Friday, July 25, 2014

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

मैंने देखा कि उनकी आंखें विस्मय और कौतुहल से चमक रही हैं ....!!... कॉलेज में अपने पहले दिन अपनी अध्यापिका से उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि वह उनसे कहे कि आप परीक्षा में अंक लाने के लिए ना पढें... और न मैं उस पद्धति से आपको पढाउंगी जिससे विद्यार्थी परीक्षा में अंक तो ले आते हैं लेकिन अपने और अपने समाज के खिलाफ हो रही साजिशों को समझने और उनका विरोध करने की कुव्वत पैदा नहीं कर पाते !
हर नए साल कॉलेज में पप्पू पाठाशालाओं से पास होकर आने वाले विद्यार्थियों की इस जमात के दिमाग की खिड़कियों को अब नहीं तो कब खोलेंगे ? बेहतर है कि ये बच्चे जान लें कि व्यवस्थाएं सदैव व्यक्ति विरोधी होती हैं वहां केवल चूहेमारी चलती है ! कोई भी व्यवस्था, विरोध को नहीं उगने देना चाहती इसलिए ये सुनिश्चित किया जाता है कि शिक्षा के दुश्चक्र से एक भी क्रांतिकारी ना पैदा होने पाए ! व्यवस्थाएं कोई प्रश्न या असुविधाजनक स्थिति नहीं चाहतीं वे केवल भक्त चाहती हैं ...अंधभक्त ...जी हुजूर ..लिजलिजे गिलगिले चूहेमार.....! व्यवस्थाएं सारे कायदे -कानून और फैसले ताकतवर पूंजीपतियों के हक में बनातीं हैं ! ....व्यवस्थाएं सीसैट और फोर यीयर सिस्ट्म जैसे हथियार अपनाकर हमें ज्ञान और विकास के पहले पायदान पर भी पहुंचने देना नहीं चाहतीं ! वे हमारे बौद्धिक संसाधनों का विदेशी औपनिवेशिक ताकतों के हित में इस्तेमाल करती हैं....

.....मैंने उन्हें बताया कि एक '"कोड ऑफ प्रोफेश्नल एथिक्स "नाम की चीज विश्वविद्यालय में लागू की गई थी ताकि कोई भी टीचर विद्यार्थियों को सिर्फ सतही  और सूचनात्मक ज्ञान ही दे सके, उन्हें चिंतनशील प्राणी ना बना सके.... उन्हें आलोचनात्मक ज्ञान और विवेक ना दे सके !मैं इस आचरण संहिता का तहेदिल से विरोध करती हूं जो मेरे व मेरे विद्यार्थियों के शिक्षण - अधिगम के रास्ते में आए ! शिक्षक व्यवस्था का गुलाम ना होता है ना बनाया जा सकता है ! वह चाण्क्य हो सकता है वह गांधी हो सकता है ताकि कोई हिट्लर ना पैदा हो सके !.....
मैं साहित्य पढ़ाती हूं और साहित्य का काम ही है आइना दिखाना अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाना ! अन्याय और कुव्यवस्था के प्रति विरोध करने की प्रेरणा देना ..जब व्यवस्थाएं मनमानी करें तो उन्हें पलट देना ..क्रांति के जरिए एक समतामूलक समाज की स्थापना करने की पहल करना ..मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि रखने का धैर्य उत्पन्न करने की शक्ति का आह्वान करना ..अपनी सम्प्रभुता को हर कीमत पर बचाए रखने का हौसला देना ...!! मैंने अपने प्रिय नए विद्यार्थियों से हूबहू यही संवाद करते हुए उनमें यह विश्वास जगाया कि भले ही वे अति साधारण वर्ग के बच्चे हैं लेकिन वे इस देश का उज्जवल भविष्य हैं नए समाज की आधारशिला हैं नई क्रांति के अग्रदूत हैं और उनसे ही अब कोई उम्म्मीद बची है ..!!... इस व्यवस्था की सभी वंचनाओं , षड्यंत्रों ,अन्याय की परम्परा के लिए हम बड़ी पीढ़ी उत्तरदायी है जिसके लिए हो सके तो हमें क्षमा कर देना ! पता नहीं अपने इस संवाद में मैं कितनी सफल हुई होंगी पर अगर इनमें से एक भी विद्यार्थी जग गया तो विरोध और क्रांति की आग जलती रह सकेगी -

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

Monday, July 07, 2014

गुलामी का ग्रेंड-डिज़ाइन

सारा मामला ग्रेंडडिजाइन का है जनाब ! चाहे हमारे विश्वविद्यालयों पर चार साला शिक्षा नीति को थोपने की साजिश हो या उच्च - शिक्षा में सतही ज्ञान परोसेने वाले पाठ्यक्रमों के निर्माण की घटना हो या सिविल सर्विसिज में भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के आगे हीन बना देने का दुष्चक्र हो ...सब एक ही मास्टर प्लैनिंग का हिस्सा हैं ! ये उत्तर औपनिवेशिक इरा के अपने चरम रूप की झांकियां ही तो हैं जब हमारी भाषा , संस्कृति और ज्ञान पर "उनका ' नियंत्रण बनता जा रहा है ! ह्मारी भाषाओं को सरलीकृत करके उनको दीन- हीन और अनुपयोगी घोषित कर किया जा रहा है ! धीरे- धीरे हमें भाषिक पंगुता की ओर लेजाकर "वे" हमें अपनी भाषा की बैसाखियां पकडाना चाहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यदि मन को गुलाम बनाना है , सोच को अगुवा करना है तो पहले अभिव्यक्ति के तरीकों को और आवाज को छीनना होगा ! दासता के महान डिजाइन की संकल्पना करने वाले जानते हैं कि तोपों से और बाहरी बल से गुलाम बनाने की बजाय टार्गेट को मन से सोच से गुलाम बनने के लिए प्रेरित करना कारगर और चिरस्थायी तरीका होता है !
हमारे विश्वविद्यालयों में भी ज्ञान को अपग्रेडिड और आधुनिक रूप में पेश करने के नाम पर जो पाठ्यक्रम और उसके प्रारूप लागू किए गए वे इसी साजिश का नतीजा थे ! ज्ञान का सतही और स्तरहीन , ढांचाविहीन ,परिकल्पना विहीन डिजाइन !


इस डिजाइन को मिलिट्री रूल के रूप में लागू किया गया, असंसदीय तरीके थोपा गया और उसके लिए सभी लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया गया ! साफ था यह पाठ्यक्रम इस बात को सुनिश्चित करता था कि छात्र सतही ज्ञान ही हासिल कर पाए और वह इस सिस्ट्म में केवल कल्रपुर्जा बनकर रहे !वह सोचने- समझने और सवाल करने के काबिल न बचे और अंतत: परफेक्ट गुलाम पैदा किये जा सकें !
आज हमें देश में अलग अलग रूपों में जो लड़ाईयां लडनी पड रही हैं वो सब आखिरकार एक ही हैं ! अपनी भाषा और ज्ञान की सम्प्रभुता की ये लड़ाईयां हमारे अस्तित्व के लिए किया जाने वाला हमारा संघर्ष हैं ! पर इनको एक करके देखने और मिलकर जूझने की कुव्वत अभी हम पैदा नहीं कर पाए हैं ! सिविल सर्विसिज के अभ्यर्थियों द्वारा किया जाने वाला आंदोलन बहुत छोटे तबके का ही ध्यान खींच पा रहा है ! हमारे यहां दूसरे की लड़ाई में अपनी टांग न फंसाने की जो नीति है उसका खामियाजा हर आंदोलन को उठाना पड़्ता है जबकि इसका पूरा फायदा सत्ताधारियों को मिल जाता है ! वरना क्या वजह थी कि एक स्तरहीन पाठ्यक्रम: इतने तानाशाह तरीके से देश की सबसे बड़े विश्वविद्यालय पर रातोंरात थोप दिया जाए और देश को उसकी सूंघ तक ना लगने पाए ! उत्तर औपनिवेशिकता की  जटिल अवधारणा  आसानी से समझ  में आ  जाती है जब हम बड़े चिंतकों और विचारकों और साहित्यकारों को पढ़ते हैं ! प्रसिद्ध अफ्रीकी साहित्यकार  चेख हामिदू अपने उपन्यास "एम्बिगुअस एड्वेंचर" में लिखते हैं - " काले उपमहाद्वीप को देखें तो यह बात समझ में आने लगती है कि ' उनकी' तोपों की असली ताकत उस दिन महसूस नहीं होती जिस दिन वे पहली बार गोले उगलती हैं ...इन तोपों के पीछे नए स्कूलों की नींव होती है ! नए स्कूलों की प्रकृति में दो चीजें हैं - तोपों के गुण भी हैं और चुंबक के भी ! तोपों के जोर से इसने फतह हासिल की लेकिन अपनी इस फतह को टिकाऊ  रूप देने के लिए इसने शिक्षा का सहारा लिया ! तोपों से शरीर पर अधिकार किया और स्कूलों से आत्मा पर ! "
जब देश की शिक्षा नीति बाहरी ताकतों के अनुसार बनाई जा रही हो और मातृभाषाओं की हत्या की योजनाएं बनाई जा रही हों : ऐसे में बुद्धिजीवी तबके का दायित्व और बढ जाता है क्योंकि देश का एक बड़ा तबका इतनी दूरअंदेशी से देखने योग्य नहीं बनने दिया गया होता और दूसरा छोटा पर शक्तिशाली तबका "उनके" साथ मिली भगत में है ! आश्चर्य कि भाषाओं के दमन की नीति और अंग्रेजी के प्रभुत्व को आरोपित करने के खिलाफ चल रही लड़ाई अपने ही घर में अपने ही लोगों से है !अंग्रेजी की अनिवार्यता का फर्जी नियम लागू करके , देश की सर्वोच्च सेवा करने वाले तंत्र में अंग्रेजी भाषा और उसी के हितों की पूर्ति करने वाले तबके को काबिज करके -- हम दासता के परम शिकंजों में फंसने जा रहे हैं ! जाहिर है जिसकी भाषा होगी उसी के हित और अधिकार होंगे ! बेजुबान और शब्दहीन की क्या बिसात होगी ! इसी प्रक्रिया में भारतीयता, राष्ट्रीयता, संस्कृति , अस्मिता और विकास जैसे शब्द हाशिए पर पहुंचकर अपना अर्थ खो देंगे और केवल शब्दकोश में सुप्त पड़े पाए जाएंगे !