अनामदास जी बोधिसत्व जी तथा और भी जितने भी जी गाली शास्त्र पर अपने विचार व्यक्त करते पाए गए उन सभी से क्षमा प्रार्थना के बाद ही मुझ जैसी-गाली अकुशल वर्ग की प्राणी इस विषय पर कुछ कहने की कुव्वत कर सकती है !बात यह है कि गाली प्रेषण में सम्पन्न पुरुष वर्ग से खुद को हीन समझने का एक और कारण हमॆं मिल गया है ,जिसे पाकर हम उस तरफ से अनदेखा नहीं कर पा रहे हैं !हमने पहले भी गाली को मर्दवादी ,वीर्यवादी समाज की भाषा संरचना कहा था ,आज भी कहेंगे! अभी हाल ही में उठा साहित्य भाषा,गाली और बहस का तर्क झंझावात साफ तौर पर हमें, हमारी सामाजिक स्थिति को डिफाइन करने का एक और प्रयास भर ही है शायद !एक स्त्री विहीन विमर्श का दायरा सुनिश्चित करता तमाम बौद्धिक वर्ग....!
......और हम रोज देखते हैं गली मोहल्ले मेट्रो यहां तक कि शिक्षण संस्थानों में गालियों से आकंठ भरे मदमस्त बेपरवाह अपकी -अधपकी -पकी उम्र के मर्दों को !ऎसे में हमें दिखना होता है अनजान..कि हमने नहीं सुना कुछ..कि हमें नहीं पडता फर्क क्योंकि यह जो गाली तुम दे रहे मेरे जननांगों या चरित्र पर नहीं लक्षित है..कि नहीं नहीं सब कुछ ठीक ही तो है ....!किसी चौराहे पर सिर्फ 7-8साल के फटेहाल या फिर गली में खेलते तीसरी क्लास मॆं पढने वाले बच्चे को ऎसी' ' भद्र' भाषा का इस्तेमाल करते सुनकर मात्र यह शुक्र मनाना होता हि कि अभी तक हमारे घर का बच्चा यह नहीं सीखा है !वैसे क्यूं इतनी आपत्ति है हमें गालियों से ..इसे पुरुष वर्ग की यौन कुंठा का उत्सर्ग द्वार मानकर भी तो भूला जा सकता है ! स्त्री के शरीर मात्र को लक्ष्य बनाकर करने दो इन्हॆं आपसी छीछालेदर! यहां पिता यह मानकर संतोषी होकर रह सकता है कि उसका पुत्र भाषा का यह तेवर न जानता होगा अपनाता होगा और पुत्र यह भ्रम पाले रहता है कि उसका पिता गालियों की भाषा बोल ही नहीं सकता ....कितने सहज हैं ये भाषिक व्यवहार अपनी- अपनी मर्यादा के खोलो को निभाने में भी कितने उन्मुक्त ....
कभी कभी ' विमल जाऎं तो जाऎं कहां' के विमल सिर्फ उस उपन्यास में ही नहीं रहते! विमल जानते हैं कि "पाजामे में पडे पिलपिले पत्थरों का' इतिहास...
हमारी एक मित्र हैं जो शिक्षा विभाग में प्राध्यापिका हैं ....उन्होंने ऎसी ही किसी भावना की रौ में बहकर पुरुष लक्षित गालियों का संधान किया था इस बात को आज 7-8 वर्ष हो गए हैं ...लेकिन अभी तक उन्होंने उन गालियो का इस्तेमाल नहीं किया है ...शायद कर नहीं पायीं...
21 comments:
वाह वाह लेकिन वाह तभी तक जब आप महिला है , अगर किसी पुरूष ने ये लिखा होता तो उसे आर्शीवाद में एक नयी गाली देनी पडती । वाह वाह तो गाली नही है ना
वैसे एक बात बताइये
पुरुषों द्वारा भी कुछ पुरुष-लक्ष्यी गालियाँ दी जाती हैं। हाँलाकि वे भी 'मर्दवादी ,वीर्यवादी समाज की भाषा संरचना' का ही हिस्सा हैं।क्या आप शिक्षाशास्त्र की अपनी सहकर्मी की गवेषणा से ,पुरुषों को प्रसाद देना चाहेंगी ?
सत्य!!
आप कहाँ तक गाली बाजों से गाल बजाएंगी। अपना काम करो । और आप की बात से लग रहा है कि स्त्रियाँ तो गाली बकती ही नहीं । बेचारी । नहीं, ऐसा नहीं है। स्त्री-लक्ष्यी स्त्री गालियों का रचना संसार कम रोचक नहीं हैं। आप उनका भी कुछ संधान करें। मर्द और वीर्य शब्द से इतना परहेज क्यों ?
आप का
शुभचिंतक
मैं सफाई नहीं दे रहा। बस इतना ही कह रहा हूँ कि गालियाँ सहज अभिव्यक्ति हैं।
और मैंने अपने किसी लेख में किसी को गाली नहीं दी है। आप मेरे लिखे को फिर से पढ़े।
साधुवाद माफ़ कीजीयेगा हम अपनी सहज अभिव्यक्ति यहा नही दे सकते .खामखा काफ़ी सारे सहज अभिव्यक्ति वले हमे अपनी सहज अभिव्यक्ति से दी गई गालियो से नवाजे...
नीलिमाजी
गाली देना, गाली देने वाले की अपर्याप्त शब्द सामर्थ्य और अपने हीन भावना से ग्रसित होने का कारण है. अपने विचारों को अभिव्यक्त न कर पाने की झुंझलाहट इन तथाकथित लेखकों के शब्दों मेम गालियों के रूप में उतरती है.
आशा है कि सुधी पाठक धीरे धीरे ऐसे अशक्त लेखन से किनारा कर लेंगे
हो सकता है कि मैं सन्दर्भ ठीक से न समझ पाया हूं( शायद आपने किन्ही लेखकों (?)) के लेख पर टिप्पणी स्वरूप यह लिखा होगा).
मैने वे लेख नही देखे .किंतु जहां तक गाली को मर्द से जोडने वाली बात है मेरे गले नही उतरती. पता नही क्यॉं हर जगह अनावश्यक रूप से 'क्रेडिट' (गलत या सही) मर्द को दे दी जाती है.जिस प्रकार चुम्बन को प्यार की पराकाष्ठा कहा जा सकता है ठीक उसी प्रकार ग़ाली को आम तौर पर गुस्से की पराकाष्ठा कहा जा सकता है.( हालांकि गालियां कभी कभी प्यार-में भी दे दी जाती है)
गुस्स या प्यार ऐसी अभिव्यक्तियां हैं जो 'मर्द' तक सीमित नही है.
फ़िर गालियों का सारा क्रेडिट मर्द को ही क्यॉं ?
( शायद में सन्दर्भ् अभी भी नही समझा हूं)
सही लिखा है।
वैसे इस बारे में खादिम की राय यह है कि जो अंदर होता है वही बाहर निकलता है.
हमारे गांव में किसी के घर बारात आती है तो भोजन के समय महिलाएं "गारी" गाती हैं. जिस बारात में भोजन पर गारी न हो समझा जाता है कुछ कमी रह गयी.
यहां के संदर्भों में गाली-गलौज पर निर्णय जनता के हाथ में है. मैं तो चला कहीं और टीपने.
नीलीमा जी,
भाषा से व्यक्ति के संस्कार झलकते हैं। हम देख सकते हैं कि गालियों के प्रयोग को कुछ व्यक्ति दर्शन और तर्क का सहारा लेकर सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं। सभी को अपने दार्शनिक होने का विश्वास होता है और लोग लोकप्रिय धारणा का विरोध करके अपनी ओर ना केवल ध्यान खींचने का यत्न करते हैं बल्कि अपने को दूसरों से बड़ा दार्शनिक साबित करने की कोशिश भी करते हैं। गाली पुरुष दे या महिला; पर इसे सही ठहराने की बात केवल उन लोगो को करनी चाहिये जो अपने माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी आदि को भी वही गालियाँ उसी रौ और मात्रा में देते हों जो वे किसी और को देते हैं।
मानव सामाजिक प्राणी है और समाज में रहने के कुछ नियम होते हैं। नियमों के तोड़े जाने को कुछ शब्द-प्रवीण लोग तर्कों की सहायता से सही साबित भले ही कर दें लेकिन वे इसे सही ठहरा नहीं सकते। जो ग़लत है वो ग़लत ही है। कल को कोई किसी का क़त्ल करके उसे इसलिये सही ठहराने लगे कि ये भी मानव-प्रवृति का हिस्सा है तो फिर मानव जाति जियेगी किस तरह? गाली भद्र भाषा का बिगड़ा हुआ रूप है -यही कारण है कि कोई पुरुष अपने ही माता-पिता को गाली नहीं देता। गाली देना (चाहे वो पुरुष हो या महिला दोनो के लिये) गलत है। गाली देना केवल असमर्थता दर्शाता है। गालियाँ अधिकतर लोगो की भाषा का हिस्सा बन जाती हैं और वे केवल गुस्से का इज़हार करने के लिये ही नहीं वरन बिना बात भी गालियाँ देते हैं। ऐसे लोग बिना गाली दिये कुछ मिनट तक बात कर ही नहीं सकते।
मेरा सभी से अनुरोध है कि वे इसे बहस का मुद्दा ना बनाए बल्कि एक स्वर में गाली देने के चलन की निंदा करें। जो लोग गाली देने को सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं वे यह भी जाने कि कल को उनका ब्लॉग उनके अपने बच्चे भी पढ़ सकते हैं। आशा है कि वे लोग अपने बच्चों को गाली देने की शिक्षा नहीं देना चाहेंगे।
-- आपकी इस पोस्ट का एक प्रशंसक, जो ब्लॉगर नहीं है --
लगता है कि अब ब्लोग्गेर्स धर्म भेद से गिर कर लिंग भेद पर उतर आये हैं
लगता है कि अब ब्लोग्गेर्स धर्म भेद से गिर कर लिंग भेद पर उतर आये हैं
चलो इसी बहाने विमर्श तो हुआ
साहित्य में तो सिर्फ स्त्री और पुरुष विमर्श तक ही सीमित था मामला. ब्लोगिन्ग की दुनिया में मैं एक नया विमर्श शुरू होते देख रहा हूँ - गाली विमर्श. ठीक है, अब विमर्शने के लिए हमारे पास कुछ और तो बचा नहीं है. लिहाजा इन संभावनाओं पर भी विचार किया जाना चाहिए.
नीलिमा जी आप वाकई में लिखने की प्रेरणा हैं लेकिन आप नाहक ही ऐसे ओछे विषय लेकर कामयाबी वो कम समय में हासिल करना चाहती है देखकर आश्चर्य हुआ ! क्रपया अपने लेखन को प्रगतिशील बनाईये और गम्भीर व अच्छे विषयों पर लिखिये।
आपका शुभचिंतक व अनुयायी
कमलेश मदान
नीलिमा जी,
शायद जिस उद्देश्य से यह गंभीर लेख लिखा उसका हल न तो आप ढूंढ पाईं न तो समाज ढूंढ… बात यह नहीं कि गाली कौन देता है किस स्थिती में देता है दोनों ही पक्ष या तो गलत हैं या गंभीर समाज जटिल समाज में अपने को बाहर निकालने की एक कोशिश…हाँ वीर्यसामर्थ लोगों का बहाव बाहर की ओर होता है लेकिन जब यह किसी कारण से स्वस्फूरित नहीं होता या तो समाज के नियम या पारिवारिक नैतिकता जो थोथी ही होती है पर सर पर हमेशा बैठी होती है वह प्रोत्साहित करता है ऐसा करने को…
आज कल के समस्त अनुसंधान स्त्रियों पर हो रहे हैं मगर पुरूषों को कोई नहीं देख रहा जो इस समय की मांग है…।
आपकी फ़राख़हौसलग़ी की दाद देता हूँ मोहतरमा पर इतना जरूर कहूँगा कि मुद्दे और भी हैं इसलिये ये गाली की फ़ु़ज़ूल मुख़ालफ़त करना बेमानी है और कुछ बदलेगा नहीं इस लम्बे लेख और मर्दों की इस दुनिया के विरोध में इस तगड़ी बयानबाज़ी से,तो बेहतर ये होगा कि किसी और मुद्दे पर रौशनी डालें तो बात हो।
और हाँ! उर्दू का इस्तेमाल कर रही हैं तो लफ़्ज़ों की पाकीज़गी बनाए रक्खें।
वैसे लिखती बहुत अच्छा हैं आप,शब्द चयन भी सही लगा बस शुद्ध लिखने का प्रयास करेंगी तो और अच्छा होगा।और चूँकि आप एक शिक्षण संस्थान से जुड़ी हैं तो आपको तो सिर्फ़ शुद्ध ही लिखना चाहिये ग़लत लिखने का हक़ तो आपको है ही नहीं।
शुभकामनाएँ।
विभावरी जी आप बहुत शुद्धतावादी हैं पर ब्लॉग जगत की भाषा का अपना अलग तेवर है अलग अंदाज है जहां शुद्धता इतना बडा पैमाना नहीं है
१. सबसे पहले ये कि अगर गाली देना असमर्थता का प्रतीक है तो जो असमर्थ है .. वो क्या करे ( मतलब गाली ना दे तो फिर क्या करें। अरे भाई यह उसका धर्म है :)
२. मुझे तो कम से कम मेरे गुरु ने यही शिक्षा दी थी कि बेटा अगर कुछ न बन पड़े तो ’ये मोटी मोटी गाली देना’ ( मैं नहीं देता गालियाँ, किन्तु ज्ञान में कोई कमी नहीं है ).
३. रही बात संस्कारों की तो पिताजी भी मेरी तरह ही निपुण हैं :) मुझे याद है पहले उनके कहे हर वाक्य का अंत "चो" शब्द से ही होता था। ’चो" कोई गाली नहीं पर गाली जैसी ही है। अब सुधर गये हैं मेरी संगती में। क्यूंकि मैंने उनकी सारी गालियाँ खा कर खतम कर दी हैं। गालियाँ, वैसे बता दूँ इसलिये ही पड़ती थीं क्योंकि मेरी भाषा अच्छी नहीं थी। पर अब आप कह सकते हैं कि मेरी भाषा सुधर तो गई ही है।
ऐसी बात नहीं है ( मैं आरोप नहीं लगाऊंगा ) पर वो अच्छी ( मतलब साहित्य में रमी) गालियाँ भी देते थे। जैसे :- अशलील, अभद्र, ओछे, नंगे, नीच और कर्महीन इत्यादि। वे गालियाँ मुझे बहुत पसंद थीं सो जब भी पड़ती थीं तो मुझे हंसीं आ जाती थी। इस बात पर फ़िर असाहित्यिक गालियों की बौछार होती थी।
वैसे माँ जी जो कि बहुत ही संवेदनशील हैं वे गालियाँ गाती भी थीं और वक्त आने पर सुनाती भी थीं। सुनने में ये आया है गालियों का भी अपना एक इतिहास और अपना एक अलग साहित्य है। क्या हम उस पर चर्चा कर सकते हैं ?
४. हाँ बस इतना है, कि हद से नहीं गुज़र जना चाहिये मतलब उतनी ही देनी चाहिये, जितनी कोई पचा सके।
५. अब जैसा की सोचा और समझा जा चुका है कि यह पुरुष प्रधान समाज है, पर साहित्य में स्त्रि को महत्व पूर्ण स्थान तो मिला ही है। इस बात को आप नकार तो नहीं सकतीं। वह साहित्य भी तो शायद पुरषों ने ही तो लिखा है। है कि नहीं ? खैर आप भी कुछ लिखिये पुरषों पर। अच्छा रहेगा। वैसे बहुत से लोग इस विषय पर लिख रहे हैं। अपनी रमा द्वेदी जी का भी एक गीत संग्रह है। उसमें पुरषों के लिये ये मोटी मोटी गालियाँ हैं। मज़ा आ जाता है पढ़ कर। लगता है मर्द होना इस दुनिया में बिल्ली की पौटी होने के समान ही है (कि किसी भी काम की नहीं.. ना लीपने की ना ही पोतने की}। इस विषय पर उनसे कई बार बहस भी हुई, पर क्या .. "साहित्य" तो रचा जा चुका है ना!!! अब आने वाली संताने ( लड़कियाँ देखना वही गीत गायेंगी ) !!!
देखिये आप नई नसल के लोग हैं, सो अब आप कुछ अच्छा साहिय लिखें। मतलब पुरषों को अगर गालियाँ भी देनी हैं तो मस्त हों साहित्य की द्रिष्टि से भी।
लेख हमेशा की तरह अच्छा लगा। आपका लिखा हुआ आगे भी पढ़ता रहूँगा।
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