एक मुलाकात
तख्ती डॉट कॉम पर प्रकाशित मेरा एक साक्षात्कार -
हिंदी साहित्य की गहन अध्येता एवं संवेदनशील कविमना व्यक्तित्व, नीलिमा चौहान "आँख की किरकिरी" एवं "लिंकित मन" और "चोखेरबाली" ब्लॉगों के माध्यम से हिंदी ब्लॉगोस्फियर में विशेष उपस्थिति रखती हैं। विभिन्न हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में लेखों और कहानियों के जरिए रचनात्मक योगदान के साथ स्त्रीवादी तेवर के कविता लेखन के लिए चर्चित नीलिमा चौहान, दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन सांध्य महाविद्यालय में ऎसोसिऎट प्रोफेसर के रूप पठन-पाठन से सम्बद्ध हैं। उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश: # नीलिमा जी... आप शिक्षिका है, साहित्य में विशेष रूचि रखती हैं, बराबर लिखती-पढ़ती रहती हैं, आप दोनों ही भूमिकाओं में क्या कोई अंतर्विरोध महसूस करती हैं...? - नहीं मुझे यह अंतर्विरोध की स्थिति नहीं लगती बल्कि मैं तो स्वयं की ऎसे शिक्षक के तौर पर कल्पना भी नहीं कर सकती जो लेखन रचनात्मक कार्यों में रुचि न रखता हो। अध्यापन कोई एकांगी कार्य नहीं है। अपने अध्यापकीय व्यक्तित्व को, अभिव्यक्ति को लगातार धार देने के लिए यह जरूरी है रचनात्मक या आलोचनात्मक लेखन किया जाए। एक सक्रिय शिक्षक ही जिंदा शिक्षक है। ऎसा महसूस करती हूँ। हाँ, समय को नियोजित करने की दिक्कतें जरूर आती हैं पर लेखन की जिद के कारण यह सामंजस्य भी बैठा लिया जाता है। # निश्चित तौर पर एक रचनात्मक शिक्षक वर्तमान समय से जरूरी कन्टेन्ट उठाकर अपने छात्रों को सही दिशा दे सकता है। क्या आपको लगता है कि, जिस समय में हम जी रहे हैं वहाँ शिक्षक और छात्रों के बीच जरूरी संवाद कम हुआ है, इसी तरह वर्तमान छात्र, शिक्षक को किस भूमिका में देखता है? - हाँ, कुल मिलाकर ही शिक्षा से संवाद गायब हो गया है। शैक्षिक मूल्यों में गिरावट आई है और पठन पाठन की प्रक्रियाओं में बहुत ही यांत्रिकता दिखाई देती है। शिक्षा का व्यावसायीकरण इतनी तेजी से हुआ है कि चाहकर भी अच्छे शिक्षक अच्छे तरीकों से नहीं पढ़ा पा रहे हैं। केवल परीक्षापयोगी तरीकों से पढ़ना-पढ़ाना कारगर समझा जा रहा है। बेहतर नागरिक, विवेकशील व्यक्ति और स्वस्थ मानसिकता का विकास करना अब शिक्षा का लक्ष्य नहीं रह गया है। ऎसे दौर में छात्र भी शिक्षक से यही उम्मीद करते हैं कि अधिक अंक लाने में शिक्षक उनकी सहायता करें। इस व्यावसायीकरण के चलते एक अच्छे शिक्षक की पहचान करने लायक समझ उनमें विकसित नहीं हो पाती है। उनके समक्ष एक दोस्त मार्गदर्शक प्रेरक के रूप में देखे जा सकने वाले शिक्षकों के उदाहरण कम ही होते हैं। इसलिए वे भी अपने शिक्षकों से बहुत अधिक की उम्मीद लेकर नहीं चलते। यह स्थिति निराशाजनक है, पर यही आज के शिक्षाजगत का यथार्थ बनता जा रहा है। # आपने बताया कि आप साहित्य की गहन अध्येता हैं, जिस दौर में आप पढ़ रही थी (एक छात्र के रूप में) तब साहित्य की दिशा वर्तमान साहित्य निश्चित रूप से भिन्न रही होगी... साहित्य के बदलते कलेवर, बदलते कथ्य और शिल्प को आप कितना सकारात्मक मानती हैं? क्या वाकई साहित्य को यथार्थ और आदर्श के मानकों पर चलना चाहिए? वर्तमान युवा पाठकों के सन्दर्भ में आप इसे किस रूप में ग्रहण करती हैं? - निश्चित तौर पर साहित्य के तेवर और कथ्य में बदलाव आया है। साहित्य के आदर्श और यथार्थ के मानकीकरण ध्वस्त हुए हैं। प्रयोगशीलता और परिवर्तन, साहित्य और भाषा दोनों की मूल चेतना में ही रहा है। 90 के बाद जिस गति से तकनीकी और सूचना क्रांति हुई उसका साहित्य पर असर डालना लाजमी था। संवेदना और उसकी अभिव्यक्ति को नए आयाम मिलना, जीवन की बढ़ती हुई जटिलताओं का साहित्य के साथ अंतर्क्रिया करना, भाषा व शैली का नयापन यह सब हम नए साहित्य में पाते हैं। मेरे विचार से साहित्य और समय की अंतर्क्रिया को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। भाषा के प्रवाह व शैलीगत संभावनाओं को तलाशना चाहिए। परम्परा के मोह में पड़कर साहित्य अपने समय के साथ न्याय नहीं कर सकता। विशुद्धतावाद का समर्थन मैं नहीं करती। यूँ भी नए व प्रयोगशील साहित्य का आस्वादन पूर्वधारणाओं से आजाद होने के बाद ही संभव है। युवा पाठक भी साहित्य में अपने समय को तलाशना चाहेगा। उसे क्यों निराश किया जाए। उसके जीवन का प्रतिबिंबन करने वाला साहित्य युगसापेक्ष साहित्य कहला सकता है। भाषा और स्तरीयता को इससे खतरा नहीं है बल्कि यह तो संभावनाओं की तलाश में बहुत दूर तक जाने के समान है और इस प्रक्रिया मॆं श्रेय और प्रेय (प्रिय) दोनों की रचना हो रही है। # नीलिमा जी... साहित्य का एक वृहद् दायरा है... वर्तमान साहित्य में विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों से उत्पन्न खीझ और तनाव, पारम्परिक स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का द्वन्द्व, हाशिए के लोग सब की भागेदारी बढ़ी है... जो जरूरी भी है, इन सबके बीच आप स्त्री मूल्य और स्त्री शक्ति की मनोदशा को कहाँ पाती हैं या इसे अभी भी एक संक्रमण काल ही माना जाय जो विस्तार की प्रक्रिया में है...? - वर्तमान साहित्य में स्त्री और हाशिए की सभी अस्मिताओं का स्वर मुखर हुआ है। इस सभी अस्मिताओं की आपसी टकराहट से पैदा हुई संवेदनाएँ भी नए साहित्य में दिखाई देती हैं। साहित्य में स्त्री पुरुष संबंधों की परम्परागत छवि धूमिल हुई है। स्त्री स्वातन्त्र्य और स्त्री अस्मिता पर केन्द्रित साहित्य प्रमुखता से रचा जा रहा है। स्त्री देह की स्वायत्तता, आर्थिक स्वतंत्रता उसकी बौद्धिक और रूहानी जरूरतों के प्रश्नों को संवेदना का आधार बनाने वाला साहित्य प्रकाशित हो रहा है। अभी स्त्री की यौनिकता जैसे प्रश्नों को उठाने का कम ही साहस दिखाई दे रहा है, शायद इसलिए कि भारतीय संदर्भों में अभी स्त्री के मौलिक अधिकारों की प्राप्ति भी एक दुर्गम लक्ष्य है तो दैहिकता और यौनिकता के सवाल गौण दिखाई देने लगते हैं। हाशिए पर केन्द्रित समस्त साहित्य स्त्री के जीवन संघर्ष और पीड़ा से रू-ब-रू करा रहा है। दलित साहित्य में भी दलित स्त्री अस्मिता का अतिदलित अस्मिताओं के संघर्ष को चित्रित किया जा रहा है। सामाजिक विषमताओं के सबसे निरीह शिकार के रूप में कई स्तरों पर संघर्ष करती स्त्री का बयान है यह साहित्य... इस लिहाज से साहित्य अपनी संवेदना में और गहराई और विस्तार पाने का प्रयास करता नजर आ रहा है # धीरे-धीरे ही सही, पर असहजता पूर्वक पुरुष भी यह स्वीकारते हैं कि पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं को लगभग उन सभी जरुरी आवश्यकताओं या कहें कि जरूरी परिवेश से वंचित रखा था जो उन्हें बेहतरी, ज्ञान और समानता के अवसर दिला सकते थे... आज महिला सशक्त दिखती है, मेरा सवाल इसी "दिखने" से है... क्या वाकई आपको लगता है की उतने बड़े स्वरुप में स्त्री अधिकारों या उनके पैरोकार पुरुषों ने ज़रा भी लचीला रुख अख्तियार किया है... सारे विमर्शों, बहसों की बीच कहीं मात्र यह सिर्फ लगने या दिखने का मामला है या फिर व्यावहारिक जीवन में भी कुछ सहजता आई है? - स्त्री के आजाद दिखने और आजाद होने में बहुत फर्क होता है। तमाम तरह की बंदिशों से, वर्जनाओं से, परम्पराओं की जकड़ से खुद को आजाद महसूस करना एक अलग ही अहसास है जिसे पाना बहुत मुश्किल है। इसलिए मुश्किल है क्योंकि हमारे समाज में स्त्री की जेंडर ट्रेनिंग इतनी मजबूत होती है कि एक स्तर से जयादा आजाद होने में स्त्री भी असहज महसूस करने लगती है। ज्यादातर तो यह आजादी दिखने मात्र की आजादी है। इस दिखने में बहुत सतहीपना है। खुलकर जीने के लिए सुरक्षित, सहज, मुक्त और बराबरी का माहौल पाने के लिए स्त्री को अपनी बहुत सी उर्जा लगानी होती है। पितृसत्तात्मक समाज इसका भरपूर प्रतिरोध करता है। वैसे भी हमारे समाज में स्त्री की गुलामी के जितने स्तर हैं उतनी ही तरह की आजादियाँ भी गढ़ ली गई हैं। किसी स्त्री के लिए दो वक्त का भोजन जुटा पाना ही आजादी है तो दूसरी स्त्री के लिए यौनिकता के दैहिक स्वतंत्रता आजादी है। विकास के अलग-अलग सोपानों वाले समाजों में स्त्री के अधिकारों और आजादी की लड़ाई का मतलब अलग-अलग होने के कारण ही शायद आजादी का असली मायना अभी तक गढ़ा नहीं जा सका है। स्त्री की आजादी के सवालों पर होने वाली सारी बहसें आखिरकार या तो किताबी जंग बनकर रह जाती हैं या फिर कभी कभार किसी आंदोलन की शक्ल ले लेती हैं। लेकिन एक आम स्त्री न बहसों से फायदा पा सकती है न ही आंदोलनों से। उसके लिए व्यावहारिक जीवन में पुरुषों की मुट्ठी में बंद दुनिया में अपने लिए साँस लेने लायक जगह बनाने का मुद्दा ज्यादा जरूरी होता है। मुझे लगता है हमारी शुरूआती शिक्षा में जेंडर ट्रेनिंग के कुछ सबक शामिल किए जाएँ। और पारिवारिक वातावरण बच्चों को आपसी उदारता और तालमेल तथा सम्मान से जीने की ट्रेनिंग लायक माहौल दे सकें तो स्त्री के लिए बेहतर समाज की कल्पना की जा सकती है। दिखने की आजादी तो एक भुलावा है, आजादी जब तक महसूस न की जा सके तब तक उसका होना एक वहम भर ही होता है। स्त्री की अजादी के पैरोकार पुरुषों को भी इस आजादी के लिए अपने भीतर के ट्रेण्ड मर्द से लगातार लड़ना होगा वरना स्त्री की आजादी का मतलब हमेशा से पुरुष का अपने अधिकारों का कुछ हिस्सा खो देना होता है। विमर्श के स्तर पर औरत की आजादी का पैरोकार आदमी निजी जीवन में भी स्वस्थ मन व मंशा से स्त्री की अस्मिता और आजादी का सम्मान करता हो यह कम ही पाया जाता है। # अभी हाल ही में दख़ल प्रकाशन से आपके द्वारा संपादित किताब 'बेदाद ए इश्क रुदाद ए शादी' प्रकाशित हुई है, जिसमें कुछ बागी प्रेमियों की कहानियाँ हैं.. इस अलग कन्टेन्ट की किताब को आप बतौर महिला किस तरह देखती हैं? क्योंकि तमाम वैवाहिक विसंगतियों के बीच पारम्परिक स्त्री-पुरुष एक तरह सेक्रीफाईज कर रहे होते हैं... घिसी-पिटे जुमलों पर जीवन कितना मुश्किल हो जाता है, बावजूद आज भी यही परम्परा है... यह किताब समाज में कोई मानक तय करना चाहती है या परम्परा से टकराव इसका मूल स्वर है? - स्त्री का प्रेम का अधिकार दरअसल स्त्री का स्वयं को पीड़ित करने वाली परम्पराओं से विद्रोह है। प्रेम में पगी स्त्री का विद्रोह अपने जड़ समाज को एक गति में लाने की अचेतन कोशिश होती है। यह किताब प्रेम के उस बागी स्वरूप से पुराने मूल्यों को विस्थापित करने की कोशिश है। समय के साथ समाज में जाति वर्ण और वर्ग के अंतरों के धूमिल पड़ जाने की जरूरत पर बात करती है यह किताब। विवाह के नए मानकों को तय करने की कोशिश में विवाह संस्था की विकृतियों पर सवालिया निशान लगाने का प्रयास है यह। यह अपनी तरह का पहला प्रयोग है जिसमें जिंदा कहानियों को शामिल किया गया है। इस किताब की कहानियाँ स्त्री पुरुष के संबंधों की परम्परागतता के अर्थहीन हो जाने की घोषणा करती हैं। इस तरह हमने प्रेम और बराबरी के मूल्य को स्त्री पुरुष संबंध के मूल आधार के रूप में पहचानने की कोशिश की है।
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हिंदी साहित्य की गहन अध्येता एवं संवेदनशील कविमना व्यक्तित्व, नीलिमा चौहान "आँख की किरकिरी" एवं "लिंकित मन" और "चोखेरबाली" ब्लॉगों के माध्यम से हिंदी ब्लॉगोस्फियर में विशेष उपस्थिति रखती हैं। विभिन्न हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में लेखों और कहानियों के जरिए रचनात्मक योगदान के साथ स्त्रीवादी तेवर के कविता लेखन के लिए चर्चित नीलिमा चौहान, दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन सांध्य महाविद्यालय में ऎसोसिऎट प्रोफेसर के रूप पठन-पाठन से सम्बद्ध हैं। उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश: # नीलिमा जी... आप शिक्षिका है, साहित्य में विशेष रूचि रखती हैं, बराबर लिखती-पढ़ती रहती हैं, आप दोनों ही भूमिकाओं में क्या कोई अंतर्विरोध महसूस करती हैं...? - नहीं मुझे यह अंतर्विरोध की स्थिति नहीं लगती बल्कि मैं तो स्वयं की ऎसे शिक्षक के तौर पर कल्पना भी नहीं कर सकती जो लेखन रचनात्मक कार्यों में रुचि न रखता हो। अध्यापन कोई एकांगी कार्य नहीं है। अपने अध्यापकीय व्यक्तित्व को, अभिव्यक्ति को लगातार धार देने के लिए यह जरूरी है रचनात्मक या आलोचनात्मक लेखन किया जाए। एक सक्रिय शिक्षक ही जिंदा शिक्षक है। ऎसा महसूस करती हूँ। हाँ, समय को नियोजित करने की दिक्कतें जरूर आती हैं पर लेखन की जिद के कारण यह सामंजस्य भी बैठा लिया जाता है। # निश्चित तौर पर एक रचनात्मक शिक्षक वर्तमान समय से जरूरी कन्टेन्ट उठाकर अपने छात्रों को सही दिशा दे सकता है। क्या आपको लगता है कि, जिस समय में हम जी रहे हैं वहाँ शिक्षक और छात्रों के बीच जरूरी संवाद कम हुआ है, इसी तरह वर्तमान छात्र, शिक्षक को किस भूमिका में देखता है? - हाँ, कुल मिलाकर ही शिक्षा से संवाद गायब हो गया है। शैक्षिक मूल्यों में गिरावट आई है और पठन पाठन की प्रक्रियाओं में बहुत ही यांत्रिकता दिखाई देती है। शिक्षा का व्यावसायीकरण इतनी तेजी से हुआ है कि चाहकर भी अच्छे शिक्षक अच्छे तरीकों से नहीं पढ़ा पा रहे हैं। केवल परीक्षापयोगी तरीकों से पढ़ना-पढ़ाना कारगर समझा जा रहा है। बेहतर नागरिक, विवेकशील व्यक्ति और स्वस्थ मानसिकता का विकास करना अब शिक्षा का लक्ष्य नहीं रह गया है। ऎसे दौर में छात्र भी शिक्षक से यही उम्मीद करते हैं कि अधिक अंक लाने में शिक्षक उनकी सहायता करें। इस व्यावसायीकरण के चलते एक अच्छे शिक्षक की पहचान करने लायक समझ उनमें विकसित नहीं हो पाती है। उनके समक्ष एक दोस्त मार्गदर्शक प्रेरक के रूप में देखे जा सकने वाले शिक्षकों के उदाहरण कम ही होते हैं। इसलिए वे भी अपने शिक्षकों से बहुत अधिक की उम्मीद लेकर नहीं चलते। यह स्थिति निराशाजनक है, पर यही आज के शिक्षाजगत का यथार्थ बनता जा रहा है। # आपने बताया कि आप साहित्य की गहन अध्येता हैं, जिस दौर में आप पढ़ रही थी (एक छात्र के रूप में) तब साहित्य की दिशा वर्तमान साहित्य निश्चित रूप से भिन्न रही होगी... साहित्य के बदलते कलेवर, बदलते कथ्य और शिल्प को आप कितना सकारात्मक मानती हैं? क्या वाकई साहित्य को यथार्थ और आदर्श के मानकों पर चलना चाहिए? वर्तमान युवा पाठकों के सन्दर्भ में आप इसे किस रूप में ग्रहण करती हैं? - निश्चित तौर पर साहित्य के तेवर और कथ्य में बदलाव आया है। साहित्य के आदर्श और यथार्थ के मानकीकरण ध्वस्त हुए हैं। प्रयोगशीलता और परिवर्तन, साहित्य और भाषा दोनों की मूल चेतना में ही रहा है। 90 के बाद जिस गति से तकनीकी और सूचना क्रांति हुई उसका साहित्य पर असर डालना लाजमी था। संवेदना और उसकी अभिव्यक्ति को नए आयाम मिलना, जीवन की बढ़ती हुई जटिलताओं का साहित्य के साथ अंतर्क्रिया करना, भाषा व शैली का नयापन यह सब हम नए साहित्य में पाते हैं। मेरे विचार से साहित्य और समय की अंतर्क्रिया को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। भाषा के प्रवाह व शैलीगत संभावनाओं को तलाशना चाहिए। परम्परा के मोह में पड़कर साहित्य अपने समय के साथ न्याय नहीं कर सकता। विशुद्धतावाद का समर्थन मैं नहीं करती। यूँ भी नए व प्रयोगशील साहित्य का आस्वादन पूर्वधारणाओं से आजाद होने के बाद ही संभव है। युवा पाठक भी साहित्य में अपने समय को तलाशना चाहेगा। उसे क्यों निराश किया जाए। उसके जीवन का प्रतिबिंबन करने वाला साहित्य युगसापेक्ष साहित्य कहला सकता है। भाषा और स्तरीयता को इससे खतरा नहीं है बल्कि यह तो संभावनाओं की तलाश में बहुत दूर तक जाने के समान है और इस प्रक्रिया मॆं श्रेय और प्रेय (प्रिय) दोनों की रचना हो रही है। # नीलिमा जी... साहित्य का एक वृहद् दायरा है... वर्तमान साहित्य में विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों से उत्पन्न खीझ और तनाव, पारम्परिक स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का द्वन्द्व, हाशिए के लोग सब की भागेदारी बढ़ी है... जो जरूरी भी है, इन सबके बीच आप स्त्री मूल्य और स्त्री शक्ति की मनोदशा को कहाँ पाती हैं या इसे अभी भी एक संक्रमण काल ही माना जाय जो विस्तार की प्रक्रिया में है...? - वर्तमान साहित्य में स्त्री और हाशिए की सभी अस्मिताओं का स्वर मुखर हुआ है। इस सभी अस्मिताओं की आपसी टकराहट से पैदा हुई संवेदनाएँ भी नए साहित्य में दिखाई देती हैं। साहित्य में स्त्री पुरुष संबंधों की परम्परागत छवि धूमिल हुई है। स्त्री स्वातन्त्र्य और स्त्री अस्मिता पर केन्द्रित साहित्य प्रमुखता से रचा जा रहा है। स्त्री देह की स्वायत्तता, आर्थिक स्वतंत्रता उसकी बौद्धिक और रूहानी जरूरतों के प्रश्नों को संवेदना का आधार बनाने वाला साहित्य प्रकाशित हो रहा है। अभी स्त्री की यौनिकता जैसे प्रश्नों को उठाने का कम ही साहस दिखाई दे रहा है, शायद इसलिए कि भारतीय संदर्भों में अभी स्त्री के मौलिक अधिकारों की प्राप्ति भी एक दुर्गम लक्ष्य है तो दैहिकता और यौनिकता के सवाल गौण दिखाई देने लगते हैं। हाशिए पर केन्द्रित समस्त साहित्य स्त्री के जीवन संघर्ष और पीड़ा से रू-ब-रू करा रहा है। दलित साहित्य में भी दलित स्त्री अस्मिता का अतिदलित अस्मिताओं के संघर्ष को चित्रित किया जा रहा है। सामाजिक विषमताओं के सबसे निरीह शिकार के रूप में कई स्तरों पर संघर्ष करती स्त्री का बयान है यह साहित्य... इस लिहाज से साहित्य अपनी संवेदना में और गहराई और विस्तार पाने का प्रयास करता नजर आ रहा है # धीरे-धीरे ही सही, पर असहजता पूर्वक पुरुष भी यह स्वीकारते हैं कि पितृसत्तात्मक समाज ने महिलाओं को लगभग उन सभी जरुरी आवश्यकताओं या कहें कि जरूरी परिवेश से वंचित रखा था जो उन्हें बेहतरी, ज्ञान और समानता के अवसर दिला सकते थे... आज महिला सशक्त दिखती है, मेरा सवाल इसी "दिखने" से है... क्या वाकई आपको लगता है की उतने बड़े स्वरुप में स्त्री अधिकारों या उनके पैरोकार पुरुषों ने ज़रा भी लचीला रुख अख्तियार किया है... सारे विमर्शों, बहसों की बीच कहीं मात्र यह सिर्फ लगने या दिखने का मामला है या फिर व्यावहारिक जीवन में भी कुछ सहजता आई है? - स्त्री के आजाद दिखने और आजाद होने में बहुत फर्क होता है। तमाम तरह की बंदिशों से, वर्जनाओं से, परम्पराओं की जकड़ से खुद को आजाद महसूस करना एक अलग ही अहसास है जिसे पाना बहुत मुश्किल है। इसलिए मुश्किल है क्योंकि हमारे समाज में स्त्री की जेंडर ट्रेनिंग इतनी मजबूत होती है कि एक स्तर से जयादा आजाद होने में स्त्री भी असहज महसूस करने लगती है। ज्यादातर तो यह आजादी दिखने मात्र की आजादी है। इस दिखने में बहुत सतहीपना है। खुलकर जीने के लिए सुरक्षित, सहज, मुक्त और बराबरी का माहौल पाने के लिए स्त्री को अपनी बहुत सी उर्जा लगानी होती है। पितृसत्तात्मक समाज इसका भरपूर प्रतिरोध करता है। वैसे भी हमारे समाज में स्त्री की गुलामी के जितने स्तर हैं उतनी ही तरह की आजादियाँ भी गढ़ ली गई हैं। किसी स्त्री के लिए दो वक्त का भोजन जुटा पाना ही आजादी है तो दूसरी स्त्री के लिए यौनिकता के दैहिक स्वतंत्रता आजादी है। विकास के अलग-अलग सोपानों वाले समाजों में स्त्री के अधिकारों और आजादी की लड़ाई का मतलब अलग-अलग होने के कारण ही शायद आजादी का असली मायना अभी तक गढ़ा नहीं जा सका है। स्त्री की आजादी के सवालों पर होने वाली सारी बहसें आखिरकार या तो किताबी जंग बनकर रह जाती हैं या फिर कभी कभार किसी आंदोलन की शक्ल ले लेती हैं। लेकिन एक आम स्त्री न बहसों से फायदा पा सकती है न ही आंदोलनों से। उसके लिए व्यावहारिक जीवन में पुरुषों की मुट्ठी में बंद दुनिया में अपने लिए साँस लेने लायक जगह बनाने का मुद्दा ज्यादा जरूरी होता है। मुझे लगता है हमारी शुरूआती शिक्षा में जेंडर ट्रेनिंग के कुछ सबक शामिल किए जाएँ। और पारिवारिक वातावरण बच्चों को आपसी उदारता और तालमेल तथा सम्मान से जीने की ट्रेनिंग लायक माहौल दे सकें तो स्त्री के लिए बेहतर समाज की कल्पना की जा सकती है। दिखने की आजादी तो एक भुलावा है, आजादी जब तक महसूस न की जा सके तब तक उसका होना एक वहम भर ही होता है। स्त्री की अजादी के पैरोकार पुरुषों को भी इस आजादी के लिए अपने भीतर के ट्रेण्ड मर्द से लगातार लड़ना होगा वरना स्त्री की आजादी का मतलब हमेशा से पुरुष का अपने अधिकारों का कुछ हिस्सा खो देना होता है। विमर्श के स्तर पर औरत की आजादी का पैरोकार आदमी निजी जीवन में भी स्वस्थ मन व मंशा से स्त्री की अस्मिता और आजादी का सम्मान करता हो यह कम ही पाया जाता है। # अभी हाल ही में दख़ल प्रकाशन से आपके द्वारा संपादित किताब 'बेदाद ए इश्क रुदाद ए शादी' प्रकाशित हुई है, जिसमें कुछ बागी प्रेमियों की कहानियाँ हैं.. इस अलग कन्टेन्ट की किताब को आप बतौर महिला किस तरह देखती हैं? क्योंकि तमाम वैवाहिक विसंगतियों के बीच पारम्परिक स्त्री-पुरुष एक तरह सेक्रीफाईज कर रहे होते हैं... घिसी-पिटे जुमलों पर जीवन कितना मुश्किल हो जाता है, बावजूद आज भी यही परम्परा है... यह किताब समाज में कोई मानक तय करना चाहती है या परम्परा से टकराव इसका मूल स्वर है? - स्त्री का प्रेम का अधिकार दरअसल स्त्री का स्वयं को पीड़ित करने वाली परम्पराओं से विद्रोह है। प्रेम में पगी स्त्री का विद्रोह अपने जड़ समाज को एक गति में लाने की अचेतन कोशिश होती है। यह किताब प्रेम के उस बागी स्वरूप से पुराने मूल्यों को विस्थापित करने की कोशिश है। समय के साथ समाज में जाति वर्ण और वर्ग के अंतरों के धूमिल पड़ जाने की जरूरत पर बात करती है यह किताब। विवाह के नए मानकों को तय करने की कोशिश में विवाह संस्था की विकृतियों पर सवालिया निशान लगाने का प्रयास है यह। यह अपनी तरह का पहला प्रयोग है जिसमें जिंदा कहानियों को शामिल किया गया है। इस किताब की कहानियाँ स्त्री पुरुष के संबंधों की परम्परागतता के अर्थहीन हो जाने की घोषणा करती हैं। इस तरह हमने प्रेम और बराबरी के मूल्य को स्त्री पुरुष संबंध के मूल आधार के रूप में पहचानने की कोशिश की है।
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