अगर कोई बलगम का लोथडा गले में अटक गया हो उसे उगल दीजिए दिल हलका हो जाएगा !
भारत देश की जनता को इतनी थूक क्यों आती है माइलौड ? यहां की सडकें भारतवासियों के दिल में सूराख कर रहे टी.बी. रोग के सबूतों से अटी क्यों पडी रहती हैं ? इन रंग बिरंगी पीकों से रहित कब होंगी हमारी गलियां गमारी सडकें ?
आकथू...आकथू ..
दरअसल हमारे सीनों में बरसों से थूक पीक का संगम बवाल मचाए हुए है ! लिसलिसा हरा गीला पदार्थ हमारे दिल में आप्लावित होता रहता है हुजूर ! जबतब ये कमबख्त गले में उबल पडता है ! आप जाने जनाब हमारे मुंह से ठीक उसी समय कोई बढिया बात निकलने वाली होती है पर बलगम के लोथडे में उलझकर रह जाती है ! ऎसे में हम मुंह खोलते हैं तो बस वही लिसलिसे थक्के बेकाबू होकर बाहर निकला चाहते हैं ! अब सडक उडक पे चलते हुए किसी मैदान के बेंच पर बैठे हुए ,किसी जलसे में शिरकत करते हुए हमारा मुंह भर आए तो फोंकने कहां जाऎं ? लिहाजा हमें ये स्वाभाविक कर्म वहीं अंजाम देना पडता है ! अब इससे आपको बदमज़गी हो या आपका पैर उसपर पड जाए या फिर उसकी झींटें उडकर आपपर आ पडें तो इसमें हमारा क्या कुसूर !
आप हमपे नैतिकता न थोपें ! इस तरह सडकें चौराहे और पार्क रंग देने से हमारा दिल हलका होता है ! सुकून मिलता है ! हम तो उगलेंगे ..दूसरों का दामन ,घर या सार्वजनिक सडक की सफाई का हमने क्या ठेका लिया हुआ है ! हम भोले- भाले हैं दिल के साफ हैं भावुक हैं बेबाक हैं नंग धडंग हैं ! आप सब अपनी आंखों ,नाक कान सबको बंद रखने के लिए आजाद हैं ! हम अपनी थूक पेशाब ट्ट्टी जैसी स्वाभाविकताओं को लेकर शर्म नहीं मानते ! अगर आप अपनी सहज क्रियाओं को भी अकेले में करने का मौका देखने वाले बेचारे बने रहेंगे तब तो आप जरूर समझ लेंगे लोकतंत्र का मतलब !
अब हम सबसे मारे हुए , सीने में जहां भर का दर्द लिए हुए जमीनी लोग हैं ! इसलिए सबसे ज़्यादा बीमार रहते हैं और इसलिए हमारे सीने में इमोशंस ,ईमानदारी शराफत हो न हो बेशुमार बलगम जरूर भरी रहती है जिसे उगल उगलकर हम दिल का बोझ हलका करते फिरते हैं ...! गले में उफनती पीक थूक मवाद सटकना हमारी नज़र से बेचारगी है सरजी ! और हां..इस बहाने आप हमसे खौफ भी तो खाऎगे ! आप अपने कपडे अपना चेहरा बचाऎगे हमसे ! हम पूरा ज़ोर लगाकर थूकेंगे गली मोहल्ले पटे होंगे इस थूक की पिच पिच से ! आप पैर रखते हय हाय करेंगे ! हो सकता है आपका जी मितलाए और आप कसम खाऎं कि आप दोबारा घर से बाहर कदम नहीं रखॆंग़े ! तो सरजी थूकने पीकने लिए ही तो भारतीय सडकें बनीं हैं आप अपने लिए तलाश क्यों नहीं लेते एक साफ सुथरी सडक या फिर पटरी ..?
तो सरजी हनने तो डिसाइड किया है कि हमारी बिलबिलाते रोगाणुओं से लबालब लेसदार मोटी बलगम की पिचकारियां पच्च पच्च कररेंगी ही ! हमारी मर्दानगी, आज़ादी ,लोकतंत्र और बलगम के लोथडे उगलना -उडाना ....हमें तो सब एक सा ही लगता है जी !!
9 comments:
शानदार लिखा है नीलिमा जी.
- मनीष भदौरिया
वैसे पैर, हाथ, देह आप सब बचाके चल सकेंगी, इसका पर्याप्त इंतज़ाम किया है?.. न किया हो, तो प्लीज़, काकेश से सबक लें.. हलहल-बलबल को दूर से ही देखें और दिन के काम पर आगे चलें..
neelima jee,
bada hee lizlizaa lekh hai magar iske lizlizepan mein chhipee sachaee ne baukhla kar rakh diyaa. himmat kee daad deni padegee.
हम तो खौफिया गये.
दुख तो इसी बात का है नीलिमा जी , लोग इस ब्लाग जैसी खुली अभिव्यक्ति के मंच को भी थूकदान बना रहे हैं।
हकीकत यही है। सच्चाई की ज़मीन के शुतुर्मुर्ग वे सभी कृत्य कर , जिनका उल्लेख आपने किया है, सिर वापस रेत में धंसा लेते हैं। उस लिजलिजेपन को उगल कर वे खुद भी उसे देखना नहीं चाहेंगे। कोई यह नहीं कहना चाहेगा कि देखो , वो धब्बा मेरा है और तुमसे ज्यादा बदनुमा और गंदा है।
जिसे ये सच कह रहे हैं वो सिर्फ अराजकता है। उगली जाने वाली बीमारियों के निदान शीशियों में बंद हैं।
संघर्षों से बनी खूबसूरत दुनिया (जिसे खूबसूरत बनाने में इनका कोई योगदान नहीं) इन अभागों को फ्रस्ट्रेट करती है जिस पर ये नज़ला गिराते हैं। हर खूबसूरती, कामयाबी, समृद्धि इनके लिए फ्रॉड है। उसपर इनके फ्रस्ट्रेशन की लिजलिजी, चिपचिपी मोहर लगनी बहुत ज़रूरी है।
सार्वजनिक प्रसाधनगृहों की दीवारों पर इस किस्म की मानसिकता वाली प्रतिभाओं ने कई ऋचाएं लिख डाली हैं।
नीलिमा जी ! कभी किसी मनोवैज्ञानिक ने मुझे बताया था कि जो लोग गलत काम करते हैं उनकी अन्तरात्मा उन्हें धित्कारती रहती है और वे यत्र-तत्र-सर्वत्र थूकते रहते हैं।(टी० बी० के मरीज़ों को छोड़ कर)
अच्च्ह व्यन्ग्य है. बधाइ. सच बहुत ही धारदार.
abhi tak sans me kuch atka hai mohtarma.
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