Monday, July 07, 2014

गुलामी का ग्रेंड-डिज़ाइन

सारा मामला ग्रेंडडिजाइन का है जनाब ! चाहे हमारे विश्वविद्यालयों पर चार साला शिक्षा नीति को थोपने की साजिश हो या उच्च - शिक्षा में सतही ज्ञान परोसेने वाले पाठ्यक्रमों के निर्माण की घटना हो या सिविल सर्विसिज में भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के आगे हीन बना देने का दुष्चक्र हो ...सब एक ही मास्टर प्लैनिंग का हिस्सा हैं ! ये उत्तर औपनिवेशिक इरा के अपने चरम रूप की झांकियां ही तो हैं जब हमारी भाषा , संस्कृति और ज्ञान पर "उनका ' नियंत्रण बनता जा रहा है ! ह्मारी भाषाओं को सरलीकृत करके उनको दीन- हीन और अनुपयोगी घोषित कर किया जा रहा है ! धीरे- धीरे हमें भाषिक पंगुता की ओर लेजाकर "वे" हमें अपनी भाषा की बैसाखियां पकडाना चाहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि यदि मन को गुलाम बनाना है , सोच को अगुवा करना है तो पहले अभिव्यक्ति के तरीकों को और आवाज को छीनना होगा ! दासता के महान डिजाइन की संकल्पना करने वाले जानते हैं कि तोपों से और बाहरी बल से गुलाम बनाने की बजाय टार्गेट को मन से सोच से गुलाम बनने के लिए प्रेरित करना कारगर और चिरस्थायी तरीका होता है !
हमारे विश्वविद्यालयों में भी ज्ञान को अपग्रेडिड और आधुनिक रूप में पेश करने के नाम पर जो पाठ्यक्रम और उसके प्रारूप लागू किए गए वे इसी साजिश का नतीजा थे ! ज्ञान का सतही और स्तरहीन , ढांचाविहीन ,परिकल्पना विहीन डिजाइन !


इस डिजाइन को मिलिट्री रूल के रूप में लागू किया गया, असंसदीय तरीके थोपा गया और उसके लिए सभी लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन किया गया ! साफ था यह पाठ्यक्रम इस बात को सुनिश्चित करता था कि छात्र सतही ज्ञान ही हासिल कर पाए और वह इस सिस्ट्म में केवल कल्रपुर्जा बनकर रहे !वह सोचने- समझने और सवाल करने के काबिल न बचे और अंतत: परफेक्ट गुलाम पैदा किये जा सकें !
आज हमें देश में अलग अलग रूपों में जो लड़ाईयां लडनी पड रही हैं वो सब आखिरकार एक ही हैं ! अपनी भाषा और ज्ञान की सम्प्रभुता की ये लड़ाईयां हमारे अस्तित्व के लिए किया जाने वाला हमारा संघर्ष हैं ! पर इनको एक करके देखने और मिलकर जूझने की कुव्वत अभी हम पैदा नहीं कर पाए हैं ! सिविल सर्विसिज के अभ्यर्थियों द्वारा किया जाने वाला आंदोलन बहुत छोटे तबके का ही ध्यान खींच पा रहा है ! हमारे यहां दूसरे की लड़ाई में अपनी टांग न फंसाने की जो नीति है उसका खामियाजा हर आंदोलन को उठाना पड़्ता है जबकि इसका पूरा फायदा सत्ताधारियों को मिल जाता है ! वरना क्या वजह थी कि एक स्तरहीन पाठ्यक्रम: इतने तानाशाह तरीके से देश की सबसे बड़े विश्वविद्यालय पर रातोंरात थोप दिया जाए और देश को उसकी सूंघ तक ना लगने पाए ! उत्तर औपनिवेशिकता की  जटिल अवधारणा  आसानी से समझ  में आ  जाती है जब हम बड़े चिंतकों और विचारकों और साहित्यकारों को पढ़ते हैं ! प्रसिद्ध अफ्रीकी साहित्यकार  चेख हामिदू अपने उपन्यास "एम्बिगुअस एड्वेंचर" में लिखते हैं - " काले उपमहाद्वीप को देखें तो यह बात समझ में आने लगती है कि ' उनकी' तोपों की असली ताकत उस दिन महसूस नहीं होती जिस दिन वे पहली बार गोले उगलती हैं ...इन तोपों के पीछे नए स्कूलों की नींव होती है ! नए स्कूलों की प्रकृति में दो चीजें हैं - तोपों के गुण भी हैं और चुंबक के भी ! तोपों के जोर से इसने फतह हासिल की लेकिन अपनी इस फतह को टिकाऊ  रूप देने के लिए इसने शिक्षा का सहारा लिया ! तोपों से शरीर पर अधिकार किया और स्कूलों से आत्मा पर ! "
जब देश की शिक्षा नीति बाहरी ताकतों के अनुसार बनाई जा रही हो और मातृभाषाओं की हत्या की योजनाएं बनाई जा रही हों : ऐसे में बुद्धिजीवी तबके का दायित्व और बढ जाता है क्योंकि देश का एक बड़ा तबका इतनी दूरअंदेशी से देखने योग्य नहीं बनने दिया गया होता और दूसरा छोटा पर शक्तिशाली तबका "उनके" साथ मिली भगत में है ! आश्चर्य कि भाषाओं के दमन की नीति और अंग्रेजी के प्रभुत्व को आरोपित करने के खिलाफ चल रही लड़ाई अपने ही घर में अपने ही लोगों से है !अंग्रेजी की अनिवार्यता का फर्जी नियम लागू करके , देश की सर्वोच्च सेवा करने वाले तंत्र में अंग्रेजी भाषा और उसी के हितों की पूर्ति करने वाले तबके को काबिज करके -- हम दासता के परम शिकंजों में फंसने जा रहे हैं ! जाहिर है जिसकी भाषा होगी उसी के हित और अधिकार होंगे ! बेजुबान और शब्दहीन की क्या बिसात होगी ! इसी प्रक्रिया में भारतीयता, राष्ट्रीयता, संस्कृति , अस्मिता और विकास जैसे शब्द हाशिए पर पहुंचकर अपना अर्थ खो देंगे और केवल शब्दकोश में सुप्त पड़े पाए जाएंगे !

2 comments:

Unknown said...

दासता के महान डिजाइन की संकल्पना करने वाले जानते हैं कि तोपों से और बाहरी बल से गुलाम बनाने की बजाय टार्गेट को मन से सोच से गुलाम बनने के लिए प्रेरित करना कारगर और चिरस्थायी तरीका होता है !
हमारे विश्वविद्यालयों में भी ज्ञान को अपग्रेडिड और आधुनिक रूप में पेश करने के नाम पर जो पाठ्यक्रम और उसके प्रारूप लागू किए गए वे इसी साजिश का नतीजा थे ! ज्ञान का सतही और स्तरहीन , ढांचाविहीन ,परिकल्पना विहीन डिजाइन !

Sanjay kumar said...

कल जनसत्ता में प्रकाशित नीलिमा आपका लेख पढ़ा अच्छा था। लेकिन आप कह रही है कि हमारे यहां दूसरे की लड़ाई में अपनी टांग न फंसाने की जो नीति है, उसका खमियाजा हर आंदोलन को उठाना पड़ता है।
मैं आपकी इस बात से सहमत हूं क्योंकि दरअसल अब जो है मुद्दे बांट लिए गए। हर मुद्दों के लिए अलग-अलग संगठन बन गए और ये संगठन अपने अब स्वार्थहित अधिक सोचते है। किसी एक मुद्दे पर सभी लोगों के आने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।