Tuesday, December 30, 2014

एक बुझे  हुए  वक्त  में  कविता 

जैसे किसी माटी सने बच्चे को छूकर
दरवाजे से आ लगी हो हवा
जैसे देता हो दस्तक कोई लगातार
खुले दरवाज़े की चौखट पर
जैसे आंगन में मुरझाए पौधों को 
सींचती मां का उड़ता हो आंचल
जैसे कारा की मोरी से झांकता
नीला टुकड़ा देता हो दिलासे
जैसे अंधेरे की उदासी को चीरता
गुनगुनाता हो कोई आदिम राग
ऎसे ही बुझे हुए वक्त में
कौंध जाती है कविता कोई
जब - जब जिंदगी की बेकाबू चाल
देती है पटखनी और जब कभी
हारती सी लगने लगती हैं सांसे
मेरी घबराई सी चेतना
तलाशती है कविता को
और कविता में तुमको

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