अर्चना तुम तो अपराजिता थीं ..
पिछले बारह सालों से 31 दिसम्बर की रात और 1 जनवरी की सुबह मेरे भीतर गहरे अवसाद को पैदा करती आ रही हैं । वह 1 जनवरी 2002 की वह स्याह सुबह । दिल्ली यूनिवर्सिटी की रीडस लाइन के सरकारी मकान के पंखे से झूलती तुम्हारी देह । जब गई रात पूरा शहर और तुम्हारा सूरज अपने दोस्तों के साथ जश्न में डूबा था तुम अपने दर्द की गहरी नदी में डूब रही थीं । एकदम अकेली ।
और बार बार यह सब एक बदशकुन सपना लग रहा था । पर ये सच था कि सपनीली आंखों वाली ,मंद मंद मुस्काने वाली खामोश सी लड़की अर्चना अब अपने परास्त मन की कहानी कहने से बेहतर आइ क्विट की शैली में हमें छोड़कर जा चुकी थी । दुनिया को नहीं पता था कि युनिवर्सिटी की आर्ट्स लाइब्रेरी के आहातों में एक दलित लड़के सूरज् से एक ब्राहमण लड़की का प्रेम गुपचुप पनप रहा था । पर तुम्हारे जानने वाले जानते थे कि यह चुपचाप सी दिखने वाली लड़की कितना बड़ा कदम उठाने जा रही है । परम्परा से , जाति से , परिवार से , तुम्हारे शांत विद्रोह के हम चंद गवाह आज तुम्हारे बहुत बड़े गुनहगार हैं ।
जो तुम्हारे लिए प्रेम था वह उस लड़के के लिए उपलब्धि थी । जिसे तुम भावना समझती रही वह उस लड़के के लिए गणित था । जिसे तुम विद्रोह और क्रांति समझ रही थी वह उस लड़के के लिए सदियों पुरानी कुंठा की जीत से ज्यादा कुछ नहीं था ।
जो तुम्हारे लिए प्रेम था वह उस लड़के के लिए उपलब्धि थी । जिसे तुम भावना समझती रही वह उस लड़के के लिए गणित था । जिसे तुम विद्रोह और क्रांति समझ रही थी वह उस लड़के के लिए सदियों पुरानी कुंठा की जीत से ज्यादा कुछ नहीं था ।
ओह ! तुमने कभी भी तो नहीं बताया ।
तुम तो हर बार मिलती और बस धीमे से मुस्कुरा जाती थीं बस ।
हम दोस्त तुम्हें डोली में बैठाकर लौट गए थे कि चलो आज समाज की दूरियों को कुछ तो कम कर पाए हम । हम जिस सपनों भरी दुनिया में जी रहे थे वहां बस प्यार जायज था बाकी के सब बंधन नाजायज , बेमानी और फालतू थे ।
काश तुम परम्परा और सामती दीवारों में घुटते प्रेम के बारे में कुछ तो बताती हमें । शायद तुम्हें अंत तक कोई उम्मीद रही होगी । शायद तुम्हें अंत तक बंजर में ओई कोंपल फूटने की आस बंधी होगी । शायद तुम हर दिन मौत को कायरता और हार मानकर दुरदुराती रही होंगी ।
हम दोस्त तुम्हें डोली में बैठाकर लौट गए थे कि चलो आज समाज की दूरियों को कुछ तो कम कर पाए हम । हम जिस सपनों भरी दुनिया में जी रहे थे वहां बस प्यार जायज था बाकी के सब बंधन नाजायज , बेमानी और फालतू थे ।
काश तुम परम्परा और सामती दीवारों में घुटते प्रेम के बारे में कुछ तो बताती हमें । शायद तुम्हें अंत तक कोई उम्मीद रही होगी । शायद तुम्हें अंत तक बंजर में ओई कोंपल फूटने की आस बंधी होगी । शायद तुम हर दिन मौत को कायरता और हार मानकर दुरदुराती रही होंगी ।
जिस जमाने से तुम नहीं डरी थीं वह जमाना तुम्हारा उपहास बनाने के लिए तैयार बैठा था कहीं तुम्हें यह तो नहीं लगा अर्चना ? ........काश कि तुम कभी तो कुछ कहतीं ।
अब बस घिसटते हुए कोर्ट केस की फाइलों में दफ्न कुछ पन्ने बचे हैं पास हमारे ।
फोटोस्टेट पन्ने ।
तुम्हारी किताबों और एम .ए के नोट्स के हाशिए पर तुम्हारे लिखे वाक्य ।
इन शब्दों में कैद तुम्हारी तकलीफ ,तुम्हारी अंत तक जूझने की कहानी ।
हमारे लिए ये सब कथाएं बोतल में बंद जिन्न की तरह हैं । इनके कैद से छूटते ही न मालूम कितने भयावह सवाल आसपास् बिखर जाएंगे ।
............. नए साल की जो सुबह दुनिया के लिए नई उम्मीदें और सपने लाने वाली होती है वह तुम्हारे लिए अंधियारी ,डारावनी और आखिरी -अकेली रात बनकर क्यों रह गई।
एक अंतहीन रात ।
12 साल से किसी नए साल की नई सुबह ने यह जवाब नहीं दिया ! मैं शर्मिंदा हूं अर्चना ।
फोटोस्टेट पन्ने ।
तुम्हारी किताबों और एम .ए के नोट्स के हाशिए पर तुम्हारे लिखे वाक्य ।
इन शब्दों में कैद तुम्हारी तकलीफ ,तुम्हारी अंत तक जूझने की कहानी ।
हमारे लिए ये सब कथाएं बोतल में बंद जिन्न की तरह हैं । इनके कैद से छूटते ही न मालूम कितने भयावह सवाल आसपास् बिखर जाएंगे ।
............. नए साल की जो सुबह दुनिया के लिए नई उम्मीदें और सपने लाने वाली होती है वह तुम्हारे लिए अंधियारी ,डारावनी और आखिरी -अकेली रात बनकर क्यों रह गई।
एक अंतहीन रात ।
12 साल से किसी नए साल की नई सुबह ने यह जवाब नहीं दिया ! मैं शर्मिंदा हूं अर्चना ।
किसी नई सुबह की किसी पहली किरण के मिल जाने के इंतजार में.................. ।