Friday, June 29, 2007
Monday, June 25, 2007
तो हाजिर है हिंदी ब्लॉगिंग पर मेरे शोध के परिणाम
क्या है ब्लॉगिंग
ब्लॉग़िंग ऎसी खोह है जामे सब खो जात
मनसा वाचा कर्मणा, जीवन वहीं बितात
ब्लॉगिंग ऎसी बानी है निसदिन करें बलात
यदि उच्चारें लोक में, बहुतहि मार हैं खात
ब्लॉगिंग के आनंद का कछु होत न सकत बखान
कहिबै कू सोभा नहीं करत ही मिलत परमान
फुरसत की यह लेखनी फुरसत मॆं पढी जाय
जबरन पाठक ढूंढि के , जबरिया जाई पढवाय
ब्लॉगित जाति से तात्पर्य
लोक जगत के सज्जन सभी मिलि मिलि यहां बतियात
टिप्पणी टिप्पणी खेलिके , हरतु परस्पर ताप
ब्लॉगर ऎसी जाति है जामें बहुत उपजाति
मैचिंग वाणी उवाचिए बैठिए एक ही पांति
ब्लॉगर ऎसा जीवडा जाके सिर नहीं पांव
कौन जाने किस नाम से कौन कहा कहि जाए
ब्लॉगिंग करि करि जग मुवा पापुलर भया न कोय
सबतें प्रेम ते भेंटिऐ , इंडिबलॉगिज कहलाय
गूंगे की यह सर्करा(चीनी) मन ही मन मुस्काय
और पूछें तो प्राणी यह सकत नहीं समझाय
ब्लॉगिंग का भविष्य एवं दिशा
ब्लॉगिंग करन जो मैं चला मन अकुंठ होय जाय
न जाने किस वॆश में खुद से खुद मिलि जाय
शुभ -शुभ मंगल लिखि- लिखि सहृदय को सहलाएं
जाकि अमंगल लेखनी तुरत ही गाली खाय
यह ब्लॉग का पंथ कराल महा तलवार की धार पे धावनो है
साचे ब्लॉगर चलें तजि आपनपौं(अहम)झिझकें कपटी जे निसांक (निश्शंक) नहीं
तुम कौन सी पाटी(पाठ) पढे हो लला लिखो ढेर पै पढत छटांक नहीं
गहे सत्य यहां निसिवासर ही उचरें सुरवाणी , अपवाद नहीं
कुछ सावधानियां
ब्लॉगिंग उतनी कीजिए कायम रहे कुटुंब
ब्लॉगराइन की व्यथा को दूर करें अविलंब
टारच गहि गहि सर्च किए ब्लॉगिंग के गुन - दोस
गुन दोसन की पोटली सम है यही संतोस
सर्च बहुत ही कीन्ही हम उत्तर बहु -बहु पाय
निष्कर्षन की पावती बहुविध दीन्हीं सुनाय
Wednesday, June 20, 2007
पल्लू के साए में राष्ट्रपति भवन
जब से मेरी सासू मां ने सिर पर पल्लू लिए प्रतिभा पाटिल की तस्वीर को टी वी – अखबारों में देखा है तब से वे अपने तजुर्बों और पूर्व कथनों की विजय गाथा गा पा रही हैं ! एक परंपरागत ,लज्जाशीला , मर्यादावाहिनी ,कुल -सेविका नारी –सिर पर आंचल माथे पर सिंदूरी बिंदी –अहा कैसी पवित्रता से भरी एक आदर्श भारतीय स्त्री-छवि ! पहले वे कहा करती रही हैं कि “ देखो सामने वाली डाक्टरनी को सिर पर आंचल लिए क्लीनिक जाती है सिलाई - कढाई सब जानती है, एक तुम आज कल की बेहयाई से सिर उघाडे घूमने वाली बहुएं जिन्होंने आजादी के नाम पे तबाही मची हुई है “!..... आज फिर एक बार उनकी दबी आवाज कडक हो उठी है प्रतिभा जी !
तो मैं आज जहां से चली थी फिर वहीं आ पहुंची हूं ! जाने क्यूं एक कवि लिख गए –पढिए गीता बनिए सीता , फिर किसी मूर्ख की हों परिणीता , भौंह कंटीली आंखें गीली , घर की सबसे बडी पतीली भर कर भात पसाइए........! सिर पर आंचल लिए दांत की पकड से उसे गिरने से बचाती घर बाहर के काम सवांरती आम भारतीय स्त्री ! जहां सब स्त्रियां एक सी हैं किसी का कोई अलग नाम नहीं अस्तित्व नहीं साडियां ही बताएंगी कि उनमें किसकी पत्नी या किसकी बहू लिपटी है.........
साडी का अपना समाजशास्र है , सिर पर पडे पल्लू का अपना अलग..... पर्दे पर उघडी “स्त्री” देह घर में साडी में ढकी “नारी” ! कितनी विराट खाई दो छवियों में , उन छवियों के नियंता समाज के द्वंद्वों में ... वैसे द्वंद्व भी कहां हैं न ? ये समाज तो विरुद्धों का सामंजस्य करने में हमेशा से माहिर रहा है ! कैसा द्वंद्व ...? अलग –अलग मकसदों के लिए इस्तेमाल होती स्त्री छवि , जिसे बनाने - तोडने में जुटी थकती - हारती - जीतती करोडो भारतीय औरतों का बिखरा हुआ संघर्ष ! घर-बाहर दोंनो दुनियाओं की आदर्श छवियों के मायाजाल में फडफडाती ....
प्रतिभा जी , आपके सिर पर पडा साडी का आंचल देश के नागरिकों को आश्वस्त करने वाला है ! यह सदियों से पाले - पोसे गए पुरुष अहम की आग पर पानी के ठंडे छिडकाव सा दिलासा देता सा है ! शीर्ष पर स्त्री है पर है तो हमारी गढी हुई छवि के साथ ही न ! ममत्व , सहनशीलता , पुरुष के वरद हस्त के सम्मान की भावना जो इस स्त्री चित्र से उपजती है कैसा निराला सामाजिक प्रभाव होता है उसका – ये प्रभाव सामंतीय मन को ढांढस दिलाता है ! दूसरी ओर नएपन के चक्कर से उगे औरत की आजादी - बराबरी वाले खयाल भी उपजाता है कि “ हम एक आधुनिक समाज हैं " !समाज का ये अर्जित संतोष , ये ग्लानि भाव से मुक्ति केवल ऎसे ही तो संभव थी मेरी सखी ! हमारी ये छवि हमारी भी कितनी बडी सहायिका है ऎसे ही तो हम आश्वस्ति हासिल करती हैं कि “ नहीं हम लुच्ची नहीं हैं , आजादी के मानकों का ईमानदारी से इस्तेमाल कर रहीं हैं ....और देखो तुमने हमपर जो विशवास किया हम योग्य थीं उसके ..” !.... एक मर्दवादी समाज के मन को तुम ही संभाल - समझ सकती हो , समाज की भावना को , अहम को लगातार तुम ही बल देती चल सकती हो हे स्त्री ! यूं भी अपने इस रूप में तुम देवत्व का अहसास दिलाती हो इसी दैवीय रूप के सहारे ही तो तुम शोभा पाती हो हर जगह ..और शीर्ष पर भी अपने इसी रूप के आधार पर बुरी नहीं लग रही हो.......
छोडिए जाने दीजिए प्रतिभा जी, यह आपके सिर पर पडे पल्लू का राष्ट्र के नाम संदेश नहीं है .....यह तो मेरे खामखां के विचारों का बहाव भर है ! ये तो वह मुगलकालीन परंपरा है जिसका आप पालन कर रही हैं और यूं भी खुद को कडी धूप से बचाने के लिए भी तो सिर पर रखा जाता है न आंचल ! बाहर तो कडी धूप कहर बरसा रही है और सुना है कि राजनीति की धूप भी काफी तेज होती है...........
तो मैं आज जहां से चली थी फिर वहीं आ पहुंची हूं ! जाने क्यूं एक कवि लिख गए –पढिए गीता बनिए सीता , फिर किसी मूर्ख की हों परिणीता , भौंह कंटीली आंखें गीली , घर की सबसे बडी पतीली भर कर भात पसाइए........! सिर पर आंचल लिए दांत की पकड से उसे गिरने से बचाती घर बाहर के काम सवांरती आम भारतीय स्त्री ! जहां सब स्त्रियां एक सी हैं किसी का कोई अलग नाम नहीं अस्तित्व नहीं साडियां ही बताएंगी कि उनमें किसकी पत्नी या किसकी बहू लिपटी है.........
साडी का अपना समाजशास्र है , सिर पर पडे पल्लू का अपना अलग..... पर्दे पर उघडी “स्त्री” देह घर में साडी में ढकी “नारी” ! कितनी विराट खाई दो छवियों में , उन छवियों के नियंता समाज के द्वंद्वों में ... वैसे द्वंद्व भी कहां हैं न ? ये समाज तो विरुद्धों का सामंजस्य करने में हमेशा से माहिर रहा है ! कैसा द्वंद्व ...? अलग –अलग मकसदों के लिए इस्तेमाल होती स्त्री छवि , जिसे बनाने - तोडने में जुटी थकती - हारती - जीतती करोडो भारतीय औरतों का बिखरा हुआ संघर्ष ! घर-बाहर दोंनो दुनियाओं की आदर्श छवियों के मायाजाल में फडफडाती ....
प्रतिभा जी , आपके सिर पर पडा साडी का आंचल देश के नागरिकों को आश्वस्त करने वाला है ! यह सदियों से पाले - पोसे गए पुरुष अहम की आग पर पानी के ठंडे छिडकाव सा दिलासा देता सा है ! शीर्ष पर स्त्री है पर है तो हमारी गढी हुई छवि के साथ ही न ! ममत्व , सहनशीलता , पुरुष के वरद हस्त के सम्मान की भावना जो इस स्त्री चित्र से उपजती है कैसा निराला सामाजिक प्रभाव होता है उसका – ये प्रभाव सामंतीय मन को ढांढस दिलाता है ! दूसरी ओर नएपन के चक्कर से उगे औरत की आजादी - बराबरी वाले खयाल भी उपजाता है कि “ हम एक आधुनिक समाज हैं " !समाज का ये अर्जित संतोष , ये ग्लानि भाव से मुक्ति केवल ऎसे ही तो संभव थी मेरी सखी ! हमारी ये छवि हमारी भी कितनी बडी सहायिका है ऎसे ही तो हम आश्वस्ति हासिल करती हैं कि “ नहीं हम लुच्ची नहीं हैं , आजादी के मानकों का ईमानदारी से इस्तेमाल कर रहीं हैं ....और देखो तुमने हमपर जो विशवास किया हम योग्य थीं उसके ..” !.... एक मर्दवादी समाज के मन को तुम ही संभाल - समझ सकती हो , समाज की भावना को , अहम को लगातार तुम ही बल देती चल सकती हो हे स्त्री ! यूं भी अपने इस रूप में तुम देवत्व का अहसास दिलाती हो इसी दैवीय रूप के सहारे ही तो तुम शोभा पाती हो हर जगह ..और शीर्ष पर भी अपने इसी रूप के आधार पर बुरी नहीं लग रही हो.......
छोडिए जाने दीजिए प्रतिभा जी, यह आपके सिर पर पडे पल्लू का राष्ट्र के नाम संदेश नहीं है .....यह तो मेरे खामखां के विचारों का बहाव भर है ! ये तो वह मुगलकालीन परंपरा है जिसका आप पालन कर रही हैं और यूं भी खुद को कडी धूप से बचाने के लिए भी तो सिर पर रखा जाता है न आंचल ! बाहर तो कडी धूप कहर बरसा रही है और सुना है कि राजनीति की धूप भी काफी तेज होती है...........
Subscribe to:
Posts (Atom)