Tuesday, September 30, 2014

अभी साथ था अब खिलाफ है 
वक्त का भी आदमी सा हाल है

आईना घर में रहा बरसों मगर
आज उसकी आंख में क्यू्ं सवाल है

खत में लिखा आएंगे अबके बरस
धीमी कर दी वक्त ने क्यूं चाल है

मुद्ओं की भीड़ में क्यों खो गया
मुददई को बस रह गया मलाल है

आदमी को आदमी का वास्ता
आदमी ही आदमी की ढाल है



Friday, September 26, 2014

स्त्री  यौनिकता  के आईने  में



कौन जानता था कि शेफाली जरीवाला के 'कांटा लगा' वाले गाने से जिस स्त्री सेक्सुएलिटी का आगाज हुआ वह अंतत: पोर्न अभिनेत्री सनी लियोन के स्टारत्व के खुले उत्सवीकरण तक जा पहुंचेगी और इतनी खुली यौनिक अभिव्यक्ति को सहर्ष स्वीकारने वाले हमारे समाज में स्त्री की सेक्सुएलिटी एक हश हश टॉपिक ही रहेगी !दरअसल हमारे समाज में स्त्री स्वातंत्रय और स्त्री की सेक्सुएलिटी को एकदम दो अलग बातें मान लिया गया है ! पुरुष की सेक्सुएलिटी हमारे यहां हमेशा से मान्य अवधारणा रही है ! चूंकि पुरुष सत्तात्मक समाज है इसलिए स्त्री की सेक्सुएलिटी को सिरे से खारिज करने का भी अधिकार पुरुषों पास है और और अगर उसे पुरुष शासित समाज मान्यता देता भी है तो उसको अपने तरीके से अपने ही लिए एप्रोप्रिएट कर लेता है ! 

जिस दैहिक पवित्रता के कोकून में स्त्री को बांधा गया है वह पुरुष शासित समाज की ही तो साजिशा है ! यह पूरी साजिश एक ओर पुरुष को खुली यौनिक आजादी देती है तो दूसरी ओर स्त्री को मर्यादा और नैतिकता के बंधनों में बांधकर हमारे समाज के ढांचे का संतुलन कायम रखती है ! स्त्री दुहरे अन्याय का शिकार है- पहला अन्याय प्राकृतिक है तो दूसरा मानव निर्मित ! गर्भ और योनि की ढोने वाली स्त्री पुरुष पर निर्भर स्त्री कैसे कैसे और किन किन तरीकों से और किस किस से हक के लिए लड़े ! कोई भी सामाजिक संरचना उसके फेवर में नहीं है क्योंकि सभी संरचनाओं पर पुरुष काबिज है ! उसके अस्तित्व की लड़ाई तो अभी बहुत बेसिक और मानवीय हकों के लिए है सेक्सुअल आइसेंटिटी और उसको एक्स्प्रेस करने की लड़ाई तो उसकी कल्पना तक में भी नहीं आई है ! अपनी देह और उसकी आजादी की लड़ाई के जोखिम उठाने के लिए पहले इसकी जरूरत और इसकी रियलाइजेशन तो आए ! हमारा स्त्री-समाज तो इस नजर् से अभी बहुत पुरातन है ! स्त्री के सेक्सुअल सेल्फ की पाश्चात्य अवधारणा अभी तो आंदोलनों के जरिए वहां भी निर्मिति के दौर में ही है हमारा देश तो अभी अक्षत योनि को कुंवारी देवी बनाकर पूजने में लगा है ! एसे में शेफाली जरीवाला अपनी कमर में पोर्न पत्रिका खोंसे ब्वाय प्रेंड के साथ डेटिंग करती दिखती है तो इससे हमारे पुरुष समाज का आनंद दुगना होता है उसे स्त्री की यौन अधिकारों और यौन अस्मिता की मांग के रूप में थोड़े ही देखा जाता है ! सनी लियोन को अभिनय करते देख भी हमारा लिंग पूजक समाज अपनी ग्रंथि को ही सहलाता पाया जाता है और सुनहले पर्दे की ऐसी बड़ी परिघटनाएं स्त्री समाज को आजादी और अस्मिता की पहली सीढी भी फ्रर्लांघने लायक संदेश नहीं दे पातीं !

Tuesday, September 23, 2014

देवता के विरुद्ध

मेरी आस्था ने गढ़ॆ देवता , 
विश्वासों ने उनको किया अलंकृत 
मेरी लाचारगी के ताप से 
पकती गई उनकी मिट्टी 
मेरे स्मरण से मिली ताकत से वे
जमते गए चौराहों पर
मैंने जब जब उनका किया आह्वान 
आहूत किया यज्ञ किये
रक्तबीज से उग आए वे यहां वहां 
काठ में ,पत्थर में , पहाड़ में , कंदराओं में
मेरे वहम ने उनकी लकीरों को
धिस धिस के किया गाढा
मेरे अह्म ने भर दिया
असीम बल उसकी बाहुओं में ,
मुझे दूसरे के देवता पर हंसी आती
मुझे हर तीसरे की किस्मत पे आता रोना
मुझे सुकून मिलता अपने देवता के
पैदा किए आतंक से

एक देवता क्या गढा मैंने
मैं इंसान से शैतान हो गया

Monday, September 22, 2014

उसे  हम  अपराजिता  नहीं  बना  पाए ...


उसकी कथा सुनकर और उसकी दशा देखकर अपने संतुलन को बनाए रखना एक चुनौती हो गया मेरे लिए .... वह 17 - 18 साल की लड़की एनीमिया ,गरीबी ,लाचारगी का जीवंत उदाहरण लग रही थी । वजन उसका इतना कि जिससे ज्यादा अब घट नहीं सकता था और विषाद इतना कि जीने की उसकी ललक उसे हरा ही नहीं पा रही थी । मैं अब अपनी जिंदगी बनाना चाहती हूं मैं अब कुछ करके दिखाना चाहती हूँ जैसे वाक्य वह खुद को दिलासा देते हुए बार - बार दोहराती, मानो वह चाहती हो कि उसके इन वाक्यों को हर वह व्यक्ति सुन ले जो उसकी वजह से शर्मिंदा हुए हैं । उसकी मां और नानी खास तौर पर जिन्होंने अपनी बेटी को क़ॉलेज पढने भेजा, और उसके जीवन को बनाने के लिए अपनी खाली जेबों और आशीषों भरे दिल को उड़ेल दिया। मां उंचे घरों में खाना बनाती , पिता ऑटो चलाते ,नानी सरकारी अस्पताल में सफाई का काम करती ,और रात भर घर के बच्चे उँचे ब्रांडों की जींस के मोटे कपडे को खाकों पर रखकर कैंची से कटाई करते ताकि सुबह कैंची के जोर से सूज गई हथेलियां खाली न हों उनपर चँद रुपये हों ,परिवार के खस्ता हाल महौल को उनका योगदान ..! 
गरीब परिवार की पुनर्वास कालोनी के तंग गरीब घर की बेहद काली बेटी से कौन शादी करेगा ये दुख मां व नानी के अपराधबोध में बदल रहा था। अपने कालेपन और बदसूरती के अहसास की पीडा और उसपर गरीबी के अंधकार से भरा भविष्य । समाज के आवारा शिकारियों के लिए ऐसे घरों की बेटियां सबसे आसान शिकार होती हैं ! पडोस के घर में रहने वाले एक लड्के ने प्रेम और शादी का यकीन दिलाकर उस लड्की का शारीरिक शोषण किया। मां व नानी ने इस पर यह सोच कर कोई ऐतराज नहीं किया कि वह लडका अपना वादा निभाएगा ,उनकी बेटी की जिंदगी बन जाएगी ! घर के अन्य लोगों से छिपकर यह विडम्बनापूर्ण व्यापार कुछ दिन चला और बाद में लड्के दृश्‍य से गायब हो गया। लड्की को एक ऎसा शारीरिक रोग संक्रमित कर गया कि कई महीनों नानी के अस्पताल में इलाज चला , सेहत और गिरी , मन की बची खुची ताकत जाती रही। पर तीनों औरतों ने हार नहीं मानी। वे फिर से अपनी ताकत जुटाने लगीं ! बच्ची ने छूटी हुई पढाई को फिर से शुरू किया । जीवन को एक लास्ट चांस देने के लिए , मांओं के सीनों को ठंडक देने के लिए। पर उसकी दोबारा उठने की उसकी उतावली , उसके पीछा न छोडने वाले दुर्भाग्य ,और उसके दुर्जेय हालातों ने मिलकर फिर से एक खेल खेल डाला ! उसने परीक्षा में नकल की और यूनिवर्सिटी की टीम के हाथों पकडी गई । अपने भयों ,दबावों ,और असुरक्षा के प्रभाव में उसने जो गलती की उसके कारण यूनिवर्सिटी से निकाल दी गई। 
उसका गरीब अभागिन और बदसूरत बेटी होने का अपराध बोध अब और अधिक बढ गया था ! अपनी जुझारू मां व नानी को निराश करने पर अब वह पूरी तरह से इस धरती पर खुद को बोझ मान रही थी। इतनी सी उम्र में उसने जीवन के साथ कई समझौते कई वादे कई प्रयोग कर डाले। उसे नहीं पता था कि वह क्या बनना चाहती थी या क्या करना चाहती थी। पर उसे लगता था कि जब मां व नानी का इतना विश्वास है तो वह जरूर कुछ न कुछ कर सकेगी। कुछ ऎसा कि उसके कालेपन पर उसे चिढाने वाला समाज उसको कम नफरत से देखेगा। उस दलदल में जिसे सब समाज कहते हैं किसी ठूंठ को पकडकर वह भी पैर जमाकर डटे रहना चाहती थी। उदासीन पिता और सुन्दर छोटी बहनों की नजर में एक जगह की दरकार उसके मन में टीस की तरह पनप रही थी। और वो लडका जिसने उसकी सेहत ,दिल और शरीर के साथ खिलवाड किया उसको चाहे वह जहां कहीं भी हो उसकी औकात बताना चाहती थी। पर अब कुछ नहीं हो सकता था अब वह टूट रही थी , पांव कांप रहे थे मन दुनिया से उठ चुका था , मां व नानी की हिम्मत का तिनके बराबर सहारा इतना मजबूत नहीं था कि तेज थपेडों में उसे बचा ले जाए ! निराशा की उस सीमा पर वह थी कि अब मुत्यु ही उसे वह  होना लग रही थी। क्योंकि उसके हिसाब से अब यही  सबसे सरल रास्ता था ।
मैं उसकी बीते साल की एक लाचार अध्यापिका अपने सारे फलसफों, सारे दिलासों सारे स्नेह के बावजूद समाज व हालात की शिकार उस निरीह् को उसकी पीडा से नहीं उभार पा रही थी। क्योंकि दरअसल मैं खुद कटघरे में खडा अपराधी थी ।