Monday, November 30, 2015


हैप्पी टु ब्लीड... क्योंकि दाग अच्छे हैं

हाल ही में  में सबरीमाला मंदिर के धर्माधिकारियों  द्वारा स्त्रियों के लिए मासिक धर्म फ्रिस्किंग़् मशीन लगाने की घोषणा से   धर्म के जरिए स्त्री की सत्ता को नियंत्रित करने की कुरुचिपूर्ण घटना सामने आई है |  इस प्रकार की विषमतापूर्ण कार्यवाही से  देवस्थलों  की क्रूरता  जगजाहिर तो हुई  साथ ही  दूसरी  ओर सभ्य समाज द्वारा स्त्री को बराबरी व सम्मान की दृष्टि से देखने के दावे खारिज हुए हैं । स्त्री के रजस्वला होने की एक सहज और प्राकृतिक अवस्था को धर्म और प्रथा के जरिए नियंत्रित करने के पीछे सामंती व्यवस्था को कायम रखने का सुनियोजित षड्यंत्र है । इस प्रकार के आडंबरपूर्ण , विषमता की भावना से भरे , अमानवीय फतवे को जारी करने का विरोध करने के लिए एक ओर सोशल मीडिया पर एक बड़े आंदोलन को तैयार किया जा रहा है तो दूसरी ओर इस तरह के विरोध और उसके तरीकों पर सवाल उठाकर उन्हें अनावश्यक और धार्मिक व्यवस्था में हस्तक्षेप बताने वाला एक पूरा वर्ग भी सक्रिय है ।  
 दरअसल धर्म के जरिए स्थापित मान्यताएं व प्रथाएं स्त्रियों के लिए सवार्धिक क्रूर रही हैं । धर्म ही सामंती व्यवस्था , गैरबराबरी और शोषण का दमदार व अचूक माध्यम है ।  पितृसत्ता को कायम रखने के लिए प्रथाओं और परंपराओं का मूल लक्ष्य् स्त्री की योनि व कोख को नियंत्रित करना है । कोई भी नियंत्रण बिना भय और बिना दमन और बिना दंड के संभव नहीं है । अत: धर्म और ईश्वर के नाम पर स्त्री के लिए व्यवहार और आचरण की लंबी फेहरिस्त लगभग हर समाज में पाई जाती है । स्त्री के लिए शुद्धता - अशुद्धता , पाप -पुण्य , करणीय - अकरणीय की विभिन्न कोटियां पितृसत्तात्मक समाज की नींव की भांति काम करती हैं । मासिक धर्म ,  यौनिकता , गर्भ और योनि से जुड़े सभी मिथ , प्रथाएं और प्रतिबंध स्त्री की अस्मिता को गौण बनाए रखकर व्यवस्था की सामंतीयता को बचाए रखने की क्रूर युक्तियां हैं । 
हैरत की बात है कि विश्व के अधिकतर धर्मों और सामाजिक आचरण सरणियों में मासिक धर्म को  एक टैबू बनाकर रखने  का प्रपंच पाया जाता है । मासिक धर्म की अवस्था में स्त्री को अशुद्ध घोषित कर उसके लिए अमानवीय और अन्यायपूर्ण आचार संहिताएं बनाई गईं हैं । आज भी विश्व के प्रगतिशील व विकसित माने जाने वाले देशों में धर्म या सामाजिक - सांस्कृतिक प्रतिबंध के जरिए मासिक धर्म को लज्जा , अशुद्धता , असहजता , दुराव और घृणा से जोड़कर देखा जाता है । जिन देशों में काम की अभिव्यक्ति व उसके  प्रदर्शन की सीमाएं अत्यधिक उदार हैं वहां भी मासिक धर्म किसी प्रकार के  संवाद , कला माध्यमों में अभियव्क्ति  या सामाजिक रूप से चर्चा के लिए निषिद्ध माना जाता है । दुनिया के सभी बड़े धर्म स्त्री की इस प्राकृतिक अवस्था में स्त्री को त्याज्य , अस्पृश्य और अशुद्ध मानकर उसकी अस्मिता का दमन करते रहे हैं ।  सबरीमाला मंदिर में लगाया जाने यंत्र मासिक धर्म की जांच कर न केवल यह बताएगा कि स्त्री रजस्वला है या नहीं बल्कि उसके जरिए यह भी अनावृत्त होगा कि अपने रजस्वला होने को छिपाकर कोई स्त्री ईश्वर के समीप जाने का दुस्साहस कर देवता और देवस्थल् को अशुद्ध कर  धर्म के अहंकार और विकरालता को चुनौती न दे सके । यदि मानव शरीर की स्वाभाविक अवस्थाओं और प्रक्रियाओं से शुचिता भंग होती है तो यह मान्यता केवल स्त्री से संबद्ध क्यों हो । क्यों नहीं समाज में पुरुषों द्वारा बलात्कार या संभोग करके पवित्र स्थलों में प्रवेश करने को  शुचिता भंग होने से  जोड़ा जाता और इस अपराध को रोकने हेतु उपायों का आविषकार किया जाता ? 

तेरह से पचास साल की उम्र तक लगभग 444 बार और अपनी प्रजनन उम्र के तकरीबन साढ़े आठ साल हर स्त्री रजस्वला रहती है । यह गौर करने योग्य तथ्य है कि आयु का यही दौर किसी भी व्यक्ति की कार्य -क्षमता का , उत्पादकता का, जीवन से तमाम अपेक्षाओं को तलाशने और उनके लिए समर्पित होकर श्रम करने के लिहाज से स्वर्णिम काल माना जा सकता है । किंतु पूरी दुनिया के विशॆषकर विकासशील् और अविकसित देशों में मासिक धर्म की शुरुआत से ही बालिकाओं को दुराव , दबाव , अवसाद , मिथों , भ्रांतियों के साथ जीना पड़ता है जिसके परिणाम स्वरूप  बालिकाओं को अपने व्यक्तित्व के विकास के शैक्षिक और सामाजिक अवसरों से वंचित रह जाना पड़ता है  । दुनिया के तमाम समाज खून के लाल  धब्बों के कलंक से आतंकित समाज हैं । विकसित समाजों के विज्ञापन जगत में  जहां  उपभोक्ता कंडोम के कामुक से कामुक विज्ञापन की अपेक्षा रखते हैं और विज्ञापनदाताओं में इस विषय में प्रतिस्पर्धा का माहौल रहता है , वहीं  मासिक धर्म से संबद्ध वस्तुओं  जैसे सैनेटरी पैड के विज्ञापन में नीली स्याही को लाल रक्त का प्रतीक बनाकर पेश किया जाता है । कंडोम के विज्ञापनों  और फिल्मों में  काम क्रीड़ा पर उन्मत्त् होने वाला समाज सैनेटरी पैड पर रक्त देखकर या मासिक धर्म  पर स्पष्ट चर्चा पर् जुगुप्सा से भर उठता है , ऎसा दोगलापन स्वस्थ समाज का संकेत नहीं हो सकता । 

हमारी सामाजिक संरचना में स्त्रियों के पास अपने शरीरांगों , उसकी अवस्थाओं , उनसे जुड़ी पीड़ाओं और समस्याओं को अभिव्यक्त करने के लिए न तो  भाषा है और न ही इस अभिव्यक्ति की कोई आवश्यकता और अभिप्राय ही समझा जाता है । घर से लेकर कामकाज के क्षेत्र भी वर्जनाओं से भरे हैं । पुरुषों का खुलेमान मूत्र विसर्जन करने , गालियों से भरी भाषिक अभिव्यक्तियां करने , स्त्री का उत्पीड़न करने  और  यहां तक कि बलात्कार करने तक को भी सामंती परिवेश का संरक्षण प्राप्त है लेकिन स्त्री को अपनी प्राकृतिक अवस्थाओं से होने वाली पीड़ा या असहजता को अभिव्यक्त् करने के लिए स्पेस उपलब्ध नहीं है । जिस समाज में लड़कियों के वस्त्रों पर एक लाल धब्बा उनके सम्मान और अस्तित्व को संकट में डाल सकता हो  और सार्वजनिक स्थलों पर निवृत्त होने की कल्पना तक किसी भी स्त्री के लिए असंभव हो उस समाज में सबरीमाला मंदिर जैसी घटनाएं व घोषणाएं स्त्रियों के लिए परिवेश को और अधिक दमघोटू बना सकती हैं । परिवेश की असमानता वाले समाज में स्त्रियों को यदि अवसरों की समान उपलब्धता प्रदान कर भी दी जाए तो उसका क्या लाभ ? अपने शरीर की सहज नियमित अवस्था के प्रति अपराध बोध और दुराव से भरी बालिकाएं व स्त्रियां  एक असंवेदनशील समाज में अपने लक्षयों के लिए अग्रसर हो पाएं  इसको सुनिश्चित करना सबरीमाला जैसी घटनाओं के बाद और अधिक दुष्कर प्रतीत होने लगा है । 
अभी हाल ही में लंदन मैराथन में किरण गांधी द्वारा  सैनेटरी पैड का प्रयोग किये बिना भाग लेने की घटना एकबारगी चौंकाने वाली प्रतीत होती है  परंतु साथ ही यह भी संकेतित करती हैं हमारे क्रूर व असंवेदनशील समाज की मनोवृत्ति को ऎसी शॉक ट्रीट्मेंट् की आज तीव्र आवश्यकता है । स्त्री पुरुष असमानता की गहरी खाई वाले सामाजिक परिवेश में  दखल देने के लिए इस प्रकार के विरोध से ही परिवेश की चुप्पी को तोड़ा जा सकता है । शोषण के लंबे इतिहास को भोगने वाली स्त्री के पास परिवेश को झकझोर कर अपनी उपस्थिति और अस्मिता को दर्ज करवाने के सिवाय अन्य कोई उपाय शेष नहीं रह गया है । ब्लीड फ्रीली एंड हैप्पी टु ब्लीड जैसे सोशल मीडिया के आंदोलनों के जरिये एक जड़  समाज को शर्मिंदगी और चुनौती देने का साहस करना स्वागत योग्य कदम है ।  यह  साफ देखा जा सकता है कि वर्जनाओं और वंचनाओं से भरे क्रूर सामंती परिवेश को चुनौती देकर ही स्त्री अपनी अस्मिता को स्थापित करने योग्य स्पेस बना पाएगी । 

Thursday, November 05, 2015

एक मुलाकात

तख्ती डॉट कॉम पर प्रकाशित मेरा एक साक्षात्कार -

हिंदी साहित्य की गहन अध्येता एवं संवेदनशील कविमना व्यक्तित्व, नीलिमा चौहान "आँख की किरकिरी" एवं "लिंकित मन" और "चोखेरबाली" ब्लॉगों के माध्यम से हिंदी ब्लॉगोस्फियर में विशेष उपस्थिति रखती हैं। विभिन्न हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में लेखों और कहानियों के जरिए रचनात्मक योगदान के साथ स्त्रीवादी तेवर के कविता लेखन के लिए चर्चित नीलिमा चौहान, दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन सांध्य महाविद्यालय में ऎसोसिऎट प्रोफेसर के रूप पठन-पाठन से सम्बद्ध हैं। उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश: # नीलिमा जी... आप शिक्षिका है, साहित्य में विशेष रूचि रखती हैं, बराबर लिखती-पढ़ती रहती हैं, आप दोनों ही भूमिकाओं में क्या कोई अंतर्विरोध महसूस करती हैं...? - नहीं मुझे यह अंतर्विरोध की स्थिति नहीं लगती बल्कि मैं तो स्वयं की ऎसे शिक्षक के तौर पर कल्पना भी नहीं कर सकती जो लेखन रचनात्मक कार्यों में रुचि न रखता हो। अध्यापन कोई एकांगी कार्य नहीं है। अपने अध्यापकीय व्यक्तित्व को, अभिव्यक्ति को लगातार धार देने के लिए यह जरूरी है रचनात्मक या आलोचनात्मक लेखन किया जाए। एक सक्रिय शिक्षक ही जिंदा शिक्षक है। ऎसा महसूस करती हूँ। हाँ, समय को नियोजित करने की दिक्कतें जरूर आती हैं पर लेखन की जिद के कारण यह सामंजस्य भी बैठा लिया जाता है। # निश्चित तौर पर एक रचनात्मक शिक्षक वर्तमान समय से जरूरी कन्टेन्ट उठाकर अपने छात्रों को सही दिशा दे सकता है। क्या आपको लगता है कि, जिस समय में हम जी रहे हैं वहाँ शिक्षक और छात्रों के बीच जरूरी संवाद कम हुआ है, इसी तरह वर्तमान छात्र, शिक्षक को किस भूमिका में देखता है? - हाँ, कुल मिलाकर ही शिक्षा से संवाद गायब हो गया है। शैक्षिक मूल्यों में गिरावट आई है और पठन पाठन की प्रक्रियाओं में बहुत ही यांत्रिकता दिखाई देती है। शिक्षा का व्यावसायीकरण इतनी तेजी से हुआ है कि चाहकर भी अच्छे शिक्षक अच्छे तरीकों से नहीं पढ़ा पा रहे हैं। केवल परीक्षापयोगी तरीकों से पढ़ना-पढ़ाना कारगर समझा जा रहा है। बेहतर नागरिक, विवेकशील व्यक्ति और स्वस्थ मानसिकता का विकास करना अब शिक्षा का लक्ष्य नहीं रह गया है। ऎसे दौर में छात्र भी शिक्षक से यही उम्मीद करते हैं कि अधिक अंक लाने में शिक्षक उनकी सहायता करें। इस व्यावसायीकरण के चलते एक अच्छे शिक्षक की पहचान करने लायक समझ उनमें विकसित नहीं हो पाती है। उनके समक्ष एक दोस्त मार्गदर्शक प्रेरक के रूप में देखे जा सकने वाले शिक्षकों के उदाहरण कम ही होते हैं। इसलिए वे भी अपने शिक्षकों से बहुत अधिक की उम्मीद लेकर नहीं चलते। यह स्थिति निराशाजनक है, पर यही आज के शिक्षाजगत का यथार्थ बनता जा रहा है। # आपने बताया कि आप साहित्य की गहन अध्येता हैं, जिस दौर में आप पढ़ रही थी (एक छात्र के रूप में) तब साहित्य की दिशा वर्तमान साहित्य निश्चित रूप से भिन्न रही होगी... साहित्य के बदलते कलेवर, बदलते कथ्य और शिल्प को आप कितना सकारात्मक मानती हैं? क्या वाकई साहित्य को यथार्थ और आदर्श के मानकों पर चलना चाहिए? वर्तमान युवा पाठकों के सन्दर्भ में आप इसे किस रूप में ग्रहण करती हैं? - निश्चित तौर पर साहित्य के तेवर और कथ्य में बदलाव आया है। साहित्य के आदर्श और यथार्थ के मानकीकरण ध्वस्त हुए हैं। प्रयोगशीलता और परिवर्तन, साहित्य और भाषा दोनों की मूल चेतना में ही रहा है। 90 के बाद जिस गति से तकनीकी और सूचना क्रांति हुई उसका साहित्य पर असर डालना लाजमी था। संवेदना और उसकी अभिव्यक्ति को नए आयाम मिलना, जीवन की बढ़ती हुई जटिलताओं का साहित्य के साथ अंतर्क्रिया करना, भाषा व शैली का नयापन यह सब हम नए साहित्य में पाते हैं। मेरे विचार से साहित्य और समय की अंतर्क्रिया को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। भाषा के प्रवाह व शैलीगत संभावनाओं को तलाशना चाहिए। परम्परा के मोह में पड़कर साहित्य अपने समय के साथ न्याय नहीं कर सकता। विशुद्धतावाद का समर्थन मैं नहीं करती। यूँ भी नए व प्रयोगशील साहित्य का आस्वादन पूर्वधारणाओं से आजाद होने के बाद ही संभव है। युवा पाठक भी साहित्य में अपने समय को तलाशना चाहेगा। उसे क्यों निराश किया जाए। उसके जीवन का प्रतिबिंबन करने वाला साहित्य युगसापेक्ष साहित्य कहला सकता है। भाषा और स्तरीयता को इससे खतरा नहीं है बल्कि यह तो संभावनाओं की तलाश में बहुत दूर तक जाने के समान है और इस प्रक्रिया मॆं श्रेय और प्रेय (प्रिय) दोनों की रचना हो रही है। # नीलिमा जी... साहित्य का एक वृहद् दायरा है... वर्तमान साहित्य में विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों से उत्पन्न खीझ और तनाव, पारम्परिक स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का द्वन्द्व, हाशिए के लोग सब की भागेदारी बढ़ी है... जो जरूरी भी है, इन सबके बीच आप स्त्री मूल्य और स्त्री शक्ति की मनोदशा को कहाँ पाती हैं या इसे अभी भी एक संक्रमण काल ही माना जाय जो विस्तार की प्रक्रिया में है...? - वर्तमान साहित्य में स्त्री और हाशिए की सभी अस्मिताओं का स्वर मुखर हुआ है। इस सभी अस्मिताओं की आपसी टकराहट से पैदा हुई संवेदनाएँ भी नए साहित्य में दिखाई देती हैं। साहित्य में स्त्री पुरुष संबंधों की परम्परागत छवि धूमिल हुई है। स्त्री स्वातन्त्र्य और स्त्री अस्मिता पर केन्द्रित साहित्य प्रमुखता से रचा जा रहा है। स्त्री देह की स्वायत्तता, आर्थिक स्वतंत्रता उसकी बौद्धिक और रूहानी जरूरतों के प्रश्नों को संवेदना का आधार बनाने वाला साहित्य प्रकाशित हो रहा है। अभी स्त्री की यौनिकता जैसे प्रश्नों को उठाने का कम ही साहस दिखाई दे रहा है, शायद इसलिए कि भारतीय संदर्भों में अभी स्त्री के मौलिक अधिकारों की प्राप्ति भी एक दुर्गम लक्ष्य है तो दैहिकता और यौनिकता के सवाल गौण दिखाई देने लगते हैं। हाशिए पर केन्द्रित समस्त साहित्य स्त्री के जीवन संघर्ष और पीड़ा से रू-ब-रू करा रहा है। दलित साहित्य में भी दलित स्त्री अस्मिता का अतिदलित अस्मिताओं के संघर्ष को चित्रित किया जा रहा है। सामाजिक विषमताओं के सबसे निरीह शिकार के रूप में कई स्तरों पर संघर्ष करती स्त्री का बयान है यह साहित्य... इस लिहाज से साहित्य अपनी संवेदना में और गहराई और विस्तार पाने का प्रयास करता नजर आ रहा है # धीरे-धीरे ही सही, पर असहजता पूर्वक पुरुष भी यह स्वीकारते हैं कि पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं को लगभग उन सभी जरुरी आवश्यकताओं या कहें कि जरूरी परिवेश से वंचित रखा था जो उन्हें बेहतरी, ज्ञान और समानता के अवसर दिला सकते थे... आज महिला सशक्त दिखती है, मेरा सवाल इसी "दिखने" से है... क्या वाकई आपको लगता है की उतने बड़े स्वरुप में स्त्री अधिकारों या उनके पैरोकार पुरुषों ने ज़रा भी लचीला रुख अख्तियार किया है... सारे विमर्शों, बहसों की बीच कहीं मात्र यह सिर्फ लगने या दिखने का मामला है या फिर व्यावहारिक जीवन में भी कुछ सहजता आई है? - स्त्री के आजाद दिखने और आजाद होने में बहुत फर्क होता है। तमाम तरह की बंदिशों से, वर्जनाओं से, परम्पराओं की जकड़ से खुद को आजाद महसूस करना एक अलग ही अहसास है जिसे पाना बहुत मुश्किल है। इसलिए मुश्किल है क्योंकि हमारे समाज में स्त्री की जेंडर ट्रेनिंग इतनी मजबूत होती है कि एक स्तर से जयादा आजाद होने में स्त्री भी असहज महसूस करने लगती है। ज्यादातर तो यह आजादी दिखने मात्र की आजादी है। इस दिखने में बहुत सतहीपना है। खुलकर जीने के लिए सुरक्षित, सहज, मुक्त और बराबरी का माहौल पाने के लिए स्त्री को अपनी बहुत सी उर्जा लगानी होती है। पितृसत्तात्मक समाज इसका भरपूर प्रतिरोध करता है। वैसे भी हमारे समाज में स्त्री की गुलामी के जितने स्तर हैं उतनी ही तरह की आजादियाँ भी गढ़ ली गई हैं। किसी स्त्री के लिए दो वक्त का भोजन जुटा पाना ही आजादी है तो दूसरी स्त्री के लिए यौनिकता के दैहिक स्वतंत्रता आजादी है। विकास के अलग-अलग सोपानों वाले समाजों में स्त्री के अधिकारों और आजादी की लड़ाई का मतलब अलग-अलग होने के कारण ही शायद आजादी का असली मायना अभी तक गढ़ा नहीं जा सका है। स्त्री की आजादी के सवालों पर होने वाली सारी बहसें आखिरकार या तो किताबी जंग बनकर रह जाती हैं या फिर कभी कभार किसी आंदोलन की शक्ल ले लेती हैं। लेकिन एक आम स्त्री न बहसों से फायदा पा सकती है न ही आंदोलनों से। उसके लिए व्यावहारिक जीवन में पुरुषों की मुट्ठी में बंद दुनिया में अपने लिए साँस लेने लायक जगह बनाने का मुद्दा ज्यादा जरूरी होता है। मुझे लगता है हमारी शुरूआती शिक्षा में जेंडर ट्रेनिंग के कुछ सबक शामिल किए जाएँ। और पारिवारिक वातावरण बच्चों को आपसी उदारता और तालमेल तथा सम्मान से जीने की ट्रेनिंग लायक माहौल दे सकें तो स्त्री के लिए बेहतर समाज की कल्पना की जा सकती है। दिखने की आजादी तो एक भुलावा है, आजादी जब तक महसूस न की जा सके तब तक उसका होना एक वहम भर ही होता है। स्त्री की अजादी के पैरोकार पुरुषों को भी इस आजादी के लिए अपने भीतर के ट्रेण्ड मर्द से लगातार लड़ना होगा वरना स्त्री की आजादी का मतलब हमेशा से पुरुष का अपने अधिकारों का कुछ हिस्सा खो देना होता है। विमर्श के स्तर पर औरत की आजादी का पैरोकार आदमी निजी जीवन में भी स्वस्थ मन व मंशा से स्त्री की अस्मिता और आजादी का सम्मान करता हो यह कम ही पाया जाता है। # अभी हाल ही में दख़ल प्रकाशन से आपके द्वारा संपादित किताब 'बेदाद ए इश्क रुदाद ए शादी' प्रकाशित हुई है, जिसमें कुछ बागी प्रेमियों की कहानियाँ हैं.. इस अलग कन्टेन्ट की किताब को आप बतौर महिला किस तरह देखती हैं? क्योंकि तमाम वैवाहिक विसंगतियों के बीच पारम्परिक स्त्री-पुरुष एक तरह सेक्रीफाईज कर रहे होते हैं... घिसी-पिटे जुमलों पर जीवन कितना मुश्किल हो जाता है, बावजूद आज भी यही परम्परा है... यह किताब समाज में कोई मानक तय करना चाहती है या परम्परा से टकराव इसका मूल स्वर है? - स्त्री का प्रेम का अधिकार दरअसल स्त्री का स्वयं को पीड़ित करने वाली परम्पराओं से विद्रोह है। प्रेम में पगी स्त्री का विद्रोह अपने जड़ समाज को एक गति में लाने की अचेतन कोशिश होती है। यह किताब प्रेम के उस बागी स्वरूप से पुराने मूल्यों को विस्थापित करने की कोशिश है। समय के साथ समाज में जाति वर्ण और वर्ग के अंतरों के धूमिल पड़ जाने की जरूरत पर बात करती है यह किताब। विवाह के नए मानकों को तय करने की कोशिश में विवाह संस्था की विकृतियों पर सवालिया निशान लगाने का प्रयास है यह। यह अपनी तरह का पहला प्रयोग है जिसमें जिंदा कहानियों को शामिल किया गया है। इस किताब की कहानियाँ स्त्री पुरुष के संबंधों की परम्परागतता के अर्थहीन हो जाने की घोषणा करती हैं। इस तरह हमने प्रेम और बराबरी के मूल्य को स्त्री पुरुष संबंध के मूल आधार के रूप में पहचानने की कोशिश की है।

Sunday, November 01, 2015


करवा के व्रत की प्रचंडता पर कुछ उद्दंडता भरे  नोट्स 

करवाचौथ के व्रत की कथा की प्रचंडता हर सुहागन को डराती है ।
न रखने वाली पत्नी नौकरानी बन जाती है तो घर में काम करने वाली नौकरानी वेकेंसी पैदा होते ही मालिक की पत्नी बन जाती है । साथ ही पति भी अकाल मृत्यु के मुंह में जाने लगता है जिससे एक के स्थान पर दो सुहागिनों का सुहाग उजड़ने की नौबत आ जाती है । ऐसे में ओरीजनल पत्नी को अपना स्थान वापस पाने हेतु इस व्रत को पूरे विधि विधान व शर्तों से रखना होता है । पत्नी की पोस्ट पर बने रहने के लिए मालिक की सलामती जरूरी है । मालिक की सलामती के लिए दूसरी लालायित औरतों से कॉंपीटीशन जरूरी है । इस कॉंपीटीशन में जीतने के लिए ऐसा व्रत ज़रूरी है जिसकी महिमा ही पूरे साल की गारंटी का आत्मविश्वास देने से जुड़ी हो । 
... ईर्ष्या असुरक्षा और ऐसे हीनता बोध से भरी कथा सुनकर जिन सुहागिनों के मन में श्रद्धा और आस्था पैदा होती है उनके प्रति सहानुभूति होती है मुझे ।

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ब्रा खरीदवाने के लिए दूकान पर पत्नी से सटकर अपनी पसंद का डिजाइन चूज़ करवाते हुए दुकानदार का भेजा खा जाने वाले ,
टेलर की दुकान पर पत्नी के ब्लाउज़ के बैक में मोती की झालर न लगाने पर टेलर को झिड़कने वाले , 
अंगुलियों में मुंदरी और गले में दहेज में मिली सोने की चेन पहनने वाले , 
देर रात मस्ती बाहर मारकर लौटे और सीधे बिस्तर में टूट पड़्ने वाले , 
बात बात पर मेरी बीवी मेरी वाइफ कहकर पत्नी को नामहीन कर देने वाले , 
आए दिन पत्नी के हाथ नोट थमाने वाले
और पत्नी के जन्मदिन व त्यौहारों पर उसे नियम से तोहफा पेश करने वाले ,
यारों के बीच रिश्तेदारों में पत्नी के खाने की तारीफ की माला जपने वाले,.......
..ऎसे पति पूरी तरह डिज़र्व करते हैं पत्नियों द्वारा अपने लिए करवा चौथ रखा जाना । ऎसे ही पति सबसे ज्यादा कूद फांद मचाकर पत्नियों को ऎसा कठिन व्रत रखवाने में सपोर्ट करते हैं । इस दिन का इमोश्नल फिज़िकल सपोर्ट पूरे साल की हैपीनेस की गारंटी ।
ऎसे हैप्पी ,कॉंफिडेंट , सेटिस्फाइड ,मर्दाने पतियों को पतित्व को हाइलाइट और् ग्लोरिफाई करने वाले इस त्यौहार की जय हो !!


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तलाक के खूंखार कॉंन्ट्रास्ट के सामने के शादी के बंधन से पैदा हुए सारे दुख , तकलीफें , झगड़े , अनबन , खटपट् कितनी हसीन व मामूली लगने लगती है न । उतना ही टकराते हैं हम एकदूसरे से कि तलाक की नौबत आने से ठीक पहले अपनी हाई स्पीड में बहती हुई ईगो एक्स्प्रेस को ब्रेक लगा सकें । उतना ही ऎंठते हैं जितने उस ऎंठन की एवज में आने वाले संकट हम सह सकें । ज्यादातर तो वाक युद्ध से ही अंदर के सारे अरमान निकाल लेना व अकेले में बकबकाकर बाकी के एंगर - विस्फोट के मुंह पर सेफ्टी वॉल्व लगा लेने में ही भलाई दिखती है । मध्यम वर्गीय हया हमारी शादी को ठीक वहीं बचा लेती है जहां से तलाक या अलगोझे की रपटीली कांटेदार अपमान भरी पगडंडी शुरू होती है । घर का खुशनुमा सच तलाक की बदनुमा इमैजिनेशन के जरिए ही महसूस हो पाता । शादी कर तो बचकाने भी लेते हैं उस शादी को निभाना बचाना मंझे हुओं का खेल है जनाब ।