Tuesday, July 03, 2007

अविनाश जी ! मोहल्ले के मर्दवादी भाषिक तेवरों को लगाम दीजिए

मोहल्ले पर जाना पहली बार एक दुखद अनुभूति रहा ! बडे विचारकों की साहित्य की जमीन पर की हुई विष्टा से जी मितला गया ! बहस की भाषा मर्दवादी , बदमजा और मुठभेडी ! चिंतन खोखला तो भाषा थुलथुली , लिजलिजी ! मन बना लिया था कि इस विवाद से दूर का नाता नहीं रख्ना है पर वहां नोटपैड जी टिप्पणियों में एक कोशिश देखकर मैंने सुबह अविनाश जी से बात की ! वह बहस तो अधूरी रह गई किंतु मोहल्ला बनाम अविनाश जी की सोच कुछ हद तक सामने आई--

me: क्या गदर मचा रहे हैं जनाब आप
avinash: आदाब... कुछ गड़बड़ हो गया है क्‍या....
me: आप को भी तो कुछ महसूस हो रहा होगा न गडबड जैसा ;)
avinash: मैं किसी गड़बड़ी को लेकर साकांक्ष नहीं हूं... अगर ऐसा है, तो मुझे बताया जाए कि मुझे क्‍या करना चाहिए...
me: नए लोगों को न डराओ यहां मैं तो अभी देख ही रही हूं सब अभी अमझ में नहीं आया है मामला पर जानना है आप क्या कुछ नहीं देख रहे क्या यही सब होना चाहिए ??क्लियर स्टेंड क्या है बताऎ तो यही भाषा हो सकती है कुछ और नहीं या हम सब नए और आम लोग बहुत नासमझ हैं
avinash: देखिए... मेरी मंशा है कि हिंदी पर बात हो... हिंदी में लिखे जा रहे पर बात हो... हममें से कइयों को लगता है कि हिंदी में जो कुछ भी आज लिखा जा रहा है, उसके सरोकार नहीं हैं... अभी भी सवर्ण मानस की अभिव्‍यक्तियां हिंदी साहित्‍य के केंद्र में हैं... तो हिंदी की मुख्‍यधारा में इन दिनों क्‍या-कैसी बहस चल रही है, उसकी एक झलकी ही आप यहां देख रही हैं... मसिजीवी ने सही लिखा- कि अगर हिंदी की दुनिया यही है, तो ऐसी दुनिया में हमें नहीं जाना...
क्लियर स्‍टैंड जैसा कभी कुछ होता नहीं... विमर्श की दुनिया में कम से कम... राजनीति की ज़मीन पर ज़रूर इस तरफ या उस तरफ रह कर बात की जा सकती है...
me: हां या तो यह सब दरकिनार होगा या आम लोग यहां से जाऎगे -यही भविष्य है
avinash: आम लोग कौन है
me: वैसे भाषा को लेकर स्टेंड की बात की थी मैंने
avinash: हमारे आपके समाज में जो अभिव्‍यक्तियां हैं, जो शब्‍द हैं, वही पन्‍ने पर उतरेंगे... भाषा दस तरह की आए, उसका मैं कायल हूं आपकी ही भाषा में जो अठखेलियां हैं- वह हिंदी के लिए नई हैं
me: यही तर्क तो आज के हिंदी सीरियल वाले , एकता कपूर देती हैं
avinash: तो भाषाई परहेज़ एक तरह से लोकतंत्र का निषेध है
तब तो आप दलित साहित्‍य को खारिज़ कर देंगी, जिसमें धड़ल्‍ले से गालियों का प्रयोग हो रहा है एकता कपूर क्‍यों‍ कह रही है, और साहित्‍य में इसकी मांग क्‍यों उठ रही है, इसकी अलग-अलग वजहें हैं... भाषाई गरिमा में हिंदी का दम घुटता रहा है बहुत सारी बातें निकलकर नहीं आ पायी हैं
me: भाषा में यह चूतिया वाली शब्दावली कभी किसी महिला की तो नहीं दिखी ? न ही महिला कहीं ऎसी किसी बहस में दिखती है ?
avinash: मैं इस शब्‍द या किसी भी गाली का प्रयोग नहीं करता...
me: चूतिया कहते ही सारी अभिव्यक्ति पा जाते हैं आप ?
avinash: व्‍यक्तिगत रूप से...
avinash: अभिव्‍यक्ति एक शब्‍द से नहीं फूटती आपने ब्‍लैक फ्राइडे फिल्‍म देखी होगी उसमें इस शब्‍द का धड़ल्‍ले से प्रयोग किया गया है पुरुषों की दुनिया में इस शब्‍द का इस्‍तेमाल चुइंगम की तरह किया जाता है
me: शब्द तो पूरी भाषिक संरचना हैं अकेले वजूद नहीं रखते
avinash: हमारे समाज में तमाम गालियां स्‍त्री विरोधी हैं
आप देखिए... बोधिसत्‍व हिंदी के बड़े कवि हैं...
me: तभी तो कह रही हूं पुरुषों की बहस जिसमें सारी यौन कुंठाओं की बारास्ता साहित्य अभिव्यक्ति हो रही है
avinash: उन्‍होंने चूतिया का इस्‍तेमाल किया... हां, अब आपने सही बात कही क्‍या होना चाहिए, क्‍या नहीं होना चाहिए... बात इस पर करनी ही नहीं चाहिए बात ये है कि जो जैसा है वो वैसा दिख जाए
me: साहित्य की भाषा और बहस की भाषा में फर्क होता है जनाब
avinash: तो जब बोधिसत्‍व जैसे बड़े कवि इस शब्‍द का इस्‍तेमाल करते हैं, तो हमें समझना चाहिए कि हिंदी में इन दिनों अभिव्‍यक्तियों का कैसा दौर चल रहा है ! मैं दूसरों की भाषा सेंसर करने के पक्ष में नहीं हूं... मैं अनुरोध ही कर सकता हूं मैंने किया भी है
me: बहुत गलत बात कि वे बडे कवि हैं तो क्या वे फिलमी एक्टर की तरह हमें भाषा का फैशन बताऎगें ?
avinash: ये आप उन्‍हें बताइए...
me: आप भी तो जानिए हमारी बात! आपके यहां ही यह सब चल रहा है आप उस सब से वास्ता तोड कर साइड में नहीं खडे हो सकते हैं न
avinash: यही तो मैं कह रहा हूं... मैं दूसरों की भाषा सेंसर नहीं कर सकता। या तो मैं पूरा वाक्‍य ही नहीं छापूंगा... मेरे पास अभी 19 आर्टिकल है, जिसे नहीं छाप रहा... इस‍ी वजह से, क्‍योंकि वो छापने के काबिल नहीं है लेकिन विमर्श में कोई उग्र हो गया है या कोई बदज़ुबानी कर दी है, तो उसे खामोश नहीं कर देना चाहिए पूरी बात आने देनी चाहिए...
me: तो यह काबिल था यानि ?
avinash: इतना धैर्य हममें होना चाहिए... क्‍यों हम गालियों से परहेज़ करेंगे, अगर सिर्फ गाली के लिए गाली न दी गयी हो हमारे संस्‍कारों कें स्रोत दरअसल हमारी सुहागिन परंपराएं हैं, कोई आज़ाद और अपनी निर्मिति नहीं इसलिए हम हरे-हरे कहने लगते हैं... और शिव शिव कहने लगते हैं
me: बात घूम कर वहीं मत पहुंचाइए न ! गाली ! मर्दवादी अंदाज में गाली जिससे स्त्री के बारे में दबी हुई उनकी मानसिकता सामने आती है उन सब के दावों को खारिज करती हुई कि वे नए समय के स्त्रीवादी विमर्शों से ताल्लुक रखते हैं
avinash: तो ये तो अच्‍छी बात है... पर्दाफाश ज़रूरी है जो जिस मानसिकता का है, उसकी मानसिकता ज़ाहिर होनी चाहिए
me: तो मतलब यह कि उन सब को चूतिया कहने की आजादी होनी चाहिए बिना उसके एक मर्दवादी सटीक अभिव्यक्ति कर ही नहीं सकता
avinash: न आप मेरी बात समझ रही हैं... न मैं आपकी बात समझ रहा हूं... दरअसल मैं सेंसर के पक्ष में नहीं हूं.... ईस्‍वामी ने एक बार ठीक कहा था कि आप उधर मत जाओ, जिधर कुछ गंदी हवाएं बह रही हैं... चौपटस्‍वामी ने भी विवाद की अविनाशप्रियता में यही कहा था..
. me: अर्थात?
avinash: अभिव्‍यक्तियों का एक कोना ऐसा भी रहने देना चाहिए...
me: और वहां स्त्रियां जाऎ या नहीं ? और अगर जाऎ तो किस भाषा का इस्तिमाल करें ?
avinash: देखिए नोटपैड ने आकर अपनी बात कही कि नहीं... बहुत वाजिब बात कही है... स्त्रियां आएंगी... और आईना दिखा कर जाएंगी...
me: जाऎ तो यह मान कर कि वहां उनके गुप्तांगों पर बनाई गई गली वाली गालियों में बहस होगी avinash: क्‍या अक्‍सर ऐसा होता है
me: नोट पैड गई थी क्या हुआ वे जनाब मासूम बन गए नोट पैड ? कहां हो अविनाश जी ;)?
avinash: अभी सुबह-सुबह उठा ही था... चाय-पानी भी नहीं चढ़ाया है...
me: ओह ;)
avinash: कभी मिलेंगे तो बात करेंगे
me: चलो बाद में बहसेंगे
avinash: शुक्रिया
me: वैसे यह तो एक चिट्ठा तैयार हो गया है
avinash: आप इसे डाल दो
me: छाप दें ?
avinash: छाप दीजिए...

8 comments:

चलते चलते said...

भाषा अच्‍छी होनी चाहिए जो बोलने में भी सुंदर हो और सुनने में भी। गाली गलौच वाले शब्‍दों से यदि कोई अपने को बड़ा कवि या लेखक या ज्ञानी मान रहा हो तो वह उसकी निजी राय हो सकती है, सभी की नहीं। ऐसा व्‍यक्ति सर्व स्‍वीकार्य नहीं होगा, यह याद रखें।

सुजाता said...

भाषाई विविधता और भाषाई वल्गैरिटी मे फर्क है । एक तरफ अविनाश भाषाई प्रयोगो की नवीनता की वकालत कर रहे है और इसे कौन्ट्राडिक्ट करते हुए पुरानी मर्दवादी ,च्युइन्ग-गम वाली भाषा का समर्थन भी कर रहे है । यह कही से नयापन नही है ।रोज़ इसे सडक पर,बस मे ,रिक्षेवाले ,रेहडी वाले से सुनते है तो क्या इसलिए ब्लाग पर उसका होना ज़रूरी है ? और आप साहित्य के क्षेत्र का कुछ भी नया नही बता रहे है । यह नन्गई साहित्यकारो के बीच पहले भी होती थी ।हमेश से एक आलोचना आप कुछ रुपए देकर लिखवा सकत्े थे ।

Arun Arora said...

ये अपनी नंगई को छ्पाने का ढंग है बस इससे ज्यादा कुछ नही

उमाशंकर सिंह said...

बातचीत के इस अंश को भी आधार बना कर मैंने अपने चिठ्ठे पर अपनी पूरी बात रख दी है। वक्त मिले और ज़रुरी समझें तो एक नज़र मार लें।

शुक्रिया

अनूप शुक्ल said...

गिरिराज किशोर ने अपने एक लेख में कहा था- कड़ी से कड़ी बात भी संयत भाषा में कही जा सकती है। अब जब बोधिसत्व जैसे काबिल् कवि भाषा के मामले में इतने अपाहिज हैं कि अपने साथी कवि ,चाहे वे सही हों या गलत, के लिये इतनी सस्ती भाषा इस्तेमाल करते हैं। यह देखक्र दुख होता है कि अविनाश इसको सही मानते हैं।

Anonymous said...

anup aapki buddhi ki balihaari, maine kab bodhisatva ki bhaashaa ki waqaalat ki... maine to yahi kahaa ki bodhisatva ki bhaashaa unhein bepardaa kar rahi hai...

Anonymous said...

कहां हैं आप लोग, किस दुनियां में जी रहे हैं आप सब - इस ब्‍लाग पर जाएं तब पता चल जाएगा कि नंगई की भाषा किसे कहते हैं
http://bhadas.blogspot.com

रियाज़ हाशमी said...

मुझे नहीं लगता कि ये एक स्वस्थ बहस है। पहले अभिव्यिक्ति की स्वतंत्रता की सुस्पष्ट व्याख्या कीजिये और फिर बहस में पड़िये। अविनाश जी और नीलिमा के वाद-संवाद में मुझे ऐसा कुछ भी नहीं लगा कि अविनाश जी ने किसी खास भाषा या शब्द की वकालत की है। इसलिए ये कहना हिमाकत है कि मोहल्ले के मर्दवादी भाषिक तेवरों को लगाम दी जाए। मैंने नीलिमा के तेवर हमेशा मर्द विरोधी ही देखे हैं। गाहे बगाहे मर्दों को पेलना इनकी फितरत लगने लगा है। थोड़ा संयम और विवेक से इस चेटिंग को देखा जाए तो एक दोनों ओर से एक स्वस्थ बहस चली लेकिन उसका अंजाम मर्द विरोधी मानसिकता के नाम कर दिया गया।