Saturday, February 24, 2007

.....मुजरिम हाजिर है प्रत्‍यक्षा

अब पकड़ाए में आ ही गए, तो भागना कैसा। ..आई सरेंडर। आपने भी खूब पकडा हमें मैंने एक परंपरागत शोधार्थी वाली भूमिका में चिट्ठा जगत के अंतर्मन की तहों तक पंहुचने की कोशिश शुरू की ही थी कि इस खेल में शामिल कर ली गई। अब जब खेल के मैदान में उतर ही आई हुं तो पूरी सच्चाई से खेल के नियमों को निभाते खेलना ही होगा ..शायद खेल खेल में नया कुछ पा जाऊं। प्रत्यक्षा जी, दरअसल मैं बिल्कुल नयी चिट्ठाकार और शोधार्थी हुं इसलिए इस खेल का महत्व अभी समझ ही रही हूं। साथ ही अपने पांच शिकारों को चुनने के झमेले में भी फंसी हुं। तो पहले आपके पांच सवालों के जवाब दिए देती हूं बाकी बातें बाद में



  1. जिंदगी की सबसे धमाकेदार सनसनीखेज वारदात--मेरा इस संजालजगत में प्रवेश करना ही है। शायद.... पतिदेव नामक प्राणी का हर वक्त कंप्यूटर के आगे बैठे रहना बहुत अखरता था और अब आलम ये है कि मामला ही उलट गया है अब होड होती है क्योंकि दोनों को ही ब्लॉग पर पोस्टियाना होता है जबकि कंप्यूटर एक ही है

  2. चिट्ठा जगत में भाईचारा और बहनापा सत्य और माया के बीच का कुछ तत्व है ये विवशता भी है और सहयोगपूर्ण सहअस्तित्व भी इस बहस पर बाकी प्रकाश शोध के दौरान डालती रहूंगी

  3. अंतरंग सवाल- वैसे कभी अवसर मिला तो जानना चाहूंगी कि जीतू, अनूप, रवि रतलामी आदि को कैसा लगता है जब उन्‍हें एक दिन अपने ही खड़े किए चिट्ठाजगत में आप्रासं‍गिक हो जाने का खतरा दिखाई देता होगा।

  4. टिप्पणी का जीवन बहुत महत्व है-- इससे टिप्‍पणीकार हर चिट्ठाकार में भाईचारा और बहनापा बढता है

  5. हां चिट्ठाकारी छपास पीडा को शांत करती है दैविक दैहिक भौतिक तापों में एक इस ताप को भी शामिल मान लेना चाहिए। अपन तो जबरिया लिखि है ......वाला दर्शन सही है अब अपन के लिखने से कोई दुखी हो तो हो...

मेरे पांच शिकार

सभी चिट्ठाकार बंधु इस श्रृंखला को तोड़ने के लिए स्‍वतंत्र हैं, मैं बुरा नहीं मानूंगी।
पांच सवाल



  1. आपकी चिट्ठाकारी का भविष्य क्या है ( आप अपने मुंह मियां मिट्ठू बन लें कोई एतराज नहीं)

  2. आपके पसंदीदा टिप्पणीकार?

  3. तीसरा सवाल वही है जो प्रत्यक्षा जी का तीसरा सवाल था यानि किसी एक चिट्ठाकार से उसकी कौन सी अंतरंग बात जानना चाहेंगे ?

  4. वह बहुत मामूली बात जो आपको बहुत परेशान किए देती है?

  5. आपकी जिंदगी का सबसे खूबसूरत झूठ?

पांचों शिकार पांचो सवालों के सीधे सच्चे जवाब जल्द लिखें (और हां बकौल प्रत्यक्षा जी भगवान को हाजिर नाजिर जान कर लिखें )

Tuesday, February 20, 2007

का करूं सजनी..... आए ना बालम.........



घिसटते फिसलते हमने बिता ही दिए कई साल ।कुछ दिमागदारों और आसनधारियों की मिली जुली कवायदों के नतीजे में दोस्त-दुश्मनी की लुकाछिपी होती रही। रचनाकार बेकार ही कलम फेर -फेर कागज भरते रहे और दोनों ओर की जमीनों पर अदने लोग रेंगते -जीते -मरते रहे.... हां भाई ... कह सकते हो मेरे इस भावुक प्रलाप को कल की दुखद खबर से उफना हुआ...पर आप भी अपने अंदर कहीं ऐसे ही किसी तूफान से जूझ रहे होंगे शायद.... !
आंखें थक गईं उसकी राह देखते देखते जीभ पर छाले पड गए उसे पुकारते -पुकारते ....फिर पता चला कबीर के कहे का मर्म- अंखडियां झाईं पडी पंथ निहारि निहारि, जीभडिया छाले पडे राम पुकारि पुकारि.... .........उसे देखा भी तो नहीं हमने कभी !कैसा होगा वह ? क्या होगा उसका नाम ? कहते हैं आधी सदी से भी पहले एक बार उसके आने का शोर हुआ था--आधी रात के सन्नाटे में चुप्पी साधे हम उसकी राह तकते रहे ...सुबह हुई...और किसी खुमारी में हम यह समझ बैठे कि वह आया था....खैर छोडिए भी .... .....बडे बडे पंडितों से, पढने लिखने वाले समझदारों से,ताकत के मुंशियों से ,इससे- उससे सबसे पूछते फिरे .................ठीक-ठीक तो कोई भी नहीं बताता है और हम मायूसियत में अकेले बैठे यूं ही गा देते हैं--का करूं सजनी आए ना बालम........!

Monday, February 19, 2007

लवली हेयर वेरी फेयर....इज दैट यू....?


अभी पिछले दिनों नस्लवादी कौमौं के खिलाफ शिल्पा शेट्टी प्रकरण के बहाने एक बहस मुबाहिसा सुनाई दिया।दुनिया की समतावादी,नस्लभेद विरोधी ताकतें इस मुद्दे पर लामबंद होकर एक बार फिर शांत हो गईं। बात आई गई हुई ।आस पास के हर छोटे बच्चे के सिर पर अपने इस संघर्ष का सारा बोझ लादकर हम भी बेखबर होकर जीने लगे । दुनिया के दस्तूरों, लडाइयों, बहसों,और खतरों से नावाकिफ इन बच्चों को अपने स्कूली जीवन की प्रारंभिक कविताओं में वह कविता आज भी सिखाई जा रही है जिसे हमने भी अपने बचपन में याद किया और गाया था .....
Chubby cheeks ,dimpled chin,
Rosy lips,teeth with in,
Curly hair ,very fair
Eyes are blue ,lovely to,
Teachers pet is that you?
Yes ,Yes ,Yes
हमारे आस पास इस तरह के सबकों को याद करता बच्चा अगर इसमें छिपे निहितार्थों को अपनी बोली में पूछ बैठे तो हम क्या जवाब देंगे ..................................?

Saturday, February 10, 2007

चीते की तलहटी में कोसी का घटवार


काफी पहले शेखर जोशी की प्रसिद्ध कहानी 'कोसी का घटवार' पढ़ी थी। कोसी किनारे की पनचक्‍की के पाटों की खिसिर-खिसिर करती नीरसता और खिचड़ी बालों वाले आटे की सफेदी से ढके, फौजी पैंट को घुटनों तक चढ़ाए घटवार गोसाईं के जीवन की निर्जनता भीतर तक पैठ गई थी। ‘.....कोसी बह रही थी......जीवन चल रहा था....घट की चक्‍की की मथानी पर पड़ता पानी घट-बढ़ रहा था.....’
आज वह गोसाईं मिल ही गया। कोसी किनारे नहीं, टाईगर नाम के तीस मीटर ऊंचे झरने की सूनी संकरी तलहटी के मुहाने पर। पहाड़ों की संकरी उतराई पर बसा नामहीन सा गॉंव जितना ठहरा-धीमा वह ग्राम्‍य जीवन था उतना ही तीखा-तेज दहाड़ता वह झरना।
गाड़ी कच्‍चे बेहद रपटीले और संकरे रास्‍ते पर कुछ दूर तक ही जा सकती थी बाकी का पैदल पहाड़ी उतराव शहरी मिजाज को चुनौती दे रहा था। आधा घंटा लगेगा नीचे उतरने में, साहब, रास्‍ता भी छोटा, ढलवां और कचचा मिलेगा। मिल गया था दो पहाड़ी बच्‍चों का साथ....वह भी बिना मॉंगे। उत्‍तरांचल पर्यटन विकास निगम का भविष्‍य में उस स्‍थान का उद्धार करने वाला बोर्ड....पहाड़ की ढलान को दो दो फीट छीलकर बनाई गई पगडंडी। कहॉं है वह झरना ? कब दिखेगा... हॉं शायद उसके पानी के गिरने की ही आवाज है पैरों की गति बढ़ जाती है उससे भी ज्‍यादा धड़कनों की....। तलळटी तक पहुँचने में भय, उत्‍सुकता ओर कैसे रहते हैं ऐसे नीरव सौंदर्य में दुनिया से कटे ये पहाड़ी ग्रामीण, जैसे शहराती सवालों से टकराहट सबका भारी सहारा था। पानी की दुबली धाराओं के ठीक किनारे बसा छोटा सा घट और घटवार पर नजर पड़ी। ऊपर से उतरते जनों की स्‍वरलहरियॉं सुनकर मेहमाननवाजी के सवर में चिंहुकता खिचड़ी वालों, आटे की सफेदी में सराबोर मैले फौजी रंग के कपड़ों में खड़ा घटवार। ‘आओ जी-- आओ आओ’ आवाज में पुरानी पहचान का दावा गुँजाता ......कया यह भी कहानी में अपने पाठक से मिल चुका है ? दो तीन तीखे पतले घुमावों और पानी की झीनी धाराओं पर पड़े पत्‍थरों पर से झरने की ओर ले जाता घटवार। यहॉं झरने को जी कम ही घूमने वाले जानते हैं। सीधी खड़ी सपाट पहाड़ी से नीचे गिरते सफेद पानी की महीन ठंडी छींटें। गिरते पानी से बने ताल के कोने पर ही खुलती पतली गुफा दिखाई दी। इस गुफा में काफी अंदर तक जा चुके हैं ये, खत्‍म ही नहीं होती....दोनों बच्‍चों में से एक अपनी मीठी जौनसारी में फुसुफसाया था।


घट को बाहर भीतर से बार बार देखतीं हमारी ऑंखें अपने साथ सजीव चलचित्र ले जाने की तैयारी में जुटी थीं। घटवार की आवाज कानों में पड़ी ‘एक मन पर तीन किलो आटा होता है पिसाई का, अकेले क्‍या खाना कितना खाना’ तीन ओर पहाड़ से घिरे झरने के पानी की धार से अविकल चलते धट के सूने निर्जन स्‍थल पर अधेड़ घटवार की लक्षमा के बारे में मन खुद ही कल्‍पनाशील हो उठा। खाने पीने के थैले से बिस्‍कुट के पैकेटों को निकालकर उन मैले कुचैले बच्‍चों की ओर बढ़ाते हुए मन पूछने को हुआ ‘तुम्‍हारी मॉं का नाम क्‍या है ? कहीं लक्षमा तो नहीं ....?
घटवार दूर खड़ा किसी के सिर से पिसान का बोझ उतरवा रहा था। मन हुआ कि पूछे लक्षमा से भेंट हो गई और क्‍या उसने चार पैसे जोड़कर, गंगनाथ का जागर लगाकर भूल चूक की माफी मॉंग ली। शाम रात में बदल रही थी और अंधेरे पहाड़ी रास्‍ते पर हमें तेजी से ऊपर चढ़ना था। रोशनी के नाम पर एक टार्च नाम के सहारे।

Monday, February 05, 2007

विचार:एक छाता

पिछले जीवन के अब तक के सभी अनुभव बताते रहे विचार से ज्यादा जरूरी है -विचारधारा ।आपके भविष्य का ग्राफ निर्धारित होता है इस बात से कि आपने किसी विचारधारा का दामन पकडा या नहीं। विचारधाराएं विचारों का छाता बन गई हैं। मेरे आस पास के कुछ लोग जिन्होंनें एसी छतरियों के बिना चलना शुरू किया था आज भी चल रहे हैं और आज भी ये व्यव्स्था हँसते हुए कह रही है उन्हें -कमअक्लो, धूप से बचने के लिए छाता जरूरी है।
मेरी एक पुरानी कविता


धूप से बचने के लिए जरूरी है छाता
हमारे छाताधारी समाज में छाते
कम हैं और लोग ज्यादा
कुछ के पास छाते हैं पैबंद लगे
तो कुछ छातों के मालिकाना हक
अभी विवाद का विषय हैं

और देखो उधर कुछ कमअक्ल
सिर पर ताप सहते कडी धूप में
चल रहे हैं गल रहे हैं
भाई समझाओ
अपने लिए छाते का करें इंतजाम
जरूरी है धूप से बचने के लिए एक छाता