आपका वास्ता कभी न कभी तो ऎसों से पडा ही होगा जिनके लिए दुनिया उन्हीं से शुरू होकर उन्हीं पर खत्म होती है ! वैसे आप टालने के लिए कह सकते हैं कि नहीं जनाब कभी नहीं ,पर हम समझ जाएंगे कि आप हमें टरका रहे हो ! खैर आपका अनुभव चाहे जो हो हमारा तो यह साफ -साफ देखना रहा है कि जहां भी कोई छोटा सा स्ट्र्क्चर खडा होता है वहां आनुपातिक तौर पर कुछेक मैंवादी किस्म के जन अपने मवाद के साथ आ खडे होते हैं ! कोई नहीं जानता कि बकरी और बिल्ली से इनकी पहली मुलाकात कैसे हुई परंतु इनके मुख द्वारा उच्चरित ध्वनियां इन अनाम टीचरों की याद अवश्य दिलाती है! इन शिष्यों की पहचान यह होती है कि संरचना के हर कोने पर ये अपनी छाप बनाने के लिए किसी भी किस्म की जेहमत उठाते हैं ! ये मानकर चलते हैं कि इनके पास दुनिया का सबसे अकाट्य तर्क होता है और इनके कुतर्क-शास्त्र के हर पन्ने पे दुनिया के महान तर्कों को काटने की अचूक विधाओं का जिक्र रहता है !ये मवादी जन अपने नाजुक कंधों पर सारे जग का भार ढोए चलते हैं और चलते चलते बीच- बीच में गा उठते हैं- "न था कुछ तो मैं था कुछ न होगा तो मैं रहूंगा ' ....
वैसे हमारे सरकारी दफ्तरों में ऎसे जन बहुतायत में मिलते हैं आप काम पड्ने पर इन दफ्तरों में जाते हैं तो ये आपकी ओर इस भांति नजर उठा कर देखॆगे मानो आप दुनिया के दीनतम प्राणियों में से एक हों इनकी काम में व्यस्त आखें अपको इस कदर घूर सकती हैं मानो कह रहीं हों कि आप ही दुनिया के सबसे फालतू इंसान हो जिसे खुदा ने धरती के कामों में विघ्नकारी तत्वों के रूप में पैदा करके छोड दिया है ! इस प्रकार के जरूरी किस्म के इंसानों की सारी एनर्जी इस बात में खर्च होती है कि बढिया चीजों का क्रेडिट उन्हें ही मिले और लोग उनके होने को सिस्टम का एक बडा सौभाग्य मानें ! इन प्राणियों की टांगे जरूरत से ज्यादा लंबी और अनुभवी होती हैं यानि इन्हें पता होता है कि किस बात पर कहां कितनी लंबी टांग अडाए जाने से इच्छित फल की प्राप्ति होगी !
सरकारी महकमों के कमरों में बैठे कई छोटे बाबुओं ने हमें हमारी औकात बताई है और छोटे कामों के लिए इतने चक्कर कट्वाए हैं कि हम अंततः अपनी गफलत को दूर कर लें और मानने लगें कि किसी भी काम को छोटा नहीं समझना चाहिए ! यूं ही नहीं न बदीउज्जमां को खुद सरकारी अफसर होते हुए भी सरकारीतंत्र के चूहों पर , चूहेमारी पर और सारी संरचना में एक रचनात्मक - सीधे- सादे व्यक्ति की अदनी स्थिति पर लिखना पडा ! वे लिख गए कि कैसे सिस्टम में सिर्फ मैंवादी ही बचा रहता है चूहा बनकर और जिसने चूहेपन के खिलाफ जाकर लोहा लिया , बेनाम हो जाता है ! इसी से मैंवादियों का इतना बोलबाला दिखाई देता है और चारों ओर उनका मवाद भी सडांध पैदा करता है !
रचनात्मकता की भूमि पर भी एक से एक मैंपने के मुरीद आ बैठे हैं जिनका मानना है कि रचनात्मकता का सारा जिम्मा मां शारदा ने उनके कंधों पर ही डाल दिया है और अब वे यथाशक्ति इस दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं प्रत्येक रात्रि को मां उनके स्वप्न आकर सृजनात्मक जगत की सारी खबरें लेती है जिससे सुबह उठकर वे साहित्य और कला जगत के मल को साफ कर अपने होने की सार्थकता पर सीना फुलाए डोलते हैं ! चिट्ठा जगत की वर्चुएलैटी में भी ऎसे "अगर हम न होते तो तुमहारा क्या होता ?" मार्का मैंवाद का फन फैलाए खडे स्वयंसिद्ध गिद्ध हो सकते हैं जिन्हें ये लग सकता है कि ये चिट्ठा जगत उनसे है ...... लेकिन यहां तो अंत तक वही होगा जो समर्पित रचनाकार होगा , अन्य कोई नहीं......
वैसे हमारे सरकारी दफ्तरों में ऎसे जन बहुतायत में मिलते हैं आप काम पड्ने पर इन दफ्तरों में जाते हैं तो ये आपकी ओर इस भांति नजर उठा कर देखॆगे मानो आप दुनिया के दीनतम प्राणियों में से एक हों इनकी काम में व्यस्त आखें अपको इस कदर घूर सकती हैं मानो कह रहीं हों कि आप ही दुनिया के सबसे फालतू इंसान हो जिसे खुदा ने धरती के कामों में विघ्नकारी तत्वों के रूप में पैदा करके छोड दिया है ! इस प्रकार के जरूरी किस्म के इंसानों की सारी एनर्जी इस बात में खर्च होती है कि बढिया चीजों का क्रेडिट उन्हें ही मिले और लोग उनके होने को सिस्टम का एक बडा सौभाग्य मानें ! इन प्राणियों की टांगे जरूरत से ज्यादा लंबी और अनुभवी होती हैं यानि इन्हें पता होता है कि किस बात पर कहां कितनी लंबी टांग अडाए जाने से इच्छित फल की प्राप्ति होगी !
सरकारी महकमों के कमरों में बैठे कई छोटे बाबुओं ने हमें हमारी औकात बताई है और छोटे कामों के लिए इतने चक्कर कट्वाए हैं कि हम अंततः अपनी गफलत को दूर कर लें और मानने लगें कि किसी भी काम को छोटा नहीं समझना चाहिए ! यूं ही नहीं न बदीउज्जमां को खुद सरकारी अफसर होते हुए भी सरकारीतंत्र के चूहों पर , चूहेमारी पर और सारी संरचना में एक रचनात्मक - सीधे- सादे व्यक्ति की अदनी स्थिति पर लिखना पडा ! वे लिख गए कि कैसे सिस्टम में सिर्फ मैंवादी ही बचा रहता है चूहा बनकर और जिसने चूहेपन के खिलाफ जाकर लोहा लिया , बेनाम हो जाता है ! इसी से मैंवादियों का इतना बोलबाला दिखाई देता है और चारों ओर उनका मवाद भी सडांध पैदा करता है !
रचनात्मकता की भूमि पर भी एक से एक मैंपने के मुरीद आ बैठे हैं जिनका मानना है कि रचनात्मकता का सारा जिम्मा मां शारदा ने उनके कंधों पर ही डाल दिया है और अब वे यथाशक्ति इस दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं प्रत्येक रात्रि को मां उनके स्वप्न आकर सृजनात्मक जगत की सारी खबरें लेती है जिससे सुबह उठकर वे साहित्य और कला जगत के मल को साफ कर अपने होने की सार्थकता पर सीना फुलाए डोलते हैं ! चिट्ठा जगत की वर्चुएलैटी में भी ऎसे "अगर हम न होते तो तुमहारा क्या होता ?" मार्का मैंवाद का फन फैलाए खडे स्वयंसिद्ध गिद्ध हो सकते हैं जिन्हें ये लग सकता है कि ये चिट्ठा जगत उनसे है ...... लेकिन यहां तो अंत तक वही होगा जो समर्पित रचनाकार होगा , अन्य कोई नहीं......