Friday, November 16, 2007

न बुझे है किसी जल से ये जलन....

सब चुप ...कविजन -चिंतक -शिल्पकार क्या सब चुप हैं ! नहीं नहीं सब बोल रहे हैं ! जलती आग में जलते झोपडों को सब देख ही तो रहे हैं और बोल भी तो रहे हैं ! बुद्धदेव- युद्धदेव- क्रुद्धदेव हवन में समिधा डाल रहे हैं  लधुकाय दीन खडा है भीमकाय के सामने ! शांति - क्रांति - भ्रांति का गायन  हो रहा है ! स्वाहा - स्वाहा के दिशा भेदी मंत्रोच्चार में आर्तजन का हाहाकार मलिन पड रहा है ! लो किन्नरों के दल के दल मतवाला नाच कर रहे हैं ...!

वे करबद्ध खडे हैं.. अनेकों अनेकों जिह्वाहीन जन !  जीवन कितना और कितनी मृत्यु ...?  अब जीवन की गुणवत्ता के प्रश्न उन्हें छोटे लग रहे हैं ! ग्राम खेत घर यहां तक कुंए तक में लग गाई आग ! आग सिर्फ उन्हें ही जलाएगी ! इस आग की लपटॆं नहीं जलाऎगी भीमकाय यज्ञ नियंता को नहीं जलाऎगी ये हमारी थुलथुली कविता को..... न हमारे लंपट विमर्श को !

उजडे बिखरे लोग ही लोग ! हमारे दरवाजे पर ऎन सुबह पडे अखबार पर क्रंदन करते चेहरे !हम गिन रहे हैं कितने हैं मौत की तालिका को मिले अंक ! एक घटा दो या एक बढा दो क्या अंतर पडता है ...? अखबार अखबार ही रहेगा और दरवाजे के बाद उसे मेज या पलंग पर आना है !

जी ठीक कहा.. मसला सुलझ रहा है! तब तक कविता रचो नेता के कंधे पर बिलखते लाचार चेहरे फिल्माओ ,मौत की गिनती दुरुस्त करो  ! पिछ्ली बार उसका दोष था ..इस बार इसका दोष है.....

ओह उधर आग लग गई  और वो .. उधर गोली चल गई ....लहू बह रहा है मिट्टी पर ! पता नहीं किसका पर उनके जूते खराब हो रहे हैं ! हां ये वही जूते हैं घोडे की नाल ठुके ,लोकराज की चमडी से बने ! पर कोई गम नहीं.. सत्ता के दरवाजे पर बिछे कालीन पोंछ देंगे न जूतों पर लगा लहू...!

पानी के कटोरों सरीखी कई जोडी आंखॆं देख रही हैं हमारी ओर ! देखो हम धिक्कार रहे हैं भीमकाय ,नाल ठुके जूतेधारी को...!..... वो साला बर्बर है...लोकतंत्र का हत्यारा है....महा अमानवीय है ....नरपशु है.......सत्ता का जोंक है......नाश हो सत्यानाशी का...

........बस  बस बस ..अब हमारी गालियां चुक रही है.... ..हमारी जबान पथरा रही है...... जल रही है ..... कहीं जल नहीं है !... है तो बस सिकती- धधकती हुई रेत  और उसमें धू धू कर जलता मानव......!

Sunday, October 28, 2007

ओ$म सुपर सेक्सी कालाय नम:

आज जमाना सुपर फास्ट हो गया है ! जब से हमने उस सुप्रीम पावर वाले भगवान की सुपीरियोरिटी के भगोने में छिद्र कर दिया है तब से हम सुपर उन्मुक्त हो चले हैं ! सुपर बाजार से सामान खरीदते हैं , सुपर सफेद कपडे पहनते हैं ,सुपर्ब सुपर्ब कहकर अपने सौंदर्यबोध को जाहिर करते हैं ! अब किसी हिंदी फिंदी वाले से मत पूछ लिया जाए कि भैया मतलब समझत हो स्सुपर का ! बेचारा वह अपने सुपर साहित्यिक लहजे मॆं हडबडिया सुपरफिशियल जवाब दे डालेगा _सुपर माने सुन्दर पर !हे हे !! इस सुपर सांइंटिफिक जमाने  में ऎसे सुपर बेकवर्ड को कोई तो उबारो रे ! खैर हम तो कह यह रहे थे कि भैया आजकल सुपर सेल मॆं कुछ भी माल लगा दो और बेचो _बस ये ध्यान रखो कि माल के सुपर एट्रेक्टिव कवर पर सुपर लफ्ज जरूर लगा हो !

अब आजकल के गानों को ही देख लो ! हर सुपर सेड्यूसिव गाने मॆं सुपर सेक्सी नायक नायिका गण गा रहे होंगे "आय एम सुपर सेक्सी , य़ू आर सुपर सेक्सी " ! अब सेक्स भी सुपर की गारंटी के पैकेज में है जिससे मिले सुपर सेटिस्फेक्शन ! सेटिस्फेक्शन जो सुपर बाजार से सुपर शापिंग करने या सुपर रिन की चमकार मारते कपडों को पहनने के समतुल्य ही है ! ये वो सेटिस्फेक्शन है जो सुपर सेक्स काड्यूट गाते नायक नायिका वृंद से इतर हर दर्शक के सुपर कांप्लेक्सिटीज से भरे मन की आकुल व्याकुल पुकार है ! हर उघडी नायिका सुपर डांस के सुपर एक्टेव झटके मारती कह रही है सिर्फ मुझे ही पाओ क्योंकि मैं ही हूं सुपर सेक्सी !वात्स्यान मुंह सिकोडे खडे हैं रीतिकाल के कविगण अपने कथित अश्लील काव्य को सुच्चा साबित कर पा रहे हैं ! वहां सब कुछ शास्त्रीय था - पर नायक का परनायिका से प्रेममिलन या संभोग रस की कोटि का गायन ! ये सुपर कॉंवेश्नल काल बीत चुका ! अब जमान है हर गली मॆं सुपर सेक्स और सुपर सेक्सी की धूम का !  सुपर सेक्स का रसाभास करो और इस नाम की भूतनी या भूत से डसे जाओ ! अब सब कुछ सुपर हॉट है !  मौका हो हो या सेल हो गाना हो या खेल हो सब कुछ है सुपर सिजलिंग ! 

बाजार रूपी थाली में हरएक के लिए खास तौर पर सजा अर्ध्य _ 'भागो और भोग लो!   " कर्म का भोग भोग का कर्म "-  ये कौन बोला रे ? अब बोलो- भागकर भोग कर लो कर्म करो तो सिर्फ भोग का !  ओ सुपर सेक्सी युग के  सुपर नॉटी  बालक-बालिकाओ !! गांठ बांध लो सुपर टाइट क्यॉकि यही है आज का सुपर मंत्रा !!बोलो ओ$म सुपर सेक्सी कलाय नम: ..!!'

!

Saturday, October 27, 2007

अगर मुन्नी न हो तो?

मुन्नी मेरी बेटी या पास पडोस की किसी साफ सुथरी सी राज दुलारी का नाम नहीं है यह नाम है मेरे घर में काम करने वाली पन्द्रह सोलह साल की लडकी का ! मुन्नी अपने बहुत  काले रंग की आलोचना बहुत बेरहमी से करती है ! अपने खुरदरे हाथों बिवाइयों से भरे पैरों की ओर देखकर अक्सर हंसती हुई कहती है "वाह क्या किस्मत देकर भेजा है भगवान ने हमें " पर अगले ही पल कहने लगती है "पर भाभी दुनिया में सभी तो परेशान हैं ! पैसे वाले तो और भी ज्यादा हर समय डरते हैं मोटापे से ,गंदगी से कामवाली के छुट्टी कर लेने से -अजीब अजीब चीजों से परेशान रहते हैं "!  मुन्नी के जीवन दर्शन के आगे मैं अपनी थकावट और वक्त की कमी से हुई झंझलाहट को बहुत थुलथुली महसूस करने लगती हूं !मुन्नी महीने में सिर्फ चार दिन नहीं आती है! छुट्टी करने से पहले ही वह हर घर में बता देती है ! पर एक दो घरों में वह छुट्टी के दिन भी आकर कामकर जाती है! जब मैंने पूछा कि वह ऎसा क्यों करती है तो उसने बताया कि इससे उसे महीने के चार सौ रुपये और मिल जाते हैं ये उसके अपने होते हैं इसे मां को नहीं देना होता ..!  

मुन्नी हर सुबह अपनी मां के साथ ठीक 6 बजे आ जाती है !मां बेटी मिलकर कई घर निपटाते हैं _सफाई ,बरतन और कपडों की धुलाई ,गमलों को पानी देने ,फ्रिज साफ करने जैसे कई काम निपटाती हुई शाम को 7 बजे तक घर जाती है !मुन्नी के पिता दिनभर सोसाइटी के बाहर रिक्शा लेकर खडे रहते हैं और सोसाइटी की महिलाओं को आसपास के बाजारों तक पहुंचाने का काम करते हैं ! मुन्नी कई घरेलू महिलाओं के घरों का काम करती है !  मुन्नी अक्सर बुडबुडाती हुई काम करती है "फलां नंबर वाली आंटी मुझे नाश्ता क्या करा देती हैं अपमना गुलाम ही समझने लगती हैं ,जब चाहे बुला लेती हैं फालतू काम कराती हैं ! पर भाभी मैं मना नहीं कर पाती क्योंकि एक बार मेरे पेट में दर्द हुआ था तो उन्होंने अपने पैसो से इलाज कराया था अल्ट्रासाउंद के पैसे भी लगाए मुझपर.." !

मुन्नी अक्सर हंसती रहती है ! वह अखबार की सनसनीखेज खबरों पर बातें करते हुए झटपट काम निपटाती चलती है ! फिल्मों पर खासकर हाल ही में देखी फिल्म के सामाजिक संदेश पर अपनी राय देती बरतनों की जूठन हटाती चलती है ! वह अक्सर थकी होती है पर जब मेरी हडबडी और व्यस्तता और थकावट देखती है तो फौरन  आराम करने या दवा ले लेने की सलाह दे डालती है !मुझे पता है ,उसे भी पता है कि उसके एक दिन न आने पर मेरी दिनचर्या बुरी तरह प्रभावित हो जाती है -अखबार अधपढी रह जाती है या फिर कॉलेज के लिए क्लास की तैयारी पूरी नहीं हो पाती है या नेट देवता और ब्लॉग देवता के दर्शन तक नहीं हो पाते हैं या किसी एक वक्त का खाना खाने के लिए आसपास के भोजनालयों का मैन्यू टटोलना पडता है !   

कभी कभी मैं सोचती हूं कि अगर वह और अधिक समझदार हो गई तो धीरे धीरे वह समझने लगेगी कि बौद्दिक ,रचनाशील ,क्रंतिकारी और संधर्षशील स्त्रियों के इस समस्त कुनबे के बने रहने में उसका कितना हाथ है !

अक्सर वह मुझे कंप्यूटर पर काम करते देखती है और अक्सर जानना चाहती है कि मैं कंप्यूटर पर क्या करती रहती हूं !  सो पिछ्ले दिनों  मैंने उसे अपना ब्लॉग दिखाया और अपने काम के बारे में बताया ! उसने तारीफ के भाव से ब्लॉग को देखा , ब्लॉग पर लगी मेरी फोटो को सराहा ! फिर उसने बहुत रहस्य भरे लहजे में बताया कि उसका बडा भाई भी काफी समय से कंप्यूटर की एक दुकान पर काम कर रहा है और कंप्यूटर  काफी कुछ सीख चुका है ! उसकी आंखों में चमक और आवाज में उमंग थी वह बोली -"  भाभी मैं भी अपने भाई से कहकर अपनी फोटो कंप्यूटर पर लगवाउंगी ताकि मुझे भी दुनिया देख सके जैसे आपको देखती है पर क्या लिखूंगी कैसे लिखूंगी  ये नहीं पता ........."! मुन्नी काफी देर गहरी सोच में डूबी रही ......मेरे मन ने कहा कि मुन्नी जो तुम कह सकती हो वह मैं नहीं इसलिए तुम लिखो... .....मुन्नी ने अभी तक नहीं लिखा है पर मैंने लिख दिया है ...उसके बारे में !मैं अक्सर सोचती हूं कि अगर मुन्नी न हो तो.....?

Wednesday, October 24, 2007

क्या है जिंदगी क्या हो जिंदगी

जिंदगी कितनी एब्सर्ड हो चली है इसका अंदाजा कभी कभी ही लग पाता है ! नौकरी की भागमभाग ,सडकों का ट्रेफिक ,संबधों की उलझन ,भविष्य की चिंता ,पानी बिजली फोन के बिलों , बच्चों की पढाई और भी सैकडों कामों- तनावों -हडबडियों के बीच जीते हम ! वक्त पैसा और लगन की त्रयी के बिना कहां हो पाता है जीवन रूपी नाटक का एक भी अंक पूरा ! हम रोज सोचते हैं कि शायद आज का ही दिन ऎसी हडबडी और रेलमपेल का आखिरी दिन था -कल तो जरूर सुकून का दिन आएगा और हम अपने अधूरे छूट गए कामों को कर पाऎगें ! पर ऎसा सुकून का दिन तलाशना एक दिवास्वप्न सा लगने लगता लगता है ! तारे गिनने , उगते सूरज को देखने ,बादलों की बनती संवरती छवियों को निहारते चले जाने या कि खुद से बात करने के बीच शोर है बाजार है, घडी है , गाडियां और बिल्डिंगें हैं !

इस मोबाइल जीवी युग के प्रणेता हम लाभ-हानि, कर्म-अकर्म , अहमन्यता-सामाजिकता का व्याकरण बिना चूके रट लेना चाहते हैं ! मैं- मेरा -मुझे की लगन मॆं डूबा मन बाजार को अपना सबसे बडा हितैषी गुरू मानता है !  गडबडी ,जल्दबाजी ,ठेलमठाली के मंत्र के बिना भी क्या श्हर में रहा जा सकता है ?यहां हमेशा बेहतर चुनाव करना होता है ! यहां के गणित को हमेशा अन्यों से अधिक गहराई से समझते रहना होता है ! यहां प्रगति और विकास के व्यक्तिगत पाठों को लगातार पढते चलना होता है ! यहां समाज ,सामाजिकता ,सामाजिक नैतिकता , सामाजिक निष्ठा जैसे आउटडेटिड लफ्जों पर सिर्फ हंसना होता है ! जयशंकर प्रसाद की इडा का हर तरफ बोलबाला है ..कहां है श्रद्धा ? नहीं श्रद्धा को ढूंढना बेमानी है ! वह हमारे भीतर ही तो है ! पर हम नहीं सुनेंगे उसकी आवाज ,क्योंकि वह जो कुछ कहेगी उसे हम बहुत अच्छे से वाकिफ हैं पर वह वाकिफ नहीं इस सच से कि हम ट्रैप्ड हैं जिस सांस्कृतिक दुष्चक्र में वहां केवल वही सर्वाइव करेगा जो सबसे ज्यादा निष्ठुर होगा  ! श्रद्धा !! तुम्हारी आवाज सुनने के लिए जो दो पल ठहरे तो कुचले जाऎगे पीछे आने वाली भीड के पैरों तले..!

तो आज हमारे पास  बहाने हैं, वाजिब कारण हैं ,लधुता का बोध है , जिनके आगे हम लाचार हैं ! सो वही केवल वही कर पा  रहे हैं जिससे कि केवल जीवन चलता रहे सकुशल ! कोई बडा सपना कोई बडा संघर्ष ,कोई बडा जज्बा नहीं जिसके लिए हमारे भीतर बची रह गई हो थोडी निष्ठा ,थोडा सा समर्पण ..! क्या हम कभी नहीं चुन पाऎगे अपनी पसंद की हवा ..सांस लेने के लिए और क्या अब हम कभी नहीं महसूस पाऎगे अपने खंडित व्यक्तित्व को....!

जिंदगी की इस एब्सर्ड एकांकी का कोई तो सार्थक, ओजमय ,कर्ममय निष्कर्ष पाना होगा ...!!

Thursday, October 04, 2007

दिल दोस्ती ऎट्सेक्ट्रा ..वाया सेक्स दुश्मनी ऎट्सेक्ट्रा...

dil1

"क्या तुम एक ही दिन में तीन लडकियों से कर सकते हो "--

-प्रकाश झा की फिल्म दिल दोस्ती ऎटसेक्ट्रा के पात्र संजय मिश्रा के द्वारा अपने मूल्य विभ्रमित जूनियर अपूर्व से पूछे गए इस सवाल से फिल्म शुरू होती है!

यह फिल्म दिल्ली युनिवर्सिटी की पृष्टभूमि में आज के नवयुवा की जिंदगी के पहलुओं को दिखाने का प्रयास है ! फिल्म में होस्टल लाइफ की उन्मुक्तता , भारतीय युवा की नव -अर्जित सेक्स फ्रीडम ,विश्वविद्यालयी राजनीति ,दोस्ती कुंठा सब कुछ है ! ये वह माहौल है जहां भारतीय युवा अपने क्लास कांसेप्ट से जूझने के दौरान अपने लिए किसी रास्ते की तलाश में जुटे हैं !  फिल्मकार ने दिल्ली के नवधनाढय और धनाढय तथा बिहार से आए छात्रों के बहाने आधुनिक भारतीय समाज की वर्ग संरचना और मूल्य संघर्ष को दिखाया है ! 

यह फिल्म अपनी बनावट में बहुत बडें लक्ष्‍य को लेकर नहीं चली है ! किसी भी पात्र से बहुत आदर्शात्मकता की dil2उम्मीद नहीं की गई है !  फिल्म की संवेदना को उभारने के लिए कोई बडा प्रतीक नहीं उठाया गया है ! अपूर्व और संजय मिश्रा इन दो चरित्रों के विपरीत जीवन दृष्टिकोणों के फिल्माकंन के बहुत सामान्य पर बहुत सटीक तरीके अपनाए हैं फिल्मकार ने !

अपूर्व अपने हाइक्लास पिता से पैसा लेकर कोठे पर जाता है ! वह कहता है कि   - "मेरे लिए कॉलेज और कोठे में फर्क करना मुश्किल हो गया है "  ! वह वैशाली नाम की वेश्या से जिस संबंध में स्वयं को पाता है  उसकी व्याख्या वह नहीं कर पाता है ! न ही स्कूली छात्रा किंतु से सेक्स संबंध स्थापित करने में वह प्यार जैसे किसी मूल्य की जरूरत को मानता है ! वेश्यालय में टंगी भगवान की मूर्ति को मोड कर सेक्स क्रिया में रत होता है जिसपर वेश्या वैशाली को बहुत ताज्जुब होता है !

dil3 संजय मिश्रा अपनी जातीय अस्मिता और अपनी मध्यवर्गीय मूल्य संरचना को संभाले रहने वाला पात्र है ! वह स्वंय को एक अति संपन्न सहपाठिनी प्रियंका से प्रेम और समर्पण की स्थिति में पाता है और अपने इस संबंध अपने भविष्य और लक्ष्‍य को लेकर एकाग्र है ! जबकि प्रियंका अपने पिता के संपर्कों के सहारे मॉडल बनना चाहती है !उसके लिए सेक्स शरीर की जरूरत है न कि कोई प्रेम का प्रतीक या मूल्य ! वह संजय से अपने प्रेम को लेकर श्योर है न ही वह अपने दोस्त अपूर्व से काम संबंध बना लेने को किसी भावना से जोडकर देखती है!

फिल्म अपने ट्रेजिक ऎंड में अपनी इस उत्तरआधुनिक स्थिति को दिखाती भर है - कोई मूल्य निर्णय नहीं थोपती ! संजय मिश्रा के लिए कॉलेज एलेक्शन जीतना प्रेम को समर्पण भाव से करना और कैरियर बनाना है जबकि अपूर्व को संजय के चुनाव के दिन तक तीन लडकियों से संभोग कर लेना है जिसकी शर्त वह अपने दोस्तों से पहले ही लगा चुका है !अपूर्व संभोग करता है संजय की प्रेमिका प्रियंका से ! संजय चुनाव जीतता है- दोस्ती और प्रेम के इस रूप को स्वीकार नहीं कर पाता और मृत्‍यु को प्राप्‍त होता है ! ....

यह फिल्म दो परिस्थितियों की टकराहट है दो वर्गों और उनकी मूल्य दृष्टि की टकराहट है ! यहां दिल प्रेम की वस्तु नहीं दोस्ती निभाने की वस्तु नहीं ! यहां अवसर , शरीर की जरूरत, सेक्स में भोग और दुश्मनी है !

अंतत: संजय नहीं रहता और कोठे पर जाने वाला और एक ही दिन कमें तीन लडकियों से सेक्स करने वाला अपूर्व जीता है और सेक्स और सेक्स मॆं नएपन की तलाश में डांसबारों और पार्टियों में भटकता है !.....

Wednesday, October 03, 2007

मेरी पहचान मुझे लौटा दो ब्‍लॉगवालो

ब्‍लॉगिंग की दुनिया के डाइनासोर तो नहीं हैं हम, पर एकदम नए भी नहीं रहे। साल भर होने को आया। बड़ा तो नहीं है पर गलतफहमी पाले रहते हैं कि छोटा सा नाम तो है ही। ब्‍लॉग शोधार्थी हैं, ब्‍लॉगर भी। पर एकाएक गड़बड़ हो गई लगता है। गड़बड़ यह है कि हमारा नाम चोरी हो गया है। साफ साफ समझाया जाए-

ये नारद पर नीलिमा की लिखी पोस्‍टों के लिए कैप्‍चर्ड छवि देखें-

name swap

देखा आपने ये हमारी तस्‍वीर जिन पोस्‍टों के साथ दिख रही है वे हमने नहीं लिखीं वे तो एक अन्‍य ब्‍लॉगर साथी  नीलिमा सुखिजा अरोरा ने लिखी हैं। ऐसा नहीं है कि केवल नारद से ही यह गड़बड़ हुई, चिट्ठाजगत पर नीलिमा लेखक की प्रविष्टियॉं के लिए छवि ये है-

name chittha

यानि वहॉं भी हम दो नीलिमाओं की पहचान गड्डमड्ड है। यूँ इसमें दोष किसी का नहीं है, सिवाय इस बात के कि तकनीक इन दो नामों से भ्रमित हो रही है। और नारद ने अति उत्‍साह में हमारी तस्‍वीर जो उनके पास हमारे दो ब्‍लागों के कारण पहले से ही थी, नीलिमा सुखिजा जी के ब्‍लॉग को हमारा तीसरा ब्‍लॉग मानकर चस्‍पां कर दी और फिर ईमेल किए जाने पर भी किसी कारण हटा नहीं पाए। इस प्रकरण में हमें वो स्‍कूली दिन याद आए जब एक ही कक्षा में कविता, सीमा जैसे नाम एक ये ज्‍यादा होने पर फर्स्‍ट, सेकेंड कहकर काम चलाते थे पर वो तो यहॉं शायद हो नहीं सकता पर जो हो सकता हो किया जाए पर पहचान के इस घालमेल को खत्‍म करो भई।

Tuesday, September 25, 2007

मुझे कदम कदम पर चौराहे मिलते हैं बाहें फैलाए

रोज कुंआ खोदो और पानी पियो -वाली कहावत का रचयिता हमारी नजरों में अब तक का सबसे बडा दूरदर्शी था जिसने बहुत पहले ही ब्लॉगिंग करने वालों की नियति का बहुत पहले ही अंदाजा लगा लिया था !यहां एक दिन भी नागा कर जाना आपका पेज रैंक गिरा सकता है ,श्रद्धालु पाठकों की भीड का रुख मोड सकता है , धडाधड महाराज की नजरों में आपकी इज्जत का फलूदा बना सकता है ! यहां बडे बडे लिखवैये बिना नागा लिख रहे हैं और हम हैं कि रोज परेशान रहते हैं कि आज क्या लिखॆंगे !बहुत काम का मसला न मिलने पर लगता है कि कम काम के मुद्दों को ही उठा लिया जाए ! हर समय काम के और खूबसूरत मसलों पर लिखना भी जरूरी नहीं है ! कभी कभी दिमाग के तंतुओं को आराम की छूट हम दे देंगे तो छोटे नहीं कहलाने लगेंगे ! क्या लिखॆं ? का जवाब जैसे ही पा लेते हैं क्यों लिखॆं  ? का सवाल सामने लहराने लगता है! क्या लिखॆं का जवाब खोजते हुए इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि बस कुछ भी लिख डालो ! और क्यों लिखें का सवाल हमॆं इन निष्कर्षों पर पहुंचा देता है कि लिखो शायद क्रंति हो जाए ,या कि किसी को आपका लिखा पसंद आ जाए और वह आपकी भाषा में अपने दिल की बात पढ पाए ,या हो सकता है कि आत्मसाक्षात्कार हो जाए ,या फिर कि आज तो बस लिख डालो पेज रैंक तो बच जाएगा -कल देखॆंगे कुछ बढिया सा लिख सके तो .....

ठीक इसी जद्दोजहद की वजह से कभी कभी हमें मुक्तिबोध की कविता "मुझे कदम कदम पर" बिलकुल भी समसामयिक नहीं लगती की लगती जिसमें वे कहते हैं कि आज के लेखक की दिक्कत यह नहीं कि कमी है विषयों की बल्कि विषयों की अधिकता उसे बहुत सताती है और वह सही चुनाव नहीं कर पाता है कि किस पर लिखे ! जब मुक्तिबोध लिखते हैं कि "मुझे कदम पर चौराहे मिलते हैं बाहें फैलाए -एक पैर रखता हूं सौ राहें फूटतीं " तब हम इसमें निहित समसामयिकता तभी देख पाते है जब हम यह मान लेते हैं कि भई यह तो बडे कवियों के लिए कही गई बात है हम छोटे कवियों पर कैसे लागू हो सकती है ! खुद को छोटा लिखवाडी मान लेने पर न कोई बंधन होता है न नैतिक बोझ का दबाव न विषय चयन की समस्या से ही गुजरना पडता है ! सो हम बच जाते हैं ,नागा भी कर पाते हैं महान विषयों पर कलम चलाने के जोखिम की संभावना का तो कोई सवाल ही नहीं उठता !

.... हां ठीक ऎसे में ही कलम चलती है अपनी मर्जी से हमारे भीतर के लेखक के इशारे पर नहीं ! कलम खुद कहती है कहानी बिना लागलपेट के साफगोई से ..! जहां हमारा महान लेखक अपने वजन के तले नहीं दबा पाता कलम को ! जहां कलम हल्की होकर चलती है !जहां कलात्मक मन देख पाता है वे राहें जिनपर अभी हम चले नहीं जो बीहडों से होकर गुजरती हैं और जो शायद बहुत बहुत लंबी हैं कि जिनपर चलते चलते पैरों में उठ आऎ फफोले ..घाव ! पर हम जब भी चलते हैं इन बीहडों से गुजरते रास्तों पार् तो होता है  सत्य सुंदर और शिव का कलात्मक अभिव्यंजन.....शाश्वत अभिव्यंजन...

Thursday, September 20, 2007

जरा हौले हौले चलो मोरे साजना हम भी पीछे हैं तुम्हारे....?

स्त्री का परंपरागत संसार बडा विचित्र भी है और क्रूर भी है -यहां उसकी सुविधा ,अहसासों , सोच  के लिए बहुत कम स्पेस है !गहने कपडे और यहां तक कि वह पांव में क्या पहनेगी में वह अपनी सुविधा को कोई अहमियत देने की बात कभी सोच भी नहीं पाई ! अपने आसपास की लडकियों महिलाओं के पहनावे की तरफ देखते हैं तो उनकी जिंदगी की विडंबना साफ दिखाई देती है ! घर बाजार ऑफिस हर जगह दौडती स्त्री पर भरपूर नजाकत लाने और पर-ध्यान को केन्द्रित करने की पुरजोर आशा में अपने पहनावे को सहूलियत के साथ बहुत बेरहमी से अलग करे दीखती है ! परंपरागत महौल में पली बढी यह स्त्री अपने दर्शन में स्पष्ट होती है --कि उसका जीवन सिर्फ पर सेवा और सबकी आंखों को भली लगने के लिए हुआ है ! छोटी बच्चियां घर- घर , रसोई -रसोई ,पारलर-पारलर खेलकर  इसी सूत्र को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लेने की ट्रेनिंग ले रही होती हैं .......ठीक उसी समय जब उसकी उम्र के लडके गन या पिस्तौल से मर्दानगी के पाठ पढ रहे होते हैं या कारों की रेस या बेमतलब की कूद -फांद- लडाई -झगडे के खेल खेल रहे होते हैं  ! एक जगह घर रचा जा रहा है एक जगह बाहर !

कोई कह सकता है कि यही है गहरे संतुलित समाज की नींव ! वेलडिफाइंड ! गाडी के दो पहिए अपनी अपनी पटरी से बंधे ..! हम कहेंगे नहीं नहीं ! सौ बार नहीं ! अपनी कॉलेज की बच्चियों को भी कभी कभी समझाते हैं ! वे नहीं समझना चाहतीं !ज्यादातर निम्न या मध्य वर्गीय परिवारों से आई हुई ये छात्राऎं अपने लिए बेहद असुविधाजनक पहनावे में आती हैं ! गर्मी व उमस में सिंथेटिक कपडे , बेहद ऊंची हील के सैंडल बार बार फिसलते दुपट्टे में जडी तरह तरह की लटकनें ....

कभी कभी आसपास नवविवाहित जोडों को देखने पर भी अजूबा होता है !  रास्तों में बाजारों में काम की जगहों में चमकीले तंग कपडों में फंसी ,पल्ला और उसकी जगह जगह उलझती लटकनें संभालती रंगी पुती  स्त्रियां ! अपने आप संभलकर चल पाने में असमर्थ पति की बाहं का सहारा लिए लिए कभी कभी लुढकने को होती स्त्रियां ! अजीब अजीब प्लेटफार्म वाले सैंडलों की हीक को मेट्रो और उसके प्लेटफार्म की दरार से निकाल कर हडबाडाती स्त्रियां ! अपने फिसलने पल्लू को संभालकर कंधे पर डालते हुए अपने पीछे खडी सवारी के मुंह पर मारती स्त्रियां !

इनके लिए ये नजाकत है ..फिमिनिटी है ..मजबूरी है ...फैशन है ... पता नहीं ! पर इतना तो साफ है कि ये अब घर में बंद सजी धजी घर संवारती घरहाइन नहीं रहीं है ! रीतिकाल भी अब जा चुका ! ये तो निकली हैं पढने.....लडने ...जूझने....! बराबरी  पर आने .. !पर अपने संधर्ष में अपने ही साथ नहीं हैं ये पैरों की हील ,ये पल्लू ,ये लटकन , ये नजाकत ! कहां से आ जाएगी बराबरी ! कैसे चलेगी मर्द को पीछे छोडती ये आगे ! ..क्या यही कहना होगा कि आप जरा धीरे चलें क्योंकि हम आपसे तेज नहीं चल सकतीं या अपनी ही चाल को बनाना होगा दुरुस्त , तेज और दमदार .........तो बदलें खुद को .....? और करें शुरुआत पहनावे से ही .........?  .....और आओ कहें उससे कि तुम चलो अपनी चाल से अपनी गति से और अब हम चलेंगी अपनी चाल और गति से और तुम्हारे साथ चलेंगी ...आगे भी बढेंगी ....

Monday, September 10, 2007

दे आर BAD BAD गर्ल्स

स्त्री विमर्श वाले बहसते विमर्शते रह गये और उधर लडकियों ने घोषणा कर डाली कि अब उनके अच्छे बने रहने का जमाना गया ! वे गा उठी 'वी आर बैड बैड गर्ल्स....जमाने को सुनना पडा कि वे कह रही हैं कि वे गंदी लडकियां हैं...."चक दे इंडिया "फिल्म की हॉकी टीम की लडकियां उद्बबाहु धोषणा करते हुए जो गीत गाती हैं वह है -

ना तो रोटियां पकाऎगी

ना छ्त पे बुलाऎगी

ना नंगे पैर आऎगीं

ना हंस के रिझाऎंगी

ना सर पे बिठाऎंगी

ना गोरी होके आंऎंगी

ना नखरे उठाऎंगी.....उन्हें नहीं दिखना सुन्दर -नाजुक और गोरी ,उन्हें नहीं तैयारी करनी पूरा बचपन एक दूल्हे को रिझा लेने की ,वे नहीं करेंगी सेवा , उन्हें नहीं चाहिए तारीफ या आपकी छाया ,आपका नाम ! वे नहीं अपने सपने छोडकर बाकियों के सपनों को पूरा करने की मशीन बनेगीं वे आपकी दी हुई जिंदगी नहीं जिऎंगी ....ये जिद की पक्की ,बहुत खूंखार ,बेशर्म ,अडियल , बेखौफ लडकियां हैं...

आह...... भौंह कटीली -आंखे गीली- घर की सबसे बडी पतीली भरकर भात पसाने वाली परंपरागत भारतीय लडकियों की बुद्धि कैसे भ्रष्ट हो गई ? संरक्षणशील लज्जाशील कर्तव्यशील शीलवती भारतीय लडकियां अब घरबार को दुत्कारकर इतनी बेपरवाह होकर निकल पडेगीं अपनी पसंद के रास्ते पर ! परिवार का क्या होगा ? समाज का क्या होगा ? मर्दवादी संसचना का क्या होगा ?

उफ............. उफ ये छुट्टी लडकियां वह सब नहीं करेंगी जो अब तक करती आई हैं तो क्या करेंगी ? क्या पा लेंगी ? क्यों पा लेंगी ? वे साफ कह रही हैं कि वे अच्छी लडकियां नहीं हैं इसलिए उनसे कोई भी कोई उम्मीद न रखे ! वे अब वह करेंगी जो वे हमेशा से करना चाहती थी ! वे अब नहीं मानेगी किसी भी सत्ता को और न ही किसी संरचना से कोई भी उम्मीद करेंगी ! वे आपके बनाए खांचे को तोडकर बाहर निकल गई हैं और अब किसी भी खांचे को अपने आसपास नहीं बनने देगी ! वे खुद कह रहीं हैं और बहुत साफ साफ कह रही हैं कि वे गंदी लडकियां हैं ! गंदी इसलिए क्योंकि आपके लिए अच्छी लडकियां जैसी होनी चाहिए वैसी वे नहीं हो सकती अब ! गंदी लडकियां कहलाने में जो आजादी है उसका भरपूर इस्तेमाल कर वे आपको और आपके ढांचों को ठेंगा दिखा देंगी !..................तब आप केंद्र में बैठे रहते थे जनाब और उन्हें अपने आसपास उलझाऎ रखते थे अब वे आपमें नहीं उलझॆगी ! अपने रास्ते चुनेंगी और अपने भरोसे अपने तरीके से चलेंगी !

आप क्या सोच रहे हैं कि ये क्रांति है उनकी या कि जंग है ? नहीं जी ये आपका और आपके ढांचों का उपहास है जिन्हें आपने बडे जतन और चालाकी से बनाए रखा अबतक ! जिन जडों में आपने नापतोल कर सिंचाई की वे अब आपकी करतूत पहचान गईं हैं इसलिए वे फैलेग़ीं जी भर फैलेंगी ......उन्होंने गंदी लडकियां होने के रिस्क को चुना है जानते बूझते चुना है.....वे आपकी मूल्य व्यवस्था को धता बताकर चल पडी हैं और आप उन मूल्यों की पोटली सर पर धरे बीच बाजार खडे हैं कि अब आपका क्या होगा ....? नहीं उन्हें गंदी लडकियां कहलाने में कोई ऎतराज नहीं ये उनके लिए गाली नहीं ! अच्छेपन के बोझ तले दबे रहना अब और नहीं गंदेपन के खिताब का वे पुरजोर स्वागत कर रहीं हैं !लडकियां आपको चुनौती रहीं हैं खबरदार उनके रास्ते में मत आना ...उन्हें रोकने की कोशिश मत करना ...उन्हें बांधने का ख्वाब मत देख लेना ....

वो देखो ...वे चमक रहीं ..वे हंस रहीं हैं ...उनपर अब कोई भार नहीं है ..कोई नकली आवरण अब नहीं ढोना है उन्हें....वे अपने बूते उडेंगी डूबेंगी तैरेंगी आप रोक नहीं पाऎगे.....सिर्फ इतना कह पाऎंगे .....वो देखो वो रही ...,.गंदी लडकियां ......येस दे आर बैड बैड गर्ल्स....

Friday, September 07, 2007

मुझे भी चांद चाहिए

ये आम औरतें भागती दौडती सी हरदम

इन्हें क्यूं चांद चाहिए

मैंने बहुत बार सुना है इन हांफती दौडती औरतों के मुंह से

हां किसी दिन चांद चाहिए

पर अभी तो नहीं

अभी तो अभी का झमेला ही बहुत है

और चांद भी तो दूर है बहुत

यह भी कि--अभी तो पैरों की जमीन ही नहीं पा सकीं पूरी

अभी तो चांद को देखने  भर का मौका नही

घर और बाहर बस बनाए रखने की जंग में लगी हूं अभी !

चांद चाहिए पर किसी मुनासिब वक्त पर

जब लगे कि हां पा ली जमीन भी

ये औरतें बातें करती हैं अक्सर एक दूसरे से

ऑफिस के रास्ते में ,बस के सफर में ....

बाजार के रास्ते में दो पल रुककर बतियाती ये औरतें अक्सर

बातचीत के बीच में शर्मिंदा हो रही होती हैं

कि इस चुराये हुए वक्त में वे फलां काम

कर लेतीं तो शायद सबके लिए अच्छा होता

आंचल संभाले भागती  जूझती ये औरतें

अपना हर जरूरी काम कर रही होतीं हैं

कोई और जरूरी काम छोड कर....

अक्सर दिखती हैं आसपास हाथ बढाकर

 चांद को छूने की तमन्ना पाले औरतें

सपनों में ये बुनती हैं पुल

और हकीकत में सोच रही होतीं हैं अक्सर चांद.....

Tuesday, September 04, 2007

मैं यार बनाणा नी चाहे लोग बोलियां बोलें ...


आजकल अपना ईमेल बाक्स खोलते ही एक दो ऎसे मेल जरूर दिख जाते हैं जिनमें पूछा गया होता है-- "इज फलां युअर यार ..." और आगे एक्सेप्ट या रिजेक्ट करने के उदार ऑप्शंस भी दिए गए होते हैं ! ऎसे रार- वादी युग में यार बनाने के इतने मौके हम सब को मिल रहे हैं और हम राग अलापते हैं कि समय बडा खराब आ गया है.... दोस्तों की कमी हो गई है ...भाईचारा खत्म हो रहा है ! भई हम तो अब ऎसे यारी के ऑफर पाकर इन दकियानूसी प्रलापी खयालों को तज चुके हैं ! दोस्ती के नए वर्चुअल कांटेक्स्ट में जीने का समय आ गया है और हम सब हैं कि अपने आस पास ओल्ड फैशंड मित्रता टाइप बातों की उम्मीद कर रहे हैं ! यार ये ग्लोबल युग है ! यहां बहुत दिल मिला कर पते के मित्र बनाने में लगे रहोगे , दोस्ती निभाने ..दोस्त के सुख दुख के साथी बनने या मित्र धर्म के पैमाने पर अपने और अपने मित्र को कसने के फेर में पडोगे तो बच्चू मारे जाओगे ! देखते नहीं टाइम कहां भाग रहा है ! अब दो चार दोस्तों से काम नहीं चल सकता दोस्त हों तो इतने कि सबों के नाम याद रखने मुश्किल हों जाऎं ....बनो तो इतनों के दोस्त बनो कि आपके नेट नाम के साथ लिखा दिखाई दे -'' फलां (220) या " ढिमकां (305) !ऎसे धांसू च फांसू (आलोक जी चोरी का इल्जाम न लगाऎ और कोई फेंकू च कैचू मुहावरा नहीं न मिला ) नाम - नंबर वाले, हममें हीन भावना की उत्पत्ति कर देने में सक्षम यार की दोस्ती ऎक्सेप्ट न करें तो और क्या करें.....बस आप फंस ही जाते हैं आकाश दिशा की ओर उठे हुए अंगूठे को क्लिक कर अपनी यारी लिस्ट भी बढा डालते हैं ! वैसे इस प्रेशर में ना भी आऎ तो आपकी नैतिकता आपकी इंसानियत (जिसका आप दम भरते रहे हैं ) आपको परेशान करेगी क्योंकि यारी के ऑफर को ठुकरा देने पर ऑफरकर्ता के लटके मुंह की कल्पना भी आप :( के माध्यम से कर पा रहे होंगे !


अब दिल की बात कहें--- ये दोस्ती, मित्रता सब बेकार के हिप्पोक्रेटिक लफ्ज हैं असल मजा तो "यारी" में है ! यारी के नए ग्लोबल मायनों में यह लफ्ज --मजे , टाइम पास और ,टेंशनलेस, फर्जलेस फर्जी दोस्ती के भाव से चिरकाल के लिए नत्थी हो चुका है !ये फर्जी नाम के साथ मर्जी की दोस्ती का अनंत विस्तार है ! यहां टाइम एंड स्पेस मोल्डेबल और रिवर्सऎबल हैं ! मिनी -माइक्रो--स्लिम के जमाने में दोस्ती का मोटा लबादा ओढे कौन घूमे ? वैसे भी टाइम क्राइसिस की टॆंशन में नेट की यारी फायदे का सौदा है !करना ही क्या है कोई भी यार सिलेक्ट करके दोस्ती का ऑफर ही तो भेजना है या आए हुओं को उनकी फ्रोफाइल और थोबडा देखकर हां या ना करना है !


हमारे घर के सामने वाले मंदिर में बहु बेटों पोतों की ठुकराई हुई बुजुर्गवार औरतें हर दोपहर बाद फिल्मी गानों पर बने भजन माइक पर गाती हैं ! कल उन्होंने कृष्णजन्माष्टमी के आने की खुशी में जो भजन गाए उनमें एक था _नी मैं यार बनाणा नी चाहे लोग बोलियां बोलें ...नी मैं बाज न आना नी.....! उनकी कृष्णोपासना में भी गोपियों की ही तरह लोक- कुल की निंदा- आलोचना का डर नदारद था , अंदाज नया था ! वे भी निर्गुण निराकार की यारी में डूबी थीं ( वैसे हम कृष्ण को सगुण साकार के रूप में ही पढाते हैं ) और अपने जीवन के सूनेपन को कृष्ण की यारी से आबाद कर रही थीं ...सो हमारा यह फायदा हुआ कि अपने लिखे हुए इस खामखाह के विलापी लेख के लिए बहुत कैची सा टाइटल मिल गया !खैर वैसे अब आप फंस ही गए हैं तो बताते भी जाऎ -


"इज नीलिमा युअर यार "!

Monday, September 03, 2007

आंगन के भीतर .... आंगन के बाहर

आंगन के भीतर वसंत है

आंगन के बाहर पतझड आ बैठा है..

मैं नहीं चाहती कि देखें पतझड

मेरे बच्चे या कि पूछें सवाल

झडे पत्तों की ढेरी को देख

जिसे बनाया है अभी अभी किसी

सडक बुहारती मजदूरिन ने..

मैं नहीं चाहती कि उठे मेरे भीतर दर्द

और मैं उठा लूं लपककर उसका

दुधमुंहा बालक तपती जमीन से

मैं नहीं चाहती देखना उस ओर के पतझड को

मेरे लिए मेरा आंगन ही मेरा सत्य़ है...

पर क्या करूंगी उन सवालों का

उठे हैं जो मेरे नन्हों के भीतर

हैरान हैं वे एकसाथ दो ऋतुएं देख

अभी वे नहीं जानते कि सत्य क्या है

आंगन के भीतर का वसंत या कि

बाहर पसरा पडा पतझड

--

Thursday, August 16, 2007

गुजरिए भूख, वासना और गंदगी के बाजार से - जरा दामन बचाके

गरीबी और शरीर की भूख की बैकग्राउंड में मेट्रो का नई दिल्ली स्टेशन ! एक का मैलापन और एक का उजलापन ! नहीं नहीं.... कोई दिक्कत नहीं होती हमें अपने साहित्य के विद्यार्थियों को विरोध और विरोधाभास अलंकार को समझाने में !

ये मेट्रो का नई दिल्ली स्टेशन है जहां से आप भारतीय रेल सेवा की कोई भी ट्रेन पकडकर पूरे भारत में कहीं भी जा सकते हैं ! नहीं जाना कहीं  ...? तो जनाब कोई हर्ज नहीं क्नॉट प्लेस की लकदक के साक्षी तो बन ही सकते हैं ! ..तो जनाब हाइटेकनीक और एयरकंडीशंड स्टेशन से बाहर की दुनिया में कदम रखना बडा जिगर का काम है दिल्ली घूमने वालों या दिल्ली में नए नए आए के लिए ! पर हमारा तो रोज का काम है यहां ! आप यहां आऎं ये भारत की राजधानी की भी राजधनी को घेरे एक अजब इलाका है ! इलाका क्या है विरुद्धों का सामंजस्य है !.... काले -सफेद का गैर आभिजात्य-आभिजात्य का हाशिए और केन्द्र का .... यहां मेट्रो के कर्मचारी आपको हर समय इसकी टाइलों -शीशों को चमकाते मिलेंगे ! कहीं गंदगी- धूल का कोई निशान नहीं....स्टेशन से बाहर निकलते ही आप एकदम उलट जहान में खडे पाऎगे खुद को .....! दिल्ली आपका स्वागत करेगी ...मूत्र की बदबू से बचने के लिए आप मुंह पर फटाफट रूमाल रख लेंगे  ,अपने कपडे बचाने की फिक्र में लग जाऎगे ... आप नाक कान मुंह सब बंद कर लेंगे पर आंख तो नहीं न बंद कर सकते ! आपकी आंखें देखेंगी सडक पर उलटे सीधे तरीके से रुके चलते वाहनों की भीड ,मैल में डूबे सैंकडों रिक्शे वाले , दीवार पर किए गए मूत्र की बहती धारों से अटी पडी पटरी पर मृत्यु की सी निंद्रा में सोए लावारिस नंगे लोग , कहीं कोई भूखी बेहद मैली विकृत चेहरे वाली रोती पछ्ताती बुढिया आपको शिकायत और एतराज से देखती होगी ...............!! भई ये सब आप देखॆगे हम तो रोज देखकर ये सबक लें चुके हैं कि बच्चू अगर देखा अटके भी और भटके भी ...और फिर ठीक 5 मिनट बाद शुरू होने वाली क्लास में क्या खाक पढा पाओगे.....,सो हमारी आंखें देखती हैं पर देखती नहीं ....पर कभी कभी रिक्शे वाले के फफोले भरे हाथों में पांच रुपये के सिक्के थमाते हुए उसके लाचार बीमार हारे हुए चेहरे और  उसकी मैल के मानवीकरण अलंकार हो जाने के साक्षी बन जाना पडता है !

..तो आप सोच लें कि आप यहां से निकलकर कहां मुडेंगे एक तरफ चमक की दुनिया दूसरी तरफ पहाडगंज के तंग इलाके और दिल्ली का "गंदा" इलाका जी बी रोड है ! आप नहीं सोचेंगे तो रिक्शे वाला आपकी आंख में आंख डालकर इशारों में ही पूछेगा ! यदि आप स्त्री हैं तो आपका पूरा हुलिया कई कई आंखों द्वारा जांचा जा रहा होगा1.,.... ये आंखें आपके पहनावे और चालढाल से आपके भीतर नगरवधू और कुलवधू के फर्क के सबूतों को खोज रहीं होंगी ! आप कुछ भी हों ये अंदाज लगाने में क्या जाता है कि आपका रेट क्या होगा एक बार का 10- 20 या 50 या 100 ....!!

उफ ...नहीं ...हम रोज दुखी नहीं हो सकते ...रोज रोज नहीं रो सकते ..हर वक्त सोचते भी नहीं रह सकते ...पर पढाना तो है हमें आधुनिक भारत का यथार्थ बारास्ता कविता ,उपन्यास ,कहानी........! यहां बच लेंगे, आंख मूंद लेंगे ,पक्के हो लेंगे.. पर क्लास में ये साहित्य पढाते हुए जब उसकी भावपूर्ण व्याख्या पर जाएगे .....तब कहां जाऎगे ....नहीं बच सकते .....फंस ही जाऎगे भाई ......!

....हां हां  ... ठीक वैसे ही जैसे मेट्रो से निकलकर क़ोलेज तक जाने में नहीं बच सकते ! ये सच जो आंखों के आगे पसरा पडा है ऎसे नहीं तो वैसे ..अब नहीं तो तब ...गलाऎगा ही...तपाऎगा भी ... सिर्फ मुझे ही क्यों ....आप सब को भी तो ...!!

 

( आगे भी पर बाद में )

Wednesday, August 15, 2007

ठीक नहीं आपका इतना मुस्कुराना

मुकुराना हमारे लिए कितना घातक हो सकता है यह बात कई बार हमें बहुत देर से पता चलती है और तब तक हम बहुत मुस्कुरा चुके होते हैं ! खास तौर पर स्त्री के लिए उसकी मुस्कुराहट के नतीजे अक्सर उसके खुद के लिए बहुत कडु़वे होते है ! कल अविनाश ने हंसी पर बात की थी ,पर हम तो अभी तक मुस्कुराहट पर ही अटके हैं और जान रहे हैं कि कहां मुस्कुराऎं ,कहां नहीं मुस्‍कुराऎं ,कितना मुस्कुराऎं  ...? अक्सर बस या रेल में यात्रा करते हुए किसी अनजान से नजर मिले और वह मुस्कुरा दे तो हमारी व्यावहारिक बुद्धि बहुत देर में जवाब देती है कि हमें क्या करना है दिमाग में सवालों की लहरें दौड जाती हैं कि कहीं पहले मिले तो नहीं ?कहीं यह पड़ोस का व्यक्ति ही तो नहीं? कहीं लंपट या सिरफिरा तो नहीं ?

 एक हमारी बडी उम्र की  जानकार हैं ,वे कहती हैं स्त्री को बेमतलब पुरुषों के सामने हंसना मुस्कुराना नहीं चाहिए  क्योंकि मर्द मानते हैं "लडकी हंसी तो फंसी" !पर  हमारी समझ में नहीं आता कि हंसी या मुस्कुराहट पर पुरुषों का पेटेंट  खुद स्त्री ही क्यों करती है ! पर वे मानती हैं कि स्त्री की हंसी या मुस्कुराहट पुरुष को एक खुला निमंत्रण होती है जिसके बाद वह आपके बारे में कुछेक धारणाऎं बनाने के लिए स्वतंत्र होता है जैसे कि-- आप बहुत भोली हैं ,आप कमसमझ हैं ,आपके अनुभव कम हैं, आपको बरगलाया जा सकता है, आप मुस्कुराहट के पात्र के सामने आत्मसमर्पणात्मक भंगिमा के साथ है !वैसे अक्सर हमने अपने मुस्कुराने के अतीत में झांककर देखा है तो पाया है कि बहुत मंहगा पडा हमें हमारा अंदाज ! जिस स्पेस में हम खुद को सबके बराबर मानकर मुस्कुरा रहे हैं वहां हमारी मुस्कुराहट को हमारी विनम्रता, और कमजोरी समझा गया  !  हमारा मुस्कुराना सहज मानवीय भंगिमा होता है यह वह भाव है जो मुलाकात या बातचीत में मन की निष्कपटता को बयान करता है !यह सामने वाले व्यक्ति के वजूद की स्वीकारोक्ति है! बेमतलब के संजीदापन की चादर गलत मौके पर भी ओढे रहना तो जरूरी नहीं ! अपने कार्यस्थल पर पुरुषों के साथ काम करती स्त्री का यह मानवीय हक है कि वह अपने मनोभावों को पुरुषों की ही तरह जाहिर होने दे ! अभी हाल ही में अखबार में एक शोध के नतीज़ों का सार यह था कि स्त्री यदि अपने वर्कप्लेस पर अपनी नाराजगी या गुस्सा जाहिर करती है तो वह चिडचिडी, असंतुलित और घरेलू दिक्कतों से परेशान मानी जाती है ! हमारे तो अनुभव कहते हैं कि इन "मानने वालों" में खुद महिलाऎं भी शामिल होती हैं वे महिलाऎं जो मर्दों की सत्ता को अंतिम सत्य मानकर खुद भी उनकी सत्ता बनने में थोडी सी सत्ता का सुख पा लेना चाहती हैं !

एक बार आप क्या मुस्कुराईं आपकी कोमल छवि की स्थायी इमेज ग्रहण कर ली गईं और लीजिए आप हो गईं उसमें ट्रैप !~आप अब सहिए जुमलेबाजी ,छींटाकशी , बिनमांगी सरपरस्ती , जबरिया रहनुमायी और " बेचारी स्त्री"  के भावों की बौछार! और जब आप इस छवि को तोडता- सा कोई प्रतिरोध भरा  कदम उठाएगीं तो कहलाऎंगी सिरफिरी ,किसी मर्द के द्वारा भडकायी गई या पति के द्वारा सताई गई या सास से परेशान या कि कुंठिता... उफ ....!

हमारा मुस्कुराने का अनुभव ज्यादातर तो बुरा ही रहा है पर हमने अभी हार नहीं मानी है ! हम तो यह मानकर अब तक मुस्कुराते आए हैं कि हम खुद को ऎसे ही मुस्कुराते देखना चाहते हैं और यह कि यह किसी भी इंसान की सहज वृत्ति है, और यह कि किसी और की वजह से हम क्यों छोडें मुस्कुराना !

अब आप ही बताइए कि हम क्यों न मुस्कुराएं ?

Monday, August 13, 2007

149 में से 112 गए

हर गर्मी की छुट्टियों में एक बहुत गैरपुण्‍य का काम करना पड्ता है - दिल्ली विश्वविद्यालय की उत्तरपुस्तिकाए जांचने का काम ! हमें पता नहीं होता कि किस कॉलेज की ये कॉपियां हैं ! हमें बस सवालों को देखकर जवाबों को आंकना होता है ! हर बार बडी आशा से हम कापियां लाते हैं और सबसे बचकर मनोयोग से उन्हें जांचने बैठते हैं और हर बार हमारे हाथ से कईयों की जिंदगी स्वाहा हो जाती है - मतलब कम से कम हमें तो यही लगता है ! हर बार मनौती मानते हैं कि भगवान अगर तू है तो इस बार कॉरेस्पॉंडेंस की कापियां न मिलें रेग्युलर वालों की मिलें वो बहुत बेहतर होती है ! पर लगता है भगवान है ही नहीं क्योंकि कभी भी मन की मुराद पूरी नहीं होती ! खैर जब ओखली में सर दे ही देते हैं तो मूसल से भी नहीं डरते हम ! लग जाते हैं काम पे लाल पेन और सवालों का पर्चा उठाके ! कसम से ऎसे ऎसे ओरिजनल आन्सर मिलते हैं कि हम अपने हिंदी साहित्य के अधूरे ज्ञान और अपनी कल्पना की कमजोर शक्ति पर मन मसोस कर रह जाते हैं ! प्रतिपाद्य लिखो ,निम्न की व्याख्या करो ,फलां का चरित्र- चित्रण करो ,फलां उपन्यास की उपन्यास के तत्वों के आधार पर चर्चा करो, शृंगार रस का उदाहरण दो या फिर फलां छंद के लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत करो......!

अब हमारे सवाल तो फिक्स्ड होते हैं पर भएया जवाबों में गजब का वेरिएशन ,फेंटेसी, बहादुरी ,गल्पात्मकता ,ओरिजनैलिटी क्रएटिविटी कूट कूट के भरी रहती है ! हमारे एक सहयोगी को उत्तर की कॉपी में दो बार पचास के नोट मिल चुके हैं (वैसे वे जनाब इकोनॉमिक्स पढाते हैं ) जबकि हमें हमारी प्यारी हिंदी की कॉपी के आखिर में लिखा मिलता है---

"सर/मैडम मुझे पास कर देना ! मैं बीमार थी इसलिए पढ नहीं पाई ! मैं आगे पढना चाहती हूं प्लीज" !

एसे में एक तो अपनी हिंदी का मारकेट रेट साफ दिखाई देकर भी हम अनदेखा करते रहते हैं बेबात फ्रस्टेशन मोल लेने का का फायदा ? एक कॉपी में नकल करने वाले/वाली ने नकल की बारीक सी पुर्जी जल्दी जल्दी में कॉपी के अंदर ही छोड दी तो कई कॉपियों में ऊपरी पन्ने पर एग्जामिनर के साइन के लिए छोडे गए खाली स्थान पर उत्तर देने वाले/वाली का साइननुमा नाम लिखा मिल जाएगा जैसे सुनीता , शेफाली वगैरहा....! ये नाम हमेशा लडकियों के क्यों होते हैं - जब सोचते हैं तो साफ दिखता है कि उत्तर देने वाला /वाली यह मानकर चल रहे हैं यदि उनकी कॉपी महिला एग्जामिनर के हाथ पडेगी तो "औरत ही औरत का दर्द समझ सकती है वाला मामला जम जाएगा ! यदि किसी पुरुष एग्जामिनर के हाथ से चेक हो रही है तो उसका सॉफ्ट कार्नर लडकी के नाम मात्र से जग जाएगा !

खैर जब आपको इतना झेलाया है तो हिंदी साहित्य को लेकर आपकी जानकारियों का वर्धन करना भी तो हमारा ही फर्ज बनता है ! इसलिए ये अमूल्य बातें जो हमारे होनहार बच्चों की अपनी सूझ बूझ का नतीजा हैं - पढकर ही जाऎ-

1 व्याख्या के लिए कविता कोई भी आए उसका रचयिता कालीदास या तुलसीदास ही होता है !

2 कविता या गद्य किसी भी कृति से उद्धृत हो "ये पंकतिया हमारी पाठेपुस्तक मे से ली गई होती है "

3 दोहा छंद का उदाहरण -"जो बोले सोणिहाल ससरियाकाल"

4व्याख्या में ज्यादा कुछ नहीं करना होता बस दी हुई लाएनों को आगे पीछे करके उन्हें बडा करके दिखाना होता है !

5 "शिंगार रस वहां होता है जहां कोई औरत सज धज के अपने प्रेमि से मिलने जाती है जिसमे प्यार का बहुत सा रस दिखाए देता है और उनके बहुत प्यार करने से ये बडता है ! इससे पडने वाले को आंनद मिलता है ...."

6 अनुप्रास अलंकार अनु +परास से बनता है इसमे एक ही शबद बार बार आता जाता है जिससे पडने में अच्छा लगता है कानो में भी अच्छा लगता है !

7 "सूरज का सातवा घोडा" प्रेम चंद ने लिखा है जिसका नायक बहुतों से प्यार करता है पर शादी एक से भी नहीं करता ! और इसमें ऎसी औरतओं की कहानी है जिनका चाल चलन ठीक नहीं है !

8 राज भाशा हिनदी हमारे राजाओं की भाशा है जिसका सारे देश में खूब विस्तार करना है ताकि भारत में एकता की जो कमी आ गई है वो दूर हो सके ! इसमें सारे शब्द बहुत मुस्किल होते हैं पर पदते रहने से आसान भी हो जाते है?

9 (किसी भी कवि का जीवन परिचय पूछा जाए वह लगभग एक सा होगा )

" नागार्जन कवि बहउत बडे कवि थे !उनका बचपन बहुत गरीबी में बीता पर उन्होने हार नही मानी ! वे लिखते गए सब तकलीफों में डरे नहीं ! उनकी कविता हमारे लिए बहुत जरूरी है ! वे बहुत ईमानदार और अच्छे कवी थे जिनको सब प्यार करते थे ! उनकी माता भ्चपन में ही मर गई थी इसलिए उनका पालन पोसन नीरू और नीता नामके जुलाहे ने किया ! वे उत्तरपदेश के लमही गांव में पैदा हुए थे ! उनकी पहली कविता उन्होंने बहुत बचपने में ही लिख ली थी बाद में वो लगातार लिखते गए उनकी भाशा में बहोत जादु है क्योंकि उनकी बाते मार्मस्पर्शी होती है जो की हिर्दय से निकलती हे ........!

10 बाबा बटेसरनात" उपनयास बहुत से तत्वों से भरा है जैसे चरित चित्रन , भाशा , संवाद , कथानाक ,देशकाल और वातावरन ! उसके सभी लोग एक दूदरे से बहुत अच्छे संवाद करते हैं जिनसे उपनयास का कथानाक आगे बडता है ! इसमे बहुत से पात्र हैं जिलका चरित चितरन बहुत गहरा है ! ये एसे पेड की कहानी है जो बहुत बुडा और समजदार है जिसको सब काटना चाहते हैं पर वो देश के लिए समाज के लिए जान दे देता है !....

इसलिए तो कह रहे हैं जनाब कि 149 में से 112 गए ! बाकी कितने बचे ?

Saturday, August 11, 2007

साउंड प्रूफ लेबर रूम्स

"सिस्टर ऎडमिशन पेपर्स तैयार करवाओ , इमिजिऎट एन एस टी.. ऎनीमा..क्लीनिंग.."

पर डक्टर मुझे डर लग रहा है मुझे लगता है ये फाल्स पेन हैं मैं मैं..." नहीं भई  नहीं ..ये तो बहुत अच्छी दरद हैं..डाक़्टर अपने साउथ इंडियन लहजे में बोली .'फिफ्टीन मिनट्स के इंटवेल पर पेन हो रही हैं अब ऎर्‍डमिट होना होगा बच्ची.."

दया के चेहरे पर अनजाना कहर टूटता दिखाई देता है उसकी सास पूछती है 'अरी बता तो दर्द कमर से उठ रहा है या पेट से ..कमर से उठता है तो लडका होता है ..बता ?" नहीं मुझे नहीं पता मुझे कुछ नहीं पता मुझे बचाओ कोई बस .." सास का चेहरा निर्दयी हो उठता है "ऎरी तू अनोखी नहीं जनने जा रही है बच्चा सारी दुनिया जनती है". पास से गुज़रती सिस्टर कहती है नहीं दुनिया का हर डिलेवरी केस अलग होता है माता जी ,अब चलो तुम व्हील चेयर पर बैठो. "

डिलीवरी रूम  की ट्रेनी यंग डाक्टर नीचे के हिस्से में जाँचं पड़ताल में लगी थी एक के चेहरे पर मरीज के दर्द से पैदा हुआ दर्द था तो दूसरी अपने खून लगे कोट से बिना घिन्नाए दया के केस को पढ रही थी -" सुनो दर्द बढाने की दवाई डाल दी है जितनी जल्दी अच्छे दर्द होंगे उतनी जल्दी आजाद हो जाओगी .." दया बिना हिले डुले लेटी है मुहं से बीच बीच में कराह निकलती है नजर दौडाती है लेबर रूम में ! पेट फुलाए पडी कराहती रोती औरतें ही औरतें ! दर्द का इंजार करती , दर्द के बढने की दुआ मनाती दाँत भींचती औरतें ही औरतें ! ...................दर्द बहुत जरूरी है ! दर्द के बिना यहीं पडी रहोगी पेट काट्ना पडेगा तो ज्यादा तकलीफ होगी ! दया चिल्लाती है हिस्टीरिक होकर ..मुझे जाने दो मुझे छोड दो यहां की चीखों से दिल दहलता है इन औरतों के दर्द में विकृत हो गए चेहरों  को देखने से मितली आ रही  है ............देखो ये साउंड फूफ कमरे हैं यहां की दीवारें चीखों को बाहर नहीं जाने देतीं ......तुम भी दर्द के और बढने पर चीखोगी ....शायद कोई नर्स बोली थी ! उठो घूम लो पडी रहने से दर्द जमेगा ..."मैं नहीं खड़ी हो सकती ....टांगे कांप रही हैं मेरे पति को बुलाओ..."यहां किसी की एंट्री एलाउड नहीं है !"नर्स उदासीन भाव से जवाब दे रही थी !


दया को याद आता है बॉस का व्यंग्य से भरा चेहरा ! प्रेगनेंनसी की बात सुनते ही बोला था "यू टिपिकल इंडियन लेडीज..जॉब मिलते ही मैरिज, मैरिज होते ही प्रेगनेंनसी...कैरियर स्टेगनेंट हो जाएगा तुम्हारा समझी ...प्रीकाशन नहीं ले सकती थी ?..."  दया पानी पनी चिल्ल्लाती है दर्द उसे जकड रहा है बेड पैन हाथ में लिए पास से जाती सफाई कर्मचारी उसे पानी देती है ! दया झिझकती है पर फिर लपककर पी जाती है "थें..क्स..आह आह ..........अब कितनी देर और.....दर्द बेकाबू ....हो रहा है ... डाक्टर को भेजो ...वक्त क्या हु...आ है ?  मुझे पेनलेस डिलीव..री चाहिए ............."सांस फूल रही थी दया की मुट्ठियाँ भिंच रही थीं! पति पर बहुत गुस्सा आ रहा था !मेरा हाथ थाम ले एक बार वह ..देखे मेरा हाल कमर से ऊपर उठे डेलीवरी गाउन में टांगे फैलाए पलंग के किनारों से भिडते मुंह सूख रहा है.... सिस्टर सिस्टर......! डाक्टर लोबो आती हैं बहुत सामान्य भाव लिए आवाज में गुस्सा लिए कह रही हैं "क्यों तुम्हें चाहिए दरद दूर करने का टीका ...तुमहारी मां ने तुम्हें टीका लगवाकर पैदा किया था क्या ..वैसे भी सेफ कहां यह टीका सुन्न हो जाएगा रास्ता तो बच्चा अंदर रह सकता है और ऑपरेशन की जरूरत पड सकती है ..बच्चे को खतरा हो सकता है ..."

पता नहीं मुझे मैं इस समय मुझे अपनी जान जाती लग रही है मुझे या तो मार दो या मर जाने दो डाक्टर " दया के होंठ चिपकने लगते हैं आंखें आंसुओं का लगातार बहना बढ जाता है पेन का इंटरवेल अभी बढ रहा है ! मां तो कहती थी बस ज्यादा पता नहीं चलता तू बस बच्चे के बारे में सोचना ! सास कहती थी लडका होगा सोचना तो दरद महसूस नहीं होगा ! सब झूठ था मुझे यहां धकेलने का षडयंत्र.... ..बेड पर नजर जाती है खून ही खून कोई नर्स कह रही है  ओह ये मरीज 'शो' दिखा रही है  ! जूनियर डाक्टर देखती है  डाइलेशन फोर इंचिज हुआ है इस हिसाब से अभी फाइव ऑवर्स लगेंगे नर्स सुबह छ्ह के आसपास !  डाक्टर चली जाती हैं दया नर्स का हाथ पकडकर झिंझोड देती है  ....." नहीं इससे ज्यादा दर्द नहीं सह सकती मैं ...इससे ज्यादा दरद हो ही कैसे सकता है किसी को ....कोई बच ही कैसे सकता है इस दर्द के बाद ......बताओ बताओ " दया देखती है नर्स का चेहरा उसके दर्द से अछूता है ! दया चाहती है कि कोई तो उसे सहला कर कह दे कि हाँ मैं महसूस कर रहा हूँ तुम्हारा दर्द ...वह नर्स झाँक रही है भीतर और कह रही है  " देखो सिर दिख्नने लगा है डाइलेशन इंप्रूवड है साँसे लंबी लो ए चिल्लाओ मत इतना ..करते वक्त नहीं पता था कि जनते वक्त इतना दर्द होगा ? ! "

दया बीच में जाने हताश हो रही है या सो रही है ! इंद्रियाँ शिथिल पड़ रही हैं दिमाग अजीब अजीब चित्र बना रहा है ! गुस्सा ,नफरत, तडप ,प्रतिरोध के चित्र डाक्यूमेंट्री से शुरू होकर कोलाज में बदल जाने वाले चित्र ! एक में वह बच्ची है माँ के स्तन से चिपकी ,एक में वह जतिन की बाहों में है और जतिन कह रहे हैं कि वह उनके किए दुनिया की सबसे खूबसूरत उपलब्धि है ,एक में वह ग़िड़्गिड़ा रही है "जतिन तुम अपने परिवार को समझते हो मुझे भी समझो जरा ..." जतिन  जतिन जतिन......आओ मुझे तुम्हारी ज़रूरत है ...मैं लड़ते -लड़ते हार रही हूँ हर मोर्चे पर ..तुम साथ होकर भी साथ महसूस नहीं होते ...क्या प्यार का शादी में बदलना गलत रहा...मैं कब तक सहेजती रहूँ यह रिश्ता अकेले ......कहो ...कुछ तो कहो ......तुम्हारी चुप्पी.......! दया हाँफ रही है बाल नोंच रही है हाथ पटक रही है !

दया की चीखें बढ़ती जा रही हैं ! उसे लग रहा है ज़रूर उसका चिललाना इन दीवारों के बाहर खड़े जतिन को सुनाई दे रहा होगा ...वह रो रहा होगा मेरे लिए...वह दीवार तोड़कर यहाँ आ जाना चाहता होगा वैसे ही जैसे मुझसे प्रेम विवाह के लिए वह एक बार सारे जमाने से लड़ गया था .....! डाक्टर डाक्टर भगदड़ मच जाती है रेस्ट रूम से डाक्टर भागती आती हैं स्ट्रेचर आ यहा है "हरि अप जल्दी डिलीवरी टेबल पर शिफ्ट करो ...रोको अभी जोर नहीं लगाओ साँस अंदर खींचो ..." दया की टाँगें खोलकर लटका दी जाती हैं वह जीवित और मृत के बीच की सी देख रही है "वे कह रही हैं "सुनो हाथ टाँगों पर लपेटकर छाती से टाँगें चिपकाकर जोर लगाओ ....रोको जब दर्द की लहर उठेगी तब लगाना खाली नहीं ...." दया गला फाडकर चिल्लाती है मम्मी  मम्मी मम्मी  ! सीनियर डाक्टर फटकार रही है ए मुंह बंद करो बच्चा नीचे से निकलेगा मुंह से नहीं ! मुंह भीचो ...' अचानक दर्द की तेज लहर उठती है दया का चेहरा और भी रौद्र हो जाता है ,वहां खडी सब औरतें समवेत स्वर में गाती हैं हाँ हाँ लगाओ लगाओ लगाओ लगाओ  बस ....हां लगाओ लगाओ लगओ लगाओ लगाओ.....ऊँचा रिवाज़िया पर भावहीन समवेत गायन... धान की कटाई के समय का सा.....लो यह आ गया बाहर लो देख लो क्या है फिर काटेंगे प्लेसेंटा को ...लो यह काट दी नाल वह पडी है ट्रे में देखो .....वे रूई ठूंस रहे हैं दया में ! अब कुछ बाहर नहीं आना चाहिए !कुछ भी नहीं ! वे कह रही हैं आफ्टर पेन्स आतें हैं पर तुम हिलो नहीं नहीं तो टेडी सिल जाएगी फिर रोओगी बैठकर तुम ..  .....दया देख रही है ट्रे में पडी गर्भनाल को सिलाई का धागा खाल में से निकलता साफ सुनाई दे रहा है बाकी की डाक्टर्स व नर्सें जा चुकी हैं दूसरे डेलीवरी टेबल पर!


 एक बेहोशी सी......दर्द की खुमारी सी दिमाग पर चढ रही है बच्चा लपेटा जा चुका है कपड़े में वह धीरे -धीरे कराह रही है उसे लग रहा है वह एक फिल्म देख रही है !
पूरी डूबकर ! दर्द के दरिया में डूबी वह कोई और दया है ! बहे चली जा रही है !
किनारे पर जतिन खडा है बच्चा हाथ में झुलाता बुला रहा है उसे-." लौट आओ दया वापिस देखो तुम्हारा बच्चा ...किनारे की ओर लौट आओ ....हाँ हाँ जोर लगाओ तुम्हें आता है जोर लगाना दया......
दया पानी को काटती चली आओ....
 और और और  जोर लगाओ दया.........!

Friday, August 10, 2007

आपकी गंधाती पुलक से कहीं बेहतर है, उनकी भड़ास

भड़ास हिंदी ब्‍लॉग जगत के लिए चुनौती रहा है जिसे नारद युग में तो केवल नजरअंदाज कर ही काम चला लेने की प्रवृत्ति रही पर जैसे ही नारद युग का अवसान हुआ, भड़ास की उपेक्षा करना असंभव हो गया- करने वाले अब भी अभिनय करते हैं पर हिंदी ब्लॉगिंग पर नजर रखने वाले जानते हैं कि भड़ास का उदय तो नारद के पतन से भी ज्‍यादा नाटकीय है। इतने कम समय में भड़ास के सदस्‍यों की ही संख्‍या 53 है। भड़ास अपनी प्रकृति से ही आंतरिक का सामने आ जाना है- जो दबा है उसका बाहर आना। भड़ास हर किसी की होती है पर बाहर हर कोई नहीं उगल पाता, इसके लिए साहस चाहिए होता है। भड़ास का बाहर आना केवल व्‍यक्ति के लिए ही साहस का काम नहीं है वरन पब्लिक स्‍फेयर के लिए भी साहस की बात है कि वह लोगों की भड़ास का सामना कर सके क्‍योंकि भड़ास साधुवाद का एंटीथीसिस है- हम भी वाह वाह तुम भी वाह वाह नहीं है यह। हम भी कूड़ा तुम भी कूड़ा है यह।

भड़ास चूंकि दमित की अभिव्‍यक्ति है इसलिए उसके प्रिय होने या प्रिय भाषा में होने की तो खैर कोई गुजाइश ही नहीं। भड़ास में गालियॉं भरपूर है, मर्दों में होती ही हैं- सड़क चलते भी सुनाई देती हैं, हम ही नजरअंदाज कर देते हैं, ऐसा मुँह बनाते हैं जैसे - हमने तो कुछ सुना ही नहीं। गालियॉं हैं और मर्दों की हैं तो भले ही वह कोई सम्‍मानित महान कवि दे या भड़ासी, वे मर्दवादी ही होंगी- वे स्‍त्री जननांगों के इर्द-गिर्द ही घूमेंगी- कुछ भी नया तो नहीं।

पर भड़ास तो मनुष्‍य मात्र में होगी न, फिर स्‍त्री क्‍यों भड़ासी नहीं। हमने पूछा- जबाव भी मिला। बिल्‍कुल अपेक्षित जबाव था पर दिया ईमानदारी से गया था। फिर एक पोस्‍ट में इसका और विस्‍तार से खुलासा किया गया। मूलत: दो तर्क

if she has the boldness and can gather enough courage to be associated with this blog then certainly the qualitative measures would also change.

और दूसरा वही समतावादी तर्क था कि इंसान को बांटा क्‍यों जा रहा है, मर्द औरत की बात उठाना बेबात शांति भंग करना है विवाद उठाना है।

समस्‍या इन दोनों तर्कों में है। पहले तो विवाद होगा इस डर से न कहना तो भड़ास-दर्शन हो नहीं सकता। भड़ास अगर विवाद भय से कही न जाए तब तो वह 'बात' ही हो जाएगी। भड़ासी पढ़े-लिखे समझदार लोग हैं वे खुद जानते हैं कि ये तर्क बहुत दूर तक नहीं जाता इसलिए इसे छोड़ देते हैं-

दूसरा तर्क ये कि भड़ास में महिलाएं नहीं हैं, ये महिलाओं की कमी है कि उनमें साहस नहीं है, दम नहीं है, उनकी भाषा में कहें तो गूदा नहीं है कि अपनी भड़ास को कह कर मन हल्‍का कर सकें- पर दोस्‍तों घर, गली, हाट, दफ्तर और लीजिए अब तो ब्‍लॉग व इंटरनेट का जगत तक तो आप मर्दों ने घेर रखा है- कहॉं भड़ास निकालेगी औरत। पर चलो आपने बात कही और सीधे कही- आपका तर्क तो सिर्फ इतना है कि हम भड़ासी है अपनी भड़ास के लिए- तुम्‍हारी भड़ास तुम्‍हारी दिक्‍कत है कहॉं निकालोगी, किस भाषा में इससे तुम खुद निपटो। आपका तर्क तकलीफ देने वाला है पर वैध तर्क है।

पर ब्‍लॉगजगत के हर तकलीफ देने वाले तर्क वैध नहीं हैं। जरा अफसरी तर्कशास्‍त्र को देखें। बड़े अफसर हैं अनूप, ब्‍लॉगर भी बड़े हैं उनके बड़े अफसर मित्र ज्ञानदत्‍त पांडेय- सुबह सुबह जब  बीबीयॉं इन साहब लोगों के दफ्तर जाने का इंतजाम कर ही होती हैं तो एक अफसर लिखता है दूसरा वाह वाह करता है- इससे कब्जियत दूर रहती है- पेट साफ रहता है। किसी वजह से एक समय से लिख नहीं पाया (फिर इस औरत जात यानि बीबी की कारस्‍तानी होगी) तो दूसरे ने अपनी कब्जियत निकालने के लिए किसी और पर निशाना साधा-

उधर नीलिमा जी का पति प्रेम देख कर मन पुलकित च किलकित है कि उन्होंने आदर्श गृहणी की तरह गाढ़े समय के लिये कुछ प्रेम बचा के रखा था और मौका पाते ही उड़ेल दिया। प्रियंकरजी को समझ में आ गया कि जोड़े से ब्लागिंग करने के क्या फ़ायदे होते हैं।

तब तक दूसरे साहब भी आ गए ओर उन्‍होने भी अपना पेट साफ किया और अफसरी समरसता का कर्तव्‍य निबाहा

फेमिली ब्लॉगर आईएनसी को बेचारे छुट्टे मुंसीपाल्टी का ठप्पा लगये घूमते ब्लॉगरों पर ज्यादा तवज्जो दी जाती है. फेमिली ब्लॉग आईएनसी जरूरी है. और नहीं तो टिप्पणी की ट्रेनिग तो होनी चाहिये पत्नी को!  

- यूँ भी एक बकबक करती औरत को चुप कराने का काम पुण्य ही है, दिन भर अपने मातहतों से अच्‍छे से बात कर पाए होंगे- सुबह सुबह ही मूड जो ठीक हो गया था। 

तो जानें कि गोले बनाने के कारखाने के इन बड़े अफसर की पुलक और इन छोटे-मोटे पत्रकारों की भड़ास में क्‍या संबंध है। भड़ासियों के लिए भड़ास का खेल खुल्‍ला खेल फर्रूखाबादी है, कोई दुराव छिपाव नहीं। दारू, औरत और वहीं फटना-फाड़ना, मर्द के अंतस में चूंकि औरत की जगह यही है इसलिए वह मवादी भाषा में बाहर आती है, जाहिर है। ईमानदार। पर बड़े ब्‍लॉगर उस पर भी अफसर वे ईमानदार भला क्‍योंकर होंगे, मर्द हैं तो इसमें उनका क्‍या दोष- वे पहले तो किसी और मर्द से कोई अनबन लेते हैं- होती रहती है इसमें कुछ भी खास नहीं पर जब तिलमिलाहट होती है तो फिर वही करते हैं जो कबीलाई समाज से आज तक मर्द करता रहा है  इस मर्द की 'मातहत' औरत को खोजो और उससे बदला लो। पहले साथ के 'मौज' लेने के लिए राजी यार इकट्ठे करो और फिर मजा चखाएंगे ( जोड़े में ब्‍लागिंग के फायदे गिनाते प्रियंकर ये भूल जाते हैं कि हिंदी की ब्‍लॉगिंग अभी भी कबीलाई मर्दों का शगल है, जिनकी बीबीयॉं चौके में होती हैं और मर्द मौज मजे के लिए शिकार या वेश्‍यालय जाने में असमर्थ होने के कारण इंटरनेट पर जाते हैं, इसलिए जिसकी बीबी ब्लॉगिंग भी साथ कर रही उसे तो नुकसान ही नुकसान है) 

बुजुर्ग ज्ञानदत्‍त-- 'संभाल अपनी औरत को नहीं तो कह चौके में रह' की तर्ज पर मानों कह रहे हैं कि " इस बेशऊर को टिप्‍पणी करना तो सिखा दे कम से कम। (या हाय हाय.... हमने क्‍यो न सिखाई अपनी वाली को ऐसी बेशरूरी..)

धकिया देने का रवैया भी देखें तो नामधारियों की मौज लेती पुलक से भड़ासियों की भड़ास लाख दर्जे बेहतर है। पर कुल मिलाकर हिंदी की ब्‍लॉग दुनिया का शिष्ट चेहरा हो या भड़ासी रूप दोनों बस ये कह रहे हैं कि हम तुम नाकाबिल औरतों को मुँह से कुछ कहकर तो बाहर नहीं खदेड़ देंगे पर अपने कर्मों से कोई कसर भी नहीं छोड़ने वाले।   आपको निराश करने के लिए माफी कम से कम अभी तो हम मैदान साफ छोड़ने वाले नहीं। घर में निपट लेंगे कि ऐसा क्‍यों लिख डाला और आपकी टिप्‍पणियों से भी निपटेंगे जिनमें शरीफ बड़े लोगों पर कीचड़ उछालने के लिए लानत मलामत होगी।

Thursday, August 02, 2007

यूं मैं तुमसे करता हूं प्रेम

मैं चट्टान ही रहना चाहता हूं
दुनिया के सबसे मीठे दरिया के किनारे की
आधी डूबी आधी सूखी ....
मैं डरता हूं पानी के मखमली थपेडों से
धीमे धीमे झडते देख खुद को..

मुझे अच्छा लगता है यह दरिया
और उसका मीठा पानी
पर मैं यह नहीं चाहता कि यहां उठे
कोई भी लहर ऊंची
मैं झिझकता हूं पूरा भीगने से....

मैं नहीं चाहता कि कोई भी मल्लाह
उतारे इस जल में अपनी डोंगी
या कि किनारे पर बैठा कोई
तैराए इसमें अपनी कागजी किशती....

मैं चाहता हूं कि किनारे की सारी वनस्पतियां
गवाह हों दुनिया के सबसे गहरे पानी के
ऎन किनारे टिकी इस शिला के शैलपन की ....

मुझे तनिक नहीं भाती ये मछ्लियां
दरिया की चिर सखियां
जो पानी के बहाव में उछ्लती हैं
तैर लेती हैं बहाव के साथ भी
बहाव के खिलाफ भी ...

मैं चाहता हूं इस मीठे पानी के दरिया में
मुझ से झरे कण ठहर जाएं
छोटी छोटी शिलाएं बन
मैं दरिया में उग जाना चाहता हूं
ताकि इस रेतीले किनारे पर टिके-टिके ही
देख आउं मैं दूसरे किनारे को

ओ दुनिया के सबसे नीले झिलनमिलाते दरिया !
मैं तुमसे करता हूं प्रेम !!

.

Wednesday, August 01, 2007

प्यार में कवि

वह फडफडाती अपने सतरंगी पंख

और चहचहाती कहती-

उड आऊं आकाश में तनिक

वह कहता गहराये टिके अंदाज में 

लौट आना लेकिन जल्द ही

इंतजार करूंगा बेसब्र मैं तुम्हारा..

 

 जब कोई झुंड नारे लगाता गुजरता

उसके हरियाये आंगन के बाहर

चूल्हे पर खौलती चाय भूल

दौड पडती वह दरवाजे की ओर

ठिठका देते स्वर में वह पुकारता

क्या हुआ चाय का....?

अल्लसुबह नींद से उठ वह

सुनाती अधूरे रह गए सपने उसे

सपने - जिनमें बेखौफ अकेली वह

गहन समुद्र के नील अंधकार में  उतर जाती है

या फिर किसी बहुत ऊंचे सफेद शिखर पर

पैर टिकाए निहारती है

 डूबता उगता चमकीला सूरज

वह ध्यान से सुनता

 उसकी लटों में अपनी अंगुलियां फिराते

 कहता पुचकारती आवाज में

प्रिये ! ऎसे सपने देखना तो अच्छा शगुन नहीं

 बेफिक्र सोया करो तुम.....

 

वह अक्सर कविता करता लपलपाती आग की

ऊंची लहरों में घिरी नौका की जिसमें

सवार होती जूझती एक अकेली औरत 

वह कहती आओ बात करें आग की

तूफान में घिरी उस औरत की

वह नेह भरी झिडकी देता

पगली ! आग की बात सिर्फ कविता में अच्छी लगती है

वह छिपा देता है

आग और जूझ की अपनी कविता और

उसके लिए रचता है

 रोमानी सुरों में ढले गीत

 

 रात के गहराऎ कालेपन में जब वह

 उतर रहा होता है

नींद की तलहटी में धीमे धीमे

वह अपने भीतर उतार डालती है

कागजों में छिपा पडा

बेताला रुद्र आदि गीत

 आग का...

Wednesday, July 25, 2007

लोग जा़लिम हैं हरइक बात का ताना देंगे

आज असीमा कह रही हैं कल पता नहीं और कौन क्या क्या कहेगी ! एक ऎसी औरत जिसको सुखद दाम्पत्य जीवन नसीब नहीं  हुआ और उसकी दूर दूर तक कोई संभावना न पाकर वह अपने पति पर कीचड उछ्ल रही है ! लोग सूंघेंगे बल्कि सूंघ रहे हैं कि वह औरत ऎसा  क्या करती थी कि पीटी जाती थी !आखिर वह कुछ तो करती होगी ऎसा कि एक बहुत बडा संवेदनशील कवि हाथ उठाने पर मजबूर हो जाता होगा ! चार औरतें मिलकर यहां बखूबी बात करती पाई जा सकती हैं कि हमारा तो हमें नहीं पीटता बडे प्यार से रखता है ! जैसा कि मेरी पडोसन की सास कहती है कि औरत खुद ही अपने ऊपर हाथ उठवाती है ......! इस प्रसंग का उठ जाना बहुत अच्छा है क्योंकि बहुत सी पत्नियां अपने सुखी जीवन में सुख का तुलनात्मक अध्ययन कर सकती हैं , जान सकती हैं कि उनका पति औरों के मुकाबले कितना अच्छा पति है ..कि वह कभी कभार ही उसे पीटता है ..कि वह उसका अक्सर तो खयाल ही रखता है ..!

असीमा एक ऎसी औरत है जिसने जबान खोलकर जग की विवाहिताओं में अपना मजाक उडवाया है ! समाज के विवाहित पुरुषों के लिए उपहास का मसला बनी है ! उसे ऎसा नहीं करना चाहिए था ! यह मैं इस लिए भी कह रही हूं कि मैं यह देख पा रही हूं कि उन्होंने अपने लिए कैसा रपटीला रास्ता चुन लिया है जहां उनका मसला अंतत: एक पागल औरत का प्रलाप सिद्ध हो जाने वाला है ! मैं यह इसलिए जान पा रही हूं क्योंकि मैंने असीमा की कथा को छूने का प्रयास करती हुई एक कविता लिख डाली है और जिसकी एवज में चंद्रभूषणजी की पोस्ट पर टिप्पणी में प्रिय बोधि भाई सहित मेरी कल की पोस्ट पर कई गुमनाम भाईयों ने उत्साहवर्धक टिप्पणियों से नवाजा है! यह उत्सावर्धन जरूरी है नहीं तो चारों ओर यही कचरा फैल सकता है और कई सुखमय विवाहित जीवन नष्ट हो सकते है ! उनका कहना है कि कविता में यह सारा कीचड क्यों आए ! कविताई में यह वीरांगनापन एक अकवियित्री के द्वारा तो कतई मंजूर नहीं ! कविता सत्य,सुन्दर और काम्य के लिए है !इस तरह के कीचड और लीद के लिए नहीं ,और यह भी सामने आया कि कविताई का सारा मतलब बडे कवियों द्वारा सत्य व सुन्दर का संधान है ! मान लिया भाई जी ! पर यह मंच मेरा है जहां मैं अपने मंतव्य को जैसे चाहे लिख डालूं ! मैं जनपथ पर खडी नहीं न बोल रही, न ही आपके मंच पर तो आप काहे बिलबिला गए ! आप निश्चिंत रहें जनाब आपकी कविताई और उसकी शुचिता बनी रहेगी और पाठक भी बरकरार रहॆगे!

आप भी तो लिखते हैं न असीमाओं पर ! पर आपको तब पता नहीं होता कि आप जिनपर लिख रहॆ हैं वे सब भी असीमा हैं ! क्योंकि आप दूर से दिख रही असीमाओं पर लिख रहे होते हैं!  आपकी काव्य चेतना में अनदेखी असीमाएं होती है हमने देखी हुई औरत असीमा की कविता कर डाली ! ...छोडिए भी....!

कविता क्या है ?यह बताने के लिए नए रामचंद्र शुक्लों का अवतार अपने बीच हो रहा है ! सच हो मगर दूर से ! सच ,मगर अपना ही, स्थापित हो गए बडे कवियों का ! उनके पास कवि दृष्टि है वे हमारे जीवन पर लिख सकते हैं पर हम अपने जीवन का भोगा हुआ नहीं कह सकते ! क्योंकि कविताई  तमाशा है ! संवेदना का फैशन है ! रुतबा है ! मजा है, कुछ बडेपन का ऎसा अहसास बडे कवि जिसके परस्पर सिरजनहार हैं ! यह गुटधरता है ! संवेदनात्मक मौज है ! इनाम है! शोहरत है ! ........।संवेदनशील सामाजिकों में संवेदना की ठेकेदारी है...!

............. असीमा तुमहारा कहा बेकार जाएगा ! न तुम घर की होगी न घाट की ! तुम्हारे सच को बांटने जानने की सजा बहुत बडी हो सकती है ! क्यों मैं या और कोई भी औरत तुम्हारे साथ खडी होने के खतरे मोल ले ? वैसे भी मैं बहुत डरपोक हूं ! तुम मुझसे तो कतई कोई  उम्मीद  न रखना ! वैसे मैं जानती हूं कि तुम जानती हो मुंह खोल देने के बाद के अकेलेपन के रिस्क को !

असीमा..!! आज तुम सडक पर खडी हो .........कोई भी औरत जानती है कि किसी भी स्त्री का सडक पर दो मिनट भी खडे रहना क्या होता है .............और तुम तो सडक पर खडी हुंकार उठी हो ............. यह क्या कर डाला तुमने असीमा.......!!!

Tuesday, July 24, 2007

असीमा ! मैं क्या तुम्हारी कथा कहूं.....

काली सुरंगों में भागती वह अकेली औरत

नहीं जानती कि किधर जाना है उसे

वह देखती है सर उठाकर ऊपर

तो आती है उसे आवाजें छैनी हथौडे की

जगह जगह गिरता है मलबा रोडी पत्थर

वह जानती है उसे सुरंग में धकेल डालने वाला वह

अपने पैरों तले की जमीन को छेद रहा है

बना रहा है कई मुहाने

सुरंग के रास्ते पर

और कह रहा है आस पास की भीड से-- देखो ये गटर हैं..

...वह दौडती है और तेज

...सुरंगों में धस गई कई मरी हुई औरतों की कहानी

उस सुरंग को याद है जबानी

सुनो ! अब उन्हें सुन सकती हो सिर्फ तुम ही...

...वह दौडती है और तेज

 सुनती है गुत्थमगुत्था आवाजों में उलझी पडी सैकडों कहानियां

चीखें, आहें,आंसुओं,सिसकियों में तहायी पडी सैकडों कहानियां

............

वह फिर भी डरती नहीं ,और भागती है

कदमों की चाल से चेहरे पर छिटक आए

कीच को पोंछे बिना....

वह अकेली है

-यही सुरंग में घुस जाने की नियति है!

वह दौडती है

-यह उसका अपना फैसला है!

वह लथपथ है कीच गर्द गुब्बार से 

--यह उसके दौडने की सजा है !

...............मुहानों से आती हर गूंज उसे कहती है

-अपना चेहरा तो देखो

इसे पोंछ क्यों नहीं लेती

और वह बुदबुदाती है

-अब यही मेरा चेहरा है ..यही मेरा चेहरा है .....

Sunday, July 22, 2007

मोहल्ले का तो है अंदाजेबयां कुछ और

 सामूहिक चिट्ठाकारिता का अपना अलग व्याकरण है ! इस व्याकरणशास्त्र का परिवर्धन - परिमार्जन लगातार हो रहा है और हमने उस पर नजर भी रखी हुई है! हमने देखा कि किस तरह से उसका निजी चिट्ठाकारिता से अलग एक स्वरूप व उद्देश्य है -यह चिट्ठाकारिता का एक नया तेवर है जिसकी गंभीर पडताल बाद में लिंकित मन पर की जाएगी ! पर फिलहाल तो ऎसे ही एक "लोकप्रिय" चिट्ठे मोहल्ले के साथ कुछ-कुछ पंगा शैली में लिख बैठे हैं --पंगा यह जानते हुए लिया गया है कि पत्रकार बिरादरी को छेडना बहुत खतरनाक भी हो सकता है ! अब छपास पीडा का शमन न करना होता तो लिख भर देते ,पोस्ट न करते ;) पर फिलहाल तो निज पीडा ही बडी जान पड रही है !!!! 

 तो देखा जाएगा परिणाम आप तो मुलाहिजा फरमाऎं---

 

    चिट्ठा करि करि जग बौराना, अंधकूप गिरा तहहि समाना
    वादी विवादी अधिक उकसाना,चिंतनशील विकट हैराना !!

 

पत्रकार के चिट्ठे पे कबहु विवेकी न जाइ

उत्सुकतावश यदि जाइ तो कबहु न टिपियाइ !!

       चिट्ठों के चौबारे पर लगी रहा चिट्ठा मेला

      ढूंढे से भी न मिले तहां चिट्ठाकार अकेला !!

स्त्री दलित हिंदुमुस्लिम चालू आहे बाजार

धाट धाट से चुनि चुनि लगि रहा यह अंबार!!

      इक ही विषय पर आइ रहा मति -कुमति का रेला

      लेख-कुलेख धकियाइ के लाइम लाइट में ठेला !!

चिंतन करि करि ऊपजे ऎसा विमर्श -पहाड

छुटपुट लेखक चढि पडा सूझे न कोई उतार !!

 

       जहां तहां से उद्धृत करें सम- समभावी विचार

        बेनामी टिपियाय रहे पड्तु निरंतर मार !!

 कहें विमर्श करतु संघर्ष न निकले निष्कर्ष

ऋन धन,धन ऋण होई जात है कैसे हो उत्कर्ष !!

 

      वा गली वा कुंजनिन में लगी रही संतन भीड

     हल्का -फुल्का एकु न,एकौ ते एक गंभीर !!

      एकु ते एकु गंभीर, मिली-मिली ग्य़ान बधारें 

      बनी परकास-स्तंभ करत हैं जग उजियारे !! 

     जग महि करें प्रकास नहीं हैं इन्हें अवकास

     ग्यान  चक्षु हैं खुलि गए बाकी सब बकवास !!

 

क्षमा करें बंधु हमें हमरा है नहीं दोस

टिपियाकर परगट करें अपना सब आक्रोस !!

Friday, July 20, 2007

खुल्लमखुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों.........

प्यार और उसकी अभिव्यक्ति के मामले में अब हमारे शहर बदल रहे हैं , हमारे मन बदल रहे हैं ! प्यार करने के लिए अब प्रेमी जोडों को खेत खलिहान झाडी की ओट नहीं तलाशनी पडती न ही जमाने की घूरती नजर की परवाह करनी पडती है ! प्यार किया तो डरना क्या की तर्ज पर अपने आस पडोस की मानव आकृतियों की फिक्र किए बिना प्यार करने वाले प्यार भी कर रहे हैं और उसका इजहार भी !

अपने घर की बाल्कनी में खडे हों तो अक्सर नीचे सडक पर हाथ में हाथ डाले प्रेमी लडके - लडकियां घूमते दिखाई दे जाते हैं ! मेट्रो से यात्रा करें तो सब ओर मेट्रोमय प्रेम और प्रेममय मेट्रो ही होती है ! मॉलों की सीढियां प्रेमबद्ध युगलों को पार करके ही चढना संभव होता है !शहर के सारे पार्कों में हर बॆंच पर प्रेम में आकंठ डूबा जोडा लौकिक जगत के बोध से रहित प्रेमालाप करता दिखाई देता है !

ऎसा खुल्ला प्यारमय माहौल हमें तो सब ओर पॉजिटिव ही पॉजिटिव होता मानने को मजबूर कर देता है ! मन कहता है काहे का पिछडापन भई हम तो लगातार विकास कर रहे हैं ! आत्मा से आवाज निकलती है कहां है मध्यकालीनता , कौन- सी बंद सोसायटी ? हम तो एक आधुनिकतम खुला समाज हैं जहां कोने - कोने पे प्रेम की नदियां बह रही हैं .....

क्या है कि हम मसिजीवी जी की तर्ज पर कहें तो ठहरे मास्टर.. न न.. मास्टरनी .....! अब पिछले दो साल से पढा रहे हैं फर्स्ट इयर के लडकों को रीतिकाल ! कहने को कोऎड कॉलेज है पर हमारी क्लास में एक भी लडकी नहीं ! तो भाई लोगों कवि पद्माकर, मतिराम देव आदि आदि के प्रेमकाव्य की सप्रसंग व्याख्या करने की मुसीबत से हफ्ते में 3 बार गुजरते हैं....अब पद्माकर कह गये कि बच्चों देखो कैसे रति क्रीडा के बाद सुबह प्रेममग्न नायिका रति कक्ष की देहरी पर हाथ रखे खडी होती है ..कि कैसे उसके बाल उसके गले के हारों से गुत्थमगुत्था हो गए हैं ....कि कैसे वह नायक को मादक दृष्टि से देखती है और यह कि फलां छंद में विपरीत रति का चित्रण है फलां में नख और दंत छेदन ..और यहां मुग्धा नायिका है ....यहां प्रौढा.............................! अब क्या करें जब वात्सयायन जी कामसूत्र की रचना कर ही गए हैं , हमारे रीतिकालीन कवि उस पर आधारित नायिका- भेद व रति -चित्रण कर ही गए हैं तो हम भी उसे बिना हकलाए, बच्चों से बिना नजर चुराए और व्याख्या को बिना सारांश में बदले पढा ही डालते हैं ........

ऎसे में हमें हमारे पार्कों में लतावेष्टित आलिंगन में बंधे चुंबन के अनेकों वात्सायनी पाठों को आजमाते नायक नायिका ध्यान जरूर आते हैं ! वे स्कूल या कॉलेज से भागे हुए कच्ची पक्की उम्र के युवा .....! हम भरसक कोशिश करते हैं उन्हें न देखने की पर वे कोई कोशिश नहीं करते हमें न दिखने की .........मानो हम उनके लिए अदृश्य हैं !.....पार्क में खेलने गए किसी बच्चे की बॉल अपने पास आकर गिरने या फिर पिकनिक मनाने आए किसी बडे से परिवार के छोटे बडे सदस्यों वाले झुंड के अपने पास से गुजरने पर भी वे अपने शयन- कक्ष वाली मुद्रा को त्यागे बिना रत रहते हैं ......ऎसे में लगता है कि हम पीछे छूट गए और आउटडेटिड हैं ...कि यही ट्रेंड है ....यही अदा है नए प्यार की ....आप जले या नएपन को कोसें ....नजर चुराऎ या नजर भर देखॆं...... या फिर अपने बीत गए जमाने में प्यार करने की दिक्कतों को लेकर कुंठित हों........

..........हम इसे पब्लिक डिस्प्ले ऑफ अफेक्शन मानें या उन्मुक्त यौन अभिव्यक्ति......अपनी फिल्मों में यौनिक अभिव्यक्ति का स्वागत करते हम अपने आसपास क्यूं न करें इसे स्वीकार ? कला और यथार्थ में आती खाई को आओ पाट दें........या फिर अपनी आंखो के दोगलेपन पर करें फिर से विचार.....बहरहाल हम पता नहीं कब तक रीतिकाल को पढाऎगे और यह भी हमारी ही सरदर्दी है कि कैसे पढाऎगे.......वैसे एक बात है कि मन में कई बार उठ्ता है कि विभाग में बाकी सभी 9 पुरुष हैं...वे ही क्यों नहीं पढा लेते यह एक पेपर ! पंतु तभी मन में एक कोने से कोई आवाज सुनाई देती मैं क्यों नहीं ............ !

Wednesday, July 18, 2007

गालियों से रिसता चिपचिपा पदार्थ

अनामदास जी बोधिसत्व जी तथा और भी जितने भी जी गाली शास्त्र पर अपने विचार व्यक्त करते पाए गए उन सभी से क्षमा प्रार्थना के बाद ही मुझ जैसी-गाली अकुशल वर्ग की प्राणी इस विषय पर कुछ कहने की कुव्वत कर सकती है !बात यह है कि गाली प्रेषण में सम्पन्न पुरुष वर्ग से खुद को हीन समझने का एक और कारण हमॆं मिल गया है ,जिसे पाकर हम उस तरफ से अनदेखा नहीं कर पा रहे हैं !हमने पहले भी गाली को मर्दवादी ,वीर्यवादी समाज की भाषा संरचना कहा था ,आज भी कहेंगे! अभी हाल ही में उठा साहित्य भाषा,गाली और बहस का तर्क झंझावात साफ तौर पर हमें, हमारी सामाजिक स्थिति को डिफाइन करने का एक और प्रयास भर ही है शायद !एक स्त्री विहीन विमर्श का दायरा सुनिश्चित करता तमाम बौद्धिक वर्ग....!

......और हम रोज देखते हैं गली मोहल्ले मेट्रो यहां तक कि शिक्षण संस्थानों में गालियों से आकंठ भरे मदमस्त बेपरवाह अपकी -अधपकी -पकी उम्र के मर्दों को !ऎसे में हमें दिखना होता है अनजान..कि हमने नहीं सुना कुछ..कि हमें नहीं पडता फर्क क्योंकि यह जो गाली तुम दे रहे मेरे जननांगों या चरित्र पर नहीं लक्षित है..कि नहीं नहीं सब कुछ ठीक ही तो है ....!किसी चौराहे पर सिर्फ 7-8साल के फटेहाल या फिर गली में खेलते तीसरी क्लास मॆं पढने वाले बच्चे को ऎसी' ' भद्र' भाषा का इस्तेमाल करते सुनकर मात्र यह शुक्र मनाना होता हि कि अभी तक हमारे घर का बच्चा यह नहीं सीखा है !वैसे क्यूं इतनी आपत्ति है हमें गालियों से ..इसे पुरुष वर्ग की यौन कुंठा का उत्सर्ग द्वार मानकर भी तो भूला जा सकता है ! स्त्री के शरीर मात्र को लक्ष्य बनाकर करने दो इन्हॆं आपसी छीछालेदर! यहां पिता यह मानकर संतोषी होकर रह सकता है कि उसका पुत्र भाषा का यह तेवर न जानता होगा अपनाता होगा और पुत्र यह भ्रम पाले रहता है कि उसका पिता गालियों की भाषा बोल ही नहीं सकता ....कितने सहज हैं ये भाषिक व्यवहार अपनी- अपनी मर्यादा के खोलो को निभाने में भी कितने उन्मुक्त ....

कभी कभी ' विमल जाऎं तो जाऎं कहां' के विमल सिर्फ उस उपन्यास में ही नहीं रहते! विमल जानते हैं कि "पाजामे में पडे पिलपिले पत्थरों का' इतिहास...

हमारी एक मित्र हैं जो शिक्षा विभाग में प्राध्यापिका हैं ....उन्होंने ऎसी ही किसी भावना की रौ में बहकर पुरुष  लक्षित गालियों का संधान किया था इस बात को आज 7-8 वर्ष हो गए हैं ...लेकिन अभी तक उन्होंने उन गालियो का इस्तेमाल नहीं किया है ...शायद कर नहीं  पायीं...

Monday, July 16, 2007

समीर जी, दिल्ली ब्लॉगर मीट में साधुवाद वर्सिस असहमति पर हुआ द्वंद्व

यहां तो बहुत गडबडझाला हुआ जा रहा है! हमारे अतिप्रिय समीर जी को मैं स्पष्ट करना चाहूंगी कि दिल्ली ब्लॉगर मीट में उठे जुमले --'साधुवाद युग का अंत "--केवल एक शाब्दिक प्रतीक भर था जिसका प्रचलन आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणियों में आने वाले साधुवाद शब्द मात्र से हुआ है!
समीर जी ,आपका ब्लॉग लेखन हिंदी ब्लॉग जगत में जो भूमिका रखता है उसे जाहिर करने के लिए एक टिप्पणी मात्र काफी नहीं होगी ! मैं यहां इतना ही कहना चाहती हूं कि उपरोक्त जुमले का पूरे प्रसंग में उद्देश्य यही था कि हिंदी ब्लॉगिंग मेच्योर हो रही है और हम असहमतियों और विवादों को बढता देख रहे हैं ! वहां यह कहा गया था कि अब परस्पर उत्साह बढाने वाले माहौल के स्थान पर विरोधी विचारों को रखने की परंपरा की नींव पड रही है ! यह भी कहा गया कि नए ब्लॉगरों को उत्साह वर्धन की जरूरत हमेशा रहेगी लेकिन एक सीमा के बाद हर चिट्ठाकार अपने विचार रखेगा जो जाहिराना तौर पर आपस में मेल नहीं खाते होंगे और विमर्श को जन्म दॆंगे! ब्लॉग जगत के हालिया बदलावों के मद्देनजर इस बात की और भी ज्यादा पुष्टि होती है ! फुरसतिया जी के यहां सृजन जी की टिप्पणी में भी इस संबंध में बातें रखी गई हैं !
आपकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने का इरादा वहां मौजूद किसी भी ब्लॉगर का नहीं था ! मसिजीवी ने अपने लेख में जो बात रखी वह उस मीट में पैदा हुए विमर्श से जुडी थी !यूं तो आपके पदचिन्हों पर चलकर हम सब भी साधुवाद के जुमले को बहुत इस्तेमाल करते हैं , लेकिन नए असहमतियों के दौर में इस साधुवाद करने की प्रवृत्ति के स्थान पर सार्थक विरोधी विचार रखने की प्रवृत्ति के बलवती होने की संभावनाओं पर विचार किया गया था! यहां लक्षय ----"हम सभी ब्लॉगरों की प्रवृत्ति पर था '!----आप के लेखन की सार्थकता या इस जगह पर आपकी उपस्थिति को कट्घरे में डालने का विचार कमसे कम मै जितना उक्त लेख के लेखक को जानती हूं सबसे आखिरी विचार होगा!आप से मौज की आप द्वारा ही दी हुई छूट का अगर यह अर्थ होना था तो वाकई यह एक कमजोर शैली के लेख के कारण ही हुआ होगा !

Friday, July 13, 2007

मेरे शहर में शाम


मेरे शहर में शाम हर रोज आती है ! रोज उतनी ही बासी, उतनी ही भागदौड भरी और उतनी ही उदासीन !अब शाम कवि की काव्य प्रेरणा उस तरह से नहीं रही है शायद जैसी पहले हुआ करती थी ! संझा का झुटपुट, चिडिया की टुट-टुट वाली कविता भावना उपजाने में नाकाम शहरी शाम ! ये शामें ललाती सी , लुभाती सी कहां रही हैं, न कवि का मन अब कहने को करता होगा---मेघमय आसमान से उतर रही संध्या -सुंदरी परी - सी- धीरे धीरे धीरे..! भीडे लालडोरे इलाकों या फिर ऊंची सोसायटियों की ऊंची बिल्डिंगों के ऊपर के आकाश में कब शाम रात से समझौते का सौदा कर बैठती है और कब डूब जाती है शहराती नहीं जान पाता ,न जानना चाहता है


!मेरे शहर में दोपहर ढलने का नोटिस हाथ में लिए उजास निर्वासित सा निकल पडता है ! शाम बडकुंवरिया की सी पथरीली भंगिमा लिए आन खडी होती है बेकली का भाव अपने चेहरे पर लिए , बेकली अंधेरे की भीमकाया में खो जाने की.... !


मेरे शहर की धमनियों में बहती है मेट्रो मेरी शान ! इस छोर से उस छोर !उडेलती चलती है तरल शहराती झुंड--छोटे छोटे क्षुद्र कटोरों जैसे घरों में ! ऊपर आकाश में लाल और काले रंग का पारंपरिक मिलन और उसकी छाया में यमुना के पुशतों पर दौडता साइकिलों का रेला ...रोज रोज के लिए यूं ही प्रोग्रांड है ये दृष्य..मेरे शहर के केनवास पर ! यहां हर शाम थका - मांदा सा सूरज दिन भर की ड्यूटी से पसीज जाता है पर इन साइकिलों पर सवार कामगरों का मेला दस -दस घंटों की काम की पारी से भी क्या नहीं थकता ?....कम से कम साइकिलों के पैडलों पर पडते उनके पैरों की गति तो यही कहती है ....शाम के बेतरतीबे कोलाज में बेमेली से चिपके निरर्थक हिज्जे से चिपके जीते जन ...लाकों जन....


दिन में हल्की शर्म का झीना नकाब ओढे मेरा शहर हर शाम मॉलों में नंगा होने पर उतारू सा लगता है ! चमक, यौवन मूड और मौके का अद्भुत हाट !नया मूल्य , नया तेवर लिए शाम वहां बाजारू सी होने पर आमादा हर सकुचाये को निमंत्रण देती है....नए नेह का निशा निमंत्रण...


कैसे ठुकरा दिया जाए ये निमंत्रण....बहुत संयम की बात है..




ऊपर आकाश मॆं विरोधी रंगों का कितनी कुशलता से किया गया मिश्रण और यहां शहर की जमीन पर अंधेरे और चमक का साफ साफ बंटवारा.....यहां शाम जानती है दोनो छोरों की परिभाषा ......हम जाने या न जाने .....और जानना चाहें या न चाहें...

Friday, July 06, 2007

ये दो और इनके सिर्फ तेईस...




रायटर ऐजेंसी से प्राप्‍त ये तस्‍वीर आज हिदुस्‍तान टाईम्‍स में छपी है! बड़े आकार के लिए क्लिक करें

Tuesday, July 03, 2007

अविनाश जी ! मोहल्ले के मर्दवादी भाषिक तेवरों को लगाम दीजिए

मोहल्ले पर जाना पहली बार एक दुखद अनुभूति रहा ! बडे विचारकों की साहित्य की जमीन पर की हुई विष्टा से जी मितला गया ! बहस की भाषा मर्दवादी , बदमजा और मुठभेडी ! चिंतन खोखला तो भाषा थुलथुली , लिजलिजी ! मन बना लिया था कि इस विवाद से दूर का नाता नहीं रख्ना है पर वहां नोटपैड जी टिप्पणियों में एक कोशिश देखकर मैंने सुबह अविनाश जी से बात की ! वह बहस तो अधूरी रह गई किंतु मोहल्ला बनाम अविनाश जी की सोच कुछ हद तक सामने आई--

me: क्या गदर मचा रहे हैं जनाब आप
avinash: आदाब... कुछ गड़बड़ हो गया है क्‍या....
me: आप को भी तो कुछ महसूस हो रहा होगा न गडबड जैसा ;)
avinash: मैं किसी गड़बड़ी को लेकर साकांक्ष नहीं हूं... अगर ऐसा है, तो मुझे बताया जाए कि मुझे क्‍या करना चाहिए...
me: नए लोगों को न डराओ यहां मैं तो अभी देख ही रही हूं सब अभी अमझ में नहीं आया है मामला पर जानना है आप क्या कुछ नहीं देख रहे क्या यही सब होना चाहिए ??क्लियर स्टेंड क्या है बताऎ तो यही भाषा हो सकती है कुछ और नहीं या हम सब नए और आम लोग बहुत नासमझ हैं
avinash: देखिए... मेरी मंशा है कि हिंदी पर बात हो... हिंदी में लिखे जा रहे पर बात हो... हममें से कइयों को लगता है कि हिंदी में जो कुछ भी आज लिखा जा रहा है, उसके सरोकार नहीं हैं... अभी भी सवर्ण मानस की अभिव्‍यक्तियां हिंदी साहित्‍य के केंद्र में हैं... तो हिंदी की मुख्‍यधारा में इन दिनों क्‍या-कैसी बहस चल रही है, उसकी एक झलकी ही आप यहां देख रही हैं... मसिजीवी ने सही लिखा- कि अगर हिंदी की दुनिया यही है, तो ऐसी दुनिया में हमें नहीं जाना...
क्लियर स्‍टैंड जैसा कभी कुछ होता नहीं... विमर्श की दुनिया में कम से कम... राजनीति की ज़मीन पर ज़रूर इस तरफ या उस तरफ रह कर बात की जा सकती है...
me: हां या तो यह सब दरकिनार होगा या आम लोग यहां से जाऎगे -यही भविष्य है
avinash: आम लोग कौन है
me: वैसे भाषा को लेकर स्टेंड की बात की थी मैंने
avinash: हमारे आपके समाज में जो अभिव्‍यक्तियां हैं, जो शब्‍द हैं, वही पन्‍ने पर उतरेंगे... भाषा दस तरह की आए, उसका मैं कायल हूं आपकी ही भाषा में जो अठखेलियां हैं- वह हिंदी के लिए नई हैं
me: यही तर्क तो आज के हिंदी सीरियल वाले , एकता कपूर देती हैं
avinash: तो भाषाई परहेज़ एक तरह से लोकतंत्र का निषेध है
तब तो आप दलित साहित्‍य को खारिज़ कर देंगी, जिसमें धड़ल्‍ले से गालियों का प्रयोग हो रहा है एकता कपूर क्‍यों‍ कह रही है, और साहित्‍य में इसकी मांग क्‍यों उठ रही है, इसकी अलग-अलग वजहें हैं... भाषाई गरिमा में हिंदी का दम घुटता रहा है बहुत सारी बातें निकलकर नहीं आ पायी हैं
me: भाषा में यह चूतिया वाली शब्दावली कभी किसी महिला की तो नहीं दिखी ? न ही महिला कहीं ऎसी किसी बहस में दिखती है ?
avinash: मैं इस शब्‍द या किसी भी गाली का प्रयोग नहीं करता...
me: चूतिया कहते ही सारी अभिव्यक्ति पा जाते हैं आप ?
avinash: व्‍यक्तिगत रूप से...
avinash: अभिव्‍यक्ति एक शब्‍द से नहीं फूटती आपने ब्‍लैक फ्राइडे फिल्‍म देखी होगी उसमें इस शब्‍द का धड़ल्‍ले से प्रयोग किया गया है पुरुषों की दुनिया में इस शब्‍द का इस्‍तेमाल चुइंगम की तरह किया जाता है
me: शब्द तो पूरी भाषिक संरचना हैं अकेले वजूद नहीं रखते
avinash: हमारे समाज में तमाम गालियां स्‍त्री विरोधी हैं
आप देखिए... बोधिसत्‍व हिंदी के बड़े कवि हैं...
me: तभी तो कह रही हूं पुरुषों की बहस जिसमें सारी यौन कुंठाओं की बारास्ता साहित्य अभिव्यक्ति हो रही है
avinash: उन्‍होंने चूतिया का इस्‍तेमाल किया... हां, अब आपने सही बात कही क्‍या होना चाहिए, क्‍या नहीं होना चाहिए... बात इस पर करनी ही नहीं चाहिए बात ये है कि जो जैसा है वो वैसा दिख जाए
me: साहित्य की भाषा और बहस की भाषा में फर्क होता है जनाब
avinash: तो जब बोधिसत्‍व जैसे बड़े कवि इस शब्‍द का इस्‍तेमाल करते हैं, तो हमें समझना चाहिए कि हिंदी में इन दिनों अभिव्‍यक्तियों का कैसा दौर चल रहा है ! मैं दूसरों की भाषा सेंसर करने के पक्ष में नहीं हूं... मैं अनुरोध ही कर सकता हूं मैंने किया भी है
me: बहुत गलत बात कि वे बडे कवि हैं तो क्या वे फिलमी एक्टर की तरह हमें भाषा का फैशन बताऎगें ?
avinash: ये आप उन्‍हें बताइए...
me: आप भी तो जानिए हमारी बात! आपके यहां ही यह सब चल रहा है आप उस सब से वास्ता तोड कर साइड में नहीं खडे हो सकते हैं न
avinash: यही तो मैं कह रहा हूं... मैं दूसरों की भाषा सेंसर नहीं कर सकता। या तो मैं पूरा वाक्‍य ही नहीं छापूंगा... मेरे पास अभी 19 आर्टिकल है, जिसे नहीं छाप रहा... इस‍ी वजह से, क्‍योंकि वो छापने के काबिल नहीं है लेकिन विमर्श में कोई उग्र हो गया है या कोई बदज़ुबानी कर दी है, तो उसे खामोश नहीं कर देना चाहिए पूरी बात आने देनी चाहिए...
me: तो यह काबिल था यानि ?
avinash: इतना धैर्य हममें होना चाहिए... क्‍यों हम गालियों से परहेज़ करेंगे, अगर सिर्फ गाली के लिए गाली न दी गयी हो हमारे संस्‍कारों कें स्रोत दरअसल हमारी सुहागिन परंपराएं हैं, कोई आज़ाद और अपनी निर्मिति नहीं इसलिए हम हरे-हरे कहने लगते हैं... और शिव शिव कहने लगते हैं
me: बात घूम कर वहीं मत पहुंचाइए न ! गाली ! मर्दवादी अंदाज में गाली जिससे स्त्री के बारे में दबी हुई उनकी मानसिकता सामने आती है उन सब के दावों को खारिज करती हुई कि वे नए समय के स्त्रीवादी विमर्शों से ताल्लुक रखते हैं
avinash: तो ये तो अच्‍छी बात है... पर्दाफाश ज़रूरी है जो जिस मानसिकता का है, उसकी मानसिकता ज़ाहिर होनी चाहिए
me: तो मतलब यह कि उन सब को चूतिया कहने की आजादी होनी चाहिए बिना उसके एक मर्दवादी सटीक अभिव्यक्ति कर ही नहीं सकता
avinash: न आप मेरी बात समझ रही हैं... न मैं आपकी बात समझ रहा हूं... दरअसल मैं सेंसर के पक्ष में नहीं हूं.... ईस्‍वामी ने एक बार ठीक कहा था कि आप उधर मत जाओ, जिधर कुछ गंदी हवाएं बह रही हैं... चौपटस्‍वामी ने भी विवाद की अविनाशप्रियता में यही कहा था..
. me: अर्थात?
avinash: अभिव्‍यक्तियों का एक कोना ऐसा भी रहने देना चाहिए...
me: और वहां स्त्रियां जाऎ या नहीं ? और अगर जाऎ तो किस भाषा का इस्तिमाल करें ?
avinash: देखिए नोटपैड ने आकर अपनी बात कही कि नहीं... बहुत वाजिब बात कही है... स्त्रियां आएंगी... और आईना दिखा कर जाएंगी...
me: जाऎ तो यह मान कर कि वहां उनके गुप्तांगों पर बनाई गई गली वाली गालियों में बहस होगी avinash: क्‍या अक्‍सर ऐसा होता है
me: नोट पैड गई थी क्या हुआ वे जनाब मासूम बन गए नोट पैड ? कहां हो अविनाश जी ;)?
avinash: अभी सुबह-सुबह उठा ही था... चाय-पानी भी नहीं चढ़ाया है...
me: ओह ;)
avinash: कभी मिलेंगे तो बात करेंगे
me: चलो बाद में बहसेंगे
avinash: शुक्रिया
me: वैसे यह तो एक चिट्ठा तैयार हो गया है
avinash: आप इसे डाल दो
me: छाप दें ?
avinash: छाप दीजिए...

Sunday, July 01, 2007

कौन है असल फुरसतिया ?

आजकल हिंदी ब्लॉग जगत परेशान है ! सब ब्लॉगियों की समस्या है कि लिखना बहुत कुछ है पर वक्त बडा कम है ! उसका ज्यादातर हिस्सा तो नौकरी, घर आदि-आदि पचडों में जाया जा रहा है फुरसत की घोर कमी के काल में ब्लॉग जगत की बादशाही की तमन्ना दम तोड रही है ! अब जायज है कि ऎसे विकट समय संकट में मजे से लिखते फुरसतमय ब्लॉग लेखक से जलन हो बैठे ! ऎसे में जले पर नमक के छिदकाव सा करते ब्लॉग एग्रीगेटरों का उदय होने से वाकई मैं भी परेशान हूं ! ये बिन चाहे ही आपको आपकी औकात बता दे रहे हैं और बिन “ मांगे मोती मिले ...वाले दोहे के सत्यापित मतलब को एक बार फिर से शक के घेरे में डाल रहे हैं ! उधर ब्लॉगिए धड़ाधड पोस्टें दाग रहे हैं _हिट होने के तरीके , दो मिनट में पोस्ट लिखने के तरीके , पंगा लेके हिट होने के तरीके , कम समय में टिपियाकर ग्राहक बटोरने के तरीके , लिंक दो लिंक लो वाले तरीके., गाली देके हिट होने के तरीके............एक से एक जालिम और खुराफाती आजमाए हुए ! समझ नहीं आता किसकी दुकान में जाऎ ! हमें तो लगता है ये सारा मामला इतना सीधा नहीं है होता तो फुरसतिया जी बता न देते कि उनकी इस फुरसत का राज क्या है ! अब कई ब्लॉगर उनको उकसा बैठे कि भी कभी तो फंसेंगे ---- इयत्ता वाले लिख रहे हैं असल फुरसतिया कौन है ! अनुराग जी पानी के बतासे खिलवाकर भुलावे में उगलवान चाह रहें कि जैसे ही तीखा लगे और फुरसतिया जी पानी मांगे तो पानी का गिलास दूर से दिखला- दिखला के कहें कि पहले बताओ फुरसत का राज क्या है ? आलम यह है कि उनके यहां टिप्पणी में में एक सज्जन कह रहे हैं कि --आज कि आपकी पोस्ट आपके नाम को सार्थक नहीं कर कर रही—मानो जवाब मॆं धोखे से वे गुप्त रहस्य पर से पर्दा उठा बैठेंगे !
अब वैसे फुरसतिया तो कम अरुण भाईसा भी नहीं हैं देखिए न इतनी फुरसत में कि प्यारे से डागी के सजीलेपन की ओर हम सब गैरफुरसतियों का ध्‍यान दिलवा रहॆं है! अब कुत्ते तो कई हमारी गली में भी घूमते हैं और उनमें से दो एक सजीले भी हैं पर हममें कभी इतना फुरसतियापा होता तो वे सजीले सुकुमार हमारी भी काव्य प्रेरणा बन पाते ! वैसे आलोक जी से बडा फुरसतिया कौन होगा – जिस चीज में हम ऎब निकाल- निकाल कर रोंते हैं वे हर उस चीज में मजा ढूंढ लेते हैं! हमें तो भएया रोने को भी वक्त कम पड जाता है और वे हैं कि हंसते हैं और हंसाते भी है ! अब प्रमोद भइया का फुरसतपना उनसे ससुर कुछ भी लिखवा बैठता है ! यहां तक कि बकरी की लॆंडी उनकी रचना प्रेरणा का मूल आधार ही है! वे जड- मूल पर लिखते हैं , गहरा और मौलिक ! बकरी जैसी निरीह और सुकुमार प्राणी का महत्व प्रतिपादन करने की फुरसत वह भी इस आपाधापी के युग में निश्चय ही वे सच्चे फुरसतिया होंगे ! मोहल्ला तो फुरसत में ही चलाया जा रहा सामूहिक प्रयास है वरना कौन अपने दरवाजे से निकलकर दो मिनट गली मोहल्ले में रुकता है आजकल ! हमारा तो हाल यह है कि अपने ही विचार इकट्ठे नहीं कर पाते और मोहल्ला इतने सारे विद्वानों की अमृतवाणी संजोकर आ घमकता है और वह भी बिना नागा ! अब ज्ञानदत्त जी को ही देखो बेहद बिजी भारतीय प्लेटफार्म पर बैठकर ही वे कितनी फुरसत से अपने मन में हलचल होने देते हैं !वैसे हलचल तो हमारे मन मंदिर में भी होती है बहुत , पर क्या करें जब तक फुरसत में आते हैं मन शांत हो चुका होता है और आप सब एक बेहतरीन- लाजवाब पोस्ट से वंचित रह जाते हैं! उत्तराखंडियों की फुरसत बहुत ही सामयिक है जिस दिन भी उन्हॆं फुरसत होती है भुगतना हमें पडता है जनाब और यदि उस दिन हमारा चिट्ठाचर्चा की ड्यूटी हुई तो भगवान ही जानता है कि हमें अपनी काहिली पर कितनी शर्मिंदगी होती है !
वैसे मुझे अब लग रहा है कि पोस्ट अब कुछ ज्यादा ही लंबा गई है क्या मैं भी फुरसतिया हो गई हूं ? बिलकुल मुमकिन है जनाब !फुरसत पर बात करना कोई हंसी ठट्ठा नहीं है और जिसके भीतर फुरसतिया नहीं है वह तो कभी फुरसत पर अपनी लेखनी चला ही नहीं सकता ! यह वक्त की कमी या ज्यादती का सवाल नहीं है यह तो मूल्य है जिसे आज बहुत कमतर समझने वाले समय मॆं हम जी रहे हैं और ब्लॉगरी कर रहे हैं ! नेतागिरी , चमचागिरी , भाईगिरी , गुंडागिरी सब बने बनाए सेट रास्तों को छोड ब्लऑगिरी – आह ! तो आइए न पूछें फुरतिया जी से उनकी फुरसत का राज और ढूंढें अपने- अपने भीतर -- फुरसतिया -----एक असल फुरसतिया !

Monday, June 25, 2007

तो हाजिर है हिंदी ब्लॉगिंग पर मेरे शोध के परिणाम


क्या है ब्लॉगिंग

ब्लॉग़िंग ऎसी खोह है जामे सब खो जात
मनसा वाचा कर्मणा, जीवन वहीं बितात

ब्लॉगिंग ऎसी बानी है निसदिन करें बलात
यदि उच्चारें लोक में, बहुतहि मार हैं खात

ब्लॉगिंग के आनंद का कछु होत न सकत बखान
कहिबै कू सोभा नहीं करत ही मिलत परमान

फुरसत की यह लेखनी फुरसत मॆं पढी जाय
जबरन पाठक ढूंढि के , जबरिया जाई पढवाय

ब्लॉगित जाति से तात्पर्य

लोक जगत के सज्जन सभी मिलि मिलि यहां बतियात
टिप्पणी टिप्पणी खेलिके , हरतु परस्पर ताप

ब्लॉगर ऎसी जाति है जामें बहुत उपजाति
मैचिंग वाणी उवाचिए बैठिए एक ही पांति

ब्लॉगर ऎसा जीवडा जाके सिर नहीं पांव
कौन जाने किस नाम से कौन कहा कहि जाए

ब्लॉगिंग करि करि जग मुवा पापुलर भया न कोय
सबतें प्रेम ते भेंटिऐ , इंडिबलॉगिज कहलाय

गूंगे की यह सर्करा(चीनी) मन ही मन मुस्काय
और पूछें तो प्राणी यह सकत नहीं समझाय

ब्लॉगिंग का भविष्य एवं दिशा

ब्लॉगिंग करन जो मैं चला मन अकुंठ होय जाय
न जाने किस वॆश में खुद से खुद मिलि जाय

शुभ -शुभ मंगल लिखि- लिखि सहृदय को सहलाएं
जाकि अमंगल लेखनी तुरत ही गाली खाय

यह ब्लॉग का पंथ कराल महा तलवार की धार पे धावनो है
साचे ब्लॉगर चलें तजि आपनपौं(अहम)झिझकें कपटी जे निसांक (निश्शंक) नहीं
तुम कौन सी पाटी(पाठ) पढे हो लला लिखो ढेर पै पढत छटांक नहीं
गहे सत्य यहां निसिवासर ही उचरें सुरवाणी , अपवाद नहीं


कुछ सावधानियां

ब्लॉगिंग उतनी कीजिए कायम रहे कुटुंब
ब्लॉगराइन की व्यथा को दूर करें अविलंब


टारच गहि गहि सर्च किए ब्लॉगिंग के गुन - दोस
गुन दोसन की पोटली सम है यही संतोस


सर्च बहुत ही कीन्ही हम उत्तर बहु -बहु पाय
निष्कर्षन की पावती बहुविध दीन्हीं सुना

Wednesday, June 20, 2007

पल्‍लू के साए में राष्‍ट्रपति भवन

जब से मेरी सासू मां ने सिर पर पल्लू लिए प्रतिभा पाटिल की तस्वीर को टी वी – अखबारों में देखा है तब से वे अपने तजुर्बों और पूर्व कथनों की विजय गाथा गा पा रही हैं ! एक परंपरागत ,लज्जाशीला , मर्यादावाहिनी ,कुल -सेविका नारी –सिर पर आंचल माथे पर सिंदूरी बिंदी –अहा कैसी पवित्रता से भरी एक आदर्श भारतीय स्त्री-छवि ! पहले वे कहा करती रही हैं कि “ देखो सामने वाली डाक्टरनी को सिर पर आंचल लिए क्लीनिक जाती है सिलाई - कढाई सब जानती है, एक तुम आज कल की बेहयाई से सिर उघाडे घूमने वाली बहुएं जिन्होंने आजादी के नाम पे तबाही मची हुई है “!..... आज फिर एक बार उनकी दबी आवाज कडक हो उठी है प्रतिभा जी !

तो मैं आज जहां से चली थी फिर वहीं आ पहुंची हूं ! जाने क्यूं एक कवि लिख गए –पढिए गीता बनिए सीता , फिर किसी मूर्ख की हों परिणीता , भौंह कंटीली आंखें गीली , घर की सबसे बडी पतीली भर कर भात पसाइए........! सिर पर आंचल लिए दांत की पकड से उसे गिरने से बचाती घर बाहर के काम सवांरती आम भारतीय स्त्री ! जहां सब स्त्रियां एक सी हैं किसी का कोई अलग नाम नहीं अस्तित्व नहीं साडियां ही बताएंगी कि उनमें किसकी पत्नी या किसकी बहू लिपटी है.........
साडी का अपना समाजशास्र है , सिर पर पडे पल्लू का अपना अलग..... पर्दे पर उघडी “स्त्री” देह घर में साडी में ढकी “नारी” ! कितनी विराट खाई दो छवियों में , उन छवियों के नियंता समाज के द्वंद्वों में ... वैसे द्वंद्व भी कहां हैं न ? ये समाज तो विरुद्धों का सामंजस्य करने में हमेशा से माहिर रहा है ! कैसा द्वंद्व ...? अलग –अलग मकसदों के लिए इस्तेमाल होती स्त्री छवि , जिसे बनाने - तोडने में जुटी थकती - हारती - जीतती करोडो भारतीय औरतों का बिखरा हुआ संघर्ष ! घर-बाहर दोंनो दुनियाओं की आदर्श छवियों के मायाजाल में फडफडाती ....

प्रतिभा जी , आपके सिर पर पडा साडी का आंचल देश के नागरिकों को आश्वस्त करने वाला है ! यह सदियों से पाले - पोसे गए पुरुष अहम की आग पर पानी के ठंडे छिडकाव सा दिलासा देता सा है ! शीर्ष पर स्त्री है पर है तो हमारी गढी हुई छवि के साथ ही न ! ममत्व , सहनशीलता , पुरुष के वरद हस्त के सम्मान की भावना जो इस स्त्री चित्र से उपजती है कैसा निराला सामाजिक प्रभाव होता है उसका – ये प्रभाव सामंतीय मन को ढांढस दिलाता है ! दूसरी ओर नएपन के चक्कर से उगे औरत की आजादी - बराबरी वाले खयाल भी उपजाता है कि “ हम एक आधुनिक समाज हैं " !समाज का ये अर्जित संतोष , ये ग्लानि भाव से मुक्ति केवल ऎसे ही तो संभव थी मेरी सखी ! हमारी ये छवि हमारी भी कितनी बडी सहायिका है ऎसे ही तो हम आश्‍वस्ति हासिल करती हैं कि “ नहीं हम लुच्ची नहीं हैं , आजादी के मानकों का ईमानदारी से इस्तेमाल कर रहीं हैं ....और देखो तुमने हमपर जो विशवास किया हम योग्य थीं उसके ..” !.... एक मर्दवादी समाज के मन को तुम ही संभाल - समझ सकती हो , समाज की भावना को , अहम को लगातार तुम ही बल देती चल सकती हो हे स्त्री ! यूं भी अपने इस रूप में तुम देवत्व का अहसास दिलाती हो इसी दैवीय रूप के सहारे ही तो तुम शोभा पाती हो हर जगह ..और शीर्ष पर भी अपने इसी रूप के आधार पर बुरी नहीं लग रही हो.......

छोडिए जाने दीजिए प्रतिभा जी, यह आपके सिर पर पडे पल्लू का राष्ट्र के नाम संदेश नहीं है .....यह तो मेरे खामखां के विचारों का बहाव भर है ! ये तो वह मुगलकालीन परंपरा है जिसका आप पालन कर रही हैं और यूं भी खुद को कडी धूप से बचाने के लिए भी तो सिर पर रखा जाता है न आंचल ! बाहर तो कडी धूप कहर बरसा रही है और सुना है कि राजनीति की धूप भी काफी तेज होती है...........

Thursday, May 31, 2007

एक चिडि़या....अनेक चिडि़या

दूरदर्शन पर अक्‍सर यह कार्टून व गीत आता था। बचपन में मैं इस गीत को बेहद पसंद करती थी। आप लोगों में से भी कुछ को यह जरूर याद होगा। पिछले दिनों यू-ट्यूब पर यह दिखा तो जैसे स्‍मृतिओं का उफान सा आ गया और मैं सहज ही इस गीत को गुनगुनाने लगी। देखा तो बिटिया को भी यह पसंद आ रहा था, ठीक वैसे ही जैसे हमें आया करता था। लीजिए पेश है...एक चिडि़या ...अनेक चिडि़या


Friday, May 25, 2007

ठेले पर हिमालय

वर्षों पहले भारती का यह निबंध पढ़ा था जिसका केंद्रीय भाव यह था कि हिम ही तो हिमालय के सौंदर्य का आधार है। और सच ही है, हिम की धवलता ही हिमालय को उसका रहस्‍य उसका आकर्षण प्रदान करती है। इसलिए हाल के हमारे किन्‍नौरी अनुभवों में सबसे ऊपर इसी हिम का आकर्षण है। हिम का प्रथम दर्शन सरहन के निकट शुरू हुआ और फिर लगातार बना रहा। आप भी देखें-


Wednesday, May 02, 2007

सिर्फ चरसी लौंडे लौंडियां ही नहीं हैं देश में.....

अभी पिछले दिनों लैंसडाउन जाना हुआ ! वहां के नैसर्गिक प्राकृतिक सौंदर्य के कई विवरण सचित्र आपने यहां देखे, एक, दो, तीन, चार, पॉंच किस्‍तों में ! जब कमल शर्मा जी हम सबसे पूछ रहे थे कि इन चरसी लौंडे लौंडियों का क्या करे देश ठीक तभी लैंसडाउन में गढवाल राइफल्स में सैनिकों की भर्ती के लिए कच्ची उम्र के युवकों का जमावडा लगा हुआ था ! ये सभी खेतिहर घरों के युवक थे जहां खेती से खाना जुटाना तक दुशवार होता है ! सारे लैंसाडाउन में बिखरे ये युवक, पहाड़ की रात बाहर खुले में ही बिताने वाले थे.....अगले चार दिनों तक। इनके लिए गावों में रोजगार नहीं है पर्यटन भी इन्हें रोजगार नहीं दे सकता क्योंकि इन्हें पहाड से मातृत्व मिलता है उससे पैसा कमाने का सबक इन्हें अपने पुरखों से नहीं मिला है ! अपने अभावों को अभाव भी मानना इन्हें नहीं आता ! पहाड ही इन्हें सिखाता है अपने संसाधनों पर रश्क न करना , उसी सीमितता में जी जाना , अडिग आस्था के साथ ! यहां जीवन प्रकृति से है बाजार से नहीं ! उसी प्रकृति से जो साल में एकाध बार हमें अपनी ओर खींच लेती है..... पर हमारी महानगरीय आस्था और बाजार का पाश हमें दोबारा खींच लाता है इन शहरों में ........





चारों ओर ये युवक कमर पर छोटे- छोटे बैग टांगे घूमते दिखाई दे रहे थे ! हमने जिस भी आंख में झांका उत्साह की मणिमय चमक ही दिखाई दी ! उन आंखों में सपने थे , उन चेहरों पर तेज था , उनकी पतली -लंबी कायाओं में पहाड की पैदा की हुई फुर्ती थी ! बारहवीं का इम्तहान देकर यहां जुटे ये पहाडी बेटे चारों ओर बिखरे थे ! एक छोटे समूह से हमने बात की तो पता चला कि कल इनकी भर्ती प्रक्रिया का पहला टेस्ट होगा ! आखिरी टेस्ट में केवल कुछ सौ चुने जांएगे जबकि यहां आए युवकों संख्या पांच- छ्ह हजार है ! पहले दौर में सौ- सौ युवकों को एक साथ दौडना होगा और छांटे गए युवकों को आगे की शारीरिक परीक्षाओं से गुजरना होगा ! उन युवकों की मजबूत देह और निष्कलंक कोमल चेहरे देखकर अपने शहराती नवयुवक याद आए ! पीजा हट ,बरिस्ता , मेकदोनाल्ड , मालों की सीडियों पर या फिर पार्कों में बैठे फिल्मी प्रेम दृश्यों को साकार करते , पार्टियों में उमडे उधडे ये नवयुवा जिनके लिए देश , साहित्य , समाज ,संस्कृति, भावनाओं का कोई मूल्य नहीं है ! वे सिर्फ बाजार द्वारा इस्तेमाल के लिए पैदा किए गए जीव हैं जिनके लिए खुद से ऊपर जहान में न कुछ है और वे मानते हैं कि न कभी हो सकता है !...... नहीं .......हम अपना ध्यान झटक देते हैं !


तो इन नन्हों की जीवनी शक्ति पर रहेंगे हम सुरक्षित , देश की सीमाएं बनी रहेंगी ! ये पहाड को बचाए रखेगे ताकि हमारे मैदान बचे रहें ! इनमें से पता नहीं कौन कब बलिदान दे जाएगा अपना बिना हमारे जाने ....हम कभी पता नहीं जान पाएंगे कि आज हमारे लिए इनमें से कौन शहीद हो गया.......... ..हम जस -के -तस जिऎगे ........जीते जाऎगे........ जब तक कि किसी गंदी बिमारी , सडक दुर्धटना या फिर किसी आत्म हत्यारे खयाल का शिकार नहीं हो जाऎगे........हम जीते जाऎगे .........और ये हमारी चरसी लौंडे लौंडियों की खरपतवार..........इसे बढाते जाऎगे.........