Thursday, March 26, 2009

आपके शहर के सुनसान और खतरनाक रास्ते कौन से हैं ?

अगर आप स्त्री हैं तो अंधेरे ,सुनसान रास्तों पर अकेले न जाएं ! आप बलात्कार , हत्या , लूटपाट का शिकार हो सकतीं हैं ! ............आप रोज़ वहां से गुजरतीं हैं ? हो सकता है किसी रोज़ आपकी सडी गली लाश ही मिले....

जाहिर है हममें से कोई भी कामकाजी या घरेलू स्त्री अपनी किसी छोटी -सी ज़िद ,ज़रूरी काम या आपात से आपात स्थिति में भी रात में घर से बाहर अकेले नहीं निकलना चाहेगी ! न ही दिन के उजाले में सुनसान सड्कों से गुज़रना चाहेंगी ! स्त्री के लिए बदलता समाज और बदलते समाज में सशक्त होती स्त्री, पुरुष से बराबरी पर दिखाई देती है ! पर वास्तव में यह ऎसा सामाजिक मिथक हैं जिसका चेहरा यथार्थ से काफी मिलता जुलता है !

यदि आज कोई स्त्री या लडकी इस सबसे बड़ी सामाजिक मिथकीय संरचना को जानना चाहे तब भी वह क्या रात के बारह -एक बजे अपने घर की चाहरदीवारी को लांघकर सडक पर निकल सकती है !  समाज में अपनी बराबरी को जानने के लिए कोई भी स्त्री सौम्या या जिगीशा का सा हश्र नहीं चाहेगी ! दिल्ली की सडकों पर रात में इंडिया गेट के आगे से अगुवा कर बलात्कार का शिकार बनाई गई  लडकी , दिल्ली के साउथ कैंपस में रात में भरी रिंग रोड पर चाय की दुकान के आगे से अगुवा कर सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई छात्रा  - जैसी अनेक घटनाएं हैं जिनसे बार बार असुरक्षित स्त्री समाज की विडंबना उभर कर आती है !

एक बडे अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया के मुख्य पन्ने पर स्त्रियों के लिए खतरनाक दिल्ली के दस  स्ट्रेचिज़ की पहचान की गई है ! आप अगर स्त्री हैं तो आप इनमें और भी कई एसे रास्ते जोड सकती हैं जहां आपने खुद को असुरक्षित महसूस किया हो ! आप वहां से न गुज़रें ! क्योंकि इन रास्तों से गुजरती स्त्री एक आसान शिकार हो सकती है यह सब अपराधियों को पता है ! वे यह भी जानते हैं कि वहां आपको बचाने वाला कोई मर्द भी नहीं होगा न ही आपकी चीखों पुकार किसी के कानों तक पहुंच पाएगी !  यूं तो कई बार अपने घर के आगे टहलती लडकियों को अगुवा कर बलात्कार की घटनाए भी होती रहतीं हैं और अपने घर में भी वे अपराध का शिकार बनाई जा सकती हैं परंतु घर के बाहर कामकाज के लिए रोजाना निकलने वाली स्त्री जिस असुरक्षा और रिस्क के साए तहत काम करती है वह मेरी दृष्टि में स्त्री का प्रतिक्षण का मानसिक शोषण है ! कामकाज के लिए बराबरी की स्पर्धा सहती स्त्री के मन में प्रतिक्षण  बसा यह डर कि उसे कहां कहां से कब कब नहीं गुज़रना उसकी कार्य - क्षमता को बाधित करता है !

किसी सभ्य समाज में पुलिस द्वारा कामकाजी स्त्रियों की अपने ऑफिस तक की यात्रा के संबंध में निकाले गए हिदायत वाले विज्ञापन हों या अखबारों में असुरक्षित जगहों की पहचान की कवायद हो - सबसे यही सिद्ध होता है कि और कुछ तो बदल नहीं सकता इसलिए आप यदि अपराधों का शिकार होने से बचना चाहती हैं तो कई सारी सावधानियों से काम लें - शायद आप बच जाएं !  समाज वही रहेगा सडकें वही रहेंगी,  अपराधी बलात्कारी रहेंगे , अकेलापन अंधेरा सब होगा - आपको बचने के तरीके आने चाहिए ! न आते हों सीख लें जिससे आज आप बचकर यह सोच लें कि आज आप बचीं हैं तो आपकी जगह ज़रूर कोई और हुई होगी शिकार !

मेरी बडी तमन्ना रही है बचपन से कि किसी सडक किनारे की चाय वाली गुमटी के बाहर पटरी पर अकेले ही ढली शाम तक बैठकर चाय पी जाए पर एक चाय और उस सुकून का रिस्क मैं कभी ले नहीं पाई ! और अब तो यही शुक्र मनाती हूं कि मैं किसी कॉल सेंटर , मीडिया कपंनी या ऎसे मल्टी नेश्नल में नहीं काम करती जहां से आधी रात को काम से लौटना होता !

आप सब भी सुकून मनाइए कि आपकी पत्नियां बेटियां और बहनें दिन दिन में ही अपने काम काज से  घर लौट आती हैं और आपके शहर के उन सुनसान रास्तों से उनको कभी गुजरना नहीं होता !

चित्र के लिए आभार

8 comments:

varsha said...

कामकाज के लिए रोजाना निकलने वाली स्त्री जिस असुरक्षा और रिस्क के साए तहत काम करती है वह मेरी दृष्टि में स्त्री का प्रतिक्षण का मानसिक शोषण है ! sahi kaha aapne ek din pahle jaipur me ek ladki ke kathit premi ne hi uski hatya kar di kahan surakshit hai stree?

अविनाश वाचस्पति said...

शहर के सुनसान रास्‍तों को

सरकार को सुना सुनाकर

भीड़ बनाया जा सकता है

पर मन जो खतरे पैदा करता है

उसे कौन से सान पर घिसोगे

जिससे उससे खतरा निकल जाए

और मन प्रसन्‍न हो जाए

फिर कोई नहीं होगा सन्‍न

प्रफुल्लित रहेगा सबका मन।

के सी said...

बहुत अच्छी पोस्ट है, सावचेत करती हूई , शिक्षित करती हूई और कई प्रश्न पूछती हूई. सोवियत के गठन के बाद समाज शास्त्रीयों का मानना था कि अब इस राष्ट्र में चोरी और अपराध जैसी घटनाएँ समाजवादी राष्ट्र में नहीं होगी लेकिन तीस वर्षों में ही हटा दी गयी जेलों के कारण स्थितियां बिगड़ती चली गयी मेरा अभिप्राय यह है कि मनुष्य के भीतर का शैतान दमन के बाद भी सर उठाता रहेगा. आवश्यकता है जागरूक बनने की शिक्षित होने के साथ साथ व्यवहारिक संसार को जानने की.

ghughutibasuti said...

बहुत अच्छा लेख है। परन्तु मेरी बेटियाँ तो ऐसी नौकरियों में नहीं हैं कि दिन में ही घर लौट सकें। ऐसे रोजगार कम ही रह गए हैं और सभी ऐसे काम में रुचि भी नहीं रखते। यदि जरा भी काम के प्रति प्रतिबद्धत्ता होगी तो शाम देर से लौटना स्वाभाविक है।
घुघूती बासूती

डॉ. मनोज मिश्र said...

सही दृष्टि , परन्तु हालत चाहे जैसे हों कर्तब्य पथ पर निकलना तो पड़ेगा ही .

Vikas said...

Dar lagta hai ye sab padhkar,

Ram Dwivedi said...

मार्मिक अौर सारगर्भित लेख

somadri said...

एक थडी पे चाय की चुस्कियों का लुत्फ़ लिया जा सकता है, इसके लिए देश, काल, समय और पात्रता पे गौर फरमाना जरुरी है..खासतौर से नारी के लिए ..
वैसे पोस्ट अच्छी लगी