हर गर्मी की छुट्टियों में एक बहुत गैरपुण्य का काम करना पड्ता है - दिल्ली विश्वविद्यालय की उत्तरपुस्तिकाए जांचने का काम ! हमें पता नहीं होता कि किस कॉलेज की ये कॉपियां हैं ! हमें बस सवालों को देखकर जवाबों को आंकना होता है ! हर बार बडी आशा से हम कापियां लाते हैं और सबसे बचकर मनोयोग से उन्हें जांचने बैठते हैं और हर बार हमारे हाथ से कईयों की जिंदगी स्वाहा हो जाती है - मतलब कम से कम हमें तो यही लगता है ! हर बार मनौती मानते हैं कि भगवान अगर तू है तो इस बार कॉरेस्पॉंडेंस की कापियां न मिलें रेग्युलर वालों की मिलें वो बहुत बेहतर होती है ! पर लगता है भगवान है ही नहीं क्योंकि कभी भी मन की मुराद पूरी नहीं होती ! खैर जब ओखली में सर दे ही देते हैं तो मूसल से भी नहीं डरते हम ! लग जाते हैं काम पे लाल पेन और सवालों का पर्चा उठाके ! कसम से ऎसे ऎसे ओरिजनल आन्सर मिलते हैं कि हम अपने हिंदी साहित्य के अधूरे ज्ञान और अपनी कल्पना की कमजोर शक्ति पर मन मसोस कर रह जाते हैं ! प्रतिपाद्य लिखो ,निम्न की व्याख्या करो ,फलां का चरित्र- चित्रण करो ,फलां उपन्यास की उपन्यास के तत्वों के आधार पर चर्चा करो, शृंगार रस का उदाहरण दो या फिर फलां छंद के लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत करो......!
अब हमारे सवाल तो फिक्स्ड होते हैं पर भएया जवाबों में गजब का वेरिएशन ,फेंटेसी, बहादुरी ,गल्पात्मकता ,ओरिजनैलिटी क्रएटिविटी कूट कूट के भरी रहती है ! हमारे एक सहयोगी को उत्तर की कॉपी में दो बार पचास के नोट मिल चुके हैं (वैसे वे जनाब इकोनॉमिक्स पढाते हैं ) जबकि हमें हमारी प्यारी हिंदी की कॉपी के आखिर में लिखा मिलता है---
"सर/मैडम मुझे पास कर देना ! मैं बीमार थी इसलिए पढ नहीं पाई ! मैं आगे पढना चाहती हूं प्लीज" !
एसे में एक तो अपनी हिंदी का मारकेट रेट साफ दिखाई देकर भी हम अनदेखा करते रहते हैं बेबात फ्रस्टेशन मोल लेने का का फायदा ? एक कॉपी में नकल करने वाले/वाली ने नकल की बारीक सी पुर्जी जल्दी जल्दी में कॉपी के अंदर ही छोड दी तो कई कॉपियों में ऊपरी पन्ने पर एग्जामिनर के साइन के लिए छोडे गए खाली स्थान पर उत्तर देने वाले/वाली का साइननुमा नाम लिखा मिल जाएगा जैसे सुनीता , शेफाली वगैरहा....! ये नाम हमेशा लडकियों के क्यों होते हैं - जब सोचते हैं तो साफ दिखता है कि उत्तर देने वाला /वाली यह मानकर चल रहे हैं यदि उनकी कॉपी महिला एग्जामिनर के हाथ पडेगी तो "औरत ही औरत का दर्द समझ सकती है वाला मामला जम जाएगा ! यदि किसी पुरुष एग्जामिनर के हाथ से चेक हो रही है तो उसका सॉफ्ट कार्नर लडकी के नाम मात्र से जग जाएगा !
खैर जब आपको इतना झेलाया है तो हिंदी साहित्य को लेकर आपकी जानकारियों का वर्धन करना भी तो हमारा ही फर्ज बनता है ! इसलिए ये अमूल्य बातें जो हमारे होनहार बच्चों की अपनी सूझ बूझ का नतीजा हैं - पढकर ही जाऎ-
1 व्याख्या के लिए कविता कोई भी आए उसका रचयिता कालीदास या तुलसीदास ही होता है !
2 कविता या गद्य किसी भी कृति से उद्धृत हो "ये पंकतिया हमारी पाठेपुस्तक मे से ली गई होती है "
3 दोहा छंद का उदाहरण -"जो बोले सोणिहाल ससरियाकाल"
4व्याख्या में ज्यादा कुछ नहीं करना होता बस दी हुई लाएनों को आगे पीछे करके उन्हें बडा करके दिखाना होता है !
5 "शिंगार रस वहां होता है जहां कोई औरत सज धज के अपने प्रेमि से मिलने जाती है जिसमे प्यार का बहुत सा रस दिखाए देता है और उनके बहुत प्यार करने से ये बडता है ! इससे पडने वाले को आंनद मिलता है ...."
6 अनुप्रास अलंकार अनु +परास से बनता है इसमे एक ही शबद बार बार आता जाता है जिससे पडने में अच्छा लगता है कानो में भी अच्छा लगता है !
7 "सूरज का सातवा घोडा" प्रेम चंद ने लिखा है जिसका नायक बहुतों से प्यार करता है पर शादी एक से भी नहीं करता ! और इसमें ऎसी औरतओं की कहानी है जिनका चाल चलन ठीक नहीं है !
8 राज भाशा हिनदी हमारे राजाओं की भाशा है जिसका सारे देश में खूब विस्तार करना है ताकि भारत में एकता की जो कमी आ गई है वो दूर हो सके ! इसमें सारे शब्द बहुत मुस्किल होते हैं पर पदते रहने से आसान भी हो जाते है?
9 (किसी भी कवि का जीवन परिचय पूछा जाए वह लगभग एक सा होगा )
" नागार्जन कवि बहउत बडे कवि थे !उनका बचपन बहुत गरीबी में बीता पर उन्होने हार नही मानी ! वे लिखते गए सब तकलीफों में डरे नहीं ! उनकी कविता हमारे लिए बहुत जरूरी है ! वे बहुत ईमानदार और अच्छे कवी थे जिनको सब प्यार करते थे ! उनकी माता भ्चपन में ही मर गई थी इसलिए उनका पालन पोसन नीरू और नीता नामके जुलाहे ने किया ! वे उत्तरपदेश के लमही गांव में पैदा हुए थे ! उनकी पहली कविता उन्होंने बहुत बचपने में ही लिख ली थी बाद में वो लगातार लिखते गए उनकी भाशा में बहोत जादु है क्योंकि उनकी बाते मार्मस्पर्शी होती है जो की हिर्दय से निकलती हे ........!
10 बाबा बटेसरनात" उपनयास बहुत से तत्वों से भरा है जैसे चरित चित्रन , भाशा , संवाद , कथानाक ,देशकाल और वातावरन ! उसके सभी लोग एक दूदरे से बहुत अच्छे संवाद करते हैं जिनसे उपनयास का कथानाक आगे बडता है ! इसमे बहुत से पात्र हैं जिलका चरित चितरन बहुत गहरा है ! ये एसे पेड की कहानी है जो बहुत बुडा और समजदार है जिसको सब काटना चाहते हैं पर वो देश के लिए समाज के लिए जान दे देता है !....
इसलिए तो कह रहे हैं जनाब कि 149 में से 112 गए ! बाकी कितने बचे ?
18 comments:
फ़िर से अपने जादू में जकड लिया है नीलिमा जी.
कम से कम इन बच्चों को समझ में आ जाता होगा कि अगर कॉपियाँ जाँचने वालीं आप हैं तो वो कभी एक्जाम नहीं देंगे, बस आपके ब्लॉग्स पढकर ही हिन्दी में पारंगत हो जायेंगें.
आपका प्रिय
कमलेश मदान
वाकई मौलिक है। ऐसी रचनाओं को मिलाकर हिंदी का एक अद्वितीय बेस्टसेलर तैयार किया जा सकता है। बल्कि पहल लेकर यह काम किसी को शुरू ही कर देना चाहिए...
ध्न्यवाद कमलेश जी आपकी तारीफ के लिए शुक्रिया !
@ वाकई चंद्रभूषण जी आपने छात्रों की मौलिकता को पहचाना है !ऎसी बेस्टसेलर ही गाइड ,कुंजी का स्थान ले लेगी !
देखिये बच्चे आप का कितना ज्ञान वर्धन कर रहे है..और हमने अपनी कापी मे खुले ना होने के कारण ५०० का नोट रख दिया था ..कृपया कम से कम आधे तो वापस करदे ,काहे की आपने हमे बस पास होने लायक न. ही दिये है ना...:)
वाह... वाह... क्या ज़बरदस्त उत्तर दिए हैं। ऐसे प्रतिभावान विद्यार्थियों को पास करना आपका फ़र्ज़ है। :)
इस प्रकार के उदाहरण अर्से से सुनते आ रहे थे. मेरे भाई जो हिन्दी के प्रोफेसर हैं,उनकी जांची जाने वाली कापियॉं में से एक में पूरी की पूरी कापी में सिर्फ ये लिखा था ...
" इस प्रश्न का उत्तर ,हम जानते हैं,आप जानते हैं.सब जानते है,कोई नहीं जानता"
पूरी उत्तर पुस्तिका इसी वाक्य से भरी हुई थी.
मेरे पास एक "'खुले विश्वविद्यालय" की उत्तर पुस्तिकायें आती हैं,और वह भी मेनेज्मेंट के विद्यार्थियों की. अभी तक हरे नीले नोट तो नही निकले,लेकिन विभिन्न प्रकार के अनुरोध अवश्य देखे हैं. इसमें एक तो ऐसे व्यक्ति का था जो पिछले तीन वर्षों से एक विषय का पर्चा पास नही कर पा रहा था. बडी ही मार्मिक अपील में लिखा था कि उसका प्रमोशन पास होने पर ही सम्भव है.
कभी कभी हंसी आती है तो कभी कभी चिढ भी होती है,ऐसे नोट पढकर.
सच में मज़ेदार है.. पढ़ कर हँसी छूट गई..
Oh My God...
यहाँ भी कुछ गहराई ही मिली… वाद से संवाद का सफर आपका जटिल से जटिलतर की ओर जाती है…।
चूंकि मेरे पापा भी हिंदी के प्रोफेसर हैं तो बहुत सी बाते मैं भी देख चूका हूँ खासकर नोटों बाली।
साहित्य का शौक बचपन से था, पर कभी भी हिन्दी में ३४% अंक से अधिक लेकर पास नहीं हो सका। यह साथ पढ़ने वाले मेरे दोस्तों के लिये अचरज की बात थी। पर्चे हमेशा अच्छे लिखता था। और ऐसा भी नहीं कि इस प्रकार से कुछ भी उलटा पुल्टा ही लिखूँ। इसका दोष फिर भी मैं एग्ज़ामिनर्स को नहीं देता। ( यह मेरा बड़प्पन ही तो है! ) :) बुरा ना मानें...मज़ाक कर रहा हूँ।
खैर ... मेरा साहित्य के प्रति प्रेम अभी तक कम नहीं हुआ है। पढ़ता हूँ अपने मन के सुख के लिये। लिखता हूँ, अपने और औरों के सुख के लिये। भाषा का ज्ञान प्राप्त करने का हर संभव प्रयास है, निरंतर। ’नौन सर्टीफ़ाईड डाकटरो’ की तरह ही सही, अपने आप को गर्व से साहित्यकारों की क्षेणी में गिन्ता हूँ। क्यों ? इसलिये, क्योंकि किसी भी अच्छे विद्यार्थी से अधिक, दिन के ८ से ९ गंटे मैं भाषा को समझने में ही लगाता हूँ जो की मेरा विषय दूर दूर तक नहीं है। अब बस ऐसा ही चलता रहे, शारदा से यही प्रर्थना है और यह भी कि जग का कल्याण हो जिसमें मेरा भी कल्याण निहित है।
छात्रों की गलत सलत और मात्राओं की अशुद्धियों वाली हिन्दी लिखने में कितनी मुश्किल हुई सच बताईयेगा।
हमें तो पढ़ने में बड़ा मजा आया, पर हंसी दुगुनी हो जाती है जब कापियाँ जांचते समय आपकी मानसिक हालत की कल्पना करते हैं।
बड़े होनहार बच्चे है. कौन सा स्कूल के हैं?? :)
-बड़ी मौलिकता से लिखी गई रचना पसंद आई.
मेरी माँ भी संस्कृत पढ़ाती है और ऐसे आन्सर्स मैने बहुत देखे है... बचपन की याद आ गयी और ये पढ़ कर मज़ा भी...
आप ने जो लिखा है उस अनुभव से मैं भी गुजर चुका हूँ. बस फर्क सिर्फ इतना है कि आपके पास कॉलेज की कापियाँ होगीं और मेरे सामने स्कूल और बोर्ड की जो माँ स्कूल से जाँचने के लिए घर लाती थीं। कभी माँ को समय कम रहता तो नंबर मुझसे अंक जुड़वाती थीं। दस पंद्रह वर्ष पहले की बात है कक्षा सात के प्रश्नपत्र में संज्ञा के भेद लिखने को कहा गया और एक छात्रा ने लिखा।
संज्ञा के तीन भेद होते हैं...
१. बकौती वाचक संज्ञा
२. लोटनी वाचक संज्ञा
३, भभूती वाचक संज्ञा
कल्पनाशीलता की इस उड़ान को देख हम सभी भाई बहन हँसी से लोट पोट हो गए थे। निबंध लिखना हो तो शुरु और अंत की चार लाइनें ठीक और बीच में एक से एक दिलचस्प कहानियाँ घुसाई जाती थीं जिनका विषयवस्तु से कोई लेना देना ना होता था।
और बोर्ड की परीक्षा में तो नोटों के नत्थी किये जाने वाली बात आम थी। पास नहीं होने पर शादी टूटने का सेंटी दिया जाता था। आपकी ये सब याद दिला दिया...शुक्रिया !
हमें तो बस से बता दीजिये कि कुल कितने रूपये जमा हुये है
हमें तो इतना बता दीजिये कुल कितने रूपये जमा किये हो , ताकि हम भिखारी भेज सकें
वाह वाह !!
संज्ञा के तीन भेद होते हैं...
१. बकौती वाचक संज्ञा
२. लोटनी वाचक संज्ञा
३, भभूती वाचक संज्ञा
अजी ये पेपर तो फिर भी साहित्य के थे, हमारे होनहार बच्चे तो विज्ञान में भी ऐसी क्रिएटिविटी दिखाने से बाज नहीं आते, जरा यहाँ क्लिकाइए।
मेरी पोस्ट पर संजय जी की टिप्पणी थी:
धन्य हो गुरू. भारत का भविष्य आपके शिष्य के हाथों एकदम सुरक्षित है. हम और आप अब चैन से मर सकते हैं. :)
नीलिमा जी, यथार्थ का गजब चित्रण होने पर भी विद्यार्थियों के हिन्दी-स्तर का आपका यह ज्ञान 'कूप मण्डूक' जैसा ही कहना पड़ेगा। आशा है बुरा नहीं मानेंगी। बच्चों की उत्तर-पुस्तिकाओं से उद्धृत हिन्दी साहित्य की इन पंक्तियाँ में भूलें तो हैं,किन्तु हम कम से कम पढ़ कर समझ तो पाते हैं क्योंकि ये शायद दिल्ली (हिन्दीभाषी प्रदेश) के विद्यार्थी हैं। यदि आपको आन्ध्रप्रदेश, कर्णाटक, तमिलनाडू, ओड़िशा, बंगाल आदि हिन्दीतर भाषी प्रदेशों के विद्यार्थियों की उत्तर-पुस्तिकाएँ जाँचनी पड़े तो क्या हाल होगा?? शायद एक पंक्ति भी समझना मुश्किल होगा??? फिर भी वे पास होते हैं और अच्छे अंक भी ले आते हैं, कैसे??????????
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