Wednesday, October 24, 2007

क्या है जिंदगी क्या हो जिंदगी

जिंदगी कितनी एब्सर्ड हो चली है इसका अंदाजा कभी कभी ही लग पाता है ! नौकरी की भागमभाग ,सडकों का ट्रेफिक ,संबधों की उलझन ,भविष्य की चिंता ,पानी बिजली फोन के बिलों , बच्चों की पढाई और भी सैकडों कामों- तनावों -हडबडियों के बीच जीते हम ! वक्त पैसा और लगन की त्रयी के बिना कहां हो पाता है जीवन रूपी नाटक का एक भी अंक पूरा ! हम रोज सोचते हैं कि शायद आज का ही दिन ऎसी हडबडी और रेलमपेल का आखिरी दिन था -कल तो जरूर सुकून का दिन आएगा और हम अपने अधूरे छूट गए कामों को कर पाऎगें ! पर ऎसा सुकून का दिन तलाशना एक दिवास्वप्न सा लगने लगता लगता है ! तारे गिनने , उगते सूरज को देखने ,बादलों की बनती संवरती छवियों को निहारते चले जाने या कि खुद से बात करने के बीच शोर है बाजार है, घडी है , गाडियां और बिल्डिंगें हैं !

इस मोबाइल जीवी युग के प्रणेता हम लाभ-हानि, कर्म-अकर्म , अहमन्यता-सामाजिकता का व्याकरण बिना चूके रट लेना चाहते हैं ! मैं- मेरा -मुझे की लगन मॆं डूबा मन बाजार को अपना सबसे बडा हितैषी गुरू मानता है !  गडबडी ,जल्दबाजी ,ठेलमठाली के मंत्र के बिना भी क्या श्हर में रहा जा सकता है ?यहां हमेशा बेहतर चुनाव करना होता है ! यहां के गणित को हमेशा अन्यों से अधिक गहराई से समझते रहना होता है ! यहां प्रगति और विकास के व्यक्तिगत पाठों को लगातार पढते चलना होता है ! यहां समाज ,सामाजिकता ,सामाजिक नैतिकता , सामाजिक निष्ठा जैसे आउटडेटिड लफ्जों पर सिर्फ हंसना होता है ! जयशंकर प्रसाद की इडा का हर तरफ बोलबाला है ..कहां है श्रद्धा ? नहीं श्रद्धा को ढूंढना बेमानी है ! वह हमारे भीतर ही तो है ! पर हम नहीं सुनेंगे उसकी आवाज ,क्योंकि वह जो कुछ कहेगी उसे हम बहुत अच्छे से वाकिफ हैं पर वह वाकिफ नहीं इस सच से कि हम ट्रैप्ड हैं जिस सांस्कृतिक दुष्चक्र में वहां केवल वही सर्वाइव करेगा जो सबसे ज्यादा निष्ठुर होगा  ! श्रद्धा !! तुम्हारी आवाज सुनने के लिए जो दो पल ठहरे तो कुचले जाऎगे पीछे आने वाली भीड के पैरों तले..!

तो आज हमारे पास  बहाने हैं, वाजिब कारण हैं ,लधुता का बोध है , जिनके आगे हम लाचार हैं ! सो वही केवल वही कर पा  रहे हैं जिससे कि केवल जीवन चलता रहे सकुशल ! कोई बडा सपना कोई बडा संघर्ष ,कोई बडा जज्बा नहीं जिसके लिए हमारे भीतर बची रह गई हो थोडी निष्ठा ,थोडा सा समर्पण ..! क्या हम कभी नहीं चुन पाऎगे अपनी पसंद की हवा ..सांस लेने के लिए और क्या अब हम कभी नहीं महसूस पाऎगे अपने खंडित व्यक्तित्व को....!

जिंदगी की इस एब्सर्ड एकांकी का कोई तो सार्थक, ओजमय ,कर्ममय निष्कर्ष पाना होगा ...!!

5 comments:

36solutions said...

कहां है श्रद्धा ? नहीं श्रद्धा को ढूंढना बेमानी है
यही यदि वापस आ जाए तो लगभग लगभग सारी समस्‍या का हल निकल आएगा । यह आयेगा सर्मपण से पर इसके लिए चाहिए समय।

Atul Chauhan said...

जिन्दगी वाकई अब कोल्हू के बैल कि तरह हो गयी है। अच्छा विचार मन्थन है। चलो कोई तो ठीक से सोच रहा है,वरना अपने को तो टाईम ही नहीं है।

DUSHYANT said...

jindagi to ek paheli hai, it should be taken as it comes, sab kuchh nishchit karke kahan tak chal sakte hain hum.

मीनाक्षी said...

कहां है श्रद्धा ? नहीं श्रद्धा को ढूंढना बेमानी है ! वह हमारे भीतर ही तो है ! पर हम नहीं सुनेंगे उसकी आवाज -----

नई पीढ़ी का चिंतन - आजकल यह सोच है लेकिन भीतर भीतर फिर भी कही जीवन के मूल्य और आस्था ज़िन्दा है.

Udan Tashtari said...

जिंदगी की इस एब्सर्ड एकांकी का कोई तो सार्थक, ओजमय ,कर्ममय निष्कर्ष पाना होगा ...!!


-यह सोचा है तो होना भी चाहिये. कभी साईड ट्रेक होने में भी बुराई नहीं. कम से कम कुचलने से बच जायेंगी और मन की भी हो लेगी.

सभी जुटे हैं इस दौड़ मे तो..कोई तो थमें.