आंगन के भीतर वसंत है
आंगन के बाहर पतझड आ बैठा है..
मैं नहीं चाहती कि देखें पतझड
मेरे बच्चे या कि पूछें सवाल
झडे पत्तों की ढेरी को देख
जिसे बनाया है अभी अभी किसी
सडक बुहारती मजदूरिन ने..
मैं नहीं चाहती कि उठे मेरे भीतर दर्द
और मैं उठा लूं लपककर उसका
दुधमुंहा बालक तपती जमीन से
मैं नहीं चाहती देखना उस ओर के पतझड को
मेरे लिए मेरा आंगन ही मेरा सत्य़ है...
पर क्या करूंगी उन सवालों का
उठे हैं जो मेरे नन्हों के भीतर
हैरान हैं वे एकसाथ दो ऋतुएं देख
अभी वे नहीं जानते कि सत्य क्या है
आंगन के भीतर का वसंत या कि
बाहर पसरा पडा पतझड
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6 comments:
kavita sunder bangaee haen . manthan hota hee hae . "rituyae" mae vartnee kii ashudhi hae sahii karna chahae toh kar layae
सुन्दर रचना है !
अन्नपूर्णा
@ रचना, वर्तनी के सुझाव के लिए शुक्रिया
दुख है कि दोनों सच हैं। आज नहीं तो कल बच्चे सब समझ जाएँगे।
विचार पूर्ण कविता। बधाई।
जीवन प्रसंग है. सब जीवन ही सिखला देता है-कब तक छिपायेंगी इस सत्य को. उड़ने दिजिये उन्हें उन्मुक्त पंछियों की तरह!! शुभकामनायें.
बधाई इस बंधी हुई रचना के लिये.
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