Wednesday, May 07, 2014

कोई लौटा दे मुझे मेरी नासमझी और बेफिक्री के दिन

समझदारी आने पर यौवन सचमुच चला जाता है और पैसा और स्थायित्व आ जाने पर साहस - हिम्मत रूपी टायर की हवा निकल जाती है ! जैसे मायके से बुलावा आने पर तंग करने वाले ससुरालियों को छोडकर नवेली बहू भागती है वैसे ही दो दिन की भी छुट्टियां आ जाने पर ह्म दिल्ली छोड पहाडों की ओर भाग खडे होते थे ! ना कोई डर ना कोई आशंका ना कोई योजना ...सिर्फ स्पिरिट के बल पर..
.....रात के ग्यारह बारह बजे हमारी और नोट्पैड वाली सुजाता जी की अल्लसुबह में 4 बजे ही गली मुहल्ले को टाटा बाय बाय बाय कर देने की योजना बनती ...नक्शे पर सबसे दूर के निर्जन पहाडी इलाके का लक्ष्य बनाया जाता ......जल्दबाजी में घर में ही एकआध बैग छूट जाता तो दिल को ये भरोसा देकर चुप कराते चलो बच्चे तो गिनके चारों गाडी में हैं ना वो नहीं छूट्ने चाहिए थे ! रास्ते में वहम होता भाई रसोई में गैस तो शायद जलती रह गई है ...सौ किलोमीटर दूर आके ऐसा वह्म ..उधर हमें वादियां और पहाड बुला रहे होते ...तब सोचते परिसर के प्लंबर को फोन करते हैं वह लकडी की सीढियों को छ्ज्जों पर टिकाकर ऊपर चढ लेगा और रसोई की खिडकी में से झांककर सही हालात का पता दे देगा अगर जल रही होगी तो खिड्की से लंबा डंडा डालकर गैस बुझा देगा ..तीसरे ही माले का तो घर है उन्हें तो कई कई मालों पर चढ्ने का काम होता है !
एक बार तो निकलते हुए जल्दबाजी में हमारी हथेली कट गई थी खून काफी बह रहा था उधर सुजाता जी के पेट में तेज दर्द रात से ही उठ रहा था .....पर क्या करते पहाडों की हसीन वादियों की याद चुंबक बनी हमें खींच रही थी और दिल्ली से दो दिन की कुट्टा कर ही चुके थे ! सो मैं आधा लीटर खून लुटाकर और सुजाता जी कराह रूपी ट्रॉल को इगनोर करते मंजिल पर पहुंच ही गए !

......दस साल पुरानी सेकेंड हैंड मारूति ऐट हंड्रड , चिलचिलाती धूप के थपेडे, कम बजट ,दो दो चार चार साल के बच्चॉं की तंग गाडी में होती आपसी लडाइयां जिनकी गंभीरता भारत पाक सीमा विवाद से कतई कम लैवल की ना होती............एक बार हम चौपटा -तुंगनाथ की चोटी पर बैठे थे और घर में पानी की लाइन फट्ने से घर के दरवाजे की गौमुखी से गंगा और जमुना की तेज धारा बह रही थी फोन का संपर्क पहाडों पर कम ही हो पाता है सो दो दिन बाद पता चला अब क्या करें ...हम तो 6 दिन की यात्रा पर आए थे दो दिन में कैसे लौट जाते ...सो दिमाग के धोडे गधे सब दौडा डाले ..हल निकला कि मित्र जाकर घर का ताला तोडें, प्लंबर से लाइन जुड़वाकर नया ताला लगवा दें और दोस्ती का फर्ज निभाएं ........

..हाय क्यों और कहां चली गई वो अल्हडता और बेफिक्री ..वो तंगहाली...वो नासमझी ....! आज अपनी ही उस कैफियत की खुद ही मुरीद हूं ! पर कुछ भी कर लूं नहीं लौटते वे दिन ! जैसे नर्सरी एड्मीशन से पहले मां बाप बच्चे को केजी तक का स्लेबस रटा के ही दम लेते हैं कहीं कोई अच्छा स्कूल ना हाथ से निकल जाए .. वैसे ही महीने दो महीने पहले सफर की योजनाएं बनने लगती हैं...साफ सुथरा चकाचक होटल सर्च करके ऑनलाइन बुक कराकर, पावती हाथ में लेकर, हेल्थ कार्ड लेकर ,इलाके की पूरी जानकारी पहले ही हासिल करके कहीं निकलते हैं कि कहीं कोई अच्छा टूरिस्ट प्वाइंट ना छूट जाए रास्ते में कोई संकट ना पड जाए पूरी तैयारी होनी चाहिए....!! क्या करें दिमाग दिल से ज्यादा चालू हो गया है क्लास के सबसे मेधावी व हाजिर जवाब बच्चे की तरह ! क्लास पर उसी का कंट्रोल है ...बाकी सब भावनाएं घर से पढकर ना आने वाले बच्चों जैसी बैक बेंचर बनीं रह जाती हैं ......

आह नहीं चाहिए ऐसी समझदारी और पैसा ! कोई लौटा दे मुझे मेरी नासमझी और बेफिक्री के दिन !!