Saturday, February 21, 2009

दिल्ली विश्वविद्यालय ; एक नज़र यह भी

दिल्ली विश्वद्यालय के हाईटेक संस्थान - "इंस्टीट्यूट ऑफ लाइफ लॉंग लर्निंग" के आधुनिकतम भवन के दरवाजे के बाहर देश और उसका भविष्य


दिल्ली विश्वविद्यालय का मुख्य दरवाजा और विवेकानंद प्रतिमा के पास सपने बुनता बच्चा



7 comments:

आशीष कुमार 'अंशु' said...

.... निशब्द कर दिया आपकी तस्वीरों ने .

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

फ़िक़्र किसको है?

शुभ said...

तस्वीरों ने महानगर के असली सच को दिखया है जिसे लोग प्राय स्वीकार नही करना चाहते

हें प्रभु यह तेरापंथ said...

निलिमाजी
बडी ही दुखद स्थिति से आपने अवगत कराया। आपका शुक्रिया इस चेतना भरे मोन सन्देश के लिये।
आप इसी तरह के मुद्दो को उठाते रहे कही तो रोशनी देखेगी।

HEY PRABHU YEH TERA PATH
http://ombhiksu-ctup.blogspot.com/

Sanjeet Tripathi said...

बहुत सही!
क्यों हमारे यहां तकरीबन हर यूनिवर्सिटी का यही माहौल दिखता है।
आज से पांच साल पहले रायपुर की रविशंकर शुक्ल यूनिवर्सिटी के कैंटीन में एक बाल श्रमिक को देखकर कैंटीन ठेकेदार से बहस हो गई थी, वो एक पूर्व छात्र नेता थे जो कि अभी भी छात्र नेता का तमगा लगाए घूमते हैं।

के सी said...

दृश्य तो सबके लिए एक समान होते है किंतु इस पोस्ट में मुझे, आपकी देखने की अदा पसंद आई

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

बाल मजदूरी को दूर करने का सबसे कारगर तरीका है पांच साल से अधिक उम्र के सभी बच्चों को कंपलसरी स्कूल में भर्ती कराना। सरकार यह कर नहीं रही है, और हम उसे करने को बाध्य नहीं कर रहे हैं। इसलिए हम सब इसके लिए दोषी हैं। जो सरकार एयरपोर्ट, फ्लायओवर, कामनवेल्थ गेम्स आदि में लाखों करोड़ रुपए खर्च कर सकती है, वह क्या देश में पूर्ण साक्षरता लाने के लिए धन नहीं जुटा सकती है? जरूर जुटा सकती है, पर सरकार पर जिनका अंकुश है, वे नहीं चाहते कि सर्वशिक्षा जैसे कार्यक्रमों में सरकार पैसा खर्च करे, बल्कि ऐसी योजनाओं में करे जो उन्हें फायदा पहुंचाएं, जैसे खर्चीले हथियार खरीदना, बड़ी-बड़ी सड़कें-फ्लायओवर बनवाना, ताकि विदेशी कार कंपनियों के लिए बिक्री बढ़ें, इत्यादि-इत्यादि।

हम सब इन बातों को नहीं समझते हैं, या समझकर चुप बैठे रहते हैं, और इसलिए दोष का अंश हमारे हिस्से में भी खूब आता है।

बाल मजदूर की तस्वीरें छापकर और सहानुभूति के दो-श्बद कहकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं मान सकते। हमें मांग करना होगा कि देश के सभी बच्चों (जिनमें निश्चय ही बच्चियां भी शामिल हैं) को सोलह साल की उम्र तक पढ़ाया-लिखाया जाए।