Wednesday, November 12, 2008

काले हैवान और गोरे फरिश्ते

मेरी बेटी स्कूल जा रही थी और एक गाना गुनगुना रही थी - नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए बाकी जो बचा था काले चोर ले गए ! बेटी ने अचानक गाना रोककर सवाल दागा - ये चोर काले क्यों , गोरे चोर क्यों नहीं ! सवाल औचक था , स्कूल की बस छूट जाने का भय था जवाब लंबे और मुश्किल थे सो मैंने बेटी से कह दिया की शाम को बात करॆंगे !

भाषा ,संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता ( न्गुगी वा थ्योंगो ) पढते हुए नस्लभेद और रंगभेद की औपनिवेशिक विरासत पर तीखे सवाल मन में पैदा होते हैं  ! न्गुगी अपने लेखन में जातीय हीनता को पैदा करने वाली पोस्टकोलोनियल ताकतों  और प्रकियाओं पर बात करते हैं ! आज राजनितिक आजादी हासिल किए हुए हमें एक लंबा अरसा हो गया है पर आज भी हम मानसिक रूप से गुलाम हैं !  अंग्रेजियत और अंग्रेजी भाषा केछिपे हुए औजारों के ज़रिए हम गुलाम मानसिकता को  अपने बच्चों को सौंप रहे हैं !

हम एक काली भूरी नस्ल की जाति हैं पर हमारा आदर्श है - सफेदी ! वाइट हाउस ,वाइट स्किन  ! बाकी सब काला है ब्लैक डे , ब्लैकलिस्ट , ब्लैक मार्किट !  सब नकारात्मक भावों के लिए कालापन एक सार्थक प्रतीक बनाए बैठे हैं हम !

हमारी कहानियों में निन्म वर्ग ,गरीब ,अपराधी ,सर्वहारा काला ही होगा ! कालापन क्रूरता , असभ्यता , गरीबी , अज्ञानता और दुख का प्रतीक है ! हम हमेशा अपनी प्रार्थनाओं में अज्ञान की कालिमा से ज्ञान के उजालों की ओर जाने के गीत गाते आ रहे हैं ! मुंह पर कालिख पोतना - जैसी भाषिक अभिव्यक्तियों का इस्तेमाल करते रहे हैं ! किसी व्यक्ति खासकर किसी स्त्री का परिचय  बताते हुए हमारा पहला या दूसरा  परिचयात्मक जुमला रंग पर ही होता है -- "... आप लतिका को खोज रहे हैं अच्छा वही काली सी ठिगनी सी औरत ? " किसी आपराधिक दास्तान को हम  इतिहास के पन्नों पर काले अक्षरों में ही दर्ज करते हैंracism

काले राक्षसों और गोरी परियों की कहानी सुनाने वाले हम अपने बच्चों को भाषा के संस्कारों के साथ ही  रंगभेद की विरासत भी दे डालते हैं ! हम सिखाते हैं कि काला रंग विकलांगता और गैरकाबिलियत का प्रतीक है ! यह एक प्रकार की बीमारी है जिसकी वजह से हीनता का अहसास होना चाहिए !

सारे वैचारिक विमर्श एक तरफ .....! मैं खुश हूं कि मेरी 6 साल की बेटी अपने समाज परिवेश और सांस्कृतिक विरासत पर तीखे आलोचनात्मक सवाल उठा पा रही है ! आज शायद मैं उसे काली परियों की प्यारी सी कहानी भी सुनाउं !

चित्र के लिए आभार -

 

http://brotherpeacemaker.files.wordpress.com/2007/09/racism-on-cruise-control.jpg

Saturday, November 08, 2008

यार ! बेकार ही कार खरीदी

हाल ही में हमने एक लाल प्यारी सी कार खरीदी है ! हर मध्य वर्गीय का - एक घर एक कार वाला सपना होता है ! कार हमारे लिए एक बडा सपना थी ! सपना पूरा हुआ ! हम खुश थे ! इस कार से हम कई दुर्गम पर्वतीय स्थानों पर घूमघामकर आए! कार ने हर जगह हमारा साथ दिया !नई कार हमारी हाउसिंग सोसायटी की अनेकों कारों की लाइन में पार्क की गई !पर जैसे ससुराल में नई दुल्हन की और कॉलेज में फ्स्ट ईयर के छात्र की रैगिंग होती है वैसे ही इस कार की भी खूब रैगिंग हुई !नई चमकती हुई कार हर सुबह कहीं न कहीं से खरोंची हुई मिलती !

हमारा घर तीसरी मंज़िल पर है सो कार जब भी पार्क होती किसी ग्राउंफ्लोर वाले घर के आगे ही पार्क करनी होती !यूं तो सोसायटी की सडकों पर सबका बराबर हक है पर ग्राउंडप्लोरवासी अपने घर के बाहर की जमीन पर किसी भी पराई कार को देखकर वैसे ही बिदक जाते जैसे मध्यवर्गीय घरों के पिता अपनी बेटी के क्लास के लडके का फोन आने से असहज हो जाते हैं !चूंकि आजकल जमाना शरीफाई का है सो कोई भी जमीनी फ्लैटवाला मुंह से कुछ नहीं कहता है ! वह रात के अंधेरे में चुपचाप उठता है और कार पर चाभी ,चाकू या पत्थय के टुकडे से सौहार्द की डेढी मेढी लकीरें खींच देता है ! आप सुबह उठते हैं और अपनी नई किस्तों वाली कार पर ऎसी साइन लैंग्वेज देखकर चुपचाप अपनी कार वहां से हटा लेते हैं !

जब से बेकार से हम कार वाले हुए हमें गरीबी ,आतंकवाद,असमानता जैसी राष्ट्रीय समस्याओं में एक समस्या और जोडने का मन कर रहा है - शहर में घरों के बाहर खडी असुरक्षित कारों की बढती समस्या !आप हंसेंगे अगर आपने आपके पैरों में यह बिवाई नहीं फटी होगी ! पर समस्या वाजिब है !अब अगर नैनों आ गई और एक लाख रुपल्ली की कारों की बाढ से सडकों पार्किंग स्थलों की कमी पडेगी तो कारों पर निशानदेही छोडने वाले लोगों को खुल्लमखुल्ला बदमाशी करनी पड जाएगी !ठीक वैसे ही जैसे हमारी सोसायटी के एक भद्र आदमी को करनी पडी !उन्होंने अपने घर के आगे वाली जमीन खुद ही अपनी कार के नाम की हुई थी और वे चाह रहे थे कि यह संदेश आसपास के कार वालों के पास सहजबुद्धि से पहुंच जाना चाहिए ! पर कई कार मालिक इस सहज संदेश को पाने की योग्यता नहीं रखते थे सो उन्होंने अपनी कार वहां पार्क कर दी थी !जब वह भद्र आदमी घर लौटा तो उसे अपने घर के आगे पराई कार पार्क देखकर एक गमला उठाकर उस कार का शीशा तोडना पडा ! चूंकि वे भद्र आदमी थे इसलिए उन्होंने टूटे शीशे के पैसे कार मालिक को चुकाए ! अगली सुबह सब पडोसियों को अपनी कार वहां न खडी करने संबंधी संदेश मिल चुका था !

चूंकि भारत में मुफ्त सलाह दिए जाने की पुरानी संस्कृति रही है सो हमें भी सलाह मांगने न कहीं जाना पडा न कोई खर्चा हुआ ! हमें कार कवर खरीद लेने , सोसायटी के नो मेंस ज़ोनों  की तलाश कर वहीं कार पार्क करने , बच्चों की छोटी बडी कबाडा साइकिलों को इकट्ठाकर उनपर एक गीला तौलिया सुखाकर छोड देने के जरिए पार्किंग की जमीन पर कब्जा घोषित करने ,सोसायटी के गेट के बाहर कार लगाने जैसे कई ऎडवाइज़ मिले ! और तो और स्क्रेच लगी पुरानी गाडियों के मालिकों ने इस सत्य को निगल लेने की सलाह भी दी कि दिल्ली में तो गाडियां स्क्रेचलेस हो ही नहीं सकती !हमारी ही सोसायटी क्यों हर जगह का यही हाल है ! नए पे कमिशन में पी बी -4 की तंखवाह की खबर पाकर हमारे कई साथियों ने कार खरीदी थी ! आज हमारे दुख में वे ही हमारे सच्चे साथी साबित हो रहे हैं ! किसकी कार को कहां से खरोंचा गया औरै उसके प्रतिरोध ने किसने कितनी बार चुप्पी लगाई और कितनी बार सडक पर खडे होकर अनाम स्क्रेचकारी को जी भर कोसा हमारी बातचीत में अक्सर ये चर्चाए भी उठ जाती हैं !


हमारी भी आंखें खुलीं हमने देखा कि वाकई कार लेने से हमें कितने बडे सामाजिक सत्य के बारे में पता चला है ! कार न ली होती तो हमें कैसे पता चलता कि समाज में आज भी कितनी असहनशीलता है ,कितनी प्रतिद्वंद्विता है ,कितनी असमानता है और कितना उत्पीडन है ! घर की दहलीज के बाहर जब कार का ये हाल है तो हमारी अकेली बेटियां कितनी असुरक्षित होंगी ! हम आसानी से समझ पाते हैं कि क्यों एक कवि कह गए थे

सांप तुम सभ्य तो हुए नहीं / शहर में रहना भी तुम्हें नहीं आया /फिर कहां से सीखा डसना /विष कहां पाया ?

आज एक और कवि पंक्तियां भी याद आ रही हैं -

कितने रिक्शे,कितनी गाडियां ,कितनी सडकें कितने लोग / हे राम ! / हे रावण !

आज किस्तों वाली गाडी पर पडते स्क्रेचों से हम उतने उदास नहीं होते जितने पहले होते थे ! वो क्या है न हर मध्यम वर्गीय बुद्धिजीवी के पास दुखों के उदात्तीकरण वाली एक तरकीब होती है ! बस ठीक वही हमने भी अपना ली है ! साथ ही हम कार के जिस्म पर खरोंचों को समाज रूपी बुढऊ के शरीर की खरोंचों के रूप में देख रहे हैं !

Thursday, October 16, 2008

हैप्पी करवा चौथ टू ऑल द आइडियल वाइव्स

करवा चौथ का दिन हमारे देश की पत्नियों के सौभाग्य को बढाने वाला दिन है ! चूडी ,बिंदी ,सिंदूर ,निर्जल निराहार व्रत - उपवास चांद की पूजा - माने हैप्पी करवा चौथ ! जो पत्नियां अपने पति की जान की कीमत समझती हैं उन्हें प्यार करती हैं ,उनके दिल की एकमात्र रानी बनकर रहना चाहती हैं , दूसरी औरत के साये से आपने पति को बचाकर रखना चाहती हैं वे निश्चय ही करवा चौथ के व्रत रखती हैं ! कम से कम इस व्रत की विविध वर्जनों वाली तमाम कथाऎ तो यही कहती हैं ! बाकी अगर आप किसी इस व्रत को रखने वाली पढी लिखी महिला से उसके व्रत का मकसद पूछेंगे तो हो सकता है कि वह इस व्रत के कोई सांस्कृतिक कारण गिनाए या भारतीय परंपरा की बात करे ! किसी आम औरत से पूछिए -उसका घर ,बच्चे ,मान सम्मान ,धन - वैभव ,सामाजिक रुतबा सब पति से है ,सो इतने कीमती पति की जान की सलामती के लिए करवा चौथ का व्रत रखकर एक दिन कष्ट सहना उनके पत्नी धर्म का सबसे बडा कर्तव्य है !
इस दिन मेरी मां और मेरी सास कॉलेज की हिंदू सहकर्मी सबके पास अपने व्रत की कठिन साधना को निभाने के साथ साथ एक और जरुरी काम होता है -मुझसे एक बार फिर इस व्रत को न रखने का कारन जानना और इस व्रत के सामाजिक ,नैतिक ,सांस्कृतिक औचित्य पर मुझसे बहस करना ! पूरी कालोनी की चमकीली साडियों ,मेहंदी सजे हाथों वाली औरतों के लिए सादे कपडों में बिना साज सज्जा वाली नीलिमा को वे - हंसी ,दया ,नसीहत देने की जरुरत वाले भावों से देखती हैं !
करवा चौथ की कथा मुझे हमेशा से बडी डरावनी लगती है ! जिसे सुनकर लगता है एकता कपूर के सारे सीरियलों में स्त्री पुरुष का आदिम संबंध बडी रिऎलिटी के साथ दिखाया गया है और एकता को गलियाने की बजाए उसके प्रति उदार भाव पैदा होने लगते हैं ! ये व्रत भारतीय बीवियों के मन में बैठे डरों का विरेचन करता है ! पति के मरने , पति के द्वारा प्यार न मिलने , उसे दूसरी औरत द्वारा रिझा लिए जाने ,गरीबी के हमले आदि आदि अनेक आपदाओं का ऑल इन वन इलाज !

ये आदिम औरत मर्द संबंध करवा चौथ के व्रत की हर कथा की केन्द्रीय संवेदना हैं ! ये हर औरत को डराकर उसे उसकी जगह पर रखने की साजिश है ! पति ही प्रभु है ! उसका जीवन और कृपा -दृष्टि न रहे तो जीवन क्या खत्म है ! रखो व्रत और बनी रहो सौभाग्यवती सदा सदा के लिए ! इट एज़ रियली अफोर्डेबल नो ? एक कहानी सुनिए न शार्ट में -

......एक रानी थी सात भाइयों की बहन और एक राजा था ! राजा जंगल में शिकार पर गया जहां उसके शरीर में कई सुइयां चुभ गईं और वह रास्ता भी भटक गया ! रानी की दासी " गोली" ने उसे करवा चौथ के व्रत की महिमा के बारे में बताया और यह भी बताया कि उसकी और उसके पति की दशा इस व्रत को न रखने के कारन ही हुई है ! रानी आने वाला करवा चौथ का व्रत रखती है पर व्रत के सारे नियमों का पालन नहीं करती है ! पति व्रत के दिन ही घर लौट आता है ! व्रती रानी राजा के शरीर से सुइयां निकालती जाती है किंतु आखिरी सुई के निकालने तक रानी की आंख लग जाती है ! उसकी दासी चीटिंग करती है और आखिरी सुई खुद निकाल देती है ! राजा की खोई चेतना लौट आती है और वह दासी को रानी समझ बैठते हैं ! रानी ने व्रत का सच्ची भावना से पालन न किया सो उसे दंड मिला !-.. जो राणी सी ओ गोली बण गई ...अगले साल रिपेंट करती रानी ने पूरी आस्था और नियमों का पालन करते हुए व्रत रखा ! राजा की भ्रष्ट हो गई बुद्धि ठीक ठाक हो गई ! और जो राणी बण गई सी ओ गोली बन गई ....गोली बण गई राणी ..!
सो जैसे उस असली रानी के दिन फिरे वैसे ही इस व्रत की सभी धारिकाओं के भी फिरें !

Wednesday, September 17, 2008

डार से बिछुडे हम

मुझे अपने हाथ पर उनका स्पर्श शायद कभी नहीं भूलेगा ! उम्र के ढलते पडाव पर पहुंची उस स्त्री को सहारा चाहिए था ! किसी अनजान चेहरे पर भी अपनापन खोजती उनकी आंखें दुनिया की रफ्तार और अपने शरीर की जर्जरता से ठिठकी सी थीं ! अपने ही घर के आगे की सडक उनके लिए नई ,तेज और बेफिक्र थी जिसे पार कर उन्हें ठीक सामने कुछ कदम की दूरी पर बनी इमारत के गेट तक जाना था ! जब मुझे रोकर उन्होंने पूछा - " बेटा क्या तुम्हारे पास दो मिनट का वक्त है मुझे बहुत ज़रूरी काम से सामने के गेट तक जाना है ?"  मुझे पहली बार अहसास हुआ कि भागती दौडती जिंदगी को अपने सामने देखकर इस जर्जर होती उम्र को कैसा अहसास होता होगा ! हर मिनट की वसूली कर लेने वाली नई पीढी के वक्त की अहमियत के आगे खुद को व्यर्थ और भार समान मानने वाली बडी पीढी किस बूते जीती रह पाती होगी ? मैं उन वृद्धा के साथ चलती हुई भूल गई थी कि तेज कदमों से हांफती हुई मैं किस काम से जा रही थी ! झुकी पीठ से धीरे-धीरे चलती हुईं , आंखों में स्नेह भरे वे कह रही थीं --बेटा जुग जुग जियो , जो भी काम करो ईश्वर तुम्हें उसमें सफलता दे , सदा खुश रहो बच्ची ..."  ! उन वृद्धा के हाथ को पकडे और उनके मुख से निकलने वाले आशीर्वचनों को सुनते हुए एक पल को लगा था कि जैसे मैंने उनका नहीं उन्होंने मेरा हाथ थामा हुआ है !

मुझे अचानक याद आई वो झडपें जो मेट्रोरेल के सफर में अक्सर हो जातीं हैं ! हट्टे कट्टे नौजवान ,कान में मोबाइल का हेड फोन लगाकर फिल्मी गानों की धुन पर पैर थिरकाते ,च्विंगम चबाते सामने खडे बेहद वृद्ध व्यक्ति को अनदेखा कर 'केवल वृद्धों के लिए' आरक्षित सीटों पर जमे रहते हैं ! उनसे वृद्धों को सीट देने की गुज़ारिश करने का अर्थ होता है " मैडम आपको क्या परेशानी है " सुनने के लिए तैयार रहना ! मैं प्रतिदिन डेढ घंटे का मेट्रो सफर करती हूं पर कभी किसी वृद्ध को अपने लिए सीट मांगते नहीं देखा ! शायद सामाजिक जीवन में संवेदनशीलता की कमी का अहसास उन्हॆं है और शायद वे सम्मान से जीना चाहते हैं ! पर जब कभी कोई यात्री अपनी सीट छोडकर उन्हें बैठने को कहता है तो उस समय उनके चेहरे पर सहूलियत की खुशी से ज़्यादा इस बात की राहत होती है कि जीवन और जगत में अभी भी इंसानियत बची है और उनके मुख से सीट छोडकर उठ जाने वाले व्यक्ति के लिए आशीर्वचन निकलने लगते हैं ! पर खुद बखुद सीट छोड देने वाले संवेदनशील यात्री बहुत कम मिलते हैं ! मेरे एक परिचित भी कभी -कभी मेरे साथ यात्रा करते हैं ! एक बार उन्होंने अपनी सामाजिक व्यवहार कुशलता की डींग हांकते बताया कि मेट्रो में सीट मिलते ही वे आंखें बंद करके पीछे की दीवार से सिर टिकाकर बैठ जाते हैं और अपने स्टेशन के आने पर ही आंख खोलते हैं जिससे सीट छोडने की नौबत ही नहीं आती !

आज का वक्त किसी के लिए भी रहमदिल नहीं है ! अगर हम तेज़ रफ्तार ज़िंदगी के साथ भाग नहीं सकते तो अपने लिए जीवन के साधन नहीं जुटा पाऎंगे ! महंगाई की मार, ट्रेफिक की मार ,बॉस की मार और नए नए सुख साधनों की बाढ से उमडे बाज़ार की मार ! इच्छा ,लोभ ,लाभ ,मोह स्वार्थ के लफडों की भरमार ! अपने जीवन को जैसे-तैसे मैनेज करता व्यक्ति अपनी ऊर्जा का एक एक कतरा प्रयोजनवाद के दर्शन से खर्च करना चाह्ता है ! ऎसे माहौल को हतप्रभ देखती वृद्ध पीढी की ओर देखने का वक्त किसी के पास नहीं ! मैं सोच रही थी ऎसे में सुबह के साढे सात बजे किसी युवा व्यक्ति से दो मिनट की सहायता मांगना किसी वृद्ध के लिए कितना हिचक भरा हो सकता है ! पर सडक पार जाकर लौट आने में सहायता करने के लिए उन वृद्धा का हाथ पकडकर चलना मेरे लिए वक्त की मार से उबरने का एक मौका था ! वे बहुत आत्मीयता और प्रेम से अपने दिल की बात कह रही थीं - ' इस बुढापे में अब मौत से बिल्कुल डर नहीं लगता ! डर लगता है इस ज़िंदगी से ! घर में तो मैं चल लेती हूं पर बाहर निकलती हूं तो टांगें कांपती हैं ,इसलिए मैं घर से निकलती ही नहीं.... "! ईश्वर धर्म और आस्था के सहारे मृत्यु का इंतज़ार ही क्या हमारे बुज़ुर्गों के लिए बच गया काम है ? शायद सामाजिक जीवन में भागीदारी में बुजुर्गों के आत्मविश्वास को उनके प्रति हमारी उपेक्षा ने ही पैदा किया है ! अभी पिछ्ले दिनों सुना कि पडोस के एक स्कूल में ग्रैंड-पेरेंट्स डे मनाया जाता है जिसमें बच्चे को अपने दादा-दादी और नाना नानी को स्कूल लाना होता है ! अच्छा लगा कि संरचनाओं के किसी कोने में तो पीढियों में संवाद कायम रखने की फिक्र बची है ! उत्सव के दिन ही सही दादा-दादी का महत्व अपने पोते पोतियों को स्कूल बस तक छोडकर आने से अधिक माना गया है ! पर हम साफ देख सकते हैं कि प्रेमचंद की 'बूढी काकी' का सीमांत अस्तित्व आज शायद और अधिक सीमा पर धकेल दिया गया है !

बाहर की यह आपाधापी कितनी त्रासद ,कितनी निर्दय और कितनी चुनौती भरी है इसका अंदाजा उस वृद्ध स्त्री और उन तमाम वृद्ध जनों की आंखों में पढा जा सकता था जिनसे मैं अपने रोजमर्रा के सफर पर मिली हूं ! जो घर ,गलियां ,शहर और देश यौवन में उनके अपने थे आज वक्त की तेज़ रफ्तार में उनके हाथ से छिटककर उनकी पकड से बहुत दूर निकल गए हैं ! केन्द्र में सजधज है हाशियों पर अंधेरा है ! गलियों, बाजारों और मीडिया में उमडते यौवन का आक्रामक रूप अपनी जडों के प्रति पूरी तरह उदासीन दिखाई देता है ! पीढियों के बीच बढती संवादहीनता हमारे अतीत और जडों को सुखा रही है !! अपनी वृद्ध पीढी के प्रति हमारा यह रवैया बना रहा तो वह दिन दूर नहीं जब विद्यालयों में बच्चे "वृद्धों की उपयोगिता" पर निबंध लिख रहे होंगे !

Friday, September 12, 2008

ब्यूटी पार्लर में सहमी बेटी

वह क्या मजबूरी हो सकती है जिसके चलते एक बारह साल की बच्ची ब्यूटी पार्लर में खडी किसी भयानक दर्द और द्वंद्व से जूझ रही थी ! उसकी मां और पार्लर की आंटियां उस बच्ची को अपने डर पर काबू पाना सिखा रहे थे ! बच्ची की मां उसे बार बार एक ही बात कह रही थी ' बांह के ये बाल बुरे लगते हैं वैक्सिंग करवानी ही पडेगी ..देख तेरी मामी भी डांटेगीं कि फिर बिना करवाए आ गई तू ..' ! बच्ची कहती जा रही थी कि नहीं बहुत दर्द होगा ..मुझे नहीं करवाना ..ऎसे ही ठीक है ...बाद में करवा लूंगी...! आंटियां और उसकी मां जिन आद्य वचनों के सहारे  बेटी को दर्द की ओर धकेल रही थीं  उनका समाजशास्रीय विवेचन करना कितना त्रासद होगा यह तो मुझे बाद में ही पता चला उस वक्त तो मैं वहां केवल उस बच्ची की पीडा की एक मूक दर्शक और पार्लर की एक ग्राहक मात्र थी !

बारह साल की उस बच्ची की मां अपने चेहरे पर चीनी की चिपचिपी पट्टी को कपडे की झालर से खिंचवाती हुई कह रही थी 'देख हम भी तो करवाते हैं एक बार ही तो दर्द होता है सह ले वरना सब तेरा मजाक उडाते रहेंगे !...देख टी-शर्ट की बाहों में से अंडरआर्म के बाल दिखते कितने बुरे लगते हैं ..!"उस समय वहां खडी स्त्रियां बच्ची को ठीक वैसे ही उकसा रही थीं जैसे प्रसव के समय ज़ोर लगाने के लिए उकसावा देती औरतों का झुंड प्रसवशीला को घेर लेता है ! ये दर्द तो सहना ही होगा देख आगे पता नहीं कितने दर्द सहने होते हैं लडकी को ! ये दर्द तो कुछ भी नहीं ..सुंदर बनकर रहेगी तो सब आंखों पर बैठाऎंगे .....


जैसे कोई बकरी घेर ली गई हो ...जैसे उसे कहा जा रहा हो अच्छा होगा जितनी जल्दी तुम जान लोगी औरत होने की पीडा ! वो बच्ची दीवार से सटकर खडी थी जैसे कह रही हो इस बार छोड दो ..अगली बार मैं मन को कडा करके आ जाउंगी ..अभी कुछ दिन और मुझे जैसी हूं वैसी ही रहने दो..हां मैंने पढी थीं उसकी आंखें ...यही तो कह रही थी वो..!

मुझे दर्द से बिलबिलाती पडोस की बच्ची की चीखे याद हैं जिसके कानों में फेरी वाले से सुराख करवाने पूरी गली की औरतें इकट्ठा हो गई थीं ! तब मैं पांच साल की बच्ची थी और खुश हो रही थी कि वाह मेरे तो कानों में तब से सूराख है जब मैं बहुत छोटी थी इतनी छोटी कि वह दर्द भी मुझे याद नहीं !

मैं उस स्त्री समाज का हिस्सा हूं जहां सुन्दरता, मातृत्व, स्त्रीत्व पत्नीत्व जैसे आदर्श दर्द से शुरू होकर दर्द पर ही खत्म होते हैं ! जहां नन्ही नन्हीं बच्चियों की पीडा से नातेदारी करवाकर हम उन्हें सुखी रहने के नायाब मंत्र सिखा रहे हैं ! मुझे उस बच्ची का दर्द को झेलने की कल्पना मात्र से सहमा हुआ चेहरा तब भी बहुत डरा रहा था और मैं शायद कहना चाहकर भी उसकी मां से नहीं कह पा रही थी..' इस बिटिया को छोड दो ये अपने फैसले खुद ले लेगी उसके बचपन को ऎसे आतंक के साये में क्यों कुम्हला रही हो ..." ! वह बच्ची विरोध में सिर्फ गर्दन हिला पा रही थी वह सोच रही होगी कि भाई तो बाहर फुटबाल खेल रहा होगा और मैं यहां आ खडी हूं या कि मैं लडकी क्यों हुई...या शायद कुछ और .. उसका क्या हुआ यह जानने के लिए मैं वहां ज़्यादा रुकी नहीं ..रुक पाई भी नहीं ....!

Monday, August 18, 2008

औरत होने की सज़ा क्या है ?

मोहल्ले की कई औरतें मुझे गद्दार कहेंगी ! मेरे पास उनकी ज़िंदगी के कई राज हैं जिन पर मैं भविष्य में कहानियां और लेख लिख सकती हूं ! पास पडोस की औरतों के कई राज कई दुखडे और कई अफसाने मेरे पास जमा हो गए हैं ! जब भी किसी परिचित स्त्री से सुकून और ऎसे या वैसे जुटाई गई फुरसत के लम्हों में बात होने लगती है मुझे स्त्री विमर्श का नया मुद्दा मिल जाता है और उन स्त्रियों से छिपाकर मैं उनकी जिंदगी के राज बटोर लाती हूं ! पर शायद सच्चे अफसानों से सच्ची कहानियां गढना सबसे मुश्किल काम है ! बहरहाल आपके सामने कच्चा माल ही हाज़िर है ......

किट्टो की मम्मी ,तीन लडकियों की मां दो बार ऎबार्शन करवा चुकीं हैं ! उनके परिवार वालों को लडका चाहिए और किट्टो की मम्मी को चाहिए सुकून और इज्जत !

सुनीता अपने पति से दो साल बडी है ! उसे अपने पति और उसके घर वालों से यह बात ताउम्र छिपाकर रखनी है !

35 नं वाली भाभी जी ने चुपके से मल्टी लोड लगवा लिया है ! सास और पति दूसरा बच्चा चाहते हैं जबकि भाभीजी के लिए ज़ॉब के साथ द्सरा बच्चा पैदा करना और संभालना बहुत बडी आफत का काम होगा !

मेरी एक मित्र जो कि दिल्ली के एक कॉलेज में प्रवक्ता हैं! स्त्री विमर्श जैसे विषय पर उनका डॉक्टरेट है ,स्त्री-स्वातंत्र्य की कहानियां और कविताऎं भी प्रकाशित होती रहती हैं ! लेकिन अपने पति से छिपाकर उन्हें अपनी विधवा मां की आर्थिक सहायता करनी होती है ! उनका मानना है क्रांति के चक्कर में उनका घर कई बार बर्बाद होते होते बचा है और फिलहाल अपने बच्चे के बडे हो जाने तक वे कोई क्लेश नहीं अफोर्ड नहीं कर सकतीं !

मिसेज आरती अपने पति के लंपटपने से परेशान हैं ! पति का पान चबाते रहना , बच्चों की पढाई और परवरिश से कोई वास्ता न रखना ,पत्नी को केवल शरीर मानना - जैसी कई बातों से आहत हैं वे ! दसवीं पास पति की  ग्रेजुएट पत्नी के रूप में उन्हें हर रात की यही धमकी सुननी होती है कि वे "कहीं और जाकर मुंह मार लेंग़े " !

... ऎसी कई कहानियां हैं ! झूठ और दुराव की नींव पर टिके रिश्ते ढोती कई औरतें हैं ! प्यार और संवेदना की जगह भ्रम की पोपली ज़मीन पर पता नहीं ये नाते कब तक टिके रह सकते हैं ! पर स्त्री अपनी ओर से उन्हें टिकाए रखने के प्रयास में रोज खुद से और परिवार तथा समाज से कई राज छिपाती जी रही है ! परिवार को अपनी धुरी मानकर उसके ही खिलाफ क्रांति का दुस्वप्न देख्नना उन्हें सबसे बडा पाप लगता है ! वे शायद आस्थावादी होती हैं इसलिए तत्क्षण की एक छोटे से लक्ष्य वाली क्रांति से अपना संभावित सुखी भविष्य नहीं उजाडना चाहतीं ! नकली सुख का असली नाटक करती स्त्री को परिवार इतनी पवित्र और ज़रूरी  संस्था लगता है कि जिसको वह अपने " छोटे से स्वार्थ " के लिए नष्ट होते नहीं देख सकती !

प्रेम .विवाह ,रिश्ते और परिवार उससे कितना मांगते हैं और उसे कितना देते हैं - यह सोचने का वक्त और माहौल उसके पास है भी क्या ? अपनी ज़रूरत अपनी इज्जत और अपना अस्तित्व मैनेज करने में जाया जाती अपनी ज़िंदगी का मूल्य जान पाऎगी वह ?

Thursday, July 17, 2008

जेंडर इनइक्वैलिटी - डोंट हाइड विहाइंड साइंस

 

ab inconvenienti  ने विज्ञान की लाठी से स्त्रीवाद के कई अहम सवालों को एकसाथ भांज कर रख दिया है !सुजाता ने चोखेर बाली में इन मान्याताओं का खंडन करते हुए मजबूत तर्क दिया है ! जिन भिन्नाताओं को वे जेंडर आधारित साबित कर रहे हैं वे शुद्धत: विज्ञान आधारित हैं और नारीवाद का कोई भला नहीं करतीं ! कई वैज्ञानिक तथ्यों की दलील उन्होंने दी है ! इन तथ्यों से निकलने वाले नतीजे स्त्री की मौजूदा हालत को स्बाभाविक सिद्ध करते हैं !स्त्री के स्त्रीत्व और पुरुष के पुरुषत्व को जस्टीफाइड और नैचुरल मानते हुए ab inconviventi लिखते हैं -

"तो भी या सीधा सा सच सामने है:   पुरूष होना और स्त्री होना यानि मानव संरचना का अलग पुर्जा होना है, अदला बदली कम से कम मानव द्वारा तो मुश्किल है.'

दरअसल ab inconvenienti   की दलीलें स्त्रीवाद के सामाजिक संघर्ष को वैज्ञानिक प्रमाणों से निरुत्तर करने का प्रयास हैं पर उनकी इस मान्याता से कई भ्रम पैदा होते हैं और कई सामाजिक शोषण की परंपराओं के पैटर्न सही सिद्ध हो जाते हैं -----

जॆंडर की अवधारणा सामाजिक है ! आप वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर इस सामाजिक अवधारणा के साथ घपला नहीं कर सकते !

नारीवाद सेक्सुऎलिटी की अदला बदली या संक्रमण की कामना नहीं है ! जैसा कि आप मान रहे हैं ! नारीवाद अवसरों और अधिकारों की समान रूप से ऎक्सेसिबिलिटी का संघर्ष है !

स्त्रीवाद स्त्री पुरुष की जड भूमिकाओं में फ्लेक्सिबिलिटी की बात करता है ! आप विज्ञान द्वारा इन भूमिकाओं को और अधिक जड सिद्ध कर रहे हैं !

ममता वर्सेस आक्रामकता , शक्ति वर्सेस कोमलता जैसे समाजीकरण के फंदों से स्त्री पुरुष दोनों की मुक्ति ज़रुरी है न कि विज्ञान के सहारे इन्हें और मजबूत नहीं किया जाना चाहिए !

लिंग आधारित भूमिकाओं को समाज का आधार बानाना लिंग आधारित शोषण को जस्टीफाई करना ही है ! स्त्री की शारीरिक क्षमता को पुरुष से कम आंकने के पीछे विज्ञान का आश्रय लेना यौन हिंसा और घरेलू हिंसा के आधारों को स्वाभाविक मानना है !

दरअसल स्त्रीवादी आंदोलन को सिर्फ और सिर्फ सामाजिक आधारों पर ही समझा जा सकता है ! आप जेंडर जस्टिस के लिए विज्ञान की  गोद में जाकर स्त्री का ही नहीं पुरुष का भी अहित करेंगे ! विज्ञान मनुष्य को शरीर मात्र मानता है उसके लिए तो खेल कोशिकाओं और रसायनों का है ! लेकिन सामाजिक शोषण और विभेदों की कोई व्याख्या विज्ञान नहीं कर सकता ! समाज की अलग अलग सीढियों पर खडे स्त्री और पुरुष को अलग मकसदों से बनाए गए कलपुर्जे मानना सामाजिक असमानता को स्वाभाविक मानना नहीं तो और क्या है ?

.....और.अंत में ... स्त्री और पुरुष में सिर्फ गर्भाशय का अंतर है और कोई अंतर नहीं है  !

Thursday, July 10, 2008

आप अपने ऑफिस में बलात्कार करते हैं या सुहागरात मनाते हैं ?

समाजवादी पार्टी के जनरल सेक्रेटेरी अमर सिंह कई मायनों में जानी मानी हस्ती हैं ! आज के बाद उनको जिस एक अन्य जरूरी कारण  से जाना जाएगा वह है सामाजिक जीवन में स्त्री के लिए उनके मन में बसने वाला सम्मान भाव !  एक औपचारिक बातचीत में उन्होंने कांग्रेस पार्टी की लीडर सोनिया गांधी से हुई रजनीतिक मुलाकात के लिए "सुहागरात " और "बलात्कार" जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया ! कई स्त्री -संगठनों ने इसपर आपत्ति व्यक्त की है और अमर सिंह से उनके इस मासूस शाब्दिक प्रतीक के इस्तेमाल के एवज में सार्वजनिक माफी की मांग की है !

अमर सिंह की बात जाने दें ! ये दो बडे बडों के बीच का मसला है और कई मोर्चों से विरोध के स्वर भी उठ रहे हैं ! बात सुलट जाएगी ! सबकुछ पीसफुल हो ही जाएगा !पर  एक आम कामकाजी औरत के व्यावसायिक जीवन में इस प्रकार के भाषिक यौन उत्पीडन की कल्पना करें तो हमारा स्वयं को कटघरे में पाते हैं ! कामकाजी जीवन में पुरुष सहकर्मियों के साथ बराबर की भागीदारिता करने वाली हर स्त्री कभी न कभी इस तरह की वाचिक हिंसा का शिकार हो ही जाती है ! बहुत बार स्त्री अपने लिए कहे गए जुमलों और व्यंग्यों के भीतर छिपी यौन हिंसा को पहचान नहीं पाती ! प्रोफेशनल प्रतिस्पर्धा में पुरुष से खुद को हीन न मान ने वाली औरतें हों या पुरुष को स्वाभाविक तौर पर स्त्री से बेहतर जीव मानने में संतोष करने वाली औरतें - दरअसल दोनों तरह की औरतें पुरुषों के द्वारा किए गए भाषिक हमले का शिकार होती हैं ! कभी कभी तो महज हल्के लगने वाले माहौल में हल्की बातचीत, लतीफागिरी , चुहलबाजी , प्रोफेशनल बातचीत आदि में पुरुष मित्रों और सहकर्मियों के द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा व प्रतीक स्त्री के प्रति उनके नजरिये को दर्शाते हैं !

मैंने अक्सर देखा है अपने लिए इस्तेमाल की गई सेक्सिस्ट भाषा व आपत्तिअजनक जुमलों का विरोध करने का नतीजा बहुत त्रासद होता है ! आपके प्रतिरोध के उपहार स्वरूप आपके लिए कहा जाएगा  - य़े औरत तो पागल हो गई  या फिर इस औरत का  घरेलू जीवन ही बडा खराब है जिसका गुस्सा यह यहां उतार रही है या  कमाल है इसका कौन सा पल्ला खींच लिया है या कहा जा सकता है यहाँ औरत झूठा इल्जाम लगा रही है किसी शत्रु सहकर्मी के भडकाने पर फंसा रही है ...वगैरह वगैरह...

अमर सिंह की सार्वजिक रूप से की गई बयानबाजी के राजनीतिक गैरराजनीतिक पाठ भी हो सकते हैं और इस्तेमाल भी ! पर एक आम औरत जब अपने लिए नागवार गुजरने वाले आपत्तिजनक जुमलों का अकेला प्रतिरोध करती है तो उसके निहितार्थ घोर निजी होते हैं ! यहां घर परिवार ,मित्र, निकट की स्त्रियां व्यवस्था के सहयोग की मात्रा भी बहुत कम होती है ! यौन उत्पीडन का आरोप दर्ज करने वाली स्त्री को हर कदम पर अपने चरित्र और इरादों की सफाई भी देनी होती है ! इस विरोध के झंझटों से बच कर चलने वाली हर स्त्री कामकाज के स्थलों पर यह मानकर चलने लगती है कि जब बाहर निकलोगी तो यह सब तो होगा ही ...!

पुरुष अपने अवचेतन में स्वयं स्त्री का यौन -नियंता समझता है ! उसके मन की भीतरी परतों मे स्त्री मात्र यौन- उपकरण है जिसपर बलपूर्वक अधिग्रहण किया जा सकता है !  सो कबीलाई समाज के संस्कार जाते जाते भी नहीं जा पाते ! उसके लिए स्त्री एक यौन प्रतीक है ,जिसकी कोई यौनिक आइडेंटिटी नहीं है ! इस अवचेतन मन के दबावों में सुहागरात बलात्कार ,संभोग ,स्त्री की देह सब प्रतीक है जिनका इस्तेमाल पुरुष किसी भी गंभीर अभिव्यक्ति के लिए भी जाहिर तौर पर कर बैठते हैं ! अमर सिंह ने भी समझा होगा इस भाषा के इस्तेमाल से वे सोनिया गांधी के राजनीतिक समीकरणों को आम भोली भाली जनता तक आसानी से पहुंचा पाऎंगे ! वे शायद भारतीय जनता के सार्वजनिक अवचेतन की गहरी समझ रखते होंगे ! या ये उनकी ज़बान की फायडियन स्लिप भी हो सकती है !.....जाने दें ..!

जाहिर है स्त्री जितना सिकुडॆगी उतनी ही उसके लिए जगह कम होती जाएगी ! उसे अपने स्तर पर यौन हिंसा के इस रूप का विरोध करना ही होगा ! पर वह यह भी जानना चाहेगी कि ऎसे में स्त्री से इतर समाज का क्या स्टैंड है ? क्या हमें उस दिन का इंतज़ार है जब  स्त्री की भाषा उन यौन प्रतीकों से बनी होगी जो पुरुष के लिए तकलीफदेह होंगे और उसकी कार्यकुशलता को सेक्सुअल आधारों पर कमतर सिद्ध करते होंगे !

Monday, June 09, 2008

डॉ पांगती - पंक्ति में नहीं खड़ॆ हैं जो

पिछली पोस्ट में मैंने अपनी मुनस्यारी यात्रा के कुछ छायाचित्र प्रस्तुत किए थे !  आज देखिए डॉ पांगती के निजी प्रयासों से बने हेरिटेज म्यूजियम की कुछ तस्वीरें ! डॉ पांगती मुनसियारी के मूल निवासी हैं जिन्होंने वहीं रहकर जोहर घाटी और भोटिया जनजाति पर अपना पी.ऎच.डी का काम पूरा किया !वे करीब एक दशक पहले मुनस्यारी के इंटरकॉलेज से रिटायर हुए हैं और आजकल दिल्ली में रहने वाले अपने बेटे के द्वारा लाए गए लैपटॉप पर वे लोकभाषा पर काम कर रहे हैं ! 


मुनस्यारी के छोटे से गांव में कच्चे रास्ते से होकर आप उनके पैतृक घर में बने इस म्यूज़ियम में पहुंच सकते हैं ! उनके अकेले और अथक प्रयासों से एक बडा सा कमरा संग्रहालय में तब्दील हो गया है ! पांगती जी के म्यूज़ियम में लोकजीवन की कई स्मृति चिह्न हैं -बर्तन , वस्त्राभूषण ,चीन और तिब्बत से स्वतंत्रतापूर्व की व्यापार संधियां ,नक्शे , किताबें , हिमालय पर हुआ नया शोध कार्य , जडी बूटियां , हथियार....! इस इलाके के लोकजीवन पर रचित कुछ दुर्लभ किताबों को आप यहां से खरीद सकते हैं ! यह म्यूज़ियम मुनस्यारी में मास्टर साब के म्यूज़ियम के नाम से जाना जाता है ! पांगती जी से बातचीत के दौरान उनकी काम के लिए खब्त का पता चला तो कई सवाल मन में पैदा हुए ! कुछेक पूछ भी डाले ! उनका मकसद क्या है ? उनकी यह धरोहर संभालने वाला कौन है ? धन का इंतजाम कैसे होता है ? ! डॉ पांगती का कहना था "यहां के बच्चे अपनी लोक संस्कृति को नहीं जानते ! लोक भाषा शैली सबको भूल रहे हैं ! अपनी सांस्कृतिक धरोहर के हिस्से मैं संजोने की कोशिश करता हूं ..हमारा जातीय इतिहास खो न जाए !" पुरानी पीढी और नए जमाने के बीच उगती गहराती खाई के कई सबूत हमने वहां के जीवन में महसूस किए ! डॉ पांगती के मन में भी इस सांस्कृतिक विस्मृति के लिए अस्वीकार था ! पर साथ ही एक आस्था और विश्वास भी उमके भीतर दिखा ! वे मानते हैं कि भविष्य में कभी न कभी इस काम को आगे बढाने वाला आस्थावादी लोक संस्कृति का प्रेमी जरूर पैदा होगा ! डॉ पांगती ने हमें आगंतुक पुस्तिका पर कुछ लिखने का आग्रह किया क्योंकि इस साल उन्हें राज्य से कुछ अनुदान मिल रहा है राज्य तो अनुदान से पहले आपके काम के सबूत देखता है न ! हमने हिमालय के इतिहास और लोकसंस्कृति पर लिखित कई किताबें उससे खरीदी! चलते हुए उन्होंने हमें अपना लिखा एक लेख दिया ! भाषा के सामाजिक पक्ष पर लिखा यह लेख एक आध जगह से बिना छपे वापस आ चुका था ! सो उन्हें संकोच था ,पर बातचीत में पैदा हुई सहजतावश उन्होंने वह लेख हमें थमा दिया !



 


Saturday, June 07, 2008

मुनस्‍यारी में हम

बहुत समय से मुनस्यारी जाने की कामना थी जो आखिरकार पूर्ण हुई ! उत्तरांचल की आखिरी सडक पर आखिरी मोटरऎबल गांव ! मिलम ,रलम ,पिंडारी और हीरामणि ग्लेशियरों से घिरा और पंचचुली पर्वतमाला के चरणों में अडा यह गांव दिल्ली की चहल पहल से 700 किलोमीटृर दूर है ! इस दूरी को हमने अपनी  नई नवेली ऎवियो युवा कार से की गई यात्रा से पाटा ! पेश हैं कुछ छायाचित्र -

Monday, May 26, 2008

ब्लॉग जगत के बलात्कारी ब्वायज़

कल से कठपिंगल नामक एक नव ब्लॉगर जो कि बडे मठाधीश भी होते हैं बहुत परेशान हैं ! उन्होंने एक साथी बलात्कारी ब्लॉगर की अपराध की दास्तान हम सब को सुनाई और फिर जी भर यहाँ जांचने में तुल गए कि कौन उसपर कितना रिऎक्ट कर रहा है ! यश्वंत के बलात्कारी व्यक्तित्व की निंदा में चोखेरबाली समाज चांय चांय नहीं कर रहा वे इस बात से भी आहत हैं ! अविनाश ने कल बलात्कार की कथा को बहुत दम से बयान किया ! उन्होंने हमेशा की तरह अपनी पत्नी को घर पर ही रखा और ब्लॉग जगत के सबसे सेंसेटिव और ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते सब ब्लॉगरों को उनके नैतिक ड्यूटी के लिए उकसाया ! पर जैसा कि प्रमोद ने कहा यश्वंत पकडा गया क्योंकि वह फिजिकल एब्यूज़ कर बैठा था ! पर यहां के कई थानेदार मठाधीश जो कि समाज के हर मुद्दे पर सबसे तेज और संवेदनशील राय रखते हैं आजाद हैं और तबतक रहेंगे जबतक कि कोई फिजिकल एब्यूज न कर बैंठें !

ब्लॉग जगत के मोहल्ला की चारपाई पर बैठा एक ब्वाय बलात्कार की खबर दे रहा है दूसरा ब्वाय जेल से छूटा ही है ! चारपाई वाले ब्वाय की पत्नी घर के अंदर और बलात्कारी की पत्नी गांव में है ! अब बचीं ब्लॉग जगत की औरतें जिनके लिए मोहल्लापति ने नए संबोधन बनाना ,उनको उनके कर्तव्य बताना , उनके सम्मान और हित में बोलने वाले पुरुषों को पुरुष समाज का विभीषण बताना जैसी कई बातें इस ब्वाय ने बताईं हैं ! इसमें से एक ब्वाय स्त्री विमर्श जैसे कई विमर्शों की रिले रेस चलवाता है और चाहता है कि उसे हिंदी ब्लॉग जगत का सबसे बौद्दिक और समझदार ब्वाय समझा जाए ( क्योंकि वह बलात्कारी भी नहीं है ) जबकि दूसरे ब्वाय के द्वारा बलात्कार की खबर देता हुआ यहाँ चारपाई ब्वाय अपनी एक परिचित ब्लॉगर को " सनसनी गर्ल " दूसरी को छुटे सांड की तरह सींग चलाने वाली माताजी कहकर ही अपनी बात आगे बढा पाता है ! हमारे पास यश्वंत के बलात्कारी रूप के कोई फोटो नहीं हैं ( हो सकता है कोई ब्वाय जारी कर दे आजकल में ..) पर हमारे पास चारपाई ब्वाय का लिखा है

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आप कहें गे कहेंगे क्या अनूप तो कह ही रहे हैं कि नीलिमा ने ही उनको उकसाया है तो फिर यहाँ सब तो लाजमी है ! यश्वंत का भी क्या कसूर रहा होगा उस पीडिता ने भी उसको उकसाया होगा !अब चारपाई ब्वाय को उकसाया जाएगा तो वह किसी स्त्री को पहले तो भूखी सांड की तरह हर जगह दौडती ही कहेगा माताजी भी कह लेगा पर इससे ज्यादा मत उकसाओ ....! जाहिर है अपनी हदों को पार करने वाली औरत या आपकी गलती दिखाने वली औरत माताजी ही कलाऎगी क्योंकि वह सुकुमारी वाले काम कहां कर रही है ! विरोध के स्वर में बोलने वाली औरत को बूढी पके बाल वाली माताजी कहने से कितना चिढ सकती है वह ! वह जाकर शीशे में ध्यान से अपने को निहारने पहुंचेगी कि ऎसा मेरे चेहरे में क्या था कि मैं माताजी लगने लगी हूं , छुटी भूखी सांड की तरह लगती हूं .....बस वह उदास हो जाएगी चेहरे पर लेप मलेगी और अपने आप से वादा करेगी कि कल से किसी भी मर्द को ऎसे नहीं कहेगी और उनकी तारीफ के योग्य करम करेगी !

वैसे जब चारपाई ब्वाय एक बलात्कार की खबर देते हुए स्त्री के बारे में इन संबोधनों को कह रहा है तो उसके मन में यही न चल रहा होगा कि छुटी सांड सी दौडती फिरोगी तो यही सुनोगी ! और फिर कुछ भी फिजिकल या लैंग्वेज एब्यूज़ हो सकता है ! माई डियर तैयार रहा करो तुम्हारे साथ आगे कुछ भी हो सकता है ! वह सोचता होगा हमारी वाली को देखो घर में बंधी रहती है मजाल है उसके साथ कोई कुछ कर जाए ...!

ऎसे चारपाई ब्वाय को मसिजीवी पत्नीवादी ,प्रमोद सिंह भी "बदचलन " लगेगा ! दोनों ही अपनी पत्नी को बांधकर नहीं रख सके ! एक की भूखे सांड सी दौडती रहती है दूसरे की भाग जाती है ! हे चारपाई ब्वाय तुम नीलिमा को कठघरे में खडा करने के लिए जितने उतावले हो अगर उतने ही उलावले अपनी काठ की संवेदना को गलाने के लिए होते तो बात थी !

तुम तो पहुंचे गाल बजाते देखो साला पकडा गया बलात्कार ऎसे नहीं किया जाता साले को कितनी बार समझाया था ! जो करो ऎसे करो कि पकडे न जाओ ! बोधि जी को देखो बोला भी बाद में पलट भी गए बच गए ! मुझे देखो सनसनी गर्ल कहा था तुरंत मिटा दिया साथ ही यह कहने के ऎतराज में आई टिप्पणी भी मिटा दी ! एकदम साफ कोई सबूत नहीं ! पर भूखी सांड सी पीछे पडेगी तो आगे का कुछ नहीं कह सकता ! मैं कहता था न मैं बडा बाप हूं मुझसे सीखो ! स्त्री विमर्श भी करो स्त्री का एब्यूज़ भी करो ! तरीका मुझसे सीखो -मैंने कई बार कहा था ! तुम ठहरे कच्चे खिलाडी और जल्दबाज ..खैर भुगतो !

तो हे चारपाई ब्वाय हिंदी व्लॉग जगत की मुझ सी भूखे सांड सी बेवजह जगह -जगह दौडती औरत जिसमें तुमने अपनी माताजी का रूप देखा , पत्रकार स्‍मृति दुबे जिनमें तुम्हें सनसनी गर्ल ( कॉल गर्ल ,बार गर्ल ,पिन अप गर्ल ,सिज़्लिंग गर्ल जैसी ही कोई चीज़ .....जो तुम औरतों में देखते होंगे ..) प्रत्यक्षा , सुजाता मनीषा पांडे जैसी तमाम औरतें बस अब तुम्हारी चारपाई की ओर देख रही हैं ! चारपाई पकडे रहना बलात्कारी ब्वाय को तो हम  और कानून मिलकर देख ही लेंगे ,साथ की कामना करेंगे कि और कोई बलात्कारी ब्वाय उगने न पाए !  आमीन !

Wednesday, April 09, 2008

इन औरतों का इंकलाब ज़िंदाबाद बंद कराओ

सुनिए आप सब अनाम सनाम महाशयों ! अब तो आप सब की ही तरह इस नारीवादी औरतवादी नारेबाजी - बहसबाजी से  मैं भी तंग आ चुकी हूं ! आप सब सही कह रहे हैं ये इंकलाबी ज़ज़्बा हम सब औरतों के खाली दिमागों और नाकाबिलिय़त का धमाका भर है बस ! हम बेकार में दुखियारी बनी फिर रही हैं ! सब कुछ कितना अच्छा ,और मिला मिलाया है ! पति घर बच्चे ! हां थोडी दिक्कत हो तो पति की कमाई से मेड भर रख लें तो सारी कमियां दूर हो जांगी ! फिर हम सब सुखी सुहागिनें अपने अपने सुखों पर नाज़ अकर सकेगीं ! सब रगडे झगडे हमारी गलतफहमियों या ऎडजस्टमेंट की आदत न होने से होते हैं !  पर एक बात बताओ -हम कितने सुखी हैं ये फहमी तभी तक क्यों बनी रहती है जब तक हम सारी घरेलू जिम्मेदारियां हंसते संसते उठाती रहतीं हैं ! काश जब हम पति की कमीज बटन न टांकें और फिर भी घर की खुशहाली बनी रहे और हमारे बारे में नाकाबिल औरत औरत का फतवा न जारी किया जाए !

बकवास है सब साली ! फेमेनिज़्म सब धरा रह जाएगा जब बटन न टांकने , समय पर रोटी न देने पर पति घूर कर देखेगा चांटा मारने को उसका हाथ उठेगा ! कमीना फेमेनिज़्म आपके रिश्ते की पैरवी में नहीं आएगा तब और आप सोचेगी हाय एक बटन टांक ही देती तो क्या हर्ज हो जाता ??

अब एक पति महाशय दलील दे रहे थे कि मैं अगर कमाकर लाने से इंकार कर दूं तो ? सारा दिन बाहर खटता हूं मैं भी तो खुद को मजदूर मान सकता हूं ? मुझे घर मॆं चैन की दो वक्त की रोटी भी न मिले तो क्यों मैं घर लौट के आना चाहूं ?बडा गंदा ज़माना आ गया है घरों की शांति खत्म हुए चली जा रही है ! हर बात में दमन ,शोषण देखने की आदत पद चुकी है इन औरतों को !

सही बात कहूं तो मैं अब सुधरने की सोच रही हूं - एक खुशहाल, पति सेविका परिवार की धुरी बन सब कुछ संभालने वाली औरत ! पर क्या करूं ये सब सोच ही रही कि  मृणाल पांडॆ का लिखा पाठ " मित्र से संलाप " पर स्लेबस के लिए लिखने का ज़िम्मा ले डाला ! अब उन्होंने आप सब के द्वारा नारीवाद पर लगाए आरोपों की लिस्ट बताई है ! आप भी गौर करें और हो सके तो अपनी अपनी दलीलें -आरोप आदि को लिस्ट करें ! वाकई अब निर्णायक दौर आ गया है इस फेमेनिज़्म पर कुछ फैसला लेने का --

औरत ही औरत की दुश्मन होती है !

सारी फेमेनिस्ट औरतें तर्क विमुख होती हैं !

फेमेनिज़्म एक पश्चिमी दर्शन है ! कोकाकोला की तरह     झागदार और लुभावना आयात भर है!

नारी संगठन बस नारेबाज़ी और गोष्ठियों का आयोजन भर करते हैं !गावों में इनकी कोई रुचि नहीं !

मध्यवर्गीय कामकाजी औरतें घर से बाहर कामकाज के लिए नहीं मटरगश्ती के लिए निकलती हैं !

पारिवारिक शोषण की शिकायत करने वाली स्त्रियां ऎडजस्ट करना नहीं जानती !

{ प्लीज़ अपनी राय या आरोप लिस्ट में  जोडना न भूलें }

Friday, April 04, 2008

सेक्सुअली वॉट आय ऎम ??

स्त्री और सेक्सुऎलिटी का आपसी संबंध क्या है ?यह सवाल अब स्त्री विमर्शों में यदा कदा उठने लगा है ! इस समाज में  औरत अपनी सेक्सुएलिटी पर अपना ही अधिकार खो देती हैं ! यह पितृसत्ता ही है जो हमारी सामाजिक आर्थिक राजनीतिक और सेक्सुअल आइडेंटिटी को काबू में रखती है ! किसी स्त्री या लडकी का अपनी सुक्सुएलिटी , शरीर और प्रजनन पर नियंत्रण समाज को ,पेट्रीआरकी को सबसे खुली चुनौती होता है ! इसीलिए हमारे समाज के सबसे वर्जित सवालों में से एक सवाल है - किसी स्त्री के द्वारा  अपनी यौनिक पहचान को जबरिया डिफाइन करने वाली संरचनाओं पर उठाया गया सवाल !

हमारे समाज में स्त्री का शरीर और उसकी आजादी पितृसत्ता का सबसे बडा हथियार भी हैं और उसके लिए सबसे बडा खतरा भी ! जिस समाज में पुरुष का सेक्सुअल सेल्फ हावी रहता है उसी समाज में औरत का सेक्सुल आत्म लगातार दबाया और कुंठित किया जाता है ! इसी समाज की ट्रेनिंग के फलस्वरूप स्त्री हमेशा अपनी इस आइडेंटिटी को पुरुष की थाती मान लेती है ! स्त्री के पास अपने सेक्सुअल आत्म को अभिव्यक्त करने के न अवसर हैं न भाषा और न ही आत्मविश्वास ! परिवार ,समाज संस्कृति ,नैतिकता ,मर्यादा का दायित्व एकमात्र उसके उउपर लादकर चल रही हमारी ये संरचनाऎ बेफिक्र हैं !

स्त्री अपने शरीर के प्रति कितनी सहज और सजग है  या फिर उसकी सेल्फ की परिभाषा में उसकी अपनी यौनिकता को क्या जगह देती है ? स्त्री अपनी यौनिक आइडेंतिटी की अभिव्यक्ति को लेकर कितनी कुंठित ,दमित या पराश्रित है ?-- आदि कुछ सवाल हैं जो हमारे पितृसंरचनात्मक समाज की देन हैं ! इन सवालों को सवाल की तरह देखा जाना अभी कहां शुरू हुआ है -?-केवल वृहद विमर्शों की सुलझी हुई तहों के भीतर ये दबे हुए हैं !

एक आम स्त्री की ज़िंदगी की तमाम उलझनों ,पीडाओं , समस्याओं से इन सवालों को क्या लेना देना --मैं जानती हूं आपमें से काई सुधी पाठकों के मन में यह सवाल उठ रहे होंगे ! आप स्त्री की जिंदगी और जिस्म को कई अलग-अलग टुकडों में देखने के आदी हो गए होंगे सो उसकी सामाजिक राजनीतिक और यौनिक आजादी ( और अभिव्यक्ति ) को आप अलग अलग संघर्षों के रूप में देख रहे होंगे ! ज़ाहिर है आपको यह भी लगता होगा को बेचारी स्त्री कहां कहां लडेगी ??465_2

Thursday, April 03, 2008

आखिर मैं इतने दिन से कहां थी ?

 

बहुत दिन तक  कोई भी पोस्ट न लिखने के क्या फायदे हैं इसका विश्लेषण करते हुए फुरसतिया जी ने बहुत सी राज की बातें बताई हैं ! वे हमसे बतियाते हुए बोले कि अच्छा है कि आपकी वजह से चिट्ठा पढने वाले लोग कम परेशान हुए ! बहरहाल उनकी बात सुनकर कई दिनों से न लिख पाने से परेशान मन को बहुत राहत मिली ! :)

दरअसल पिछले 3-4 सप्ताह से स्त्री विमर्श पर आयोजित एक पुनश्चर्या कार्यक्रम मॆं हिस्सा ले रही थी ! इस कार्यक्रम के तहत कई नामी विद्वानों और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं को सुनना हुआ ! कमला भसीन ,अपर्णा बासु ,विभा चतुर्वेदी ,कविता श्रीवास्तव ,निर्मला बैनर्जी ,ऎन स्टीवर्ट ,राकेश चन्द्रा , उमा चक्रवर्ती सरीखे कई वक्ताओं को सुनने का मौका मिला ! इस पूरे कार्यक्रम में दिल्ली विशवविद्यालय के  शिक्षकों के साथ साथ कई अन्य विश्वविद्यालयों के शिक्षक भी थे !

इस कार्यक्रम में मैंने अपना पर्चा "हिंदी जनपद का ब्लॉगफेमेनिज़्म " पर तैयार किया और पढा !  यहां मौजूद श्रोताओं ने साइबर फेमेनिज़्म को एक बिल्कुल नये फिनामिमा के रूप में ग्रहण किया ! इस पर्चे में ब्लॉग जगत की सत्ता संरचना में पितृसत्तामकता के सबूतों की पडताल की ! चोखेरबाली के उदय के ऎतिहासिक दबावों पर बात हुई ,ब्लॉग जगत की स्त्री लेखिकाओं के लेखन पर विमर्श हुआ ! जो एक महत्वपूर्ण सवाल रामजस कॉलेज के इतिहास विभाग के वरिष्ठ और स्त्री संघर्षों के बहुत सक्रिय चिंतक मुकुल ने पूछा वह था -कि क्या इस साइबर स्त्री विमर्श एक पत्नीवाद या सुक्सुऎलिटी के विमर्श उठते हैं ?

यह रिफेशर कोर्स मेरे लिए बहुत अहम रहा ! स्त्री आंदोलनों ,स्त्री विमर्श , पितृसत्तामकता , जेंडर इक्वेलिटी और जेंडर जस्टिस , फेमिनिटी और मस्क्युलिनिटी ,स्त्री और मीडिया ,यौन उत्पीडन और स्त्री ,जेंडर और साइकॉलोजी ,फैमिली लॉ ,ट्रैफिकिंग एंड वुमेन लॉ अगेंस्ट डॉमेस्टिक वॉयलेंस --जैसे कई अहम मुद्दों पर वक्तव्य हुए !इन सब विमर्शों के प्रभावस्वरूप स्त्री विमर्श से जुडे कई आयामों पर एक समझ बनाने का मौका मिला !

यहां हुए कई अनुभव आपसे साझा करने का मन है ! खासकर सेक्सुऎलिटी पर हुई वर्कशॉप के कुछ गंभीर और कुछ हास्यास्पद अनुभव ! बिना इस डर के कि रियाज जी फिर न कह दें कि आप औरतें स्त्रियों और बच्चों के अलावा और कुछ नहीं लिख सकतीं क्या ?:)

Monday, March 03, 2008

उनका थूकशास्त्र आपपर कैसा बीतता है ?

अगर कोई बलगम का लोथडा गले में अटक गया हो उसे उगल दीजिए दिल हलका हो जाएगा !

भारत देश की जनता को इतनी थूक क्यों आती है माइलौड ? यहां की सडकें भारतवासियों के दिल में सूराख कर रहे टी.बी. रोग के सबूतों से अटी क्यों पडी रहती हैं ? इन रंग बिरंगी पीकों से रहित कब होंगी हमारी गलियां गमारी सडकें ?

आकथू...आकथू ..

दरअसल हमारे सीनों में बरसों से थूक पीक का संगम बवाल मचाए हुए है ! लिसलिसा हरा गीला पदार्थ हमारे दिल में आप्लावित होता रहता है हुजूर ! जबतब ये कमबख्त गले में उबल पडता है ! आप जाने जनाब हमारे मुंह से ठीक उसी समय कोई बढिया बात निकलने वाली होती है पर बलगम के लोथडे में उलझकर रह जाती है ! ऎसे में हम मुंह खोलते हैं तो बस वही लिसलिसे थक्के बेकाबू होकर बाहर निकला चाहते हैं ! अब सडक उडक पे चलते हुए किसी मैदान के बेंच पर बैठे हुए ,किसी जलसे में शिरकत करते हुए हमारा मुंह भर आए तो फोंकने कहां जाऎं ? लिहाजा हमें ये स्वाभाविक कर्म वहीं अंजाम देना पडता है ! अब इससे आपको बदमज़गी हो या आपका पैर उसपर पड जाए या फिर उसकी झींटें उडकर आपपर आ पडें तो इसमें हमारा क्या कुसूर !

आप हमपे नैतिकता न थोपें ! इस तरह सडकें चौराहे और पार्क रंग देने से हमारा दिल हलका होता है ! सुकून मिलता है ! हम तो उगलेंगे  ..दूसरों का दामन ,घर या सार्वजनिक सडक की सफाई का हमने क्या ठेका लिया हुआ है ! हम भोले- भाले हैं दिल के साफ हैं भावुक हैं बेबाक हैं नंग धडंग हैं  ! आप सब अपनी आंखों ,नाक कान सबको बंद रखने के लिए आजाद हैं ! हम अपनी थूक पेशाब ट्ट्टी जैसी स्वाभाविकताओं को लेकर शर्म नहीं मानते !  अगर आप अपनी सहज क्रियाओं को भी अकेले में करने का मौका देखने वाले बेचारे बने रहेंगे तब तो आप जरूर समझ लेंगे लोकतंत्र का मतलब !

अब हम सबसे मारे हुए , सीने में जहां भर का दर्द लिए हुए जमीनी लोग हैं ! इसलिए सबसे ज़्यादा बीमार रहते हैं और इसलिए हमारे  सीने में इमोशंस ,ईमानदारी शराफत हो न हो बेशुमार बलगम जरूर भरी रहती है जिसे उगल उगलकर हम दिल का बोझ हलका करते फिरते हैं ...! गले में उफनती पीक थूक मवाद सटकना हमारी नज़र से बेचारगी है सरजी !  और हां..इस बहाने आप हमसे खौफ भी तो खाऎगे  ! आप अपने कपडे अपना चेहरा बचाऎगे हमसे ! हम पूरा ज़ोर लगाकर थूकेंगे गली मोहल्ले पटे होंगे इस थूक की पिच पिच से ! आप पैर रखते हय हाय करेंगे  ! हो सकता है आपका जी मितलाए और आप कसम खाऎं कि आप दोबारा घर से बाहर कदम नहीं रखॆंग़े ! तो सरजी थूकने पीकने लिए ही तो भारतीय सडकें बनीं हैं आप अपने लिए तलाश क्यों नहीं लेते एक साफ सुथरी सडक या फिर पटरी ..?

  तो सरजी हनने तो डिसाइड किया है कि हमारी बिलबिलाते रोगाणुओं से लबालब लेसदार मोटी बलगम की पिचकारियां पच्च पच्च कररेंगी ही ! हमारी मर्दानगी, आज़ादी ,लोकतंत्र और बलगम के लोथडे उगलना -उडाना ....हमें तो सब एक सा ही लगता है जी !!

Thursday, February 07, 2008

कह लूं ज़रा दर्द आधी धरती का

दुनिया आधी है अधूरी है ! पूरी क्यों नहीं है का सवाल भी मेरा है और पूरी कैसे हो की सारी छटपटाहट भी मेरी है ! क्या आधी दुनिया में सिर्फ पानी है और बाकी की आधी दुनिया बनी है चट्टानों की बेलौस ताकत से, कैक्टसों शानदार अनगढता से ! बाकी की आधी दुनिया  क्या पाने को छटपटा रही है ?

वो हाट लगा के बैठे हैं मेरी छटपटाहट का ! यहां मेरा दर्द भी बिकेगा और मेरे दर्द की कहानी भी ! क्या करुं ?

मुझे नहीं होना चट्टान नही होना है कैक्टस ! तो क्या होना है मुझे ? मुझे सोच लेना होगा वरना वह सोच लेगा कि मैं क्या होना चाहती हूं ! देखो न वह मेरे दर्द से मतवाला हुआ जा रहा है ! वो कहता है कि वो जानता है मेरे मन को ...उसकी एक एक परत को उघाड लेना चाहता है वह ताकि वह रच सके कोई गीत !

मैं उसकी कहानी की नायिका हूं ! वही नायिका जिसे वह दर्द भी देता है और दवा भी देता है खुद ही ! वह मदमाता है कि वह कंटीला कैक्टस है और वह कहता है कि हे प्रिय तुम फूल हो फूल ही रहो !  वह मेरे पुष्पत्व का अकेला माली और रखवाला ! उसकी चट्टानता और उसकी महानता से दुनिया के सहमे हुए जलस्रोत खुद को अंजुली का पानी समझ रहे हैं ! वह मेरा दर्द मेरे अनगढ शब्दों में मुझसे नहीं सुन पाता पर मेरे दर्द पर लिखे गीतों किस्सों में खूब मन रमा पाता है !

मैं सिलसिलेवार नहीं , मैं कथाकार नहीं ! कैद है मेरी हंसी , मेरा दर्द , मेरा सपना तुम्हारी तिजोरी में ! तुम रचते हो ,पिरोते हो करीने से मेरे इस कैदी स्व को और सुनाते हो मुझी को ! कहते हो हे प्रिये ! पीडा का सृजन, सृजन की पीडा सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए ..

..मैं खामोश हूं अभी ....वहां ठीक उस चट्टान की तली से बह रहा है पानी.....

Saturday, February 02, 2008

मेरा उलझा फेमेनिज़्म और चुगली करती गोल रोटियां

क्या कभी कोई स्त्री खुद से यह सवाल पूछ्ती होगी कि अगर उसे दोबारा मौका मिले तो वह स्त्री ही होना चाहेगी ? पता नहीं ऎसा बेतुका प्रसंगहीन सवाल क्योंकर मेरे मन में उठता रहता है मैं अपना मन इसमें नहीं उलझाना चाहती पर कभी लगता है कि इसका कोई ठीक ठीक तार्किक जवाब ढूंढ ही लूं ! 

मुझे हमेशा से गोल रोटी बेलने से सख्त चिढ रही है और मैंने कभी कायदे से घर गृहस्थी के काम करना नहीं सीखा ! कभी कभी अपने इस खस्ता हाल से कुंठा होती है तो कभी यह किसी तमगे से कम नहीं लगता ! कभी लगता है मैं एक कंफ्यूज्ड स्त्री हूं जो अपनी जिम्मेदारियों में मन नहीं लगाती !कामकाजी हूं ! सो फुर्तीली और अपटूडेट बने रहने का प्रयास जरूर करती हूं ! मेरे कुलीग्स जब मेरी इस पर्स्नेलिटी की तारीफ करते हैं तो सोचती हूं कि काश मैं इन वाहवाहियों को पसंद कर पाती ,पर जानती हूं कि स्त्री को उसकी  अच्छी सामाजिक छवि का चक्कर महंगा भी पड सकता है ! मैं जानती हूं कि यह एक ट्रैप है ! मैं किसी भी छवि के ट्रैप में फंस जाने से डरती हूं ! मैं अपने आसपास ऎसी औरतों को बहुत हैरत से देखती हूँ जो यह दावा करती हैं कि वे एक बहुत सफल कुक ,ट्यूटर , मां ,पत्नी , मेजबान और बेहद जागरूक कामकाजी महिला हैं!   अचानक अपने स्त्रीत्व पर उठता प्रश्नवाचक चिह्न दिखाई देने लगता है !  मै सोचती हूं कि जब मैं प्रसव पीडा सह सकती हूं तो ये अच्छी स्त्री वाली छवि की पीडा से क्यों डरती हूं !

सडक पर अकेले चलना ,चलते जाना बिना किसी वजह के ! या कि फिर सडक पर चलते रुक कर किसी ऊंची शाख या बनते बिगडते बादलों के झुंड को देखना है मुझे ! पर नहीं अचानक लगता है कई आँखें देख रही हैं ! सडक पर चलते रिक्शे वालों , खोमचे वालों गुजरती कारों में बैठे लोंगों की कई जोडी आंखों का मैं लक्ष्य बन सकती हूं ! मैं बडी गुस्सैल ,बददिमाग और अडियल हूं !  कामकाज के माहौल के हर मुद्दे में अपनी टांग अडाती रहती हूं ! जबकि अक्सर कई कुलीग्स गोलमोल लहजे में मेरी इस गंदी आदत के बारे मॆं चिंतित होते हैं क्योंकि उनका मानना हैं कि कम उम्र की बाल बच्चॉं वाली औरतों को पंगों में नहीं पड़ना चाहिए ! मैं गालीबाज हूं पर वे कहते हैं -"अगर गाली देने का इतना ही शौक है तो साला या उल्लू का पट्ठा भी कोई गाली है थोडा और आगे बढो "! वे एक फार्वड ,बेलौस, वाचाल औरत के साथ मानकर चलते है कि इसके कंधे पर हाथ रखकर बतियाने जैसी उनकी हरकतें तो बहुत जायज हैं !

खैर ..जाने दें ! मेरा यह खिचडी आत्मालाप बोझिल हो रहा होगा आपके लिए ! यदि दोबारा मौका मिले तो मैं स्त्री ही होना चाहूंगी का जबाव ..उफ ..फिर कभी ! पर इतना तो है कि अब आपको अपनी पत्नी बहुत सुघड़, सुलझी हुई संस्कारी ,कर्तव्यशीला स्त्री लग रही होगी ! आप तो अपना टिफिन खोलिए गोल रोटियों को खाने का लुत्फ उठाइए !  आपके द्वारा खाई जा रहीं रोटियों का आकार आपके दांपत्य संबंधों की चुगली तो नहीं कर रहा है ....!

Wednesday, January 16, 2008

बटरफ्लाईज़ : डू दे फ्लाई ?

नाम : अनुज चौधरी ! उम्र : 20 साल ! पेशा :  दिल्ली में एक मंत्री के यहां अटेंडेंट ! जी मैं बात कर रही हूं अपने कॉलेज के प्रथम वर्ष के एक छात्र की ! दुबले पतले चमकती आंखों वाले इस छात्र को पढाते हुए उसे हमेशा हंसते- मुस्कुराते और पढाई में मन लगाते देखा है ! अक्सर हम प्राध्यापक लोग अपने छात्रों  की निजी जिंदगी की तकलीफों से अनजान रहते हैं !सो मैं भी उसे बाकी सभी छात्रों में से एक समझती रही ! पर कल उससे हुई बातचीत में मुझे उसकी जिंदगी की कडवी सच्चाइयों का पता चला ! मैं हतप्रभ हूं , गौरवांवित हूं कि मुझे एक बेहद जुझारू बहादुर बच्चे को पढाने का अवसर मिला है ! अनुज के माता पिता जब गुजरे तब वह मात्र 8 साल का था ! चाचा -चाची के अत्याचार से तंग आकर वह घर से भाग निकला और एक ट्रक  ड्राइवर के हाथ लग गया ! ड्राइवर ने उसे बम्बई पहुंचा दिया जहां एक होटल में बर्तन मांजने का काम उसने किया ! महज 8 साल का बच्चा वहां सॆ भी भाग निकला और दिल्ली पहुंचा दिया गया ! दिल्ली के एक मंदिर के बाहर रहते हुए अनुज को एक एन जी ओ बटरफ्लाईज़ ने गोद लिया .पाला और पढाया !

अनुज अपनी जिंदगी की कहानी ऎसे सुनाता है मानो किसी और की कहानी हो ! वह अपना वृत्तांत सुनाते हुए ज़रा भी जज़्बाती नहीं हुआ पर उसकी कहानी सुनते हुए मैं जज़्बाती हो गई ! बटरफ्लाईज़ में रहते हुए उसकी जिंदगी कैसी रही वह मुझे फिर कभी सुनाएगा ! पर उसने समाज सेवा के नाम पर भारी सरकारी अनुदान लेने वाली इन संस्थाओं की राजनीति और भ्रष्टाचार को नजदीक से न केवल देखा है बल्कि विरोध भी किया है ! इसी विरोध की वजह से उसे इस एन. जी. ओ. से निकाल बाहर किया गया था और उसे यह नौकरी करनी पडी !

आज अनुज खुश है कि वह बी.ए. कर रहा है ! आज वह सडक पर नहीं है !पर वह सडक पर रहने वाले बच्चों की जिंदगियों से बहुत गहरे जुडा हुआ है ! सडक पर रहकर मजदूरी कर जीने वाले तमाम बच्चों की दुर्दशा की कहानियां वह आपको सुना सकता है, उनकी जिंदगी को संवारने के लिए क्या हो यह बता सकता है ! आज वह इतना परिपक्व हो गया है कि एक बाल मजदूरों की दमित आवाज को आप तक पहुंचाना चाहता है ! इसके लिए उसने एक पेपर मैगज़ीन निकाली है -"बाल मजदूर की आवाज़ " ! अपनी इस मासिक पत्रिका के संपादकीय में उसने बटर्फ्लाईज़ की संस्थापक के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर की है और सडक पर सोने वाले बाल मजदूरों के शारीरिक शोषण और   उनके अनुभवों को भी दर्ज किया है !

कल से अनुज का हंसता - चमकता चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम रहा है ! न जाने इन 3 सालों में उसे पढाते हुए मुझे उससे क्या-क्या सीखने को मिल जाए ! प्रिय अनुज ! तुम्हारी जिजीविषा को तुम्हारी इस टीचर का शत शत नमन !!

Wednesday, January 09, 2008

पाठशाला भंग कर दो....

बहुत साल पहले मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग से बी.एड. किया था ! एक पर्चे के रूप में प्राइमरी एजुकेशन का भी अध्ययन करन था ! हमारे एक अध्यापक हमेशा कहा करते थे कि छोटे बच्चों को केवल वही पढाए जो स्वयं शिशु-हृदय हो ,जिसे बच्चों से प्रेम हो और जो बच्चों का समाजीकरण करने की प्रक्रिया में उनकी विशिष्टताओं को चोट न पहुंचाए ! पता नहीं तब पढ़ाया जा रहा सबक कितना समझ आता था और मैं स्वयं अपनी प्राइमरी कक्षाओं में शिक्षण अभ्यास करते हुए उन सबकों को कितना लागू कर पाती थी , पर आज जरूर मैं तहेदिल से यह महसूस करती हूं कि मैं अपने बच्चों के साथ पूरा न्याय नहीं कर रही हूं ! एक मां हो जाने के बाद बच्चों की दुनिया को ज्यादा नजदीक से देख और समझ पा रही हूं शायद ! अपने परिचितों में भी ज्यादातर का लेना देना इस या उस जरिये से शिक्षण से ही है ! सो अक्सर बच्चों की , उनके स्कूलों की , स्कूलों में अध्यापकों की हालत पर चर्चा -विवाद उठ खडे होते हैं और हम पाते हैं कि हम स्वयं शिक्षा से जुडे होने के बावजूद बच्चों को एक बेहतर शैक्षिक वातावरण नहीं दे पा रहे हैं ! हम शर्मिंदा हैं !
हमने अपने बच्चों को समाजीकृत होने के लिए कैसा माहौल दिया है यह समझने के लिए हममें से किसी को बहुत दूर देखने की जरूरत नहीं है ! अपने घर या पास के किसी भी बच्चे की जिंदगी को देखकर हर संवेदनशील व्यक्ति इन नन्हों से सहानुभूति महसूस करेगा ! अपने बेटे को 3 साल की उम्र में मैंने स्कूल भेजना शुरू किया था ! अपने बहुत एक्टिव, बहुत नटखट और खुशमिजाज और स्पष्ट भाषिक अभिव्यक्ति करने वाले बेटे को स्कूल के हवाले करते हुए दिल बैठता था ! उसने अपनी टीचर की सिखाई हुई पहली कविता सीखी -'मम्मी डार्लिंग पापा डार्लिंग , आई लव यू , सी योर बेबी डांसिंग जस्ट फार यू " पर कक्षा में सुनाते हुए उसने कविता में अपनी ओर से दो पंक्तिया जोड दीं थी- मासी डार्लिंग ,नानी डार्लिंग..... ' ! शिक्षाशास्त्र जिस रचनात्मकता की पैरवी करता है वह यहां भरपूर थी पर शिक्षा के सिद्दांतों को लागू करने वाले तंत्र के लिए ये चिंताजनक हालात थे ! बच्चे की सृजनात्मकता और विषिष्टता को इस तंत्र के अनुसार इसलिए खत्म हो जाना चाहिए क्योंकि वह तंत्र यह मानता है उसका काम सभी बालकों को सामान्यीकृत कर देना है ! यह समाजीकरण करने वाला तंत्र बच्चों की रचनात्मकता और खास योग्यताओं को जिस बेरहमी से दमित करता है उससे साफ हो जाता है कि इस तंत्र {जिसमें कभी- कभी अभिभावक भी शामिल होते हैं} का उद्देश्य एक भीड का निर्माण करना है , एक संवेदनक्षम ,रचनात्मक मेधा से भरपूर मनुष्य नहीं ! एक आम अभिभावक अपने बच्चे की खासियत को न तो समझता है और न ही उसके स्कूल से ऎसी कोई अपेक्षा रखता है ! सो हम सब अपने बच्चों के व्यक्तित्व को हिंदी -इंगलिश ,मेथ्स ,साइंस के पीरियडों में बांट कर खींचतान कर उन्हें बडों की दुनिया के लायक बनाने में जुटे हैं....! कक्षाओं के बंद कमरों में नीरस केन्द्रीकृत शिक्षा देने वाला ,एक घंटी से दूसरी घंटी तक का समय - बस केवल यही सच है हमारे बच्चों की जिंदगियों का !

अपने आसपास के बच्चों की बातों में स्कूल को लेकर ऊब, डर, निराशा और तनाव का स्वर आपने भी अक्सर सुना होगा !मेरे एक दोस्त की5 साल की बेटी एक दिन अचानक ऊबकर बोली - कितना गंदा है आसमान जो रात को अचानक सुबह बना देता है और मुझे स्कूल जाना पडता है ! मेरा बच्चा कभी कभी यह कहता है कि - मम्मी ये दुनिया बच्चों के लिए नहीं बनी है यहां सब कुछ बडों जैसा है बच्चों की एक अलग दुनिया होनी चाहिए- या फिर यह है कि मैं सारे स्कूलों की दीवारों को मार मारकर तोड दूंगा - तब तब मेरा मन कह उठता है कि वाकई.... पाठशाला भंग कर दो ..!