Monday, June 09, 2008

डॉ पांगती - पंक्ति में नहीं खड़ॆ हैं जो

पिछली पोस्ट में मैंने अपनी मुनस्यारी यात्रा के कुछ छायाचित्र प्रस्तुत किए थे !  आज देखिए डॉ पांगती के निजी प्रयासों से बने हेरिटेज म्यूजियम की कुछ तस्वीरें ! डॉ पांगती मुनसियारी के मूल निवासी हैं जिन्होंने वहीं रहकर जोहर घाटी और भोटिया जनजाति पर अपना पी.ऎच.डी का काम पूरा किया !वे करीब एक दशक पहले मुनस्यारी के इंटरकॉलेज से रिटायर हुए हैं और आजकल दिल्ली में रहने वाले अपने बेटे के द्वारा लाए गए लैपटॉप पर वे लोकभाषा पर काम कर रहे हैं ! 


मुनस्यारी के छोटे से गांव में कच्चे रास्ते से होकर आप उनके पैतृक घर में बने इस म्यूज़ियम में पहुंच सकते हैं ! उनके अकेले और अथक प्रयासों से एक बडा सा कमरा संग्रहालय में तब्दील हो गया है ! पांगती जी के म्यूज़ियम में लोकजीवन की कई स्मृति चिह्न हैं -बर्तन , वस्त्राभूषण ,चीन और तिब्बत से स्वतंत्रतापूर्व की व्यापार संधियां ,नक्शे , किताबें , हिमालय पर हुआ नया शोध कार्य , जडी बूटियां , हथियार....! इस इलाके के लोकजीवन पर रचित कुछ दुर्लभ किताबों को आप यहां से खरीद सकते हैं ! यह म्यूज़ियम मुनस्यारी में मास्टर साब के म्यूज़ियम के नाम से जाना जाता है ! पांगती जी से बातचीत के दौरान उनकी काम के लिए खब्त का पता चला तो कई सवाल मन में पैदा हुए ! कुछेक पूछ भी डाले ! उनका मकसद क्या है ? उनकी यह धरोहर संभालने वाला कौन है ? धन का इंतजाम कैसे होता है ? ! डॉ पांगती का कहना था "यहां के बच्चे अपनी लोक संस्कृति को नहीं जानते ! लोक भाषा शैली सबको भूल रहे हैं ! अपनी सांस्कृतिक धरोहर के हिस्से मैं संजोने की कोशिश करता हूं ..हमारा जातीय इतिहास खो न जाए !" पुरानी पीढी और नए जमाने के बीच उगती गहराती खाई के कई सबूत हमने वहां के जीवन में महसूस किए ! डॉ पांगती के मन में भी इस सांस्कृतिक विस्मृति के लिए अस्वीकार था ! पर साथ ही एक आस्था और विश्वास भी उमके भीतर दिखा ! वे मानते हैं कि भविष्य में कभी न कभी इस काम को आगे बढाने वाला आस्थावादी लोक संस्कृति का प्रेमी जरूर पैदा होगा ! डॉ पांगती ने हमें आगंतुक पुस्तिका पर कुछ लिखने का आग्रह किया क्योंकि इस साल उन्हें राज्य से कुछ अनुदान मिल रहा है राज्य तो अनुदान से पहले आपके काम के सबूत देखता है न ! हमने हिमालय के इतिहास और लोकसंस्कृति पर लिखित कई किताबें उससे खरीदी! चलते हुए उन्होंने हमें अपना लिखा एक लेख दिया ! भाषा के सामाजिक पक्ष पर लिखा यह लेख एक आध जगह से बिना छपे वापस आ चुका था ! सो उन्हें संकोच था ,पर बातचीत में पैदा हुई सहजतावश उन्होंने वह लेख हमें थमा दिया !



 


Saturday, June 07, 2008

मुनस्‍यारी में हम

बहुत समय से मुनस्यारी जाने की कामना थी जो आखिरकार पूर्ण हुई ! उत्तरांचल की आखिरी सडक पर आखिरी मोटरऎबल गांव ! मिलम ,रलम ,पिंडारी और हीरामणि ग्लेशियरों से घिरा और पंचचुली पर्वतमाला के चरणों में अडा यह गांव दिल्ली की चहल पहल से 700 किलोमीटृर दूर है ! इस दूरी को हमने अपनी  नई नवेली ऎवियो युवा कार से की गई यात्रा से पाटा ! पेश हैं कुछ छायाचित्र -