Tuesday, February 17, 2009

सही काम का सही नतीजा उर्फ मारे गए गुलफाम

कल अपने बेटे की वैल्यू ऎजुकेशन की नोटबुक से उसे परीक्षा की तैयारी कराते हुए मुझे पहली बार पता चला कि गांधी जी ,इंदिरा गांधी और अब्राहिम लिंकन के मारे जाने के क्या कारण थे ! इस जानकारी का उत्स बच्चे को नैतिक ज्ञान का एक पाठ- राइट एंड रांग पढाते हुए हुआ ! इस पाठ में बताया गया था कि

  • जो बच्चा सही काम करता है गॉड उसे बहुत पसंद करते हैं !
  • सही काम करने के लिए करेज चाहिए !
  • गलत काम करने वाले से समाज और गॉड नाराज हो जाते हैं !
  • कोई भी कभी भी सही काम कर सकता है !
  • सही काम का सही अंजाम होता है !
  • सही काम करने के लिए करेज चाहिए इसके कुछ उदाहरण दीजिए -

गांधी जी वॉज़ शॉटडेड

इंदिरा गांधी वॉज़ ऑल्सो शॉट डेड

अब्राहिम लिंकन वॉज़ मर्डरड

वैल्यू या मॉरल ऎज्यूकेशन के नाम पर आठ नौ साल के बच्चे को परोसा गया यह माल भाषिक नैतिक शैक्षिक किस उद्देश्य की पूर्ति करता है ? एक बच्चे के लिए अच्छाई और बुराई की समाज निर्धारित परिभाषाओं को इस कुरूप और भयावह तरीके से पेश करना बच्चे की मानसिकता संरचना के साथ की गई आपराधिक कोटि की छेडछाड नहीं तो और क्या है ?

ईश्वर , धर्म ,सही -गलत , विनम्रता ,सहिष्णुता के सबकों को पढाने के लिए स्कूलों के पास तो समय है न ही सामर्थ्य ! पढाई के घंटों अलग -अलग विषयों में बंटा टुकडा -टुकडा सा समय , एक ही कमरे में पैंतालीस -पचास बच्चे , बच्चों की भीड झेलते शिक्षक ...! सिस्टम ही ऎसा है किसको दोष दें ! ले दे के सारा दोष हम अपने ऊपर ही ले लेते हैं ! चूंकि हम एक असमर्थ ,मध्यवर्गीय अभिभावक हैं जो सिस्टम की आलोचना तो कर सकते हैं पर उसको बदल डालने की हिम्मत और हिमाकत नहीं कर सकते !

एक हमारे सपूत हैं ! पक्के नास्तिक और शंकालु ! बेटे को भगवान और ड्रामाई बातों पर यकीन भी नहीं ,नंबर भी चाहिए ! नैतिक ज्ञान के अनूठे सवालों के हमारे द्वारा सुझाए जवाब भी नहीं वे लिख सकते क्योंकि मैडम की झाड पड सकती है ! नैतिकता की अवधारणाओं की रटंत से उकताया बच्चा सचमुच बडा निरीह जान पडता है !

सही क्या है ये तो आजतक बडों की दुनिया तक में भी अनिर्णीत , परिस्थिति सापेक्ष और गडमगड है ! बच्चा ऎसे सही -गलत के निर्णय की दुविधा को कैसे पार कर पाऎगा ! वे "सही " काम एक बच्चा कैसे कर पाएगा जिनका अंजाम मौत होती हो ! घर देश समाज की नज़रों में उठने के लिए और भगवान को प्यारे लगने के लिए नन्हे बच्चे को दिया गया यह करेज घुले सदाचार का पाठ तो बडे बडों को भी सदाचार से डराने वाला है ! बच्चे की रंगीन कल्पनाओं भरी दुनिया के ठीक कॉंट्रास्ट में हम ये क्या दुनिया पैदा कर रहे है ?

मृत्यु और नैतिकता से इतनी सहजता और क्रूरता से साक्षात्कार करवाने स्कूलों को हमारा शत-शत नमन !

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13 comments:

प्रदीप मानोरिया said...

कटु यथार्थ का बेबाक प्रस्तुतीकरण साधुवाद

MANVINDER BHIMBER said...

सच्ची कही है.....नोटबुक पर सच dikhane का शुक्रिया .....एसा ही चल रहा है

Sanjeev said...

आपका विवेचन सही है। हमारा शिक्षा तंत्र सड़ चुका है। मैं खुद भी अपनी बिटिया के स्कूल की किताबों, वहां पढ़ा रहे शिक्षकों के साथ-साथ माहौल से क्षुब्ध हूँ पर कोई आसरा नज़र नहीं आता है।

कुश said...

अभी तक ऐसी किसी स्कूल से पाला पढ़ा नही.. स्कूल के सिस्टम के बारे में ज़्यादा आइडिया भी नही.. लेकिन एक सपना है मेरा एक अच्छी शिक्षा प्रणाली वाली स्कूल बनाने का.. देखते है कब पूरा होता है..

डॉ .अनुराग said...

शायद तभी एक शिक्षा प्रणाली कम से कम एक लेवल तक लाने की जरुरत है

संजय बेंगाणी said...

गणित के सवाल में पूछा जाता है, दूध में इतना पानी मिलाया गया तो बताओ...पेट्रोल पंप वाला हर बार इतना पेट्रोल कम देता है तो...


कैसी नैतिकता सीखा रहें है?

ghughutibasuti said...

बच्चे की तो पता नहीं परन्तु हमारी हिम्मत जवाब दे गई। हम तो डरपोक बनेंगे।
घुघूती बासूती

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

आज के शिक्षा संस्थान पैसा बनाने के अड्डे हो गए हैं। पहले अध्यापक डेडिकेटेड रहते थे, और आज जो प्रायः पढा रहे है क्योंकि उन्हें उदर-पोषण करना है। गुरु-शिष्य का कोई रेशियो नहीं है तो आपस में कोई हार्दिक ताल-मेल भी नहीं है। और तो और.. सिलाबेस बनाने वाले भी माशाहअल्लाह हैं। राष्ट्र को एकसूत्र में जोडने के लिए केंद्रीय नालेज कमिशन ने कुछ सुझाव दिए जो यूजीसी द्वारा नकारे गए....यही सब राजनीति है तो देश की शिक्षा का यही हाल रहेगा ही।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

इस स्थिति मेँ माता पिता और परिवार से ही आशा की जाये बच्चे को सही दिशा दीखलायेँ
- लावण्या

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

नीलिमा जी आपसे एक सवाल पूछना चाहता हूं, जो थोड़ा रेटोरिकल लग सकता है, पर पूछना आवश्यक है।

आप अपने बेटे को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में क्यों पढ़ा रही हैं? क्या यह सोचा-समझा निर्णय है, या समय के दस्तूर का पालन है?

अक्सर हिंदी से इतना प्रेम रखनेवाले लोग स्वयं ही अपने बच्चों को हिंदी से महरूम कर देते हैं, उन्हें अंग्रेजियत में बपतिस्मा दिलाकर। यह क्यों होता है, क्या आप इसका ईमानदार जवाब देंगी?

इससे पहले कि आप मुझे से पूछ बैठें, कि आपके बच्चे क्या हिंदी माध्यम में पढ़ते हैं, तो कह दूं कि नहीं, वे भी अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में ही पढ़ते हैं।

इसलिए मेरा सवाल जितना आपके लिए है, उतना ही मेरे लिए भी है, और हमारे जैसे उन तमाम लोगों के लिए भी है जो मासूम बच्चों को गैर मातृ भाषा में शिक्षण पाने के नरक में जान-बूझकर (अथवा अन्यथा) ढकेलते हैं, जबकि विज्ञान और भाषाशास्त्र यह स्पष्ट घोषित करता है कि पांच साल के अंदर मनुष्य अपनी भाषा सामर्थ्य का 95 प्रतिशत हासिल करता है और शिक्षा का माध्यम हिंदी रहने से बच्चों को सीखने में सहूलियत रहती है।

हमें उन बहुमूल्य पांच वर्षों में हमारे बच्चों को हिंदी नहीं सिखानी चाहिए?

हम अपने ही बच्चों के लिए शिक्षण को आसान क्यों नहीं बनाते? क्या इसलिए कि बच्चे हमसे पूछ नहीं सकते कि क्यों हम पर यह जुल्म करे रहे हो?

बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण said...

कुश जी स्कूल जरूर बनाइए, पर बाकी कोई चीज उसमें हो या न हो, शिक्षण का माध्यम हिंदी अवश्य रहे। क्या आप इसका वादा कर सकेंगे?

Anonymous said...

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Anonymous said...

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