Tuesday, August 26, 2014


उन उंचाइयों  की  गिरावट 

पांच - छह साल की थी तो अक्सर ऊंची मंजिल से जमीन पर आकर धड़ाम गिरती थी सपने में और जब झटके से आंख खुलती तो खुद को जिंदा पाकर हैरानी व खुशी होती ! तब खत्म हो जाना या नहीं रहना क्या है शायद ही पता था पर जिंदा होना क्या है यह अवश्य अच्छे से पता चल चुका होगा ! स्कूली जीवन में गणित में फेल हो जाने का सपना अक्सर आ जाता था और उस दिन सुबह आंख खोलकर उठते हुए जिल्लत का काहिली का तीखा अहसास होता ! लगता जिसे हिसाब नहीं आता उसके लिए दुनिया का कौन सा दरवाजा खुल पाएगा ? बाद में समझ आने लगा कि ये दोनों ही तो सपने एक ही सा डर बयान करते हैं ! कैल्कुयुलेश्न और जीवन  का गहरा नाता अगर आप नहीं समझना चाहते तो जमाने की ठोकरे आपको मजबूर कर देती हैं कि आप भी इस गहरे नाते के नाते के महत्त्व को मानें वरना जीवन भर ऊंचाई से गिरने और गणित में फेल हो जाने के सपने देखते रहें ! 
कभी कभी जीवन के अनुभव यह अहसास कराने के कोशिश करते हैं कि व्यक्ति के कर्म व पुरुषार्थ जीवन  के उधर्वमुखी विकास के नियामक तत्त्व  नहीं हैं वरन वास्तविक नियंत्रण तो उस प्रयोजनवादी और उपयोगितावादी प्रवृत्ति का है जिसको अर्जित करने की प्रेरणा के उदाहरण चारों ओर बिखरे हुए हैं ! इस अवसरवादी समीकरणजीवी  युग में लाभ-हानि, कर्म-अकर्म , व्यष्टि -समिष्टि का व्याकरण मानो हमारे समाजीकरण  के हर अनुभव से मिल रहा है !  मनुष्य के भीतर के संघर्ष को जयशंकर  प्रसाद ने इड़ा व  श्रद्धा के बीच का  आदिम  संघर्ष कहा है ! बुद्धि और भावना के इस आदिम विरोध को साधने की पीड़ा न उठाकर मनुष्य बुद्धि के माहात्म्य के  आगे  एकनिष्ठ समर्पण करने को  तत्पर है ! बिना भावना के  निरंकुश बुद्धि प्रतियोगिता व  प्रतिस्पर्धा  के लिए उकसाती है ! इस दौड़ में आगे निकलने  के लिए खड़ी भीड में  भी केवल वही सफलता की  तथाकथित उंचाइयां पाएगा जो  सबसे  अधिक  निर्मम ,प्रयोजनवादी , लक्ष्यकेन्द्रियत यानि कुल  मिलाकर सभी समीकरणों का सबसे सटीक हिसाब लगाने  योग्य  होगा ! दरअसल व्यक्ति की यह विडम्बनापूर्ण स्थिति  सफलता व  प्रगति  की फर्जी व लकीरबद्ध परिभाषाएं  अपनाने के कारण उत्पन्न हुई है ! इस  प्रगति  व उंचाई के लिए व्यक्ति इसी उपरोक्त दृष्टिकोण के कारण  नीच  साधनों और शैलियों को  अपनाने से भी कोई गुरेज  नहीं  करता ! साधन व साध्य की उत्कृष्टता व पवित्रता का  कोई परस्पर  सहसंबंध आज  हम  स्वीकार नहीं  करना चाहते क्योंकि हमारे  लिए मात्र परिणाम ही  मायने  रखता  है ! उस परिणाम तक  पहुंचने  के  लिए  कितनी निकृष्टता , कितने समझौते या कैसे भी समीकरणों को अपनाने पड़ॆं - जीवन की जंग  में विजयश्री का महत्त्व  है ! इस प्रतिस्पर्धात्मक परिवेश में जीवन केवल गणित बन  जाता है आस्थाविहीन और श्रद्धाविहीन ! गणित के सूत्र रटना और अमल में  लाना ! जीवन  के गणित में इतनी महारत हासिल  हो  जाना  कि कोई संवेदना  या  मूल्य उस कैल्क्युलेश्न के मार्ग  को  बाधित  न  कर  पाए ! मस्तिष्क , बुद्धि और इड़ा मिलकर मानवता के विकास के पैमाने भी  तय  करें  व मार्ग  भी ! भावना  , संवेदना मनुष्य  की समस्त  कोमल  वृत्तियां भीतर के  अज्ञातवास में ही  रहें !
किंतु इस जीवन  दृष्टि से ,  इस गणित से और प्रयोजनवाद से हासिल उंचाइयां खोखली व एकांगी होती  हैं ! इन उंचाइयों पर चढ़ते हुए व्यक्ति अपना समस्त सफलता ,  योग्यता और श्रेष्ठता के बने - बनाए खांचों में अपने मौलिक व्यक्तित्व को ढालने  की चुनौती में  उलझा  रह  जाता है जो अक्सर  एक डर का  रूप ले  लेती  है ! ये डर जीवन को लगातार नियंत्रित करने का प्रयास करता है ! परंतु जिस  क्षण हम  इस  भेड़्चाल की  संस्कृति  के  पाश  से  खुद  को  मुक्त  करने   का  साहस  करते  हैं  हम  पर  रखा  समस्त  बोझ तत्क्षण  उतर  जाता  है !  हम  स्प्ष्ट देख  पाते  हैं अपना  मार्ग  और  अपना  लक्ष्य ! बिना  गणितीय जटिलताओं  वाला सहज  संगीतमय आस्थामय जीवन जिसमें अपराधबोध ,आत्मा का  दमन या नैतिक दुविधा नहीं ! उंचाइयों का  कोई व्यामोह या तथाकथित विकास  की कोई  मृगमारीचिका  नहीं , कोई  विकृति भी  नहीं  ! आज मुझे वे बचपन  के भयावह  सपने नहीं आते तो इसलिए नहीं कि मैंने हिसाब-  किताब सीख लिया है बल्कि इसलिए नहीं आते कि मैंने ऎसी केल्क्युलेशंस से हासिल होने वाली ऊंचाइयों और उनसे पैदा होने वाली गिरावट को समझ लिया - ' मुझे नहीं चाहिए उन शिखरों की ऊंचाई , मुझे उन ऊंचाइयों से डर लगता है,.... 

Saturday, August 02, 2014



खुद की परछाइयों के हवाले क्यूं मैं खुद को करूं
खुद की खुद से खुदाई से मुलाकात अभी बाकी है 

उन्हें क्या मिल गया ये रंजो रश्क क्यों हो मुझे
रुह के अमन चैन के सवालात अभी बाकी हैं

उन इमारतों में इन इबारतों में बहुत खोजा तुझको
ढल गया दिन यूं ही पर वस्ल की रात बाकी है

ठहर गए पानियों में ये जो अक्स दिखता है
ग़ुज़री होंगी किश्तियां जज़्बात अभी बाकी हैं

आ गले मिल कि ये मौसम न बदल जाए कहीं
आ लगा लौ कि ये कायनात अभी बाकी है