! पति घर बच्चे ! हां थोडी दिक्कत हो तो पति की कमाई से मेड भर रख लें तो सारी कमियां दूर हो जाएंगी ! फिर हम सब सुखी सुहागिनें अपने अपने सुखों पर नाज़ कर सकेगीं ! सब रगडे झगडे हमारी गलतफहमियों या ऎडजस्टमेंट की आदत न होने से होते हैं ! बस कभी - कभी एक सवाल मन में उठता है वो यह कि - हम कितने सुखी हैं ये खुशफहमी तभी तक क्यों बनी रहती है जब तक हम सारी घरेलू जिम्मेदारियां हंसते हंसते उठाती रहतीं हैं ! काश जब हम पति के मोजे ,बनियान जगह पर टाइम पर न रखें और सुबह की चाय देरी से दें और फिर भी घर की खुशहाली बनी रहे साथ ही हमारे बारे में नाकाबिल औरत का फतवा न जारी किया जाए ! आस -पास की बराबरी -बराबरी चिल्लाने वाली औरतों का उलझाउ -पकाउ फेमिनिज़्म आपके दाम्पत्य जीवन के रिश्ते की पैरवी में नहीं आएगा तब और आप सोचेगी हाय एक बटन टांक ही देती तो क्या हर्ज हो जाता ??हम पत्नियों को अपना ध्यान गोल रोटियां बनाने ,रसोई के रास्ते पति का दिल जीतने और घर की स्वामिनी कहलाने के योग्य बनने में लगाना चाहिए ताकि हम पति को यह अहसास दिला सकें कि उनका कर्म है ज्यादा कमाना तथा पत्नी को घर व समाज में एक दर्जा दिलाना ! सोचिए अगर पति कमाकर लाने से इंकार कर दे तो सारा दिन बाहर खटता है वह भी तो खुद को मजदूर मान सकता है उसे घर मॆं चैन की दो वक्त की रोटी भी न मिले तो क्यों वह घर लौट के आना चाहे? निहायत ही बुरा ज़माना आ गया है घरों की शांति खत्म हुए चली जा रही है ! हर बात में दमन ,शोषण देखने की आदत पड़ चुकी है कुछ औरतों को ! ये विवाह नाम का रिश्‍ता बहुत समझदार समझौतों से चलता है जो हम पत्नियों को ही करने आने चाहिए ताकि अपने द्वारा बनाए गए सलीकेदार घर में सुव्यवस्था से रहने वाले पति को इस सुख की लत डाल सकें ! ये लत ही उसकी मजबूरी बन जाए यह हमारी स्त्री सुलभ सदिच्छा होनी चाहिए ! बाकी पुरुष की सत्ता को चुनौती की जरूरत ही नहीं पडेगी जब हम विरोध का मौका ही नहीं आने देंगी ! यूं भी पति पत्नी के संबध सब जन्नत में पहले से तय होते हैं उनको निभाने की जिद होनी चाहिए बस !
इसलिए मेरा तो मानना है कि ये बस बददिमागी फितूर है, बदजमानाई हवा है और निखालिस बदजुबानी है कि औरतों की जिंदगी में कोई जुल्‍म पेशतर है। सच बस इतना है कि गोल रोटियॉं, मुरब्‍बे पापड. तक बनाने में नाकाबिल औरतों की काहिली के चलते शादी के इस खूबसूरत रिश्‍ते पर संकट आन पड़ा है जिसे थोड़ी सी तैयारी और मजबूत इरादे से निपटा जा सकता है।  अब मैंने बस इसी इरादे को पूरा करने का हलफ उठाया है। ऊपरवाला मुझे मेरे इरादे में सफल करे ।  आमीन । 

Tuesday, September 30, 2014

अभी साथ था अब खिलाफ है 
वक्त का भी आदमी सा हाल है

आईना घर में रहा बरसों मगर
आज उसकी आंख में क्यू्ं सवाल है

खत में लिखा आएंगे अबके बरस
धीमी कर दी वक्त ने क्यूं चाल है

मुद्ओं की भीड़ में क्यों खो गया
मुददई को बस रह गया मलाल है

आदमी को आदमी का वास्ता
आदमी ही आदमी की ढाल है



Friday, September 26, 2014

स्त्री  यौनिकता  के आईने  में



कौन जानता था कि शेफाली जरीवाला के 'कांटा लगा' वाले गाने से जिस स्त्री सेक्सुएलिटी का आगाज हुआ वह अंतत: पोर्न अभिनेत्री सनी लियोन के स्टारत्व के खुले उत्सवीकरण तक जा पहुंचेगी और इतनी खुली यौनिक अभिव्यक्ति को सहर्ष स्वीकारने वाले हमारे समाज में स्त्री की सेक्सुएलिटी एक हश हश टॉपिक ही रहेगी !दरअसल हमारे समाज में स्त्री स्वातंत्रय और स्त्री की सेक्सुएलिटी को एकदम दो अलग बातें मान लिया गया है ! पुरुष की सेक्सुएलिटी हमारे यहां हमेशा से मान्य अवधारणा रही है ! चूंकि पुरुष सत्तात्मक समाज है इसलिए स्त्री की सेक्सुएलिटी को सिरे से खारिज करने का भी अधिकार पुरुषों पास है और और अगर उसे पुरुष शासित समाज मान्यता देता भी है तो उसको अपने तरीके से अपने ही लिए एप्रोप्रिएट कर लेता है ! 

जिस दैहिक पवित्रता के कोकून में स्त्री को बांधा गया है वह पुरुष शासित समाज की ही तो साजिशा है ! यह पूरी साजिश एक ओर पुरुष को खुली यौनिक आजादी देती है तो दूसरी ओर स्त्री को मर्यादा और नैतिकता के बंधनों में बांधकर हमारे समाज के ढांचे का संतुलन कायम रखती है ! स्त्री दुहरे अन्याय का शिकार है- पहला अन्याय प्राकृतिक है तो दूसरा मानव निर्मित ! गर्भ और योनि की ढोने वाली स्त्री पुरुष पर निर्भर स्त्री कैसे कैसे और किन किन तरीकों से और किस किस से हक के लिए लड़े ! कोई भी सामाजिक संरचना उसके फेवर में नहीं है क्योंकि सभी संरचनाओं पर पुरुष काबिज है ! उसके अस्तित्व की लड़ाई तो अभी बहुत बेसिक और मानवीय हकों के लिए है सेक्सुअल आइसेंटिटी और उसको एक्स्प्रेस करने की लड़ाई तो उसकी कल्पना तक में भी नहीं आई है ! अपनी देह और उसकी आजादी की लड़ाई के जोखिम उठाने के लिए पहले इसकी जरूरत और इसकी रियलाइजेशन तो आए ! हमारा स्त्री-समाज तो इस नजर् से अभी बहुत पुरातन है ! स्त्री के सेक्सुअल सेल्फ की पाश्चात्य अवधारणा अभी तो आंदोलनों के जरिए वहां भी निर्मिति के दौर में ही है हमारा देश तो अभी अक्षत योनि को कुंवारी देवी बनाकर पूजने में लगा है ! एसे में शेफाली जरीवाला अपनी कमर में पोर्न पत्रिका खोंसे ब्वाय प्रेंड के साथ डेटिंग करती दिखती है तो इससे हमारे पुरुष समाज का आनंद दुगना होता है उसे स्त्री की यौन अधिकारों और यौन अस्मिता की मांग के रूप में थोड़े ही देखा जाता है ! सनी लियोन को अभिनय करते देख भी हमारा लिंग पूजक समाज अपनी ग्रंथि को ही सहलाता पाया जाता है और सुनहले पर्दे की ऐसी बड़ी परिघटनाएं स्त्री समाज को आजादी और अस्मिता की पहली सीढी भी फ्रर्लांघने लायक संदेश नहीं दे पातीं !

Tuesday, September 23, 2014

देवता के विरुद्ध

मेरी आस्था ने गढ़ॆ देवता , 
विश्वासों ने उनको किया अलंकृत 
मेरी लाचारगी के ताप से 
पकती गई उनकी मिट्टी 
मेरे स्मरण से मिली ताकत से वे
जमते गए चौराहों पर
मैंने जब जब उनका किया आह्वान 
आहूत किया यज्ञ किये
रक्तबीज से उग आए वे यहां वहां 
काठ में ,पत्थर में , पहाड़ में , कंदराओं में
मेरे वहम ने उनकी लकीरों को
धिस धिस के किया गाढा
मेरे अह्म ने भर दिया
असीम बल उसकी बाहुओं में ,
मुझे दूसरे के देवता पर हंसी आती
मुझे हर तीसरे की किस्मत पे आता रोना
मुझे सुकून मिलता अपने देवता के
पैदा किए आतंक से

एक देवता क्या गढा मैंने
मैं इंसान से शैतान हो गया

Monday, September 22, 2014

उसे  हम  अपराजिता  नहीं  बना  पाए ...


उसकी कथा सुनकर और उसकी दशा देखकर अपने संतुलन को बनाए रखना एक चुनौती हो गया मेरे लिए .... वह 17 - 18 साल की लड़की एनीमिया ,गरीबी ,लाचारगी का जीवंत उदाहरण लग रही थी । वजन उसका इतना कि जिससे ज्यादा अब घट नहीं सकता था और विषाद इतना कि जीने की उसकी ललक उसे हरा ही नहीं पा रही थी । मैं अब अपनी जिंदगी बनाना चाहती हूं मैं अब कुछ करके दिखाना चाहती हूँ जैसे वाक्य वह खुद को दिलासा देते हुए बार - बार दोहराती, मानो वह चाहती हो कि उसके इन वाक्यों को हर वह व्यक्ति सुन ले जो उसकी वजह से शर्मिंदा हुए हैं । उसकी मां और नानी खास तौर पर जिन्होंने अपनी बेटी को क़ॉलेज पढने भेजा, और उसके जीवन को बनाने के लिए अपनी खाली जेबों और आशीषों भरे दिल को उड़ेल दिया। मां उंचे घरों में खाना बनाती , पिता ऑटो चलाते ,नानी सरकारी अस्पताल में सफाई का काम करती ,और रात भर घर के बच्चे उँचे ब्रांडों की जींस के मोटे कपडे को खाकों पर रखकर कैंची से कटाई करते ताकि सुबह कैंची के जोर से सूज गई हथेलियां खाली न हों उनपर चँद रुपये हों ,परिवार के खस्ता हाल महौल को उनका योगदान ..! 
गरीब परिवार की पुनर्वास कालोनी के तंग गरीब घर की बेहद काली बेटी से कौन शादी करेगा ये दुख मां व नानी के अपराधबोध में बदल रहा था। अपने कालेपन और बदसूरती के अहसास की पीडा और उसपर गरीबी के अंधकार से भरा भविष्य । समाज के आवारा शिकारियों के लिए ऐसे घरों की बेटियां सबसे आसान शिकार होती हैं ! पडोस के घर में रहने वाले एक लड्के ने प्रेम और शादी का यकीन दिलाकर उस लड्की का शारीरिक शोषण किया। मां व नानी ने इस पर यह सोच कर कोई ऐतराज नहीं किया कि वह लडका अपना वादा निभाएगा ,उनकी बेटी की जिंदगी बन जाएगी ! घर के अन्य लोगों से छिपकर यह विडम्बनापूर्ण व्यापार कुछ दिन चला और बाद में लड्के दृश्‍य से गायब हो गया। लड्की को एक ऎसा शारीरिक रोग संक्रमित कर गया कि कई महीनों नानी के अस्पताल में इलाज चला , सेहत और गिरी , मन की बची खुची ताकत जाती रही। पर तीनों औरतों ने हार नहीं मानी। वे फिर से अपनी ताकत जुटाने लगीं ! बच्ची ने छूटी हुई पढाई को फिर से शुरू किया । जीवन को एक लास्ट चांस देने के लिए , मांओं के सीनों को ठंडक देने के लिए। पर उसकी दोबारा उठने की उसकी उतावली , उसके पीछा न छोडने वाले दुर्भाग्य ,और उसके दुर्जेय हालातों ने मिलकर फिर से एक खेल खेल डाला ! उसने परीक्षा में नकल की और यूनिवर्सिटी की टीम के हाथों पकडी गई । अपने भयों ,दबावों ,और असुरक्षा के प्रभाव में उसने जो गलती की उसके कारण यूनिवर्सिटी से निकाल दी गई। 
उसका गरीब अभागिन और बदसूरत बेटी होने का अपराध बोध अब और अधिक बढ गया था ! अपनी जुझारू मां व नानी को निराश करने पर अब वह पूरी तरह से इस धरती पर खुद को बोझ मान रही थी। इतनी सी उम्र में उसने जीवन के साथ कई समझौते कई वादे कई प्रयोग कर डाले। उसे नहीं पता था कि वह क्या बनना चाहती थी या क्या करना चाहती थी। पर उसे लगता था कि जब मां व नानी का इतना विश्वास है तो वह जरूर कुछ न कुछ कर सकेगी। कुछ ऎसा कि उसके कालेपन पर उसे चिढाने वाला समाज उसको कम नफरत से देखेगा। उस दलदल में जिसे सब समाज कहते हैं किसी ठूंठ को पकडकर वह भी पैर जमाकर डटे रहना चाहती थी। उदासीन पिता और सुन्दर छोटी बहनों की नजर में एक जगह की दरकार उसके मन में टीस की तरह पनप रही थी। और वो लडका जिसने उसकी सेहत ,दिल और शरीर के साथ खिलवाड किया उसको चाहे वह जहां कहीं भी हो उसकी औकात बताना चाहती थी। पर अब कुछ नहीं हो सकता था अब वह टूट रही थी , पांव कांप रहे थे मन दुनिया से उठ चुका था , मां व नानी की हिम्मत का तिनके बराबर सहारा इतना मजबूत नहीं था कि तेज थपेडों में उसे बचा ले जाए ! निराशा की उस सीमा पर वह थी कि अब मुत्यु ही उसे वह  होना लग रही थी। क्योंकि उसके हिसाब से अब यही  सबसे सरल रास्ता था ।
मैं उसकी बीते साल की एक लाचार अध्यापिका अपने सारे फलसफों, सारे दिलासों सारे स्नेह के बावजूद समाज व हालात की शिकार उस निरीह् को उसकी पीडा से नहीं उभार पा रही थी। क्योंकि दरअसल मैं खुद कटघरे में खडा अपराधी थी ।

Tuesday, August 26, 2014


उन उंचाइयों  की  गिरावट 

पांच - छह साल की थी तो अक्सर ऊंची मंजिल से जमीन पर आकर धड़ाम गिरती थी सपने में और जब झटके से आंख खुलती तो खुद को जिंदा पाकर हैरानी व खुशी होती ! तब खत्म हो जाना या नहीं रहना क्या है शायद ही पता था पर जिंदा होना क्या है यह अवश्य अच्छे से पता चल चुका होगा ! स्कूली जीवन में गणित में फेल हो जाने का सपना अक्सर आ जाता था और उस दिन सुबह आंख खोलकर उठते हुए जिल्लत का काहिली का तीखा अहसास होता ! लगता जिसे हिसाब नहीं आता उसके लिए दुनिया का कौन सा दरवाजा खुल पाएगा ? बाद में समझ आने लगा कि ये दोनों ही तो सपने एक ही सा डर बयान करते हैं ! कैल्कुयुलेश्न और जीवन  का गहरा नाता अगर आप नहीं समझना चाहते तो जमाने की ठोकरे आपको मजबूर कर देती हैं कि आप भी इस गहरे नाते के नाते के महत्त्व को मानें वरना जीवन भर ऊंचाई से गिरने और गणित में फेल हो जाने के सपने देखते रहें ! 
कभी कभी जीवन के अनुभव यह अहसास कराने के कोशिश करते हैं कि व्यक्ति के कर्म व पुरुषार्थ जीवन  के उधर्वमुखी विकास के नियामक तत्त्व  नहीं हैं वरन वास्तविक नियंत्रण तो उस प्रयोजनवादी और उपयोगितावादी प्रवृत्ति का है जिसको अर्जित करने की प्रेरणा के उदाहरण चारों ओर बिखरे हुए हैं ! इस अवसरवादी समीकरणजीवी  युग में लाभ-हानि, कर्म-अकर्म , व्यष्टि -समिष्टि का व्याकरण मानो हमारे समाजीकरण  के हर अनुभव से मिल रहा है !  मनुष्य के भीतर के संघर्ष को जयशंकर  प्रसाद ने इड़ा व  श्रद्धा के बीच का  आदिम  संघर्ष कहा है ! बुद्धि और भावना के इस आदिम विरोध को साधने की पीड़ा न उठाकर मनुष्य बुद्धि के माहात्म्य के  आगे  एकनिष्ठ समर्पण करने को  तत्पर है ! बिना भावना के  निरंकुश बुद्धि प्रतियोगिता व  प्रतिस्पर्धा  के लिए उकसाती है ! इस दौड़ में आगे निकलने  के लिए खड़ी भीड में  भी केवल वही सफलता की  तथाकथित उंचाइयां पाएगा जो  सबसे  अधिक  निर्मम ,प्रयोजनवादी , लक्ष्यकेन्द्रियत यानि कुल  मिलाकर सभी समीकरणों का सबसे सटीक हिसाब लगाने  योग्य  होगा ! दरअसल व्यक्ति की यह विडम्बनापूर्ण स्थिति  सफलता व  प्रगति  की फर्जी व लकीरबद्ध परिभाषाएं  अपनाने के कारण उत्पन्न हुई है ! इस  प्रगति  व उंचाई के लिए व्यक्ति इसी उपरोक्त दृष्टिकोण के कारण  नीच  साधनों और शैलियों को  अपनाने से भी कोई गुरेज  नहीं  करता ! साधन व साध्य की उत्कृष्टता व पवित्रता का  कोई परस्पर  सहसंबंध आज  हम  स्वीकार नहीं  करना चाहते क्योंकि हमारे  लिए मात्र परिणाम ही  मायने  रखता  है ! उस परिणाम तक  पहुंचने  के  लिए  कितनी निकृष्टता , कितने समझौते या कैसे भी समीकरणों को अपनाने पड़ॆं - जीवन की जंग  में विजयश्री का महत्त्व  है ! इस प्रतिस्पर्धात्मक परिवेश में जीवन केवल गणित बन  जाता है आस्थाविहीन और श्रद्धाविहीन ! गणित के सूत्र रटना और अमल में  लाना ! जीवन  के गणित में इतनी महारत हासिल  हो  जाना  कि कोई संवेदना  या  मूल्य उस कैल्क्युलेश्न के मार्ग  को  बाधित  न  कर  पाए ! मस्तिष्क , बुद्धि और इड़ा मिलकर मानवता के विकास के पैमाने भी  तय  करें  व मार्ग  भी ! भावना  , संवेदना मनुष्य  की समस्त  कोमल  वृत्तियां भीतर के  अज्ञातवास में ही  रहें !
किंतु इस जीवन  दृष्टि से ,  इस गणित से और प्रयोजनवाद से हासिल उंचाइयां खोखली व एकांगी होती  हैं ! इन उंचाइयों पर चढ़ते हुए व्यक्ति अपना समस्त सफलता ,  योग्यता और श्रेष्ठता के बने - बनाए खांचों में अपने मौलिक व्यक्तित्व को ढालने  की चुनौती में  उलझा  रह  जाता है जो अक्सर  एक डर का  रूप ले  लेती  है ! ये डर जीवन को लगातार नियंत्रित करने का प्रयास करता है ! परंतु जिस  क्षण हम  इस  भेड़्चाल की  संस्कृति  के  पाश  से  खुद  को  मुक्त  करने   का  साहस  करते  हैं  हम  पर  रखा  समस्त  बोझ तत्क्षण  उतर  जाता  है !  हम  स्प्ष्ट देख  पाते  हैं अपना  मार्ग  और  अपना  लक्ष्य ! बिना  गणितीय जटिलताओं  वाला सहज  संगीतमय आस्थामय जीवन जिसमें अपराधबोध ,आत्मा का  दमन या नैतिक दुविधा नहीं ! उंचाइयों का  कोई व्यामोह या तथाकथित विकास  की कोई  मृगमारीचिका  नहीं , कोई  विकृति भी  नहीं  ! आज मुझे वे बचपन  के भयावह  सपने नहीं आते तो इसलिए नहीं कि मैंने हिसाब-  किताब सीख लिया है बल्कि इसलिए नहीं आते कि मैंने ऎसी केल्क्युलेशंस से हासिल होने वाली ऊंचाइयों और उनसे पैदा होने वाली गिरावट को समझ लिया - ' मुझे नहीं चाहिए उन शिखरों की ऊंचाई , मुझे उन ऊंचाइयों से डर लगता है,....