मुझे अपने हाथ पर उनका स्पर्श शायद कभी नहीं भूलेगा ! उम्र के ढलते पडाव पर पहुंची उस स्त्री को सहारा चाहिए था ! किसी अनजान चेहरे पर भी अपनापन खोजती उनकी आंखें दुनिया की रफ्तार और अपने शरीर की जर्जरता से ठिठकी सी थीं ! अपने ही घर के आगे की सडक उनके लिए नई ,तेज और बेफिक्र थी जिसे पार कर उन्हें ठीक सामने कुछ कदम की दूरी पर बनी इमारत के गेट तक जाना था ! जब मुझे रोकर उन्होंने पूछा - " बेटा क्या तुम्हारे पास दो मिनट का वक्त है मुझे बहुत ज़रूरी काम से सामने के गेट तक जाना है ?" मुझे पहली बार अहसास हुआ कि भागती दौडती जिंदगी को अपने सामने देखकर इस जर्जर होती उम्र को कैसा अहसास होता होगा ! हर मिनट की वसूली कर लेने वाली नई पीढी के वक्त की अहमियत के आगे खुद को व्यर्थ और भार समान मानने वाली बडी पीढी किस बूते जीती रह पाती होगी ? मैं उन वृद्धा के साथ चलती हुई भूल गई थी कि तेज कदमों से हांफती हुई मैं किस काम से जा रही थी ! झुकी पीठ से धीरे-धीरे चलती हुईं , आंखों में स्नेह भरे वे कह रही थीं --बेटा जुग जुग जियो , जो भी काम करो ईश्वर तुम्हें उसमें सफलता दे , सदा खुश रहो बच्ची ..." ! उन वृद्धा के हाथ को पकडे और उनके मुख से निकलने वाले आशीर्वचनों को सुनते हुए एक पल को लगा था कि जैसे मैंने उनका नहीं उन्होंने मेरा हाथ थामा हुआ है !
मुझे अचानक याद आई वो झडपें जो मेट्रोरेल के सफर में अक्सर हो जातीं हैं ! हट्टे कट्टे नौजवान ,कान में मोबाइल का हेड फोन लगाकर फिल्मी गानों की धुन पर पैर थिरकाते ,च्विंगम चबाते सामने खडे बेहद वृद्ध व्यक्ति को अनदेखा कर 'केवल वृद्धों के लिए' आरक्षित सीटों पर जमे रहते हैं ! उनसे वृद्धों को सीट देने की गुज़ारिश करने का अर्थ होता है " मैडम आपको क्या परेशानी है " सुनने के लिए तैयार रहना ! मैं प्रतिदिन डेढ घंटे का मेट्रो सफर करती हूं पर कभी किसी वृद्ध को अपने लिए सीट मांगते नहीं देखा ! शायद सामाजिक जीवन में संवेदनशीलता की कमी का अहसास उन्हॆं है और शायद वे सम्मान से जीना चाहते हैं ! पर जब कभी कोई यात्री अपनी सीट छोडकर उन्हें बैठने को कहता है तो उस समय उनके चेहरे पर सहूलियत की खुशी से ज़्यादा इस बात की राहत होती है कि जीवन और जगत में अभी भी इंसानियत बची है और उनके मुख से सीट छोडकर उठ जाने वाले व्यक्ति के लिए आशीर्वचन निकलने लगते हैं ! पर खुद बखुद सीट छोड देने वाले संवेदनशील यात्री बहुत कम मिलते हैं ! मेरे एक परिचित भी कभी -कभी मेरे साथ यात्रा करते हैं ! एक बार उन्होंने अपनी सामाजिक व्यवहार कुशलता की डींग हांकते बताया कि मेट्रो में सीट मिलते ही वे आंखें बंद करके पीछे की दीवार से सिर टिकाकर बैठ जाते हैं और अपने स्टेशन के आने पर ही आंख खोलते हैं जिससे सीट छोडने की नौबत ही नहीं आती !
आज का वक्त किसी के लिए भी रहमदिल नहीं है ! अगर हम तेज़ रफ्तार ज़िंदगी के साथ भाग नहीं सकते तो अपने लिए जीवन के साधन नहीं जुटा पाऎंगे ! महंगाई की मार, ट्रेफिक की मार ,बॉस की मार और नए नए सुख साधनों की बाढ से उमडे बाज़ार की मार ! इच्छा ,लोभ ,लाभ ,मोह स्वार्थ के लफडों की भरमार ! अपने जीवन को जैसे-तैसे मैनेज करता व्यक्ति अपनी ऊर्जा का एक एक कतरा प्रयोजनवाद के दर्शन से खर्च करना चाह्ता है ! ऎसे माहौल को हतप्रभ देखती वृद्ध पीढी की ओर देखने का वक्त किसी के पास नहीं ! मैं सोच रही थी ऎसे में सुबह के साढे सात बजे किसी युवा व्यक्ति से दो मिनट की सहायता मांगना किसी वृद्ध के लिए कितना हिचक भरा हो सकता है ! पर सडक पार जाकर लौट आने में सहायता करने के लिए उन वृद्धा का हाथ पकडकर चलना मेरे लिए वक्त की मार से उबरने का एक मौका था ! वे बहुत आत्मीयता और प्रेम से अपने दिल की बात कह रही थीं - ' इस बुढापे में अब मौत से बिल्कुल डर नहीं लगता ! डर लगता है इस ज़िंदगी से ! घर में तो मैं चल लेती हूं पर बाहर निकलती हूं तो टांगें कांपती हैं ,इसलिए मैं घर से निकलती ही नहीं.... "! ईश्वर धर्म और आस्था के सहारे मृत्यु का इंतज़ार ही क्या हमारे बुज़ुर्गों के लिए बच गया काम है ? शायद सामाजिक जीवन में भागीदारी में बुजुर्गों के आत्मविश्वास को उनके प्रति हमारी उपेक्षा ने ही पैदा किया है ! अभी पिछ्ले दिनों सुना कि पडोस के एक स्कूल में ग्रैंड-पेरेंट्स डे मनाया जाता है जिसमें बच्चे को अपने दादा-दादी और नाना नानी को स्कूल लाना होता है ! अच्छा लगा कि संरचनाओं के किसी कोने में तो पीढियों में संवाद कायम रखने की फिक्र बची है ! उत्सव के दिन ही सही दादा-दादी का महत्व अपने पोते पोतियों को स्कूल बस तक छोडकर आने से अधिक माना गया है ! पर हम साफ देख सकते हैं कि प्रेमचंद की 'बूढी काकी' का सीमांत अस्तित्व आज शायद और अधिक सीमा पर धकेल दिया गया है !
बाहर की यह आपाधापी कितनी त्रासद ,कितनी निर्दय और कितनी चुनौती भरी है इसका अंदाजा उस वृद्ध स्त्री और उन तमाम वृद्ध जनों की आंखों में पढा जा सकता था जिनसे मैं अपने रोजमर्रा के सफर पर मिली हूं ! जो घर ,गलियां ,शहर और देश यौवन में उनके अपने थे आज वक्त की तेज़ रफ्तार में उनके हाथ से छिटककर उनकी पकड से बहुत दूर निकल गए हैं ! केन्द्र में सजधज है हाशियों पर अंधेरा है ! गलियों, बाजारों और मीडिया में उमडते यौवन का आक्रामक रूप अपनी जडों के प्रति पूरी तरह उदासीन दिखाई देता है ! पीढियों के बीच बढती संवादहीनता हमारे अतीत और जडों को सुखा रही है !! अपनी वृद्ध पीढी के प्रति हमारा यह रवैया बना रहा तो वह दिन दूर नहीं जब विद्यालयों में बच्चे "वृद्धों की उपयोगिता" पर निबंध लिख रहे होंगे !