Tuesday, September 25, 2007

मुझे कदम कदम पर चौराहे मिलते हैं बाहें फैलाए

रोज कुंआ खोदो और पानी पियो -वाली कहावत का रचयिता हमारी नजरों में अब तक का सबसे बडा दूरदर्शी था जिसने बहुत पहले ही ब्लॉगिंग करने वालों की नियति का बहुत पहले ही अंदाजा लगा लिया था !यहां एक दिन भी नागा कर जाना आपका पेज रैंक गिरा सकता है ,श्रद्धालु पाठकों की भीड का रुख मोड सकता है , धडाधड महाराज की नजरों में आपकी इज्जत का फलूदा बना सकता है ! यहां बडे बडे लिखवैये बिना नागा लिख रहे हैं और हम हैं कि रोज परेशान रहते हैं कि आज क्या लिखॆंगे !बहुत काम का मसला न मिलने पर लगता है कि कम काम के मुद्दों को ही उठा लिया जाए ! हर समय काम के और खूबसूरत मसलों पर लिखना भी जरूरी नहीं है ! कभी कभी दिमाग के तंतुओं को आराम की छूट हम दे देंगे तो छोटे नहीं कहलाने लगेंगे ! क्या लिखॆं ? का जवाब जैसे ही पा लेते हैं क्यों लिखॆं  ? का सवाल सामने लहराने लगता है! क्या लिखॆं का जवाब खोजते हुए इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि बस कुछ भी लिख डालो ! और क्यों लिखें का सवाल हमॆं इन निष्कर्षों पर पहुंचा देता है कि लिखो शायद क्रंति हो जाए ,या कि किसी को आपका लिखा पसंद आ जाए और वह आपकी भाषा में अपने दिल की बात पढ पाए ,या हो सकता है कि आत्मसाक्षात्कार हो जाए ,या फिर कि आज तो बस लिख डालो पेज रैंक तो बच जाएगा -कल देखॆंगे कुछ बढिया सा लिख सके तो .....

ठीक इसी जद्दोजहद की वजह से कभी कभी हमें मुक्तिबोध की कविता "मुझे कदम कदम पर" बिलकुल भी समसामयिक नहीं लगती की लगती जिसमें वे कहते हैं कि आज के लेखक की दिक्कत यह नहीं कि कमी है विषयों की बल्कि विषयों की अधिकता उसे बहुत सताती है और वह सही चुनाव नहीं कर पाता है कि किस पर लिखे ! जब मुक्तिबोध लिखते हैं कि "मुझे कदम पर चौराहे मिलते हैं बाहें फैलाए -एक पैर रखता हूं सौ राहें फूटतीं " तब हम इसमें निहित समसामयिकता तभी देख पाते है जब हम यह मान लेते हैं कि भई यह तो बडे कवियों के लिए कही गई बात है हम छोटे कवियों पर कैसे लागू हो सकती है ! खुद को छोटा लिखवाडी मान लेने पर न कोई बंधन होता है न नैतिक बोझ का दबाव न विषय चयन की समस्या से ही गुजरना पडता है ! सो हम बच जाते हैं ,नागा भी कर पाते हैं महान विषयों पर कलम चलाने के जोखिम की संभावना का तो कोई सवाल ही नहीं उठता !

.... हां ठीक ऎसे में ही कलम चलती है अपनी मर्जी से हमारे भीतर के लेखक के इशारे पर नहीं ! कलम खुद कहती है कहानी बिना लागलपेट के साफगोई से ..! जहां हमारा महान लेखक अपने वजन के तले नहीं दबा पाता कलम को ! जहां कलम हल्की होकर चलती है !जहां कलात्मक मन देख पाता है वे राहें जिनपर अभी हम चले नहीं जो बीहडों से होकर गुजरती हैं और जो शायद बहुत बहुत लंबी हैं कि जिनपर चलते चलते पैरों में उठ आऎ फफोले ..घाव ! पर हम जब भी चलते हैं इन बीहडों से गुजरते रास्तों पार् तो होता है  सत्य सुंदर और शिव का कलात्मक अभिव्यंजन.....शाश्वत अभिव्यंजन...

Thursday, September 20, 2007

जरा हौले हौले चलो मोरे साजना हम भी पीछे हैं तुम्हारे....?

स्त्री का परंपरागत संसार बडा विचित्र भी है और क्रूर भी है -यहां उसकी सुविधा ,अहसासों , सोच  के लिए बहुत कम स्पेस है !गहने कपडे और यहां तक कि वह पांव में क्या पहनेगी में वह अपनी सुविधा को कोई अहमियत देने की बात कभी सोच भी नहीं पाई ! अपने आसपास की लडकियों महिलाओं के पहनावे की तरफ देखते हैं तो उनकी जिंदगी की विडंबना साफ दिखाई देती है ! घर बाजार ऑफिस हर जगह दौडती स्त्री पर भरपूर नजाकत लाने और पर-ध्यान को केन्द्रित करने की पुरजोर आशा में अपने पहनावे को सहूलियत के साथ बहुत बेरहमी से अलग करे दीखती है ! परंपरागत महौल में पली बढी यह स्त्री अपने दर्शन में स्पष्ट होती है --कि उसका जीवन सिर्फ पर सेवा और सबकी आंखों को भली लगने के लिए हुआ है ! छोटी बच्चियां घर- घर , रसोई -रसोई ,पारलर-पारलर खेलकर  इसी सूत्र को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लेने की ट्रेनिंग ले रही होती हैं .......ठीक उसी समय जब उसकी उम्र के लडके गन या पिस्तौल से मर्दानगी के पाठ पढ रहे होते हैं या कारों की रेस या बेमतलब की कूद -फांद- लडाई -झगडे के खेल खेल रहे होते हैं  ! एक जगह घर रचा जा रहा है एक जगह बाहर !

कोई कह सकता है कि यही है गहरे संतुलित समाज की नींव ! वेलडिफाइंड ! गाडी के दो पहिए अपनी अपनी पटरी से बंधे ..! हम कहेंगे नहीं नहीं ! सौ बार नहीं ! अपनी कॉलेज की बच्चियों को भी कभी कभी समझाते हैं ! वे नहीं समझना चाहतीं !ज्यादातर निम्न या मध्य वर्गीय परिवारों से आई हुई ये छात्राऎं अपने लिए बेहद असुविधाजनक पहनावे में आती हैं ! गर्मी व उमस में सिंथेटिक कपडे , बेहद ऊंची हील के सैंडल बार बार फिसलते दुपट्टे में जडी तरह तरह की लटकनें ....

कभी कभी आसपास नवविवाहित जोडों को देखने पर भी अजूबा होता है !  रास्तों में बाजारों में काम की जगहों में चमकीले तंग कपडों में फंसी ,पल्ला और उसकी जगह जगह उलझती लटकनें संभालती रंगी पुती  स्त्रियां ! अपने आप संभलकर चल पाने में असमर्थ पति की बाहं का सहारा लिए लिए कभी कभी लुढकने को होती स्त्रियां ! अजीब अजीब प्लेटफार्म वाले सैंडलों की हीक को मेट्रो और उसके प्लेटफार्म की दरार से निकाल कर हडबाडाती स्त्रियां ! अपने फिसलने पल्लू को संभालकर कंधे पर डालते हुए अपने पीछे खडी सवारी के मुंह पर मारती स्त्रियां !

इनके लिए ये नजाकत है ..फिमिनिटी है ..मजबूरी है ...फैशन है ... पता नहीं ! पर इतना तो साफ है कि ये अब घर में बंद सजी धजी घर संवारती घरहाइन नहीं रहीं है ! रीतिकाल भी अब जा चुका ! ये तो निकली हैं पढने.....लडने ...जूझने....! बराबरी  पर आने .. !पर अपने संधर्ष में अपने ही साथ नहीं हैं ये पैरों की हील ,ये पल्लू ,ये लटकन , ये नजाकत ! कहां से आ जाएगी बराबरी ! कैसे चलेगी मर्द को पीछे छोडती ये आगे ! ..क्या यही कहना होगा कि आप जरा धीरे चलें क्योंकि हम आपसे तेज नहीं चल सकतीं या अपनी ही चाल को बनाना होगा दुरुस्त , तेज और दमदार .........तो बदलें खुद को .....? और करें शुरुआत पहनावे से ही .........?  .....और आओ कहें उससे कि तुम चलो अपनी चाल से अपनी गति से और अब हम चलेंगी अपनी चाल और गति से और तुम्हारे साथ चलेंगी ...आगे भी बढेंगी ....

Monday, September 10, 2007

दे आर BAD BAD गर्ल्स

स्त्री विमर्श वाले बहसते विमर्शते रह गये और उधर लडकियों ने घोषणा कर डाली कि अब उनके अच्छे बने रहने का जमाना गया ! वे गा उठी 'वी आर बैड बैड गर्ल्स....जमाने को सुनना पडा कि वे कह रही हैं कि वे गंदी लडकियां हैं...."चक दे इंडिया "फिल्म की हॉकी टीम की लडकियां उद्बबाहु धोषणा करते हुए जो गीत गाती हैं वह है -

ना तो रोटियां पकाऎगी

ना छ्त पे बुलाऎगी

ना नंगे पैर आऎगीं

ना हंस के रिझाऎंगी

ना सर पे बिठाऎंगी

ना गोरी होके आंऎंगी

ना नखरे उठाऎंगी.....उन्हें नहीं दिखना सुन्दर -नाजुक और गोरी ,उन्हें नहीं तैयारी करनी पूरा बचपन एक दूल्हे को रिझा लेने की ,वे नहीं करेंगी सेवा , उन्हें नहीं चाहिए तारीफ या आपकी छाया ,आपका नाम ! वे नहीं अपने सपने छोडकर बाकियों के सपनों को पूरा करने की मशीन बनेगीं वे आपकी दी हुई जिंदगी नहीं जिऎंगी ....ये जिद की पक्की ,बहुत खूंखार ,बेशर्म ,अडियल , बेखौफ लडकियां हैं...

आह...... भौंह कटीली -आंखे गीली- घर की सबसे बडी पतीली भरकर भात पसाने वाली परंपरागत भारतीय लडकियों की बुद्धि कैसे भ्रष्ट हो गई ? संरक्षणशील लज्जाशील कर्तव्यशील शीलवती भारतीय लडकियां अब घरबार को दुत्कारकर इतनी बेपरवाह होकर निकल पडेगीं अपनी पसंद के रास्ते पर ! परिवार का क्या होगा ? समाज का क्या होगा ? मर्दवादी संसचना का क्या होगा ?

उफ............. उफ ये छुट्टी लडकियां वह सब नहीं करेंगी जो अब तक करती आई हैं तो क्या करेंगी ? क्या पा लेंगी ? क्यों पा लेंगी ? वे साफ कह रही हैं कि वे अच्छी लडकियां नहीं हैं इसलिए उनसे कोई भी कोई उम्मीद न रखे ! वे अब वह करेंगी जो वे हमेशा से करना चाहती थी ! वे अब नहीं मानेगी किसी भी सत्ता को और न ही किसी संरचना से कोई भी उम्मीद करेंगी ! वे आपके बनाए खांचे को तोडकर बाहर निकल गई हैं और अब किसी भी खांचे को अपने आसपास नहीं बनने देगी ! वे खुद कह रहीं हैं और बहुत साफ साफ कह रही हैं कि वे गंदी लडकियां हैं ! गंदी इसलिए क्योंकि आपके लिए अच्छी लडकियां जैसी होनी चाहिए वैसी वे नहीं हो सकती अब ! गंदी लडकियां कहलाने में जो आजादी है उसका भरपूर इस्तेमाल कर वे आपको और आपके ढांचों को ठेंगा दिखा देंगी !..................तब आप केंद्र में बैठे रहते थे जनाब और उन्हें अपने आसपास उलझाऎ रखते थे अब वे आपमें नहीं उलझॆगी ! अपने रास्ते चुनेंगी और अपने भरोसे अपने तरीके से चलेंगी !

आप क्या सोच रहे हैं कि ये क्रांति है उनकी या कि जंग है ? नहीं जी ये आपका और आपके ढांचों का उपहास है जिन्हें आपने बडे जतन और चालाकी से बनाए रखा अबतक ! जिन जडों में आपने नापतोल कर सिंचाई की वे अब आपकी करतूत पहचान गईं हैं इसलिए वे फैलेग़ीं जी भर फैलेंगी ......उन्होंने गंदी लडकियां होने के रिस्क को चुना है जानते बूझते चुना है.....वे आपकी मूल्य व्यवस्था को धता बताकर चल पडी हैं और आप उन मूल्यों की पोटली सर पर धरे बीच बाजार खडे हैं कि अब आपका क्या होगा ....? नहीं उन्हें गंदी लडकियां कहलाने में कोई ऎतराज नहीं ये उनके लिए गाली नहीं ! अच्छेपन के बोझ तले दबे रहना अब और नहीं गंदेपन के खिताब का वे पुरजोर स्वागत कर रहीं हैं !लडकियां आपको चुनौती रहीं हैं खबरदार उनके रास्ते में मत आना ...उन्हें रोकने की कोशिश मत करना ...उन्हें बांधने का ख्वाब मत देख लेना ....

वो देखो ...वे चमक रहीं ..वे हंस रहीं हैं ...उनपर अब कोई भार नहीं है ..कोई नकली आवरण अब नहीं ढोना है उन्हें....वे अपने बूते उडेंगी डूबेंगी तैरेंगी आप रोक नहीं पाऎगे.....सिर्फ इतना कह पाऎंगे .....वो देखो वो रही ...,.गंदी लडकियां ......येस दे आर बैड बैड गर्ल्स....

Friday, September 07, 2007

मुझे भी चांद चाहिए

ये आम औरतें भागती दौडती सी हरदम

इन्हें क्यूं चांद चाहिए

मैंने बहुत बार सुना है इन हांफती दौडती औरतों के मुंह से

हां किसी दिन चांद चाहिए

पर अभी तो नहीं

अभी तो अभी का झमेला ही बहुत है

और चांद भी तो दूर है बहुत

यह भी कि--अभी तो पैरों की जमीन ही नहीं पा सकीं पूरी

अभी तो चांद को देखने  भर का मौका नही

घर और बाहर बस बनाए रखने की जंग में लगी हूं अभी !

चांद चाहिए पर किसी मुनासिब वक्त पर

जब लगे कि हां पा ली जमीन भी

ये औरतें बातें करती हैं अक्सर एक दूसरे से

ऑफिस के रास्ते में ,बस के सफर में ....

बाजार के रास्ते में दो पल रुककर बतियाती ये औरतें अक्सर

बातचीत के बीच में शर्मिंदा हो रही होती हैं

कि इस चुराये हुए वक्त में वे फलां काम

कर लेतीं तो शायद सबके लिए अच्छा होता

आंचल संभाले भागती  जूझती ये औरतें

अपना हर जरूरी काम कर रही होतीं हैं

कोई और जरूरी काम छोड कर....

अक्सर दिखती हैं आसपास हाथ बढाकर

 चांद को छूने की तमन्ना पाले औरतें

सपनों में ये बुनती हैं पुल

और हकीकत में सोच रही होतीं हैं अक्सर चांद.....

Tuesday, September 04, 2007

मैं यार बनाणा नी चाहे लोग बोलियां बोलें ...


आजकल अपना ईमेल बाक्स खोलते ही एक दो ऎसे मेल जरूर दिख जाते हैं जिनमें पूछा गया होता है-- "इज फलां युअर यार ..." और आगे एक्सेप्ट या रिजेक्ट करने के उदार ऑप्शंस भी दिए गए होते हैं ! ऎसे रार- वादी युग में यार बनाने के इतने मौके हम सब को मिल रहे हैं और हम राग अलापते हैं कि समय बडा खराब आ गया है.... दोस्तों की कमी हो गई है ...भाईचारा खत्म हो रहा है ! भई हम तो अब ऎसे यारी के ऑफर पाकर इन दकियानूसी प्रलापी खयालों को तज चुके हैं ! दोस्ती के नए वर्चुअल कांटेक्स्ट में जीने का समय आ गया है और हम सब हैं कि अपने आस पास ओल्ड फैशंड मित्रता टाइप बातों की उम्मीद कर रहे हैं ! यार ये ग्लोबल युग है ! यहां बहुत दिल मिला कर पते के मित्र बनाने में लगे रहोगे , दोस्ती निभाने ..दोस्त के सुख दुख के साथी बनने या मित्र धर्म के पैमाने पर अपने और अपने मित्र को कसने के फेर में पडोगे तो बच्चू मारे जाओगे ! देखते नहीं टाइम कहां भाग रहा है ! अब दो चार दोस्तों से काम नहीं चल सकता दोस्त हों तो इतने कि सबों के नाम याद रखने मुश्किल हों जाऎं ....बनो तो इतनों के दोस्त बनो कि आपके नेट नाम के साथ लिखा दिखाई दे -'' फलां (220) या " ढिमकां (305) !ऎसे धांसू च फांसू (आलोक जी चोरी का इल्जाम न लगाऎ और कोई फेंकू च कैचू मुहावरा नहीं न मिला ) नाम - नंबर वाले, हममें हीन भावना की उत्पत्ति कर देने में सक्षम यार की दोस्ती ऎक्सेप्ट न करें तो और क्या करें.....बस आप फंस ही जाते हैं आकाश दिशा की ओर उठे हुए अंगूठे को क्लिक कर अपनी यारी लिस्ट भी बढा डालते हैं ! वैसे इस प्रेशर में ना भी आऎ तो आपकी नैतिकता आपकी इंसानियत (जिसका आप दम भरते रहे हैं ) आपको परेशान करेगी क्योंकि यारी के ऑफर को ठुकरा देने पर ऑफरकर्ता के लटके मुंह की कल्पना भी आप :( के माध्यम से कर पा रहे होंगे !


अब दिल की बात कहें--- ये दोस्ती, मित्रता सब बेकार के हिप्पोक्रेटिक लफ्ज हैं असल मजा तो "यारी" में है ! यारी के नए ग्लोबल मायनों में यह लफ्ज --मजे , टाइम पास और ,टेंशनलेस, फर्जलेस फर्जी दोस्ती के भाव से चिरकाल के लिए नत्थी हो चुका है !ये फर्जी नाम के साथ मर्जी की दोस्ती का अनंत विस्तार है ! यहां टाइम एंड स्पेस मोल्डेबल और रिवर्सऎबल हैं ! मिनी -माइक्रो--स्लिम के जमाने में दोस्ती का मोटा लबादा ओढे कौन घूमे ? वैसे भी टाइम क्राइसिस की टॆंशन में नेट की यारी फायदे का सौदा है !करना ही क्या है कोई भी यार सिलेक्ट करके दोस्ती का ऑफर ही तो भेजना है या आए हुओं को उनकी फ्रोफाइल और थोबडा देखकर हां या ना करना है !


हमारे घर के सामने वाले मंदिर में बहु बेटों पोतों की ठुकराई हुई बुजुर्गवार औरतें हर दोपहर बाद फिल्मी गानों पर बने भजन माइक पर गाती हैं ! कल उन्होंने कृष्णजन्माष्टमी के आने की खुशी में जो भजन गाए उनमें एक था _नी मैं यार बनाणा नी चाहे लोग बोलियां बोलें ...नी मैं बाज न आना नी.....! उनकी कृष्णोपासना में भी गोपियों की ही तरह लोक- कुल की निंदा- आलोचना का डर नदारद था , अंदाज नया था ! वे भी निर्गुण निराकार की यारी में डूबी थीं ( वैसे हम कृष्ण को सगुण साकार के रूप में ही पढाते हैं ) और अपने जीवन के सूनेपन को कृष्ण की यारी से आबाद कर रही थीं ...सो हमारा यह फायदा हुआ कि अपने लिखे हुए इस खामखाह के विलापी लेख के लिए बहुत कैची सा टाइटल मिल गया !खैर वैसे अब आप फंस ही गए हैं तो बताते भी जाऎ -


"इज नीलिमा युअर यार "!

Monday, September 03, 2007

आंगन के भीतर .... आंगन के बाहर

आंगन के भीतर वसंत है

आंगन के बाहर पतझड आ बैठा है..

मैं नहीं चाहती कि देखें पतझड

मेरे बच्चे या कि पूछें सवाल

झडे पत्तों की ढेरी को देख

जिसे बनाया है अभी अभी किसी

सडक बुहारती मजदूरिन ने..

मैं नहीं चाहती कि उठे मेरे भीतर दर्द

और मैं उठा लूं लपककर उसका

दुधमुंहा बालक तपती जमीन से

मैं नहीं चाहती देखना उस ओर के पतझड को

मेरे लिए मेरा आंगन ही मेरा सत्य़ है...

पर क्या करूंगी उन सवालों का

उठे हैं जो मेरे नन्हों के भीतर

हैरान हैं वे एकसाथ दो ऋतुएं देख

अभी वे नहीं जानते कि सत्य क्या है

आंगन के भीतर का वसंत या कि

बाहर पसरा पडा पतझड

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