Monday, November 30, 2015


हैप्पी टु ब्लीड... क्योंकि दाग अच्छे हैं

हाल ही में  में सबरीमाला मंदिर के धर्माधिकारियों  द्वारा स्त्रियों के लिए मासिक धर्म फ्रिस्किंग़् मशीन लगाने की घोषणा से   धर्म के जरिए स्त्री की सत्ता को नियंत्रित करने की कुरुचिपूर्ण घटना सामने आई है |  इस प्रकार की विषमतापूर्ण कार्यवाही से  देवस्थलों  की क्रूरता  जगजाहिर तो हुई  साथ ही  दूसरी  ओर सभ्य समाज द्वारा स्त्री को बराबरी व सम्मान की दृष्टि से देखने के दावे खारिज हुए हैं । स्त्री के रजस्वला होने की एक सहज और प्राकृतिक अवस्था को धर्म और प्रथा के जरिए नियंत्रित करने के पीछे सामंती व्यवस्था को कायम रखने का सुनियोजित षड्यंत्र है । इस प्रकार के आडंबरपूर्ण , विषमता की भावना से भरे , अमानवीय फतवे को जारी करने का विरोध करने के लिए एक ओर सोशल मीडिया पर एक बड़े आंदोलन को तैयार किया जा रहा है तो दूसरी ओर इस तरह के विरोध और उसके तरीकों पर सवाल उठाकर उन्हें अनावश्यक और धार्मिक व्यवस्था में हस्तक्षेप बताने वाला एक पूरा वर्ग भी सक्रिय है ।  
 दरअसल धर्म के जरिए स्थापित मान्यताएं व प्रथाएं स्त्रियों के लिए सवार्धिक क्रूर रही हैं । धर्म ही सामंती व्यवस्था , गैरबराबरी और शोषण का दमदार व अचूक माध्यम है ।  पितृसत्ता को कायम रखने के लिए प्रथाओं और परंपराओं का मूल लक्ष्य् स्त्री की योनि व कोख को नियंत्रित करना है । कोई भी नियंत्रण बिना भय और बिना दमन और बिना दंड के संभव नहीं है । अत: धर्म और ईश्वर के नाम पर स्त्री के लिए व्यवहार और आचरण की लंबी फेहरिस्त लगभग हर समाज में पाई जाती है । स्त्री के लिए शुद्धता - अशुद्धता , पाप -पुण्य , करणीय - अकरणीय की विभिन्न कोटियां पितृसत्तात्मक समाज की नींव की भांति काम करती हैं । मासिक धर्म ,  यौनिकता , गर्भ और योनि से जुड़े सभी मिथ , प्रथाएं और प्रतिबंध स्त्री की अस्मिता को गौण बनाए रखकर व्यवस्था की सामंतीयता को बचाए रखने की क्रूर युक्तियां हैं । 
हैरत की बात है कि विश्व के अधिकतर धर्मों और सामाजिक आचरण सरणियों में मासिक धर्म को  एक टैबू बनाकर रखने  का प्रपंच पाया जाता है । मासिक धर्म की अवस्था में स्त्री को अशुद्ध घोषित कर उसके लिए अमानवीय और अन्यायपूर्ण आचार संहिताएं बनाई गईं हैं । आज भी विश्व के प्रगतिशील व विकसित माने जाने वाले देशों में धर्म या सामाजिक - सांस्कृतिक प्रतिबंध के जरिए मासिक धर्म को लज्जा , अशुद्धता , असहजता , दुराव और घृणा से जोड़कर देखा जाता है । जिन देशों में काम की अभिव्यक्ति व उसके  प्रदर्शन की सीमाएं अत्यधिक उदार हैं वहां भी मासिक धर्म किसी प्रकार के  संवाद , कला माध्यमों में अभियव्क्ति  या सामाजिक रूप से चर्चा के लिए निषिद्ध माना जाता है । दुनिया के सभी बड़े धर्म स्त्री की इस प्राकृतिक अवस्था में स्त्री को त्याज्य , अस्पृश्य और अशुद्ध मानकर उसकी अस्मिता का दमन करते रहे हैं ।  सबरीमाला मंदिर में लगाया जाने यंत्र मासिक धर्म की जांच कर न केवल यह बताएगा कि स्त्री रजस्वला है या नहीं बल्कि उसके जरिए यह भी अनावृत्त होगा कि अपने रजस्वला होने को छिपाकर कोई स्त्री ईश्वर के समीप जाने का दुस्साहस कर देवता और देवस्थल् को अशुद्ध कर  धर्म के अहंकार और विकरालता को चुनौती न दे सके । यदि मानव शरीर की स्वाभाविक अवस्थाओं और प्रक्रियाओं से शुचिता भंग होती है तो यह मान्यता केवल स्त्री से संबद्ध क्यों हो । क्यों नहीं समाज में पुरुषों द्वारा बलात्कार या संभोग करके पवित्र स्थलों में प्रवेश करने को  शुचिता भंग होने से  जोड़ा जाता और इस अपराध को रोकने हेतु उपायों का आविषकार किया जाता ? 

तेरह से पचास साल की उम्र तक लगभग 444 बार और अपनी प्रजनन उम्र के तकरीबन साढ़े आठ साल हर स्त्री रजस्वला रहती है । यह गौर करने योग्य तथ्य है कि आयु का यही दौर किसी भी व्यक्ति की कार्य -क्षमता का , उत्पादकता का, जीवन से तमाम अपेक्षाओं को तलाशने और उनके लिए समर्पित होकर श्रम करने के लिहाज से स्वर्णिम काल माना जा सकता है । किंतु पूरी दुनिया के विशॆषकर विकासशील् और अविकसित देशों में मासिक धर्म की शुरुआत से ही बालिकाओं को दुराव , दबाव , अवसाद , मिथों , भ्रांतियों के साथ जीना पड़ता है जिसके परिणाम स्वरूप  बालिकाओं को अपने व्यक्तित्व के विकास के शैक्षिक और सामाजिक अवसरों से वंचित रह जाना पड़ता है  । दुनिया के तमाम समाज खून के लाल  धब्बों के कलंक से आतंकित समाज हैं । विकसित समाजों के विज्ञापन जगत में  जहां  उपभोक्ता कंडोम के कामुक से कामुक विज्ञापन की अपेक्षा रखते हैं और विज्ञापनदाताओं में इस विषय में प्रतिस्पर्धा का माहौल रहता है , वहीं  मासिक धर्म से संबद्ध वस्तुओं  जैसे सैनेटरी पैड के विज्ञापन में नीली स्याही को लाल रक्त का प्रतीक बनाकर पेश किया जाता है । कंडोम के विज्ञापनों  और फिल्मों में  काम क्रीड़ा पर उन्मत्त् होने वाला समाज सैनेटरी पैड पर रक्त देखकर या मासिक धर्म  पर स्पष्ट चर्चा पर् जुगुप्सा से भर उठता है , ऎसा दोगलापन स्वस्थ समाज का संकेत नहीं हो सकता । 

हमारी सामाजिक संरचना में स्त्रियों के पास अपने शरीरांगों , उसकी अवस्थाओं , उनसे जुड़ी पीड़ाओं और समस्याओं को अभिव्यक्त करने के लिए न तो  भाषा है और न ही इस अभिव्यक्ति की कोई आवश्यकता और अभिप्राय ही समझा जाता है । घर से लेकर कामकाज के क्षेत्र भी वर्जनाओं से भरे हैं । पुरुषों का खुलेमान मूत्र विसर्जन करने , गालियों से भरी भाषिक अभिव्यक्तियां करने , स्त्री का उत्पीड़न करने  और  यहां तक कि बलात्कार करने तक को भी सामंती परिवेश का संरक्षण प्राप्त है लेकिन स्त्री को अपनी प्राकृतिक अवस्थाओं से होने वाली पीड़ा या असहजता को अभिव्यक्त् करने के लिए स्पेस उपलब्ध नहीं है । जिस समाज में लड़कियों के वस्त्रों पर एक लाल धब्बा उनके सम्मान और अस्तित्व को संकट में डाल सकता हो  और सार्वजनिक स्थलों पर निवृत्त होने की कल्पना तक किसी भी स्त्री के लिए असंभव हो उस समाज में सबरीमाला मंदिर जैसी घटनाएं व घोषणाएं स्त्रियों के लिए परिवेश को और अधिक दमघोटू बना सकती हैं । परिवेश की असमानता वाले समाज में स्त्रियों को यदि अवसरों की समान उपलब्धता प्रदान कर भी दी जाए तो उसका क्या लाभ ? अपने शरीर की सहज नियमित अवस्था के प्रति अपराध बोध और दुराव से भरी बालिकाएं व स्त्रियां  एक असंवेदनशील समाज में अपने लक्षयों के लिए अग्रसर हो पाएं  इसको सुनिश्चित करना सबरीमाला जैसी घटनाओं के बाद और अधिक दुष्कर प्रतीत होने लगा है । 
अभी हाल ही में लंदन मैराथन में किरण गांधी द्वारा  सैनेटरी पैड का प्रयोग किये बिना भाग लेने की घटना एकबारगी चौंकाने वाली प्रतीत होती है  परंतु साथ ही यह भी संकेतित करती हैं हमारे क्रूर व असंवेदनशील समाज की मनोवृत्ति को ऎसी शॉक ट्रीट्मेंट् की आज तीव्र आवश्यकता है । स्त्री पुरुष असमानता की गहरी खाई वाले सामाजिक परिवेश में  दखल देने के लिए इस प्रकार के विरोध से ही परिवेश की चुप्पी को तोड़ा जा सकता है । शोषण के लंबे इतिहास को भोगने वाली स्त्री के पास परिवेश को झकझोर कर अपनी उपस्थिति और अस्मिता को दर्ज करवाने के सिवाय अन्य कोई उपाय शेष नहीं रह गया है । ब्लीड फ्रीली एंड हैप्पी टु ब्लीड जैसे सोशल मीडिया के आंदोलनों के जरिये एक जड़  समाज को शर्मिंदगी और चुनौती देने का साहस करना स्वागत योग्य कदम है ।  यह  साफ देखा जा सकता है कि वर्जनाओं और वंचनाओं से भरे क्रूर सामंती परिवेश को चुनौती देकर ही स्त्री अपनी अस्मिता को स्थापित करने योग्य स्पेस बना पाएगी । 

No comments: