Thursday, September 20, 2007

जरा हौले हौले चलो मोरे साजना हम भी पीछे हैं तुम्हारे....?

स्त्री का परंपरागत संसार बडा विचित्र भी है और क्रूर भी है -यहां उसकी सुविधा ,अहसासों , सोच  के लिए बहुत कम स्पेस है !गहने कपडे और यहां तक कि वह पांव में क्या पहनेगी में वह अपनी सुविधा को कोई अहमियत देने की बात कभी सोच भी नहीं पाई ! अपने आसपास की लडकियों महिलाओं के पहनावे की तरफ देखते हैं तो उनकी जिंदगी की विडंबना साफ दिखाई देती है ! घर बाजार ऑफिस हर जगह दौडती स्त्री पर भरपूर नजाकत लाने और पर-ध्यान को केन्द्रित करने की पुरजोर आशा में अपने पहनावे को सहूलियत के साथ बहुत बेरहमी से अलग करे दीखती है ! परंपरागत महौल में पली बढी यह स्त्री अपने दर्शन में स्पष्ट होती है --कि उसका जीवन सिर्फ पर सेवा और सबकी आंखों को भली लगने के लिए हुआ है ! छोटी बच्चियां घर- घर , रसोई -रसोई ,पारलर-पारलर खेलकर  इसी सूत्र को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लेने की ट्रेनिंग ले रही होती हैं .......ठीक उसी समय जब उसकी उम्र के लडके गन या पिस्तौल से मर्दानगी के पाठ पढ रहे होते हैं या कारों की रेस या बेमतलब की कूद -फांद- लडाई -झगडे के खेल खेल रहे होते हैं  ! एक जगह घर रचा जा रहा है एक जगह बाहर !

कोई कह सकता है कि यही है गहरे संतुलित समाज की नींव ! वेलडिफाइंड ! गाडी के दो पहिए अपनी अपनी पटरी से बंधे ..! हम कहेंगे नहीं नहीं ! सौ बार नहीं ! अपनी कॉलेज की बच्चियों को भी कभी कभी समझाते हैं ! वे नहीं समझना चाहतीं !ज्यादातर निम्न या मध्य वर्गीय परिवारों से आई हुई ये छात्राऎं अपने लिए बेहद असुविधाजनक पहनावे में आती हैं ! गर्मी व उमस में सिंथेटिक कपडे , बेहद ऊंची हील के सैंडल बार बार फिसलते दुपट्टे में जडी तरह तरह की लटकनें ....

कभी कभी आसपास नवविवाहित जोडों को देखने पर भी अजूबा होता है !  रास्तों में बाजारों में काम की जगहों में चमकीले तंग कपडों में फंसी ,पल्ला और उसकी जगह जगह उलझती लटकनें संभालती रंगी पुती  स्त्रियां ! अपने आप संभलकर चल पाने में असमर्थ पति की बाहं का सहारा लिए लिए कभी कभी लुढकने को होती स्त्रियां ! अजीब अजीब प्लेटफार्म वाले सैंडलों की हीक को मेट्रो और उसके प्लेटफार्म की दरार से निकाल कर हडबाडाती स्त्रियां ! अपने फिसलने पल्लू को संभालकर कंधे पर डालते हुए अपने पीछे खडी सवारी के मुंह पर मारती स्त्रियां !

इनके लिए ये नजाकत है ..फिमिनिटी है ..मजबूरी है ...फैशन है ... पता नहीं ! पर इतना तो साफ है कि ये अब घर में बंद सजी धजी घर संवारती घरहाइन नहीं रहीं है ! रीतिकाल भी अब जा चुका ! ये तो निकली हैं पढने.....लडने ...जूझने....! बराबरी  पर आने .. !पर अपने संधर्ष में अपने ही साथ नहीं हैं ये पैरों की हील ,ये पल्लू ,ये लटकन , ये नजाकत ! कहां से आ जाएगी बराबरी ! कैसे चलेगी मर्द को पीछे छोडती ये आगे ! ..क्या यही कहना होगा कि आप जरा धीरे चलें क्योंकि हम आपसे तेज नहीं चल सकतीं या अपनी ही चाल को बनाना होगा दुरुस्त , तेज और दमदार .........तो बदलें खुद को .....? और करें शुरुआत पहनावे से ही .........?  .....और आओ कहें उससे कि तुम चलो अपनी चाल से अपनी गति से और अब हम चलेंगी अपनी चाल और गति से और तुम्हारे साथ चलेंगी ...आगे भी बढेंगी ....

3 comments:

Anonymous said...

आप का कहना सही हे फिर क्यों बदचलनी और नगनता का आरोप लगाते हे उन छात्राओं पेर जो जीन्स टॉप मे आती हे कालिज मे . क्यों आई पी कालेज की छात्राओं को प्रदर्शन करना पडा क्यों उन सै कह गया उनका पहनावा सही नहीं हे . अच्छा हे आप लोग उन्हे जागरूक बना रहे हे .

पारुल "पुखराज" said...

एक जगह घर रचा जा रहा है एक जगह बाहर !

ये बात बड़ी अच्छी कही आपने………

ghughutibasuti said...

hmm,very profound writing! its a bit complicated issue.sometimes the girls r lectured abt their ultra modern attire,way of life and how they shd stick to indian dresses.no less a personage than shashi tharoor wrote a touching eulogy to the vanishing saree ("... Perhaps it's time to appeal to the women of India to save the sari from a sorry fate.") TOI dated 24 Mar 2007
its a pendulum like existence that we live. sometimes expected to be 100% indian, sometimes,fight like a durga or kali, sometimes slog like a donkey etc etc.
a well written article !
ghughutibasuti