स्त्री और सेक्सुऎलिटी का आपसी संबंध क्या है ?यह सवाल अब स्त्री विमर्शों में यदा कदा उठने लगा है ! इस समाज में औरत अपनी सेक्सुएलिटी पर अपना ही अधिकार खो देती हैं ! यह पितृसत्ता ही है जो हमारी सामाजिक आर्थिक राजनीतिक और सेक्सुअल आइडेंटिटी को काबू में रखती है ! किसी स्त्री या लडकी का अपनी सुक्सुएलिटी , शरीर और प्रजनन पर नियंत्रण समाज को ,पेट्रीआरकी को सबसे खुली चुनौती होता है ! इसीलिए हमारे समाज के सबसे वर्जित सवालों में से एक सवाल है - किसी स्त्री के द्वारा अपनी यौनिक पहचान को जबरिया डिफाइन करने वाली संरचनाओं पर उठाया गया सवाल !
हमारे समाज में स्त्री का शरीर और उसकी आजादी पितृसत्ता का सबसे बडा हथियार भी हैं और उसके लिए सबसे बडा खतरा भी ! जिस समाज में पुरुष का सेक्सुअल सेल्फ हावी रहता है उसी समाज में औरत का सेक्सुल आत्म लगातार दबाया और कुंठित किया जाता है ! इसी समाज की ट्रेनिंग के फलस्वरूप स्त्री हमेशा अपनी इस आइडेंटिटी को पुरुष की थाती मान लेती है ! स्त्री के पास अपने सेक्सुअल आत्म को अभिव्यक्त करने के न अवसर हैं न भाषा और न ही आत्मविश्वास ! परिवार ,समाज संस्कृति ,नैतिकता ,मर्यादा का दायित्व एकमात्र उसके उउपर लादकर चल रही हमारी ये संरचनाऎ बेफिक्र हैं !
स्त्री अपने शरीर के प्रति कितनी सहज और सजग है या फिर उसकी सेल्फ की परिभाषा में उसकी अपनी यौनिकता को क्या जगह देती है ? स्त्री अपनी यौनिक आइडेंतिटी की अभिव्यक्ति को लेकर कितनी कुंठित ,दमित या पराश्रित है ?-- आदि कुछ सवाल हैं जो हमारे पितृसंरचनात्मक समाज की देन हैं ! इन सवालों को सवाल की तरह देखा जाना अभी कहां शुरू हुआ है -?-केवल वृहद विमर्शों की सुलझी हुई तहों के भीतर ये दबे हुए हैं !
एक आम स्त्री की ज़िंदगी की तमाम उलझनों ,पीडाओं , समस्याओं से इन सवालों को क्या लेना देना --मैं जानती हूं आपमें से काई सुधी पाठकों के मन में यह सवाल उठ रहे होंगे ! आप स्त्री की जिंदगी और जिस्म को कई अलग-अलग टुकडों में देखने के आदी हो गए होंगे सो उसकी सामाजिक राजनीतिक और यौनिक आजादी ( और अभिव्यक्ति ) को आप अलग अलग संघर्षों के रूप में देख रहे होंगे ! ज़ाहिर है आपको यह भी लगता होगा को बेचारी स्त्री कहां कहां लडेगी ??
12 comments:
आप ने महत्वपूर्ण और गंभीर सवाल उठाया है। यह चर्चा के योग्य सवाल है, इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। देखते हैं, कैसी टिप्पणियाँ आती हैं।
नीलिमा बहुत वक्त लगेगा अभी इस तरह की जागरुकता आने और उसे स्वीकारने में। एक लिंक दे रहीं हूं - http://merekavimitra.blogspot.com/2008/03/blog-post_1806.html कविता और उस पर आयी टिप्पणीयां काफी हैं अभी भी नारी कि मौजूदा स्थिति को दर्शाने के लिये।
O' sage!
Beware of the boudaries! The whole issue of Sex is due to boundaries... which are pure illusion.
And when the boundaries dessolve a new phenomenon arises which we call "Love".
It is for this reason Love & Sex are opposites. One survives on boundaries the other on the dessolution of boundaries. cordially invited to visit "The philosophical point".
दिक्कत यही है हम महिलाओं की आजादी से डरते हैं, यदि कोई आजाद महिला जो अपनी शर्तों पर जीती दिख जाती है तो उसे हम बड़ी आसानी से उपलब्ध मान लेते हैं
आपने जो मुद्दे उठाए है ,उनका हल हमारे समाज के भीतर ही है ,पर कोई चाहता नही ?
Neelima Jee,
What "aazaadi" you are talking about. How can you corelate the authority with Sex. If so it is going to divide the family...
neelima ji bahut sahi sawal uthaya hai apne,kisi bhi nari ko apne younik vichar pradarshit karne ki mubha nahi,koi jara bol de vyabhichari kehlati hai,shayad kabhi ye chitra badlega jarur badlega,magar ....der lagegi
Thinking what to say.....
नारी और पुरूष की यौनिकता एक दूसरे की पूरक हैं विरोधी नहीं. उन्हें समान स्तर पर रख कर देखना चाहिए. यौनिकता नुमाइश की बस्तु नहीं है. वह एक पुरूष और एक नारी के बीच एक प्यार और विश्वास का विषय है. दोनों में से किसी एक को मातृत्व का वोझ उठाना जरूरी था. ईश्वर ने यह जिम्मेदारी नारी को दी. मेरे विचार में ईश्वर को पुरूष पर उतना भरोसा नहीं था जितना नारी पर. मातृत्व के लिए कोमलता जरूरी है, इस लिए नारी को कोमल बनना पड़ा. पर यह कोमलता अन्दर की है. बाहर से नारी को बिना मतलब कोमल होने की कोई जरूरत नहीं. नारी ने इस कोमलता को अपनी कमजोरी बन जाने दिया है. उसका पुरूष नाजायज फायदा उठता है. नारी को नारियल की तरह होना चाहिए.
nari ko nariyal ki tarah hona chahiya ye thik hai
jabtak mahilao sex ki abbykit vykat karnne ka adikar nahe diya jata tabtak mahila ke astitv ko samjha nhe jasakta ANUJ PRATAP SINGH ADVOCAT HIGH COURT
bakai;stri ne apni dubi soch mai parivartan hoga avashya.
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