चारों ओर ये युवक कमर पर छोटे- छोटे बैग टांगे घूमते दिखाई दे रहे थे ! हमने जिस भी आंख में झांका उत्साह की मणिमय चमक ही दिखाई दी ! उन आंखों में सपने थे , उन चेहरों पर तेज था , उनकी पतली -लंबी कायाओं में पहाड की पैदा की हुई फुर्ती थी ! बारहवीं का इम्तहान देकर यहां जुटे ये पहाडी बेटे चारों ओर बिखरे थे ! एक छोटे समूह से हमने बात की तो पता चला कि कल इनकी भर्ती प्रक्रिया का पहला टेस्ट होगा ! आखिरी टेस्ट में केवल कुछ सौ चुने जांएगे जबकि यहां आए युवकों संख्या पांच- छ्ह हजार है ! पहले दौर में सौ- सौ युवकों को एक साथ दौडना होगा और छांटे गए युवकों को आगे की शारीरिक परीक्षाओं से गुजरना होगा ! उन युवकों की मजबूत देह और निष्कलंक कोमल चेहरे देखकर अपने शहराती नवयुवक याद आए ! पीजा हट ,बरिस्ता , मेकदोनाल्ड , मालों की सीडियों पर या फिर पार्कों में बैठे फिल्मी प्रेम दृश्यों को साकार करते , पार्टियों में उमडे उधडे ये नवयुवा जिनके लिए देश , साहित्य , समाज ,संस्कृति, भावनाओं का कोई मूल्य नहीं है ! वे सिर्फ बाजार द्वारा इस्तेमाल के लिए पैदा किए गए जीव हैं जिनके लिए खुद से ऊपर जहान में न कुछ है और वे मानते हैं कि न कभी हो सकता है !...... नहीं .......हम अपना ध्यान झटक देते हैं !
तो इन नन्हों की जीवनी शक्ति पर रहेंगे हम सुरक्षित , देश की सीमाएं बनी रहेंगी ! ये पहाड को बचाए रखेगे ताकि हमारे मैदान बचे रहें ! इनमें से पता नहीं कौन कब बलिदान दे जाएगा अपना बिना हमारे जाने ....हम कभी पता नहीं जान पाएंगे कि आज हमारे लिए इनमें से कौन शहीद हो गया.......... ..हम जस -के -तस जिऎगे ........जीते जाऎगे........ जब तक कि किसी गंदी बिमारी , सडक दुर्धटना या फिर किसी आत्म हत्यारे खयाल का शिकार नहीं हो जाऎगे........हम जीते जाऎगे .........और ये हमारी चरसी लौंडे लौंडियों की खरपतवार..........इसे बढाते जाऎगे.........
17 comments:
नीलिमा जी ,
काफी अच्छा लिखा है आपने। सचमुच दिल्ली जैसे शहरों की युवा पीढी बाज़ार ने इस तरह से पैदा की है कि वह अपनी मूल संवेदनाओं और सामाजिक सरोकारों से कट गयी है। "स्थूलता की संस्कृति" इसे ही तो कहते हैं।
वे सिर्फ बाजार के इस्तेमाल के लिए पैदा किए गए जीव हैं ..या बाज़ार के द्वारा इस्तेमाल के लिये पैदा किये गये.. यही सोचने का विषय है..
अच्छा ध्यानाकर्षण किया है आपने..
पहाडी परिवेश में रहने वाले युवजन, जो पहाडों को अपनी जननी मानते हुए, अभावों से युक्त जीवन जीने को मजबूर हैं। इनके लिये दो जून की रोटी का जुगाड करने का प्रबन्ध करने के बारे में सोचना चाहिये नही तो वह दिन दूर नही कि जब चरस शहर से बस, रिक्शा, तांगा पकड कर इन पहाडों में पहुंच जाए।
ऐसी बातें दिल को सुकून देती है नयी पीढी पर हमारे विश्वास को जगाये रखती है नही तो यहां विश्वास रोज टूटता है कभी टीवी देखकर तो कभी समाचार पत्र पढकर तो कभी पडोसी से सुनकर, धन्यवाद दोनो पहलू की शव्दमय चित्रमय प्रस्तुति के लिए
नीलिमा जी पहाड़ का युवक देशभक्त है ही इसमें कोई शक नहीं। गढ़वाल राइफल्स पुराने समय से ही अपनी शूरता के लिए प्रसिद्ध रही है। लेकिन सेना में भर्ती होने का एक और कारण है बेरोजगारी। पहाड़ी युवकों के पास पढ़लिखकर एक ही रास्ता है, नौकरी तलाशने बाहर जाओ, कुछ फौज में भर्ती हो जाते हैं।
अगर वहाँ बेरोजगार न होती तो आज मैं अपनी जन्मभूमि में होता। :(
इस विषय में विस्तार से फिर कभी।
उन दो तस्वीर मे हम तुम लोग है सब से नीचे वाली तस्वीर मै पेज३ वाले लोग है
विचारों को आपने अच्छी तरह से अभिव्यक्त किया है पर ये शीर्षक चुराने की क्या आवश्यकता पड़ गयी, कुछ विशेष प्रभाव डालने के लिये क्या...
"...पर्वतः स्तन मण्डले, विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं..." पर्वत ही माता लक्ष्मी के स्तनमण्डल हैं, जिनसे दुग्धधार रूप गंगाएँ बहकर समग्र संसार का पालन करती हैं। पर्वतों में लक्ष्मी भरी है। आज विश्व में 'हेल्थ इण्डस्ट्री' सबसे अधिक कमाऊ पूत है। पर्वतीय क्षेत्रों में यदि "औषधीय वनस्पतियों" की खेती के काम में इन युवकों को लगाया जाए तो इनको भी रोजगार मिलेगा और राष्ट्रीय आय भी बढ़ेगी तथा लोगों को अच्छा स्वास्थ्य...
अच्छा लेख है। प्रकृति का सान्निध्य सम्वेदनशीलता को जन्म देता है। शहरी युवा उससे कट कर "स्व" के क्षुद्र खोल में ही जी रहे हैं।
जब अखबारों और टीवी पर सनसनी, वारदात, लड़ाई, झगड़े, हिन्दू- मुसलमान, हिन्दू ईसाई के झगड़े आदि समाचार देखते हैं तब ऐसे में इस तरह की बातें मन को एक सुखद अहसास देती है, और उम्मीदें जगाती है कि अभी दुनियाँ में बहुत कुछ अच्छा बचा है।
धन्यवाद नीलीमाजी
अच्छा चिंतन है और सुंदर प्रस्तुतिकरण.
अच्छा लिखा है ।आपका लेख यही दर्शाता है कि युवा अपने आसपास के परिवेश से कितने प्रभावित होते हैं । शायद पर्वतों की गोद में रहने वाले ये युवा, महानगरीय जिंदगी में प्रवेश करते तो वो भी उस संस्कृति से अपने आप को मुक्त ना कर पाते ।
मूल प्रश्न है भारत बनाम इंडिया का.
स्पष्ट तौर पर हमारे यहा पूरा समाज दो हिस्सोँ मेँ बंटा हुआ है.
जाहिर है 'चरसी...'इंडिया वर्ग से आते है,बल्कि वहाँ के भी इलीट वर्ग से.
भारत अभी विकास की दौड़ मँ है.हा, कुछ लोग यहा भी शौर्ट कट ढ़ूंढते हैँ.
कुछ तो भारत वर्ग से निकल कर इंडिया वर्ग मेँ शामिल हुए है.यही वो वर्ग है जो सबसे ज्यादा पश्चिम परस्त है.
भारत बनाम इंडिया का यह संघर्ष जारी रहेगा और यह विभेद आसानी से मिटने वाला नही है.
अरविन्द चतुर्वेदी
http://bhaarateeyam.blogspot.com
Thanks fot you work and have a good weekend
आपकी बात से असहमती का सवाल ही नही उठता। पर दर्द जहां पर होता है, निगाह वहां जाती ही है। आपने इस बारे में हमारा ध्यान खींचा, इसके लिये आप बधाई की हकदार हैं।
अच्छा विषय है..और चिंतन भी..ऊपर से नई पीढी की सोच को उजागर करती कलमकारी...जिस पर खुद ब खुद ध्यान जाकर ठहर जाता है..
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