Wednesday, June 20, 2007

पल्‍लू के साए में राष्‍ट्रपति भवन

जब से मेरी सासू मां ने सिर पर पल्लू लिए प्रतिभा पाटिल की तस्वीर को टी वी – अखबारों में देखा है तब से वे अपने तजुर्बों और पूर्व कथनों की विजय गाथा गा पा रही हैं ! एक परंपरागत ,लज्जाशीला , मर्यादावाहिनी ,कुल -सेविका नारी –सिर पर आंचल माथे पर सिंदूरी बिंदी –अहा कैसी पवित्रता से भरी एक आदर्श भारतीय स्त्री-छवि ! पहले वे कहा करती रही हैं कि “ देखो सामने वाली डाक्टरनी को सिर पर आंचल लिए क्लीनिक जाती है सिलाई - कढाई सब जानती है, एक तुम आज कल की बेहयाई से सिर उघाडे घूमने वाली बहुएं जिन्होंने आजादी के नाम पे तबाही मची हुई है “!..... आज फिर एक बार उनकी दबी आवाज कडक हो उठी है प्रतिभा जी !

तो मैं आज जहां से चली थी फिर वहीं आ पहुंची हूं ! जाने क्यूं एक कवि लिख गए –पढिए गीता बनिए सीता , फिर किसी मूर्ख की हों परिणीता , भौंह कंटीली आंखें गीली , घर की सबसे बडी पतीली भर कर भात पसाइए........! सिर पर आंचल लिए दांत की पकड से उसे गिरने से बचाती घर बाहर के काम सवांरती आम भारतीय स्त्री ! जहां सब स्त्रियां एक सी हैं किसी का कोई अलग नाम नहीं अस्तित्व नहीं साडियां ही बताएंगी कि उनमें किसकी पत्नी या किसकी बहू लिपटी है.........
साडी का अपना समाजशास्र है , सिर पर पडे पल्लू का अपना अलग..... पर्दे पर उघडी “स्त्री” देह घर में साडी में ढकी “नारी” ! कितनी विराट खाई दो छवियों में , उन छवियों के नियंता समाज के द्वंद्वों में ... वैसे द्वंद्व भी कहां हैं न ? ये समाज तो विरुद्धों का सामंजस्य करने में हमेशा से माहिर रहा है ! कैसा द्वंद्व ...? अलग –अलग मकसदों के लिए इस्तेमाल होती स्त्री छवि , जिसे बनाने - तोडने में जुटी थकती - हारती - जीतती करोडो भारतीय औरतों का बिखरा हुआ संघर्ष ! घर-बाहर दोंनो दुनियाओं की आदर्श छवियों के मायाजाल में फडफडाती ....

प्रतिभा जी , आपके सिर पर पडा साडी का आंचल देश के नागरिकों को आश्वस्त करने वाला है ! यह सदियों से पाले - पोसे गए पुरुष अहम की आग पर पानी के ठंडे छिडकाव सा दिलासा देता सा है ! शीर्ष पर स्त्री है पर है तो हमारी गढी हुई छवि के साथ ही न ! ममत्व , सहनशीलता , पुरुष के वरद हस्त के सम्मान की भावना जो इस स्त्री चित्र से उपजती है कैसा निराला सामाजिक प्रभाव होता है उसका – ये प्रभाव सामंतीय मन को ढांढस दिलाता है ! दूसरी ओर नएपन के चक्कर से उगे औरत की आजादी - बराबरी वाले खयाल भी उपजाता है कि “ हम एक आधुनिक समाज हैं " !समाज का ये अर्जित संतोष , ये ग्लानि भाव से मुक्ति केवल ऎसे ही तो संभव थी मेरी सखी ! हमारी ये छवि हमारी भी कितनी बडी सहायिका है ऎसे ही तो हम आश्‍वस्ति हासिल करती हैं कि “ नहीं हम लुच्ची नहीं हैं , आजादी के मानकों का ईमानदारी से इस्तेमाल कर रहीं हैं ....और देखो तुमने हमपर जो विशवास किया हम योग्य थीं उसके ..” !.... एक मर्दवादी समाज के मन को तुम ही संभाल - समझ सकती हो , समाज की भावना को , अहम को लगातार तुम ही बल देती चल सकती हो हे स्त्री ! यूं भी अपने इस रूप में तुम देवत्व का अहसास दिलाती हो इसी दैवीय रूप के सहारे ही तो तुम शोभा पाती हो हर जगह ..और शीर्ष पर भी अपने इसी रूप के आधार पर बुरी नहीं लग रही हो.......

छोडिए जाने दीजिए प्रतिभा जी, यह आपके सिर पर पडे पल्लू का राष्ट्र के नाम संदेश नहीं है .....यह तो मेरे खामखां के विचारों का बहाव भर है ! ये तो वह मुगलकालीन परंपरा है जिसका आप पालन कर रही हैं और यूं भी खुद को कडी धूप से बचाने के लिए भी तो सिर पर रखा जाता है न आंचल ! बाहर तो कडी धूप कहर बरसा रही है और सुना है कि राजनीति की धूप भी काफी तेज होती है...........

4 comments:

हरिराम said...

प्रजावत्सल भगवान राम ने तो एक धोबी मात्र के कहने पर अपनी अग्निपरीक्षित सती सीता को भी त्याग दिया था। इन्दिरा गांधी जी भी जहाँ, जिस प्रान्त में जाती थीं, वहाँ की वेष-भूषा धारण करती थीं, अपने भाषण की एकाध पहली पंक्तियाँ वहाँ की भाषा में देती थीं। यह सब जनता में लोकप्रियता हासिल करने के सरल उपाय हैं प्रजातन्त्र में। और अनिवार्य भी।

हम अपनी वेष-भूषा को सरलता से बदल सकते हैं। किन्तु करोड़ों लोगों की मानसिकता, भावनाओं तथा ज्ञान को नहीं। सैंकड़ों वर्षों तक लाखों करोड़ रुपयों की लागत से वैज्ञानिक शिक्षा देने पर भी शायद ही सफलता मिले...

आज भी करोड़ों की संख्या में आम भारतीय जनता की जिस वेष-भूषा, आचरण के प्रति आस्था है, यदि उसी में सजकर कैमरे के सामने आया जाए तो कितना सस्ता सौदा है, टके भर में सौ मन सोना जैसा...

यदि 110 करोड़ में से 90 करोड़ मल्लिका शेरावत की वेषभूषा के प्रति अधिक आस्था रखें, तो राजनेतागण उसे भी तत्काल अपना लेंगे शायद...

ePandit said...

जनता की नजर में चमकने के लिए सब होता है जी, नेतागिरी के लिए जींस-टीशर्ट पहनने वाले जवान छोरे कुर्ता-पाजामा पहनने लगते हैं। हमारे यहाँ के एमएलए जवान जहान बंदे हैं, चुनाव के दिनों में और विधान सभा के दिनों कुर्ता-पाजामा पहनते हैं बाकी दिनों जींस-टीशर्ट आदि। यही हाल और जगह भी है, राहुल गांधी को देख लो।

इसी ढोंग की खातिर ये लोग मंदिर, मजारों, गुरुद्वारों में मत्था टेकने जाते हैं।

अनामदास said...

नीलिमा जी
क्या टिका करके धोया है, मज़ा आ गया. इसे कहते हैं तल्ख़ी-तेवर और त्यौरियाँ. क्या बात है मज़ा आ गया. यही हमारी राष्ट्रपति? जी हैं जिन्होंने परदे के बारे में कमेंट करके बवाल मचा दिया है और ख़ुद बरसों से सिर पर पल्लू रखकर परंपरा का पालन कर रही हैं. साड़ी एक बेहतरीन पोशाक है लेकिन उसे सुष्मिता सेन की तरह भी तो पहना जा सकता है. ख़ैर, शशि थरूर वाला लेख तो आपने पढ़ा होगा, साड़ी के बारे में और भी बहुत कुछ है लिखने को, लिखिए कभी. आनंद आया, साधुवाद.

Anonymous said...

ही ही ही ही ...
सुनिये ...आप नाराज़ मत हुआ कीजिये....
मुझे अच्छा नहीं लगता ....
हान वैसे लेख अच्छा लगा :)