मोहल्ले की कई औरतें मुझे गद्दार कहेंगी ! मेरे पास उनकी ज़िंदगी के कई राज हैं जिन पर मैं भविष्य में कहानियां और लेख लिख सकती हूं ! पास पडोस की औरतों के कई राज कई दुखडे और कई अफसाने मेरे पास जमा हो गए हैं ! जब भी किसी परिचित स्त्री से सुकून और ऎसे या वैसे जुटाई गई फुरसत के लम्हों में बात होने लगती है मुझे स्त्री विमर्श का नया मुद्दा मिल जाता है और उन स्त्रियों से छिपाकर मैं उनकी जिंदगी के राज बटोर लाती हूं ! पर शायद सच्चे अफसानों से सच्ची कहानियां गढना सबसे मुश्किल काम है ! बहरहाल आपके सामने कच्चा माल ही हाज़िर है ......
किट्टो की मम्मी ,तीन लडकियों की मां दो बार ऎबार्शन करवा चुकीं हैं ! उनके परिवार वालों को लडका चाहिए और किट्टो की मम्मी को चाहिए सुकून और इज्जत !
सुनीता अपने पति से दो साल बडी है ! उसे अपने पति और उसके घर वालों से यह बात ताउम्र छिपाकर रखनी है !
35 नं वाली भाभी जी ने चुपके से मल्टी लोड लगवा लिया है ! सास और पति दूसरा बच्चा चाहते हैं जबकि भाभीजी के लिए ज़ॉब के साथ द्सरा बच्चा पैदा करना और संभालना बहुत बडी आफत का काम होगा !
मेरी एक मित्र जो कि दिल्ली के एक कॉलेज में प्रवक्ता हैं! स्त्री विमर्श जैसे विषय पर उनका डॉक्टरेट है ,स्त्री-स्वातंत्र्य की कहानियां और कविताऎं भी प्रकाशित होती रहती हैं ! लेकिन अपने पति से छिपाकर उन्हें अपनी विधवा मां की आर्थिक सहायता करनी होती है ! उनका मानना है क्रांति के चक्कर में उनका घर कई बार बर्बाद होते होते बचा है और फिलहाल अपने बच्चे के बडे हो जाने तक वे कोई क्लेश नहीं अफोर्ड नहीं कर सकतीं !
मिसेज आरती अपने पति के लंपटपने से परेशान हैं ! पति का पान चबाते रहना , बच्चों की पढाई और परवरिश से कोई वास्ता न रखना ,पत्नी को केवल शरीर मानना - जैसी कई बातों से आहत हैं वे ! दसवीं पास पति की ग्रेजुएट पत्नी के रूप में उन्हें हर रात की यही धमकी सुननी होती है कि वे "कहीं और जाकर मुंह मार लेंग़े " !
... ऎसी कई कहानियां हैं ! झूठ और दुराव की नींव पर टिके रिश्ते ढोती कई औरतें हैं ! प्यार और संवेदना की जगह भ्रम की पोपली ज़मीन पर पता नहीं ये नाते कब तक टिके रह सकते हैं ! पर स्त्री अपनी ओर से उन्हें टिकाए रखने के प्रयास में रोज खुद से और परिवार तथा समाज से कई राज छिपाती जी रही है ! परिवार को अपनी धुरी मानकर उसके ही खिलाफ क्रांति का दुस्वप्न देख्नना उन्हें सबसे बडा पाप लगता है ! वे शायद आस्थावादी होती हैं इसलिए तत्क्षण की एक छोटे से लक्ष्य वाली क्रांति से अपना संभावित सुखी भविष्य नहीं उजाडना चाहतीं ! नकली सुख का असली नाटक करती स्त्री को परिवार इतनी पवित्र और ज़रूरी संस्था लगता है कि जिसको वह अपने " छोटे से स्वार्थ " के लिए नष्ट होते नहीं देख सकती !
प्रेम .विवाह ,रिश्ते और परिवार उससे कितना मांगते हैं और उसे कितना देते हैं - यह सोचने का वक्त और माहौल उसके पास है भी क्या ? अपनी ज़रूरत अपनी इज्जत और अपना अस्तित्व मैनेज करने में जाया जाती अपनी ज़िंदगी का मूल्य जान पाऎगी वह ?
19 comments:
प्रेम .विवाह ,रिश्ते और परिवार उससे कितना मांगते हैं और उसे कितना देते हैं - यह सोचने का वक्त और माहौल उसके पास है भी क्या ?
सही कहा आपने। मेरी राय में आज के समय में किसी भी व्यक्ति के पास इतना समय नहीं कि वह नारों और आंदोलनों में समय जाया करे।
बेशक परिवार पवित्र और जरूरी संस्था है। पर अति झेल रही हर स्त्री को यह समझना चाहिए कि जिस परिवार में किसी को भी कुछ भी 'झेलने' जैसा जब लगने लगे, परिवार नाम की संस्था अपने मूल रूप में जीवित नहीं रह जाती। जो घर कई तरह की आशंकाओं से घेर वह घर, घर नहीं रह जाता। और ऐसे किसी भी घर, ऐसी किसी भी संस्था के प्रति जरा भी प्रीति संकट में डाल सकती है। ऐसे मौकों पर विरोध और विद्रोह का सहारा बेशक अनिवार्य होता है। पर यह विद्रोह अंधा न हो, सुनियोजित और सार्थक हो इसका भी हमें ख्याल रखना होगा।
दुखद इसके बावजूद हर उस इंसान को लड़ना होगा जो सताया जा रहा है और उसे हमलोगों को समर्थन देना होगा
सबके बारे मे लिख देती हैं..कभी अपने बारे मे लिखिये आपने लोगों का नाम और मकान नम्बर लिखा है।
@ आर सी मिश्रा जी ,आपने कैसे जाना कि ये कहानियां मेरे बारे में नहीं हैं ? नाम और मकान नंबर स्त्री की कहानी को पलट नहीं सकते तो वे महत्वपूर्ण क्यों हों ? चलिए मैं इन नामों की जगह कोई और नाम और मकान नंबर लिख देती हूं क्यंकि वे तो सिर्फ यह बताने के लिए थे कि ये हालात बिल्कुल हमारे आसपास के हैं ! कल्पनाऎं नहीं हैं ये !
लोग लिखने की सोचते रह जाते हैं और सुनाने वाले तो ओरली सुना कर निकल लेते हैं.. न कोई सबूत न कोई झंझट.....
झगडा लग जायेगा इस तरह तो?
आपने सही कहा,आज भी स्त्रियों का जीवन बहुत कठिनता और विरोधाभास से भरा हैं.
एक और औरतो की पीढी
सदियों से मानसिक रूप से परतंत्र
नही उबर पाती हैं
अपनी इस मानसिकता से
जो अधिकार हक़ से उसके हैं
उनको पाने के लिये छल करती हैं
सदियों से छल ही तो करती आयी हैं
पर ये भूल जाती हैं कि हर छल मे
छली वही जाती हैं
सोचती हैं पति के अहम् को बढ़ावा दे दूँ
उससे डर कर रहने का नाटक कर लूँ
क्या मेरा जायेगा , जीवन मेरा तो
सुख सुविधा से कट जायेगा
कभी क्यो जीवन जीने का नहीं सोचती
त्रिया चरित्र का लाछन ले कर
क्या कभी जीवन जीने का सुख
वो पाएगी या एक और
औरतो की पीढी
बिना अधिकार अपने भोगे
दुनिया से जीवन काट कर चली जायेगी
http://mypoemsmyemotions.blogspot.com/2008/07/blog-post.html
neelima
kuch din pehlae ek kavita likhi thee aap ki sahii post padh kar aap se baant rahee hun
मैं जानता हूँ कि नाम और नंबर सही नहीं। लेकिन बातें सभी सही हैं और सब पाठक अपने आस पास इन्हें देख सकते हैं। वास्तव में एक क्रांति है जो चल रही है। औरतों को बराबरी का हक पाना है। वे उस के लिए लड़ती हैं। वह मिलने में अभी शती, आधी शती लग सकती है। लेकिन तब तक जीने के लिए एक समझौता भी वे करती हैं। यह वही सब कुछ है। सहजीवन का सिद्धान्त। साथ जिओ भी और अपने हक के लिए लड़ो भी जब तक वह न मिल जाए। इसी लिए कहते हैं कि आपस में लड़ता न देखें तो समझें ये पति-पत्नी नहीं।
कुछ मसले है जिनका हल निकलना बाकी है ?
आपके कच्चे माल ने सोचने पर मज़बूर कर दिया। क्यों???
रिश्तों का, समाज का दबाव इतना अधिक होता है जिसका अनुमान लगाना भी आसान नहीं है। जिसके सिर पड़ती है, शायद वही समझता है।
जहाँ जिंदगी जुड़ी हो, वहाँ कोई वाद या विमर्श नहीं चलते। अपनी जिंदगी की बात होती तो कब का ठोकर मार देती। यहाँ जिंदगी का मतलब स्त्री की अपनी जिंदगी नहीं है, बल्कि माँ-बाप की, अविवाहित बहनों की, छोटे-छोटे बच्चों की जिंदगी है।
- आनंद
इन सारी कहानीयोँ का सुखद अँत किस तरह हो ?
- ये सोचनेवाली बात है -
गँभीरता से विचार , अमल होगा तब सभी स्त्रियोँ के जीवन मेँ बदलाव आयेगा -
पर, ये उन्हीँ को करना होगा --
- लावण्या
विचारणीय!!
sabse pavitra rishte vivah ki buniyaad hi jhoot par tiki hoti hai.ladka sharaabi ho,kavaabi ho,juari ho gharwaale use maryada purush batate nahi thakte.yehi hal dusre paksh ka bhi rehta hai aise me rishton ko dhone ki mazboori ke alaawa kya bachta hai.sahi kaha aapne samaj me yehi ho raha hai.pati se chhupkar ma bahan aur beti ki madad karte maine bhi dekha hai
यह संसार दुःखों का सागर है। औरत के हिस्से में कुछ ज्यादा ही बंटवार हो गयी। कारण वही- ज्यादा संवेदना और भावुकता व शील-संकोच। इन लक्षणों को औरत का गहना कहकर महिमा-मंडित कर दिया गया, और फिर इसे उसकी कमजोरी मान ली गयी। केवल पुरुषों द्वारा नहीं, महिलाओं द्वारा भी। दोनो बराबर जिम्मेदार हैं।
Sach bahut Sangharshpurna hai aurto ka jivan... har pal har ghadi sangharsh.. bahut sundar lekh likha neelima ji.........
sab ke pas inki samasyao ka hal hai lekin woh inhe apne se start nahi karn chahti,
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मेरी पहली कविता...... अधूरा प्रयास
hi neelima, tumhara lekh pada.
Shayad jeevan isi ko kehte hain, lekin yeh samajhana ki vartman mein kewal istri hi is vidambana ko jhel rahi hai, shayad uchit nahin hoga. ho sakta hai ki tumhare aas paas ki duniya mein tumhein is trasdi ko jhelti ensi mahilayein mili hongi, lekin tumhari apni duniya se bahar bhi ek duniya hai. us duniya ko gor se dekhne par lagta hai ki samaj mein ense bhi purush hain jo shayad KANOON ki kuchh IKTARFI dharaoan ke shikar hain. kya unhein jhoothe mukddammoan aur un dharaon se kabhi mukti mil sakti hai. tumhare lekh se asahmati nahin hai, uska har shabd sach ko bayan karta hai, lekin kitto, sunita aur ainsi anek istriyoan ke liye ye sab kanoon bemani ban gaye hain. kyonki unke liye ghar pariwar aur apna samman jyada maayne rakhta hai. kabhi is vishay mein sochna. kya ainse kanoon is istri samaj ki pratarit aur dukhi mahilaoan ke liye SANJEEVNI ka kaam kar sakte hain, ya fir ISTRI VIMARSH jainse aandolnoan se inhein inke adhikar mil sakte hain? shayad nahin, jaroori ye hai ki samaj apni paramparagat samajik jeevan dhara mein parivartan laaye. ISTRI VIMARSH jainse aandolnoan se parivartan ki sambhavna mujhe kam dikhti hai. khas tor par tab jab ISTRI VIMARSH ke naam par likha gaya kuchh sahitye ASHLILTA ki seemaoan ko laangh gaya ho.
ab tumhare blog par aata rahunga aur apni pratikriya deta rahunga.
Dr. Harish Arora
नीलिमाजी आप एकदम सही कह रही है और इस सच के लिए बधाई. मकान न. और नाम बदले या नहीं, हम जानती हैं ये सब हमारे ही बीच हैं. शायद हम भी. कैसे शब्दों में उतरा है आपने. स्त्री को क्या चाहिए, ये पुरूष समझ पायेगा कभी? सिर्फ़ एक बात "मैं हूँ न, कभी ख़ुद को अकेली मत समझना" बस इतना ही, और पुरूष (पति/ बेटा) जान भी मांगे तो हम पीछे नहीं हटेंगे.
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