Saturday, June 06, 2015

मातृदिवस के बहाने बेटियों को पतनशील सीख 

 मातृदिवस के अवसर पर स्त्री को मातृत्व की प्रतिमूर्ति के रूप में महिमामंडित किए जाने के उत्सवपूर्ण माहौल में एक मां होकर भी असहज महसूस कर रही हूं । जब भी स्त्री को अतिरिक्त सम्मान देने के पारम्परिक या इस प्रकार के नए उत्सव मनाए जाते हैं तो न चाहते हुए भी  मेरा ध्यान  उन उत्सवों,  मान्यताओं ,आयोजनों की पृष्ठभूमि में सक्रिय निहितार्थों की ओर चला जाता है । आज  मातृत्व के  ऎसे प्रबल उत्सवीकरण पर स्त्री की स्वतंत्रता और अस्मिता से संबद्ध् यह सवाल मन में उठ रहा है कि  क्यों धरती की हर स्त्री को मां बनने की बाध्यता का बोझ सहना चाहिए..क्यों हर स्त्री को संतानोत्पत्ति को एक पुनीत कर्तव्य मानना चाहिए. ।  मातृत्व जैसी प्राकृतिक स्थिति पर सामाजिक दबावों का सक्रिय होना एक स्त्री के लिए अस्वीकार्य बात होना चाहिए । स्त्री को इस परम्परागतता से मुक्त होने की शुरुआत करनी चाहिए कि   मातृत्व और स्त्रीत्व परस्पर पूरक हैं । ...

 संतानोत्पत्ति के यंत्र  होने से से इतर भी स्त्री का अस्तित्व है इस बात की कल्पना  को ही  भयावह बना दिया गया है |   हर स्त्री अपने लिए सबसे पहले संतानवती होने की कामना करती है ।   घर परिवार और समाज में बच्चों की उपस्थिति के बावजूद प्रत्येक  स्त्री को अपनी कोख को उर्वर सिद्ध  करने के लिए ओढ़ी हुई मातृत्व की इच्छा के वशीभूत हो जाना बहुत सहज व स्वाभाविक बात लगती है । कोई स्त्री स्वयं भी यह मानने के लिए तैयार नहीं होती कि संतानोत्तपत्ति के विचार को लेकर वह दुविधा में है  !  प्राय: स्त्री यह जान ही नहीं पाती  कि संतानोत्पत्ति और उत्तराधिकार के लिए , प्रकृति की अपने प्रति अनुकूलता को सिद्ध करने के लिए , समाज में सम्मान पाने के लिए , व विवाह संस्था में स्वयं को बनाए रखने के लिए वह अक्सर  यह निर्णय स्वेच्छा  से नहीं ले रही होती  । और सच तो यह है कि मातृत्व के निर्णय को वह अपना अधिकार मानती भी नहीं है । विवाह , ससुराल की मांग , सामाजिक दबाव  उसे मातृत्व की ओर धकेलते हैं  ।  मां बनने की शारीरिक योग्यता भर से मां बन जाने की विवशता  स्त्री को अपने अस्तित्व के विरुद्ध ही नहीं मानवाधिकार के विरुद्ध बात भी लगनी चाहिए । 
गुड़िया से घर घर् खेलती बच्चियों को हम बचपन से ही मां होने की ट्रेनिंग देते हैं दरअसल हम अपने सामाजिक संस्कारों को बच्चियों पर सगर्व लादते हैं , मेरी पड़ोसन कहती थी कि आस पास जब भी कोई गाय बछड़ा देती है मैं बेटियों को जरूर दिखाती हूं ताकि वह बचपन से ही मां बनने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो जाए.. ।  मुझे याद है कि सोलह सत्रह साल की उम्र में ही मैं डरने लगी थी कि अब बस कुछेक सालों में मुझे इस अनचाही यातना से दिखावटी खुशी के साथ गुज़रना पड़ेगा ...मुझे मां बनने व बच्चा पालने की प्रक्रिया बहुत बड़ा दबाव लगती थी । उस उम्र में मुझे यह लगा करता था कि पढ़ाई और जीवन में कुछ नया करने की कामना के आड़े यही दबाव सबसे बड़ी अड़चन है । इसी दबाव के चलते मुझे विवाह भी एक बहुत भयावह विचार लगता था । उन दिनों मैंने अपनी एक अध्यापिका को यह कहते सुना कि उसके फौजी पति ने पहली रात उनके तत्काल मां नहीं बनने की इच्छा के बारे में सुनकर यह उत्त दिया कि तब तो तुमको अपने मातापिता के घर से खुद ही परिवार नियोजन के लिए सामान लाना चाहिए था ऎसे कैसे आ गईं । 
कॉलेज में प्रथम वर्ष  की पतली दुबली गर्भवती बच्चियों को देखकर मैं गहरी पीड़ा व आवेश से भर जाती हूं और बाकी बच्चियों को यह सीख देने का मन करता है कि मातृत्व ही एकमात्र तुम्हारी पहचान नहीं है  । मां बनने से पहले इंसान होने का दर्जा तो हासिल जरूर कर लेना मेरी बच्चियों । यह जो शरीर तुम्हें मिला है तुम्हारा ही है । इसे और अपनी कोख को कभी गुलाम मत बने देना । अपने स्त्रीत्व को , अपने मां बनने की काबिलियत सुहागन होने या बहू होने की काबिलियत से कभी मत आंकना । तुम अपने पैरों पर खड़ी होना ताकि तुम अपने गर्भ और उससे पैदा बच्चे को अपनी पूंजी मानकर गुलाम की जिंदगी ,आश्रित की ज़िंदगी जीने के परम्परागत खयाल से नफरत कर सको । तुम इस्मत चुगताई की कहानी पढती हो न ? बस उस कहानी की छुईमुई मत बनना ।  और हां बांझ या निपूती होने की धमकियों में कभी मत आना । तुम बस कोख नहीं हो मेरी प्यारी बच्चियों बहुत कुछ हो । अपने होने की संभावनाओं को खोजो ।  अपनी आजादी को महसूस करो । मातृत्व तो स्त्रीत्व का एक पक्ष भर  ही है और उसे बस  उतना ही मह्त्त्व देना। 
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आज मातृ दिवस पर हर स्त्री को मां बनने के अपने फैसले को अपनी इच्छा ,आवश्यकता , क्षमता ,ऊर्जा व हर्ष के साथ स्वाधिकार की तरह समझना शुरू करना चाहिए! भूमि और सम्पत्ति के वारिस पैदा कर सामंती व्यवस्था को बनाए रखने के लिए यह समाज उतावला है ।  स्त्री के गर्भ को साधन के रूप में देखने वाले भाव की निर्लज्जता को छिपाकर उसे   महिमापूर्ण्और दैवीय सिद्ध करने  के पीछे   तमाम सामंती ताकतें काम करती हैं और मां बनकर स्त्री  समझती हैं कि उसने स्त्रीत्व की पूर्णता का  निहायत ही अनिवार्य मेडल समाज से जीत लिया ! स्त्री को इस प्रपंचपूर्ण परम्परा की गुलामी से मुक्त महसूस करना शुरू करना चाहिए ।