क्या कभी कोई स्त्री खुद से यह सवाल पूछ्ती होगी कि अगर उसे दोबारा मौका मिले तो वह स्त्री ही होना चाहेगी ? पता नहीं ऎसा बेतुका प्रसंगहीन सवाल क्योंकर मेरे मन में उठता रहता है मैं अपना मन इसमें नहीं उलझाना चाहती पर कभी लगता है कि इसका कोई ठीक ठीक तार्किक जवाब ढूंढ ही लूं !
मुझे हमेशा से गोल रोटी बेलने से सख्त चिढ रही है और मैंने कभी कायदे से घर गृहस्थी के काम करना नहीं सीखा ! कभी कभी अपने इस खस्ता हाल से कुंठा होती है तो कभी यह किसी तमगे से कम नहीं लगता ! कभी लगता है मैं एक कंफ्यूज्ड स्त्री हूं जो अपनी जिम्मेदारियों में मन नहीं लगाती !कामकाजी हूं ! सो फुर्तीली और अपटूडेट बने रहने का प्रयास जरूर करती हूं ! मेरे कुलीग्स जब मेरी इस पर्स्नेलिटी की तारीफ करते हैं तो सोचती हूं कि काश मैं इन वाहवाहियों को पसंद कर पाती ,पर जानती हूं कि स्त्री को उसकी अच्छी सामाजिक छवि का चक्कर महंगा भी पड सकता है ! मैं जानती हूं कि यह एक ट्रैप है ! मैं किसी भी छवि के ट्रैप में फंस जाने से डरती हूं ! मैं अपने आसपास ऎसी औरतों को बहुत हैरत से देखती हूँ जो यह दावा करती हैं कि वे एक बहुत सफल कुक ,ट्यूटर , मां ,पत्नी , मेजबान और बेहद जागरूक कामकाजी महिला हैं! अचानक अपने स्त्रीत्व पर उठता प्रश्नवाचक चिह्न दिखाई देने लगता है ! मै सोचती हूं कि जब मैं प्रसव पीडा सह सकती हूं तो ये अच्छी स्त्री वाली छवि की पीडा से क्यों डरती हूं !
सडक पर अकेले चलना ,चलते जाना बिना किसी वजह के ! या कि फिर सडक पर चलते रुक कर किसी ऊंची शाख या बनते बिगडते बादलों के झुंड को देखना है मुझे ! पर नहीं अचानक लगता है कई आँखें देख रही हैं ! सडक पर चलते रिक्शे वालों , खोमचे वालों गुजरती कारों में बैठे लोंगों की कई जोडी आंखों का मैं लक्ष्य बन सकती हूं ! मैं बडी गुस्सैल ,बददिमाग और अडियल हूं ! कामकाज के माहौल के हर मुद्दे में अपनी टांग अडाती रहती हूं ! जबकि अक्सर कई कुलीग्स गोलमोल लहजे में मेरी इस गंदी आदत के बारे मॆं चिंतित होते हैं क्योंकि उनका मानना हैं कि कम उम्र की बाल बच्चॉं वाली औरतों को पंगों में नहीं पड़ना चाहिए ! मैं गालीबाज हूं पर वे कहते हैं -"अगर गाली देने का इतना ही शौक है तो साला या उल्लू का पट्ठा भी कोई गाली है थोडा और आगे बढो "! वे एक फार्वड ,बेलौस, वाचाल औरत के साथ मानकर चलते है कि इसके कंधे पर हाथ रखकर बतियाने जैसी उनकी हरकतें तो बहुत जायज हैं !
खैर ..जाने दें ! मेरा यह खिचडी आत्मालाप बोझिल हो रहा होगा आपके लिए ! यदि दोबारा मौका मिले तो मैं स्त्री ही होना चाहूंगी का जबाव ..उफ ..फिर कभी ! पर इतना तो है कि अब आपको अपनी पत्नी बहुत सुघड़, सुलझी हुई संस्कारी ,कर्तव्यशीला स्त्री लग रही होगी ! आप तो अपना टिफिन खोलिए गोल रोटियों को खाने का लुत्फ उठाइए ! आपके द्वारा खाई जा रहीं रोटियों का आकार आपके दांपत्य संबंधों की चुगली तो नहीं कर रहा है ....!
10 comments:
कहना होगा अब कि स्त्री की चिंता करना छोड दें \ वह जैसी है खुद को सम्भाल सकती है । और ऐसी सलाहों व संरक्षण के बिना बेशक बेहतर कर सकती है । परमपरागत छवि बनाए रखने की अपेक्षा कहीं ज़रूरी है इस छवि के भंजन का प्रयास करना । वह भी सचेष्ट । बहुत हुई लर्निंग । अब ज़रूरत है डीलर्निंग की ।
और जिन स्त्रियों को खिचडी बनाना नहीं आता उन्हे तो कुछ भी नहीं आता । मेरे अविवाहित रहने मे खिचडी की भूमिका सबसे अहम है
अच्छा लिखा. वैसे मैं काफी अच्छी गोल रोटियां बेल लेता हूं.
मैने तो कई बार सोचा कि महिला नहीं बन सकता तो महिला का काम तो कर ही सकता हूं। अपनी पत्नी से भी कहा कि आप नौकरी करें और मैं घर का सारा काम संभालता हूं। वह योग्य हैं लेकिन बाहर काम ही नहीं करना चाहती। कहती हैं कि जहां हूं सुखी हूं। आप अपना काम देखिए। पागल हो रहे हैं क्या?
दुख है कि काम को लेकर ही सारा बवाल है। मैं देखना भी चाहता हूं काम करके लेकिन लगता है कि सपना पूरा नहीं होगा।
स्री या दलित होने का इतना बोझिल एहसास कहीं न कहीं हमारी सामाजिक कमजोरियों और आर्थिक परनिर्भरता की उपज है। आपने बड़े आहिस्ते-से एक गंभीर प्रश्न को कंफ्यूजन की हद तक तान मारा है। शब्दों की रवानी के साथ विचारों की स्पष्टता किसी निष्कर्ष या सिरे तक ले जाती तो ज्यादा बेहतर होता।
नीलिमा तुम तो बहुत ही असरदार तरीके से गहरी बात ,बातों-बातों में कह गयी ।
क्या सिर्फ गोल रोटियां ही अच्छी स्त्री होने की कसौटी हैं
स्त्री का आधुनिका अथवा सशक्त होना या स्वातन्त्र्य- चेतना से समन्वित होना न तो उसके पहरावे,न आधुनिक जीवनशैली या न ही रोटी बेलने, न बेलने की निपुणता से पता चलता है। कोई साड़ी में भी मॊड व चेतना-सम्पन्न हो सकता है व कोई टॊप- जीन्स में भी नहीं। इसी प्रकार रोटी ठीक-ठाक न बेलने वाली लड़की या महिला भी बहुत पर-निर्भर,पराधीन-चेतना से भरी या कमजोर,परतन्त्र हो सकती है। इसी प्रकार सही रोटी बेलती स्त्री भी स्वतन्त्र, आत्म-निर्भर, सशक्त हो सकती है। किसी भी ‘स्किल’को व्यक्ति-चेतना की पैमाइश का पैमाना मानना दो बिल्कुल अलग वस्तुओं को एक साथ बिठाने जैसा है। .....और इस प्रकार के तर्क स्त्री-विमर्श की दिशा को भ्रमित करते हैं। स्त्री भी अपने को तोलने के भ्रान्त उपकरणों में भटकती रह सकती है।
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मामला बहुत उलझा हुआ है इसका कोई दो टूक हल आप भी नहीं खोज रही होंगी, मिलेगा भी नहीं. हाँ, मुद्दे के विस्तार देने की ज़रूरत है, अभी तो लोगों को ऐसी बातें सुनने की भी आदत नहीं है. और लिखिए.
मन के भीतर की तमाम गलियों -पगडंडियों से आपकी गुजरने की ख्वाहिशों को सलाम . कई सालों पहले कृष्णा सोबती के उपन्यास मित्रों मरजानी की मित्रों याद आ गई जिसे उस समय अश्लीलता के सम्मानों से नवाजने की कोशिश की गई थी मगर आज मित्रों की एक पूरी पीढ़ी खड़ी हो गई है लेकिन पुरुषों को अभी इंसान बनने के लिए लंबा सफर तय करना है . इस तरह की कोशिशें आइना दिखने का बेहतर प्रयास है .
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