Wednesday, July 25, 2007

लोग जा़लिम हैं हरइक बात का ताना देंगे

आज असीमा कह रही हैं कल पता नहीं और कौन क्या क्या कहेगी ! एक ऎसी औरत जिसको सुखद दाम्पत्य जीवन नसीब नहीं  हुआ और उसकी दूर दूर तक कोई संभावना न पाकर वह अपने पति पर कीचड उछ्ल रही है ! लोग सूंघेंगे बल्कि सूंघ रहे हैं कि वह औरत ऎसा  क्या करती थी कि पीटी जाती थी !आखिर वह कुछ तो करती होगी ऎसा कि एक बहुत बडा संवेदनशील कवि हाथ उठाने पर मजबूर हो जाता होगा ! चार औरतें मिलकर यहां बखूबी बात करती पाई जा सकती हैं कि हमारा तो हमें नहीं पीटता बडे प्यार से रखता है ! जैसा कि मेरी पडोसन की सास कहती है कि औरत खुद ही अपने ऊपर हाथ उठवाती है ......! इस प्रसंग का उठ जाना बहुत अच्छा है क्योंकि बहुत सी पत्नियां अपने सुखी जीवन में सुख का तुलनात्मक अध्ययन कर सकती हैं , जान सकती हैं कि उनका पति औरों के मुकाबले कितना अच्छा पति है ..कि वह कभी कभार ही उसे पीटता है ..कि वह उसका अक्सर तो खयाल ही रखता है ..!

असीमा एक ऎसी औरत है जिसने जबान खोलकर जग की विवाहिताओं में अपना मजाक उडवाया है ! समाज के विवाहित पुरुषों के लिए उपहास का मसला बनी है ! उसे ऎसा नहीं करना चाहिए था ! यह मैं इस लिए भी कह रही हूं कि मैं यह देख पा रही हूं कि उन्होंने अपने लिए कैसा रपटीला रास्ता चुन लिया है जहां उनका मसला अंतत: एक पागल औरत का प्रलाप सिद्ध हो जाने वाला है ! मैं यह इसलिए जान पा रही हूं क्योंकि मैंने असीमा की कथा को छूने का प्रयास करती हुई एक कविता लिख डाली है और जिसकी एवज में चंद्रभूषणजी की पोस्ट पर टिप्पणी में प्रिय बोधि भाई सहित मेरी कल की पोस्ट पर कई गुमनाम भाईयों ने उत्साहवर्धक टिप्पणियों से नवाजा है! यह उत्सावर्धन जरूरी है नहीं तो चारों ओर यही कचरा फैल सकता है और कई सुखमय विवाहित जीवन नष्ट हो सकते है ! उनका कहना है कि कविता में यह सारा कीचड क्यों आए ! कविताई में यह वीरांगनापन एक अकवियित्री के द्वारा तो कतई मंजूर नहीं ! कविता सत्य,सुन्दर और काम्य के लिए है !इस तरह के कीचड और लीद के लिए नहीं ,और यह भी सामने आया कि कविताई का सारा मतलब बडे कवियों द्वारा सत्य व सुन्दर का संधान है ! मान लिया भाई जी ! पर यह मंच मेरा है जहां मैं अपने मंतव्य को जैसे चाहे लिख डालूं ! मैं जनपथ पर खडी नहीं न बोल रही, न ही आपके मंच पर तो आप काहे बिलबिला गए ! आप निश्चिंत रहें जनाब आपकी कविताई और उसकी शुचिता बनी रहेगी और पाठक भी बरकरार रहॆगे!

आप भी तो लिखते हैं न असीमाओं पर ! पर आपको तब पता नहीं होता कि आप जिनपर लिख रहॆ हैं वे सब भी असीमा हैं ! क्योंकि आप दूर से दिख रही असीमाओं पर लिख रहे होते हैं!  आपकी काव्य चेतना में अनदेखी असीमाएं होती है हमने देखी हुई औरत असीमा की कविता कर डाली ! ...छोडिए भी....!

कविता क्या है ?यह बताने के लिए नए रामचंद्र शुक्लों का अवतार अपने बीच हो रहा है ! सच हो मगर दूर से ! सच ,मगर अपना ही, स्थापित हो गए बडे कवियों का ! उनके पास कवि दृष्टि है वे हमारे जीवन पर लिख सकते हैं पर हम अपने जीवन का भोगा हुआ नहीं कह सकते ! क्योंकि कविताई  तमाशा है ! संवेदना का फैशन है ! रुतबा है ! मजा है, कुछ बडेपन का ऎसा अहसास बडे कवि जिसके परस्पर सिरजनहार हैं ! यह गुटधरता है ! संवेदनात्मक मौज है ! इनाम है! शोहरत है ! ........।संवेदनशील सामाजिकों में संवेदना की ठेकेदारी है...!

............. असीमा तुमहारा कहा बेकार जाएगा ! न तुम घर की होगी न घाट की ! तुम्हारे सच को बांटने जानने की सजा बहुत बडी हो सकती है ! क्यों मैं या और कोई भी औरत तुम्हारे साथ खडी होने के खतरे मोल ले ? वैसे भी मैं बहुत डरपोक हूं ! तुम मुझसे तो कतई कोई  उम्मीद  न रखना ! वैसे मैं जानती हूं कि तुम जानती हो मुंह खोल देने के बाद के अकेलेपन के रिस्क को !

असीमा..!! आज तुम सडक पर खडी हो .........कोई भी औरत जानती है कि किसी भी स्त्री का सडक पर दो मिनट भी खडे रहना क्या होता है .............और तुम तो सडक पर खडी हुंकार उठी हो ............. यह क्या कर डाला तुमने असीमा.......!!!

8 comments:

Anonymous said...

आप लिखती रहे .ब्लोग आपका है ,मरजी भी आपकी,चाहे आप कविता लिखे या और कुछ ,जिसे
यहा लीद का टेस्ट मिला है .उसको धन्यवाद आखिर खाने वाला ही टेस्ट जानता है,नही पसंद आई दुबारा मुंह ना डाले.कही और जाकर अपने पसंद की लीद ढूढ कर खाले. आप अपने कार्य मे लगी रहे ,बहुत अच्छी कविता थी.

सुजाता said...

पूजा चौहान जब निकलती है सडक पर तो एक भी औरत वहां दिखाई नही पडती ।वे शायद पतियों द्वारा ठेल दी जाती है देहरी के भीतर ।असीमा जब ब्यां करती है पीडा तो पति चुप्पी का इशारा कर देते हैं शालीन पत्नियो‍ को या उसका लिखा छुपा देते है कहीं ।जला डालना चाह्ते है ऐसा दस्तावेज़ ।मर्द एक बेइमान मर्द का साथ देन्गे या पीडित स्त्री का ???

नाम में क्या रखा है? said...

अपनी बेड़ियों का सबसे बड़ा समर्थक गुलाम ही होता है

Mohinder56 said...

AURAT AURAT KA DURD NAHI SAMJHEGI TOE OR KAUN SAMJHEGA...

LIKHNA HAMARA PAISHA NAHI SHAUK HAE...OR SHAUK KE LIYE KISI KO BHI PEEDA PAHUNCHE JISMAANI YA DEEMAGI... SOCHNA JAROORI HAE......CHAHE WO ASEEMA HO YA POOJA CHAUHAN

Sanjeet Tripathi said...

गज़ब लिख रहीं है आजकल आप!!

परमजीत सिहँ बाली said...

अपनी संवेदनाओ और विचारों को लिखते रहें।

अनूप शुक्ल said...

सही है। मैंने चंद्रभूषणजी पोस्ट पर बोधिस्तवजी की टिप्पणी पढ़ी है जिसमें उन्होंने कहा है कुछ देवियाँ तो वीरांगना तुम बढ़ी चलो स्टाइल पर महाकाव्य तक लिखने लगी हैं।यह टिप्पणी उनकी समझ और अभिव्यक्ति के स्तर को बताती है।जरूरी नहीं कि एक अच्छा कहलाये जाने वाले कवि की हर अभिव्यक्ति बेहतरीन ही हो। कवि हमेशा कविता ही तो नहीं करेगा, कहीं न कहीं सहज भाव से अपने मन के भाव भी तो कहेगा भाई!
उसी पोस्ट में नसीरुद्धीनजी ने आलोक धन्वा के बारे में लिखा है। वह टिप्पणी पढ़कर पता चलता है कि आलोक धन्वा भले ही रेडिकल कवि हों जिनकी छवि लार्जर दैन लाइफ वाली है लेकिन एक अच्छा कवि अच्छा इंसान, पति, प्रेमी, दोस्त हो यह अनिवार्य नहीं।
मैंन नहीं जानता कि आलोक धन्वा के अपने पत्नी से कैसे संबंध हैं वे कितना पीटते हैं अपने से बीस साल छोती पत्नी को या कितना प्यार करते हैं। यह सच उनसे जुड़े लोग बेहतर समझ सकते हैं लेकिन
अगर वे ऐसा या इसी तरह का कुछ करते हैं तो उनकी हरकतें निंदनीय हैं। दुनिया के कितने भी बड़ें कवि हों वे एक इंसान के तौर पर वे बहुत छोटे हैं। बड़ा कवि होना इस बात की छूट नहीं देता कि आप दूसरे इंसान को पीटने लगें।
आपकी पोस्ट अच्छी लगी। लेकिन मुझे यह भी लगता है कि आप बोधिसत्वजी और कुछ अनाम टिप्पणियों से कुछ ज्यादा ही परेशान हो गयीं। इस चक्कर में असीमा की बात कुछ पीछे हो गयी। आप ऐसे महान कवियों की हर बात से परेशान होंगी तो जीना मुश्किल हो जायेगा। :)
इसी बहाने मेरी एक कविता पढ़िये जो मैंने बहुत पहले लिखी थी-
मैं ,
अक्सर,
एक गौरैया के बारे में सोचता हूं,
वह कहाँ रहती है -कुछ पता नहीं।

खैर, कहीं सोच लें,
किसी पिजरें में-
या किसी घोसले में,
कुछ फर्क नहीं पड़ता।

गौरैया ,
अपनी बच्ची के साथ,
दूर-दूर तक फैले आसमान को,
टुकुर-टुकुर ताकती है।

कभी-कभी,
पिंजरे की तीली,
फैलाती,खींचती -
खटखटाती है ।

दाना-पानी के बाद,
चुपचाप सो जाती है -
तनाव ,चिन्ता ,खीझ से मुक्त,
सिर्फ एक थकन भरी नींद।

जब कभी मुनियाँ चिंचिंयाती है,
गौरैया -
उसे अपने आंचल में समेट लेती है,
प्यार से ,दुलार से।

कभी-कभी मुनिया गौरैया से कहती होगी -
अम्मा ये दरवाजा खुला है,
आओ इससे बाहर निकल चलें,
खुले आसमान में जी भर उड़ें।

इस पर गौरैया उसे,
झपटकर डपट देती होगी-
खबरदार, जो ऐसा फिर कभी सोचा,
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।


आप नियमित और अच्छा लिखती रहें इसके लिये शुभकामना!

बोधिसत्व said...

अनूप जी दोनो रचनाएं बेहतरीन हैं। अच्छी कविता रचने के लिए मेरी बहुत सारी बधाइयाँ। मैंने बहुत पहले एक चिठ्ठा लिखा ता कि गुमनाम लोगों की बातों को दर्ज नहीं किया जाना चाहिए इसी से ऊब कर मैं ने अपने बलॉग पर गुमनाम लोगों की प्रतिक्रिया का हिस्सा ही बंद कर रखा है।