प्यार और उसकी अभिव्यक्ति के मामले में अब हमारे शहर बदल रहे हैं , हमारे मन बदल रहे हैं ! प्यार करने के लिए अब प्रेमी जोडों को खेत खलिहान झाडी की ओट नहीं तलाशनी पडती न ही जमाने की घूरती नजर की परवाह करनी पडती है ! प्यार किया तो डरना क्या की तर्ज पर अपने आस पडोस की मानव आकृतियों की फिक्र किए बिना प्यार करने वाले प्यार भी कर रहे हैं और उसका इजहार भी !
अपने घर की बाल्कनी में खडे हों तो अक्सर नीचे सडक पर हाथ में हाथ डाले प्रेमी लडके - लडकियां घूमते दिखाई दे जाते हैं ! मेट्रो से यात्रा करें तो सब ओर मेट्रोमय प्रेम और प्रेममय मेट्रो ही होती है ! मॉलों की सीढियां प्रेमबद्ध युगलों को पार करके ही चढना संभव होता है !शहर के सारे पार्कों में हर बॆंच पर प्रेम में आकंठ डूबा जोडा लौकिक जगत के बोध से रहित प्रेमालाप करता दिखाई देता है !
ऎसा खुल्ला प्यारमय माहौल हमें तो सब ओर पॉजिटिव ही पॉजिटिव होता मानने को मजबूर कर देता है ! मन कहता है काहे का पिछडापन भई हम तो लगातार विकास कर रहे हैं ! आत्मा से आवाज निकलती है कहां है मध्यकालीनता , कौन- सी बंद सोसायटी ? हम तो एक आधुनिकतम खुला समाज हैं जहां कोने - कोने पे प्रेम की नदियां बह रही हैं .....
क्या है कि हम मसिजीवी जी की तर्ज पर कहें तो ठहरे मास्टर.. न न.. मास्टरनी .....! अब पिछले दो साल से पढा रहे हैं फर्स्ट इयर के लडकों को रीतिकाल ! कहने को कोऎड कॉलेज है पर हमारी क्लास में एक भी लडकी नहीं ! तो भाई लोगों कवि पद्माकर, मतिराम देव आदि आदि के प्रेमकाव्य की सप्रसंग व्याख्या करने की मुसीबत से हफ्ते में 3 बार गुजरते हैं....अब पद्माकर कह गये कि बच्चों देखो कैसे रति क्रीडा के बाद सुबह प्रेममग्न नायिका रति कक्ष की देहरी पर हाथ रखे खडी होती है ..कि कैसे उसके बाल उसके गले के हारों से गुत्थमगुत्था हो गए हैं ....कि कैसे वह नायक को मादक दृष्टि से देखती है और यह कि फलां छंद में विपरीत रति का चित्रण है फलां में नख और दंत छेदन ..और यहां मुग्धा नायिका है ....यहां प्रौढा.............................! अब क्या करें जब वात्सयायन जी कामसूत्र की रचना कर ही गए हैं , हमारे रीतिकालीन कवि उस पर आधारित नायिका- भेद व रति -चित्रण कर ही गए हैं तो हम भी उसे बिना हकलाए, बच्चों से बिना नजर चुराए और व्याख्या को बिना सारांश में बदले पढा ही डालते हैं ........
ऎसे में हमें हमारे पार्कों में लतावेष्टित आलिंगन में बंधे चुंबन के अनेकों वात्सायनी पाठों को आजमाते नायक नायिका ध्यान जरूर आते हैं ! वे स्कूल या कॉलेज से भागे हुए कच्ची पक्की उम्र के युवा .....! हम भरसक कोशिश करते हैं उन्हें न देखने की पर वे कोई कोशिश नहीं करते हमें न दिखने की .........मानो हम उनके लिए अदृश्य हैं !.....पार्क में खेलने गए किसी बच्चे की बॉल अपने पास आकर गिरने या फिर पिकनिक मनाने आए किसी बडे से परिवार के छोटे बडे सदस्यों वाले झुंड के अपने पास से गुजरने पर भी वे अपने शयन- कक्ष वाली मुद्रा को त्यागे बिना रत रहते हैं ......ऎसे में लगता है कि हम पीछे छूट गए और आउटडेटिड हैं ...कि यही ट्रेंड है ....यही अदा है नए प्यार की ....आप जले या नएपन को कोसें ....नजर चुराऎ या नजर भर देखॆं...... या फिर अपने बीत गए जमाने में प्यार करने की दिक्कतों को लेकर कुंठित हों........
..........हम इसे पब्लिक डिस्प्ले ऑफ अफेक्शन मानें या उन्मुक्त यौन अभिव्यक्ति......अपनी फिल्मों में यौनिक अभिव्यक्ति का स्वागत करते हम अपने आसपास क्यूं न करें इसे स्वीकार ? कला और यथार्थ में आती खाई को आओ पाट दें........या फिर अपनी आंखो के दोगलेपन पर करें फिर से विचार.....बहरहाल हम पता नहीं कब तक रीतिकाल को पढाऎगे और यह भी हमारी ही सरदर्दी है कि कैसे पढाऎगे.......वैसे एक बात है कि मन में कई बार उठ्ता है कि विभाग में बाकी सभी 9 पुरुष हैं...वे ही क्यों नहीं पढा लेते यह एक पेपर ! पंतु तभी मन में एक कोने से कोई आवाज सुनाई देती मैं क्यों नहीं ............ !
27 comments:
अब हम समझे मौसम बारिशो का है,और साहित्य का तो पता नही पर पर फ़िल्मो के अनुसार ये मौसम भी मदनोत्सव ही है,इसी लिएय दोनो अध्यापक गण प्रेम और इश्क पर ही लिख कर काम चला रहे है,सुबह वाली पाली से शाम वाली पाली मे कार्य रत को और(इसका उलटा)ब्लोग माध्यम से संदेशा भेजने का अच्छा जुगाड है ..:)
आप भी न अरुण जी ;)
बढ़िया!!
अरुण भाई क्या सही पकड़ा है आप ने दोनो को!!
अच्छा लगा। कुछ तो है जो अलग है।
बहुत सही बात कही है आपने ।वैसे अरुण जी भी गलत नही हैं :)
आज का शीर्षक और 3-4 दिन पहले का हिन्दी के किसी अध्यापक (मास्टर) का शीर्षक पढ़कर हम भी चौक ही गये थे.वो साहब भी पार्कों का वर्णन कर रहे थे किसी पोस्ट में.अंतत: हमें भी अरुण जी सहमत होना ही पड़ा:-)
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सोह करे, भौंहनु हंसे दैन कहे, नटि जाय।।
बिहारी जी ने सही ही कहा ना.
जी हमें नहीं पता किसने क्या लिखा हमने तो दिल की बात कह दी ! और आप अरुण जी की बातों पर ज्यादा गौर न दें :) हम तो पी डी ए पर अपने विचार देने चले थे ! अब आप सब को मसखरी सूझ रही है क्या करें :)
ये पी डी ए क्या है ??
आप कहेंगी " पब्लिक डिस्प्ले ऑफ अफेक्शन " हम "पर्सनल ड्रीम एसिस्टैंस" समझ रहे थे...वैसे पहला वाला भी ठीक ही बैठ्ता है.
पब्लिक डिस्प्ले ऑफ अफेक्शन जो विदेशों में आम बात है और अब यहां भी हो रही है ..
प्रेमी जनों को क्या पर्सनल ड्रीम असिस्टेंस चाहिए होती है !? वैसे आलोक जी से पूछो तो कहॆंगे हां -आजकल प्यार के मार्किटाइजेशन में यह भी होने लगा है :)
काकेश जी आपके पैर तो नहीं दुखे :)कहो तो चैट कर लें बात सुलझ जाएगी :)
यह लो भई. आप भी!!! अभी मसिजीवी को कविता सुनाये हैं और यहाँ भी वही चल रहा है.
अरुण से सहमत न भी हूँ आपके डर से -तो भी उसे साधुवाद तो कह ही देता हूँ नजर के पैनेपन पर. :)
वैसे गंभीरता से बात करें तो आपका अंतिम प्रश्न बिल्कुल जायज है---मैं क्यूँ नहीं. आप इत्मिनान से पढ़ाईये. जमाने के होते बदलाव को साक्षी भाव से देखिये. कुछ अच्छा हो रहा है तो कुछ खराब (हमारी नजरों में-जिस संस्कारों में हम पले बडे हुए हैं).सामनजस्य ऐसे ही तो हो पाता है.
नीलिमा जी,
प्रेम तो खुल्लमखुला ही होता है जो छुपा होता है वह है इसका गणित…। प्रेम करने वाले आज ज्यादा ध्यान मग्न हैं पहले से क्योंकि पहले तो दुनियाँ भी दिखती थी साथ प्रेमिका की रेखाएँ भी…सत्य कहा जाए तो प्रेम में तो मात्र प्रेम ही होना चाहिए…मगर तबीयत खराब है रीतिकाल पढ़ाने बालों की इन्हें देखकर…। :) :)
टैम-टैम की बात है जी, पहले वाले प्यार चोरी-चुपके करते थे, अब के खुल्लम-खुला कर रहे हैं।
फिलहाल मैं इस मामले में दोगला नहीं। ये बात सही नहीं कि अपने टाइम में तो बंदा इसे प्यार कहे और अपना टाइम बीतने पर व्याभिचार।
"जिओ और जीने दो" की तर्ज पर "प्यार करो और प्यार करने दो"
नोट: इसमें वो (A) वाला प्यार शामिल नहीं है।
हमारा इरादा तो ऐसा ना था ,
यहा तो बेमौसम झडी लग गई..:)
लेकिन अब सोच रहे है कि अगर संभव हो तो आपकी और मसीजीवी जी की कम से कम एक एक लेक्चर तो सुन ही ले तभी इस मामले को समझा जा स्केगा..:)
लेख अच्छा है, मौजूं है, मजेदार् भी। टिप्पणियां रोचक हैं।
हमारी टिप्प्णी चित्रमय है सो आप उसे यहाँ देखें
[:)]
मास्टरजी...मास्टरजी
मास्टरनी ने क्या लिखा?
चुप कर, शैतानी न कर
तेरे लिये नहीं था वो,
बदतमीज़ क्यों तुमने देखा?
मास्टरजी...मास्टरजी
क्या जाऊँ पार्क में कहीं
चुप कर, शैतानी न कर
वहाँ जगह बची कहाँ अब
टहल आ सड़क पर ही
मास्टरजी...मास्टरजी
किसी ने हमको देख लिया तो
चुप कर, शैतानी न कर
खुल्लम-खुल्ला प्यार कर तू
जो देखेगा, शर्म में डूबेगा वो
...
मस्त!
हम तो जी बहुत ही पिछड़े शहर से हैं हम अब क्या कहें.
यहां तो आलिंगन की बजाय प्यार की गुटर-गूं फ़ोनों और मोबाइलों पर ही हो पाती है.
यूँ तो हम भी पिछडे़ शहर के ही हैं, लेकिन यह शहर फ़ड़फ़डा़ रहा है विकसित कहलाने को, यहाँ बाबा मटुकनाथ और साध्वी जूली के प्रवचन हो चुके हैं, एकाध स्कूली छात्रा की सीडी भी बाजार में चलन में है, तो चहुँओर रंगारंग माहौल है, ऐसे में कहाँ आपने वात्स्यायन और कालिदास (ये कौन हैं ?) का नाम ले लिया.. :)
अरुण जी के विशेष दृष्टिकोण की तारीफ अपनी जगह है, परंतु प्रविष्टि का मूल विषय महत्वपूर्ण है और इसे मज़ाक में नहीं छोडा जाना चाहिये.
कुछ् दिन पूर्व एक अंग्रेज़ी दैनिक के साप्ताहिक परिशिष्ठ ने इस विषय पर आमुख कथा प्रस्तुत की थी. उसका भी लब्बो-लुबाब यही था कि सार्वजनिक स्थान इतने निरापद होते जा रहे हैं कि अब परिवार समेत ऐसे स्थानों पर जाकर अनेक बार अचकचाना पडता है.
मैं सफदर्जंग मक़बरा, बुद्ध् जयंतीपार्क,लोदी गार्डेन आदि की ही बात नही कर रहा. अभी कुछ दिन पहले एक टी वी चैनल ने फिरोज़ शाह कोट्ला मैदान से लगे एक पूजास्थल के दुरुपयोग की भी बात की थी.
मनोवैज्ञानिकों के पास शायद इसका उत्तर हो कि क्या नई पीढी अधिक प्रदर्शनकारी होती जा रही है ,या अधिक लज्जाहीन? या फिर यह सिर्फ स्थान की कमी से हो रहा है?
नीलिमाजी, धन्यभागी है वे छात्र जिन्हे आप पढा रही है. कलाम साहब विज्ञान पढाये तो ज्यादा समझ में भी आता है और विश्वसनियता भी ज्यादा होती है.
प्रणाम !!!
अरे मज़ा आ गया लेख पढ़ कर !!!
और भी लिखिये इस विष्य पर...
रस भरे विषय की जानदार, शानदार प्रस्तुती...बधाई... लेकिन सही बात उठाई अरविंद जीं, प्रविष्टि का मूल विषय महत्वपूर्ण है और इसे मज़ाक में नहीं छोडा जाना चाहिये... इस पर चर्चा होनी ही चाहिऐ कि क्या नई पीढी अधिक प्रदर्शनकारी होती जा रही है ,या अधिक लज्जाहीन? या फिर यह सिर्फ स्थान की कमी से हो रहा है?
यहाँ भारत में ही कुछ बुजुर्गों के (अभी तक बुजुर्ग न बन पाए) मन इन नवयुवाओं के केळियों की ओर ताक-झाँक करते हैं। किन्तु विदेशों में तो लोग सड़कों पर खुल्लम-खुल्ला 'सबकुछ' करते हैं, पर उनकी ओर कोई झाँकता भी नहीं - nothing new। क्या यह भारतीय बूढ़ों/अधेड़ों की मानसिक संकुचितता नहीँ?
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