Saturday, August 02, 2014



खुद की परछाइयों के हवाले क्यूं मैं खुद को करूं
खुद की खुद से खुदाई से मुलाकात अभी बाकी है 

उन्हें क्या मिल गया ये रंजो रश्क क्यों हो मुझे
रुह के अमन चैन के सवालात अभी बाकी हैं

उन इमारतों में इन इबारतों में बहुत खोजा तुझको
ढल गया दिन यूं ही पर वस्ल की रात बाकी है

ठहर गए पानियों में ये जो अक्स दिखता है
ग़ुज़री होंगी किश्तियां जज़्बात अभी बाकी हैं

आ गले मिल कि ये मौसम न बदल जाए कहीं
आ लगा लौ कि ये कायनात अभी बाकी है

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