Sunday, October 28, 2007

ओ$म सुपर सेक्सी कालाय नम:

आज जमाना सुपर फास्ट हो गया है ! जब से हमने उस सुप्रीम पावर वाले भगवान की सुपीरियोरिटी के भगोने में छिद्र कर दिया है तब से हम सुपर उन्मुक्त हो चले हैं ! सुपर बाजार से सामान खरीदते हैं , सुपर सफेद कपडे पहनते हैं ,सुपर्ब सुपर्ब कहकर अपने सौंदर्यबोध को जाहिर करते हैं ! अब किसी हिंदी फिंदी वाले से मत पूछ लिया जाए कि भैया मतलब समझत हो स्सुपर का ! बेचारा वह अपने सुपर साहित्यिक लहजे मॆं हडबडिया सुपरफिशियल जवाब दे डालेगा _सुपर माने सुन्दर पर !हे हे !! इस सुपर सांइंटिफिक जमाने  में ऎसे सुपर बेकवर्ड को कोई तो उबारो रे ! खैर हम तो कह यह रहे थे कि भैया आजकल सुपर सेल मॆं कुछ भी माल लगा दो और बेचो _बस ये ध्यान रखो कि माल के सुपर एट्रेक्टिव कवर पर सुपर लफ्ज जरूर लगा हो !

अब आजकल के गानों को ही देख लो ! हर सुपर सेड्यूसिव गाने मॆं सुपर सेक्सी नायक नायिका गण गा रहे होंगे "आय एम सुपर सेक्सी , य़ू आर सुपर सेक्सी " ! अब सेक्स भी सुपर की गारंटी के पैकेज में है जिससे मिले सुपर सेटिस्फेक्शन ! सेटिस्फेक्शन जो सुपर बाजार से सुपर शापिंग करने या सुपर रिन की चमकार मारते कपडों को पहनने के समतुल्य ही है ! ये वो सेटिस्फेक्शन है जो सुपर सेक्स काड्यूट गाते नायक नायिका वृंद से इतर हर दर्शक के सुपर कांप्लेक्सिटीज से भरे मन की आकुल व्याकुल पुकार है ! हर उघडी नायिका सुपर डांस के सुपर एक्टेव झटके मारती कह रही है सिर्फ मुझे ही पाओ क्योंकि मैं ही हूं सुपर सेक्सी !वात्स्यान मुंह सिकोडे खडे हैं रीतिकाल के कविगण अपने कथित अश्लील काव्य को सुच्चा साबित कर पा रहे हैं ! वहां सब कुछ शास्त्रीय था - पर नायक का परनायिका से प्रेममिलन या संभोग रस की कोटि का गायन ! ये सुपर कॉंवेश्नल काल बीत चुका ! अब जमान है हर गली मॆं सुपर सेक्स और सुपर सेक्सी की धूम का !  सुपर सेक्स का रसाभास करो और इस नाम की भूतनी या भूत से डसे जाओ ! अब सब कुछ सुपर हॉट है !  मौका हो हो या सेल हो गाना हो या खेल हो सब कुछ है सुपर सिजलिंग ! 

बाजार रूपी थाली में हरएक के लिए खास तौर पर सजा अर्ध्य _ 'भागो और भोग लो!   " कर्म का भोग भोग का कर्म "-  ये कौन बोला रे ? अब बोलो- भागकर भोग कर लो कर्म करो तो सिर्फ भोग का !  ओ सुपर सेक्सी युग के  सुपर नॉटी  बालक-बालिकाओ !! गांठ बांध लो सुपर टाइट क्यॉकि यही है आज का सुपर मंत्रा !!बोलो ओ$म सुपर सेक्सी कलाय नम: ..!!'

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Saturday, October 27, 2007

अगर मुन्नी न हो तो?

मुन्नी मेरी बेटी या पास पडोस की किसी साफ सुथरी सी राज दुलारी का नाम नहीं है यह नाम है मेरे घर में काम करने वाली पन्द्रह सोलह साल की लडकी का ! मुन्नी अपने बहुत  काले रंग की आलोचना बहुत बेरहमी से करती है ! अपने खुरदरे हाथों बिवाइयों से भरे पैरों की ओर देखकर अक्सर हंसती हुई कहती है "वाह क्या किस्मत देकर भेजा है भगवान ने हमें " पर अगले ही पल कहने लगती है "पर भाभी दुनिया में सभी तो परेशान हैं ! पैसे वाले तो और भी ज्यादा हर समय डरते हैं मोटापे से ,गंदगी से कामवाली के छुट्टी कर लेने से -अजीब अजीब चीजों से परेशान रहते हैं "!  मुन्नी के जीवन दर्शन के आगे मैं अपनी थकावट और वक्त की कमी से हुई झंझलाहट को बहुत थुलथुली महसूस करने लगती हूं !मुन्नी महीने में सिर्फ चार दिन नहीं आती है! छुट्टी करने से पहले ही वह हर घर में बता देती है ! पर एक दो घरों में वह छुट्टी के दिन भी आकर कामकर जाती है! जब मैंने पूछा कि वह ऎसा क्यों करती है तो उसने बताया कि इससे उसे महीने के चार सौ रुपये और मिल जाते हैं ये उसके अपने होते हैं इसे मां को नहीं देना होता ..!  

मुन्नी हर सुबह अपनी मां के साथ ठीक 6 बजे आ जाती है !मां बेटी मिलकर कई घर निपटाते हैं _सफाई ,बरतन और कपडों की धुलाई ,गमलों को पानी देने ,फ्रिज साफ करने जैसे कई काम निपटाती हुई शाम को 7 बजे तक घर जाती है !मुन्नी के पिता दिनभर सोसाइटी के बाहर रिक्शा लेकर खडे रहते हैं और सोसाइटी की महिलाओं को आसपास के बाजारों तक पहुंचाने का काम करते हैं ! मुन्नी कई घरेलू महिलाओं के घरों का काम करती है !  मुन्नी अक्सर बुडबुडाती हुई काम करती है "फलां नंबर वाली आंटी मुझे नाश्ता क्या करा देती हैं अपमना गुलाम ही समझने लगती हैं ,जब चाहे बुला लेती हैं फालतू काम कराती हैं ! पर भाभी मैं मना नहीं कर पाती क्योंकि एक बार मेरे पेट में दर्द हुआ था तो उन्होंने अपने पैसो से इलाज कराया था अल्ट्रासाउंद के पैसे भी लगाए मुझपर.." !

मुन्नी अक्सर हंसती रहती है ! वह अखबार की सनसनीखेज खबरों पर बातें करते हुए झटपट काम निपटाती चलती है ! फिल्मों पर खासकर हाल ही में देखी फिल्म के सामाजिक संदेश पर अपनी राय देती बरतनों की जूठन हटाती चलती है ! वह अक्सर थकी होती है पर जब मेरी हडबडी और व्यस्तता और थकावट देखती है तो फौरन  आराम करने या दवा ले लेने की सलाह दे डालती है !मुझे पता है ,उसे भी पता है कि उसके एक दिन न आने पर मेरी दिनचर्या बुरी तरह प्रभावित हो जाती है -अखबार अधपढी रह जाती है या फिर कॉलेज के लिए क्लास की तैयारी पूरी नहीं हो पाती है या नेट देवता और ब्लॉग देवता के दर्शन तक नहीं हो पाते हैं या किसी एक वक्त का खाना खाने के लिए आसपास के भोजनालयों का मैन्यू टटोलना पडता है !   

कभी कभी मैं सोचती हूं कि अगर वह और अधिक समझदार हो गई तो धीरे धीरे वह समझने लगेगी कि बौद्दिक ,रचनाशील ,क्रंतिकारी और संधर्षशील स्त्रियों के इस समस्त कुनबे के बने रहने में उसका कितना हाथ है !

अक्सर वह मुझे कंप्यूटर पर काम करते देखती है और अक्सर जानना चाहती है कि मैं कंप्यूटर पर क्या करती रहती हूं !  सो पिछ्ले दिनों  मैंने उसे अपना ब्लॉग दिखाया और अपने काम के बारे में बताया ! उसने तारीफ के भाव से ब्लॉग को देखा , ब्लॉग पर लगी मेरी फोटो को सराहा ! फिर उसने बहुत रहस्य भरे लहजे में बताया कि उसका बडा भाई भी काफी समय से कंप्यूटर की एक दुकान पर काम कर रहा है और कंप्यूटर  काफी कुछ सीख चुका है ! उसकी आंखों में चमक और आवाज में उमंग थी वह बोली -"  भाभी मैं भी अपने भाई से कहकर अपनी फोटो कंप्यूटर पर लगवाउंगी ताकि मुझे भी दुनिया देख सके जैसे आपको देखती है पर क्या लिखूंगी कैसे लिखूंगी  ये नहीं पता ........."! मुन्नी काफी देर गहरी सोच में डूबी रही ......मेरे मन ने कहा कि मुन्नी जो तुम कह सकती हो वह मैं नहीं इसलिए तुम लिखो... .....मुन्नी ने अभी तक नहीं लिखा है पर मैंने लिख दिया है ...उसके बारे में !मैं अक्सर सोचती हूं कि अगर मुन्नी न हो तो.....?

Wednesday, October 24, 2007

क्या है जिंदगी क्या हो जिंदगी

जिंदगी कितनी एब्सर्ड हो चली है इसका अंदाजा कभी कभी ही लग पाता है ! नौकरी की भागमभाग ,सडकों का ट्रेफिक ,संबधों की उलझन ,भविष्य की चिंता ,पानी बिजली फोन के बिलों , बच्चों की पढाई और भी सैकडों कामों- तनावों -हडबडियों के बीच जीते हम ! वक्त पैसा और लगन की त्रयी के बिना कहां हो पाता है जीवन रूपी नाटक का एक भी अंक पूरा ! हम रोज सोचते हैं कि शायद आज का ही दिन ऎसी हडबडी और रेलमपेल का आखिरी दिन था -कल तो जरूर सुकून का दिन आएगा और हम अपने अधूरे छूट गए कामों को कर पाऎगें ! पर ऎसा सुकून का दिन तलाशना एक दिवास्वप्न सा लगने लगता लगता है ! तारे गिनने , उगते सूरज को देखने ,बादलों की बनती संवरती छवियों को निहारते चले जाने या कि खुद से बात करने के बीच शोर है बाजार है, घडी है , गाडियां और बिल्डिंगें हैं !

इस मोबाइल जीवी युग के प्रणेता हम लाभ-हानि, कर्म-अकर्म , अहमन्यता-सामाजिकता का व्याकरण बिना चूके रट लेना चाहते हैं ! मैं- मेरा -मुझे की लगन मॆं डूबा मन बाजार को अपना सबसे बडा हितैषी गुरू मानता है !  गडबडी ,जल्दबाजी ,ठेलमठाली के मंत्र के बिना भी क्या श्हर में रहा जा सकता है ?यहां हमेशा बेहतर चुनाव करना होता है ! यहां के गणित को हमेशा अन्यों से अधिक गहराई से समझते रहना होता है ! यहां प्रगति और विकास के व्यक्तिगत पाठों को लगातार पढते चलना होता है ! यहां समाज ,सामाजिकता ,सामाजिक नैतिकता , सामाजिक निष्ठा जैसे आउटडेटिड लफ्जों पर सिर्फ हंसना होता है ! जयशंकर प्रसाद की इडा का हर तरफ बोलबाला है ..कहां है श्रद्धा ? नहीं श्रद्धा को ढूंढना बेमानी है ! वह हमारे भीतर ही तो है ! पर हम नहीं सुनेंगे उसकी आवाज ,क्योंकि वह जो कुछ कहेगी उसे हम बहुत अच्छे से वाकिफ हैं पर वह वाकिफ नहीं इस सच से कि हम ट्रैप्ड हैं जिस सांस्कृतिक दुष्चक्र में वहां केवल वही सर्वाइव करेगा जो सबसे ज्यादा निष्ठुर होगा  ! श्रद्धा !! तुम्हारी आवाज सुनने के लिए जो दो पल ठहरे तो कुचले जाऎगे पीछे आने वाली भीड के पैरों तले..!

तो आज हमारे पास  बहाने हैं, वाजिब कारण हैं ,लधुता का बोध है , जिनके आगे हम लाचार हैं ! सो वही केवल वही कर पा  रहे हैं जिससे कि केवल जीवन चलता रहे सकुशल ! कोई बडा सपना कोई बडा संघर्ष ,कोई बडा जज्बा नहीं जिसके लिए हमारे भीतर बची रह गई हो थोडी निष्ठा ,थोडा सा समर्पण ..! क्या हम कभी नहीं चुन पाऎगे अपनी पसंद की हवा ..सांस लेने के लिए और क्या अब हम कभी नहीं महसूस पाऎगे अपने खंडित व्यक्तित्व को....!

जिंदगी की इस एब्सर्ड एकांकी का कोई तो सार्थक, ओजमय ,कर्ममय निष्कर्ष पाना होगा ...!!

Thursday, October 04, 2007

दिल दोस्ती ऎट्सेक्ट्रा ..वाया सेक्स दुश्मनी ऎट्सेक्ट्रा...

dil1

"क्या तुम एक ही दिन में तीन लडकियों से कर सकते हो "--

-प्रकाश झा की फिल्म दिल दोस्ती ऎटसेक्ट्रा के पात्र संजय मिश्रा के द्वारा अपने मूल्य विभ्रमित जूनियर अपूर्व से पूछे गए इस सवाल से फिल्म शुरू होती है!

यह फिल्म दिल्ली युनिवर्सिटी की पृष्टभूमि में आज के नवयुवा की जिंदगी के पहलुओं को दिखाने का प्रयास है ! फिल्म में होस्टल लाइफ की उन्मुक्तता , भारतीय युवा की नव -अर्जित सेक्स फ्रीडम ,विश्वविद्यालयी राजनीति ,दोस्ती कुंठा सब कुछ है ! ये वह माहौल है जहां भारतीय युवा अपने क्लास कांसेप्ट से जूझने के दौरान अपने लिए किसी रास्ते की तलाश में जुटे हैं !  फिल्मकार ने दिल्ली के नवधनाढय और धनाढय तथा बिहार से आए छात्रों के बहाने आधुनिक भारतीय समाज की वर्ग संरचना और मूल्य संघर्ष को दिखाया है ! 

यह फिल्म अपनी बनावट में बहुत बडें लक्ष्‍य को लेकर नहीं चली है ! किसी भी पात्र से बहुत आदर्शात्मकता की dil2उम्मीद नहीं की गई है !  फिल्म की संवेदना को उभारने के लिए कोई बडा प्रतीक नहीं उठाया गया है ! अपूर्व और संजय मिश्रा इन दो चरित्रों के विपरीत जीवन दृष्टिकोणों के फिल्माकंन के बहुत सामान्य पर बहुत सटीक तरीके अपनाए हैं फिल्मकार ने !

अपूर्व अपने हाइक्लास पिता से पैसा लेकर कोठे पर जाता है ! वह कहता है कि   - "मेरे लिए कॉलेज और कोठे में फर्क करना मुश्किल हो गया है "  ! वह वैशाली नाम की वेश्या से जिस संबंध में स्वयं को पाता है  उसकी व्याख्या वह नहीं कर पाता है ! न ही स्कूली छात्रा किंतु से सेक्स संबंध स्थापित करने में वह प्यार जैसे किसी मूल्य की जरूरत को मानता है ! वेश्यालय में टंगी भगवान की मूर्ति को मोड कर सेक्स क्रिया में रत होता है जिसपर वेश्या वैशाली को बहुत ताज्जुब होता है !

dil3 संजय मिश्रा अपनी जातीय अस्मिता और अपनी मध्यवर्गीय मूल्य संरचना को संभाले रहने वाला पात्र है ! वह स्वंय को एक अति संपन्न सहपाठिनी प्रियंका से प्रेम और समर्पण की स्थिति में पाता है और अपने इस संबंध अपने भविष्य और लक्ष्‍य को लेकर एकाग्र है ! जबकि प्रियंका अपने पिता के संपर्कों के सहारे मॉडल बनना चाहती है !उसके लिए सेक्स शरीर की जरूरत है न कि कोई प्रेम का प्रतीक या मूल्य ! वह संजय से अपने प्रेम को लेकर श्योर है न ही वह अपने दोस्त अपूर्व से काम संबंध बना लेने को किसी भावना से जोडकर देखती है!

फिल्म अपने ट्रेजिक ऎंड में अपनी इस उत्तरआधुनिक स्थिति को दिखाती भर है - कोई मूल्य निर्णय नहीं थोपती ! संजय मिश्रा के लिए कॉलेज एलेक्शन जीतना प्रेम को समर्पण भाव से करना और कैरियर बनाना है जबकि अपूर्व को संजय के चुनाव के दिन तक तीन लडकियों से संभोग कर लेना है जिसकी शर्त वह अपने दोस्तों से पहले ही लगा चुका है !अपूर्व संभोग करता है संजय की प्रेमिका प्रियंका से ! संजय चुनाव जीतता है- दोस्ती और प्रेम के इस रूप को स्वीकार नहीं कर पाता और मृत्‍यु को प्राप्‍त होता है ! ....

यह फिल्म दो परिस्थितियों की टकराहट है दो वर्गों और उनकी मूल्य दृष्टि की टकराहट है ! यहां दिल प्रेम की वस्तु नहीं दोस्ती निभाने की वस्तु नहीं ! यहां अवसर , शरीर की जरूरत, सेक्स में भोग और दुश्मनी है !

अंतत: संजय नहीं रहता और कोठे पर जाने वाला और एक ही दिन कमें तीन लडकियों से सेक्स करने वाला अपूर्व जीता है और सेक्स और सेक्स मॆं नएपन की तलाश में डांसबारों और पार्टियों में भटकता है !.....

Wednesday, October 03, 2007

मेरी पहचान मुझे लौटा दो ब्‍लॉगवालो

ब्‍लॉगिंग की दुनिया के डाइनासोर तो नहीं हैं हम, पर एकदम नए भी नहीं रहे। साल भर होने को आया। बड़ा तो नहीं है पर गलतफहमी पाले रहते हैं कि छोटा सा नाम तो है ही। ब्‍लॉग शोधार्थी हैं, ब्‍लॉगर भी। पर एकाएक गड़बड़ हो गई लगता है। गड़बड़ यह है कि हमारा नाम चोरी हो गया है। साफ साफ समझाया जाए-

ये नारद पर नीलिमा की लिखी पोस्‍टों के लिए कैप्‍चर्ड छवि देखें-

name swap

देखा आपने ये हमारी तस्‍वीर जिन पोस्‍टों के साथ दिख रही है वे हमने नहीं लिखीं वे तो एक अन्‍य ब्‍लॉगर साथी  नीलिमा सुखिजा अरोरा ने लिखी हैं। ऐसा नहीं है कि केवल नारद से ही यह गड़बड़ हुई, चिट्ठाजगत पर नीलिमा लेखक की प्रविष्टियॉं के लिए छवि ये है-

name chittha

यानि वहॉं भी हम दो नीलिमाओं की पहचान गड्डमड्ड है। यूँ इसमें दोष किसी का नहीं है, सिवाय इस बात के कि तकनीक इन दो नामों से भ्रमित हो रही है। और नारद ने अति उत्‍साह में हमारी तस्‍वीर जो उनके पास हमारे दो ब्‍लागों के कारण पहले से ही थी, नीलिमा सुखिजा जी के ब्‍लॉग को हमारा तीसरा ब्‍लॉग मानकर चस्‍पां कर दी और फिर ईमेल किए जाने पर भी किसी कारण हटा नहीं पाए। इस प्रकरण में हमें वो स्‍कूली दिन याद आए जब एक ही कक्षा में कविता, सीमा जैसे नाम एक ये ज्‍यादा होने पर फर्स्‍ट, सेकेंड कहकर काम चलाते थे पर वो तो यहॉं शायद हो नहीं सकता पर जो हो सकता हो किया जाए पर पहचान के इस घालमेल को खत्‍म करो भई।