आज असीमा कह रही हैं कल पता नहीं और कौन क्या क्या कहेगी ! एक ऎसी औरत जिसको सुखद दाम्पत्य जीवन नसीब नहीं हुआ और उसकी दूर दूर तक कोई संभावना न पाकर वह अपने पति पर कीचड उछ्ल रही है ! लोग सूंघेंगे बल्कि सूंघ रहे हैं कि वह औरत ऎसा क्या करती थी कि पीटी जाती थी !आखिर वह कुछ तो करती होगी ऎसा कि एक बहुत बडा संवेदनशील कवि हाथ उठाने पर मजबूर हो जाता होगा ! चार औरतें मिलकर यहां बखूबी बात करती पाई जा सकती हैं कि हमारा तो हमें नहीं पीटता बडे प्यार से रखता है ! जैसा कि मेरी पडोसन की सास कहती है कि औरत खुद ही अपने ऊपर हाथ उठवाती है ......! इस प्रसंग का उठ जाना बहुत अच्छा है क्योंकि बहुत सी पत्नियां अपने सुखी जीवन में सुख का तुलनात्मक अध्ययन कर सकती हैं , जान सकती हैं कि उनका पति औरों के मुकाबले कितना अच्छा पति है ..कि वह कभी कभार ही उसे पीटता है ..कि वह उसका अक्सर तो खयाल ही रखता है ..!
असीमा एक ऎसी औरत है जिसने जबान खोलकर जग की विवाहिताओं में अपना मजाक उडवाया है ! समाज के विवाहित पुरुषों के लिए उपहास का मसला बनी है ! उसे ऎसा नहीं करना चाहिए था ! यह मैं इस लिए भी कह रही हूं कि मैं यह देख पा रही हूं कि उन्होंने अपने लिए कैसा रपटीला रास्ता चुन लिया है जहां उनका मसला अंतत: एक पागल औरत का प्रलाप सिद्ध हो जाने वाला है ! मैं यह इसलिए जान पा रही हूं क्योंकि मैंने असीमा की कथा को छूने का प्रयास करती हुई एक कविता लिख डाली है और जिसकी एवज में चंद्रभूषणजी की पोस्ट पर टिप्पणी में प्रिय बोधि भाई सहित मेरी कल की पोस्ट पर कई गुमनाम भाईयों ने उत्साहवर्धक टिप्पणियों से नवाजा है! यह उत्सावर्धन जरूरी है नहीं तो चारों ओर यही कचरा फैल सकता है और कई सुखमय विवाहित जीवन नष्ट हो सकते है ! उनका कहना है कि कविता में यह सारा कीचड क्यों आए ! कविताई में यह वीरांगनापन एक अकवियित्री के द्वारा तो कतई मंजूर नहीं ! कविता सत्य,सुन्दर और काम्य के लिए है !इस तरह के कीचड और लीद के लिए नहीं ,और यह भी सामने आया कि कविताई का सारा मतलब बडे कवियों द्वारा सत्य व सुन्दर का संधान है ! मान लिया भाई जी ! पर यह मंच मेरा है जहां मैं अपने मंतव्य को जैसे चाहे लिख डालूं ! मैं जनपथ पर खडी नहीं न बोल रही, न ही आपके मंच पर तो आप काहे बिलबिला गए ! आप निश्चिंत रहें जनाब आपकी कविताई और उसकी शुचिता बनी रहेगी और पाठक भी बरकरार रहॆगे!
आप भी तो लिखते हैं न असीमाओं पर ! पर आपको तब पता नहीं होता कि आप जिनपर लिख रहॆ हैं वे सब भी असीमा हैं ! क्योंकि आप दूर से दिख रही असीमाओं पर लिख रहे होते हैं! आपकी काव्य चेतना में अनदेखी असीमाएं होती है हमने देखी हुई औरत असीमा की कविता कर डाली ! ...छोडिए भी....!
कविता क्या है ?यह बताने के लिए नए रामचंद्र शुक्लों का अवतार अपने बीच हो रहा है ! सच हो मगर दूर से ! सच ,मगर अपना ही, स्थापित हो गए बडे कवियों का ! उनके पास कवि दृष्टि है वे हमारे जीवन पर लिख सकते हैं पर हम अपने जीवन का भोगा हुआ नहीं कह सकते ! क्योंकि कविताई तमाशा है ! संवेदना का फैशन है ! रुतबा है ! मजा है, कुछ बडेपन का ऎसा अहसास बडे कवि जिसके परस्पर सिरजनहार हैं ! यह गुटधरता है ! संवेदनात्मक मौज है ! इनाम है! शोहरत है ! ........।संवेदनशील सामाजिकों में संवेदना की ठेकेदारी है...!
............. असीमा तुमहारा कहा बेकार जाएगा ! न तुम घर की होगी न घाट की ! तुम्हारे सच को बांटने जानने की सजा बहुत बडी हो सकती है ! क्यों मैं या और कोई भी औरत तुम्हारे साथ खडी होने के खतरे मोल ले ? वैसे भी मैं बहुत डरपोक हूं ! तुम मुझसे तो कतई कोई उम्मीद न रखना ! वैसे मैं जानती हूं कि तुम जानती हो मुंह खोल देने के बाद के अकेलेपन के रिस्क को !
असीमा..!! आज तुम सडक पर खडी हो .........कोई भी औरत जानती है कि किसी भी स्त्री का सडक पर दो मिनट भी खडे रहना क्या होता है .............और तुम तो सडक पर खडी हुंकार उठी हो ............. यह क्या कर डाला तुमने असीमा.......!!!