Saturday, March 24, 2007
रुकोगी नहीं क्या, इड़ा....
कभी कभी मन में प्रश्न उठता है कि जयशंकर प्रसाद की "कामायनी" क्या कभी अप्रासंगिक नहीं होगी और बदीउज्जमां का एक 'चुहे की मौत 'क पात्र 'वह,'ग' आदि क्या हम सब में सदा के लिए घर कर गए हैं? ....उफ बडे कडे और टेढ़े सवाल हैं.....दरअसल व्यव्स्था का अंग होकर जीना व्यक्ति के लिए आसान होता है । उसके ढेरों भौतिक फायदे होते हैं ।पर व्यवस्था से संवेदना की उम्मीद नहीं की जा सकती बल्कि व्यवस्था हमें सिखाती है स्वयं की तरह ही संवेदनहीन होना। व्यवस्था के लिए व्यक्ति मात्र उपकरण होता है--व्यवस्था रुपी मशीन का यंत्र मात्र ।यंत्र के लिए जरुरी है --यांत्रिकता। संवेदनाओं का यहां काम ही क्या?व्यवस्था के लिए व्यक्ति नामहीन है या यों कहें कि उसके लिए व्यक्ति एक नंबर भर है ।हमारे पास दो तीन तरह के ही रास्ते बच रहते हैं--इस संघर्ष के विरोध स्वरुप एक अन्य व्यवस्था खडी करना चाहते हैं या फिर व्यव्स्था को अपनी नियति मान बैठते हैं या फिर इस दुर्ग के भीतर के बजाए बाहर खडे होकर वार करना चाहते हैं! जो भी हो यह यांत्रिकता ,संवेदनशून्यता हमारे भीतर इतनी उतरती जाती है कि कोमल भावनाएं उपहास का विषय लगने लगती हैं! यही वजह है कि कला के स्थूल से लेकर सूक्ष्म माध्यम को भी सच्चे सहृदय बहुतायत में नहीं मिल पाते !दर्शक पर एक संवेदनाप्रधान फिल्म का प्रभाव सिनेमा घर के बाहर काफूर हो जाता है। उसके बाद यह तो हो सकता है कि दर्शक इस फिल्म को एक रोचक फिल्म के रूप में याद करें किंतु यह कलात्मक अनुभव उस दर्शक के जीवन में संवेदनात्मक पक्ष को समृद्ध बनाए -यह नहीं होने पाता।साहित्य की तो खैर इस संदर्भ में बात ही क्या की जाए .....बात ये कहां से कहां आ गई मैं दरअसल कह यह रही थी कि व्यवस्था व्यक्ति को आतंकित करती है और अभ्यस्त बनाती है । एक व्यक्ति के लिए इसकी विकरालता और जटिलता इतनी अबूझ होती है कि वह सहर्ष यांत्रिक हो जाता है..भावनाओं की सतरंगी दुनिया से परे,संवेदना के कोमल धरातल से दूर..वह होता है मात्र एक कलपुर्जा(कामायनी की सारस्वत सभ्यता...और इड़ा) ...इस अतिमशीनीकृत सभ्यता संस्करण में "आंसू "की नम धरती ,झरने सा उत्फुल्लित जीवन और मानव से मानव का मानवीय संबंध कब होगा ....?
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5 comments:
काफी गम्भीर चिंतन करती है आप।
अगर (यांत्रिकी) व्यवस्था है तो मानवीय संवेदनाए भी तो है। आखिर आज अगर हम आपको और आप हमे पढ रही है तो वह एक व्यवस्था के कारण ही है। हम जुड़ते व्यवस्था द्वारा है, लेकिन जुड़े रहना, वो रास्ता तो हमे संवेदनाए ही दिखाती है ना।
जितना हम दूसरों को समझेंगे, पढंगें, उतना ही उसके बारे मे जान पाएंगे और जुड़ाव महसूस करेंगे।
एक गम्भीर चिंतन के लिए साधुवाद स्वीकार करें।
सराहना के लिए शुक्रिया जितेन्द्र जी आप ठीक कह रहे हैं शायद इसीलिए हम अब तक के तमाम व्यवस्था से उत्पन्न तनावों के बीच बचे रह सके हैं और संवेदनाओं को सांझा कर रहे हैं...
नीलिमा जी आपने कहा - "...मैं दरअसल कह यह रही थी कि व्यवस्था व्यक्ति को आतंकित करती है और अभ्यस्त बनाती है ..."
मेरा कहना है कि व्यवस्था तो बनाई ही आदमी को दबाने और बाधने के लिए जाती है।सोचने की बात यह है कि व्यवस्था का विकल्प क्या है ? क्योन्कि व्यवस्था से बचते बचते भी जब हम अव्यवस्थित होते है तो भी उस chaos अव्यवस्था मे एक अप्रकट व्यवस्था पनपने लगती है।
व्यक्ति और व्यष्टि सदा से रहे हैं, एक दूसरे पर आश्रित रहे हैं। एक के बिना दूसरा हो नहीं सकता। जरूत है, दोनों के बीच सही और सर्वहितकारी संतुलन स्थापित करने की।
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