Wednesday, July 25, 2007

लोग जा़लिम हैं हरइक बात का ताना देंगे

आज असीमा कह रही हैं कल पता नहीं और कौन क्या क्या कहेगी ! एक ऎसी औरत जिसको सुखद दाम्पत्य जीवन नसीब नहीं  हुआ और उसकी दूर दूर तक कोई संभावना न पाकर वह अपने पति पर कीचड उछ्ल रही है ! लोग सूंघेंगे बल्कि सूंघ रहे हैं कि वह औरत ऎसा  क्या करती थी कि पीटी जाती थी !आखिर वह कुछ तो करती होगी ऎसा कि एक बहुत बडा संवेदनशील कवि हाथ उठाने पर मजबूर हो जाता होगा ! चार औरतें मिलकर यहां बखूबी बात करती पाई जा सकती हैं कि हमारा तो हमें नहीं पीटता बडे प्यार से रखता है ! जैसा कि मेरी पडोसन की सास कहती है कि औरत खुद ही अपने ऊपर हाथ उठवाती है ......! इस प्रसंग का उठ जाना बहुत अच्छा है क्योंकि बहुत सी पत्नियां अपने सुखी जीवन में सुख का तुलनात्मक अध्ययन कर सकती हैं , जान सकती हैं कि उनका पति औरों के मुकाबले कितना अच्छा पति है ..कि वह कभी कभार ही उसे पीटता है ..कि वह उसका अक्सर तो खयाल ही रखता है ..!

असीमा एक ऎसी औरत है जिसने जबान खोलकर जग की विवाहिताओं में अपना मजाक उडवाया है ! समाज के विवाहित पुरुषों के लिए उपहास का मसला बनी है ! उसे ऎसा नहीं करना चाहिए था ! यह मैं इस लिए भी कह रही हूं कि मैं यह देख पा रही हूं कि उन्होंने अपने लिए कैसा रपटीला रास्ता चुन लिया है जहां उनका मसला अंतत: एक पागल औरत का प्रलाप सिद्ध हो जाने वाला है ! मैं यह इसलिए जान पा रही हूं क्योंकि मैंने असीमा की कथा को छूने का प्रयास करती हुई एक कविता लिख डाली है और जिसकी एवज में चंद्रभूषणजी की पोस्ट पर टिप्पणी में प्रिय बोधि भाई सहित मेरी कल की पोस्ट पर कई गुमनाम भाईयों ने उत्साहवर्धक टिप्पणियों से नवाजा है! यह उत्सावर्धन जरूरी है नहीं तो चारों ओर यही कचरा फैल सकता है और कई सुखमय विवाहित जीवन नष्ट हो सकते है ! उनका कहना है कि कविता में यह सारा कीचड क्यों आए ! कविताई में यह वीरांगनापन एक अकवियित्री के द्वारा तो कतई मंजूर नहीं ! कविता सत्य,सुन्दर और काम्य के लिए है !इस तरह के कीचड और लीद के लिए नहीं ,और यह भी सामने आया कि कविताई का सारा मतलब बडे कवियों द्वारा सत्य व सुन्दर का संधान है ! मान लिया भाई जी ! पर यह मंच मेरा है जहां मैं अपने मंतव्य को जैसे चाहे लिख डालूं ! मैं जनपथ पर खडी नहीं न बोल रही, न ही आपके मंच पर तो आप काहे बिलबिला गए ! आप निश्चिंत रहें जनाब आपकी कविताई और उसकी शुचिता बनी रहेगी और पाठक भी बरकरार रहॆगे!

आप भी तो लिखते हैं न असीमाओं पर ! पर आपको तब पता नहीं होता कि आप जिनपर लिख रहॆ हैं वे सब भी असीमा हैं ! क्योंकि आप दूर से दिख रही असीमाओं पर लिख रहे होते हैं!  आपकी काव्य चेतना में अनदेखी असीमाएं होती है हमने देखी हुई औरत असीमा की कविता कर डाली ! ...छोडिए भी....!

कविता क्या है ?यह बताने के लिए नए रामचंद्र शुक्लों का अवतार अपने बीच हो रहा है ! सच हो मगर दूर से ! सच ,मगर अपना ही, स्थापित हो गए बडे कवियों का ! उनके पास कवि दृष्टि है वे हमारे जीवन पर लिख सकते हैं पर हम अपने जीवन का भोगा हुआ नहीं कह सकते ! क्योंकि कविताई  तमाशा है ! संवेदना का फैशन है ! रुतबा है ! मजा है, कुछ बडेपन का ऎसा अहसास बडे कवि जिसके परस्पर सिरजनहार हैं ! यह गुटधरता है ! संवेदनात्मक मौज है ! इनाम है! शोहरत है ! ........।संवेदनशील सामाजिकों में संवेदना की ठेकेदारी है...!

............. असीमा तुमहारा कहा बेकार जाएगा ! न तुम घर की होगी न घाट की ! तुम्हारे सच को बांटने जानने की सजा बहुत बडी हो सकती है ! क्यों मैं या और कोई भी औरत तुम्हारे साथ खडी होने के खतरे मोल ले ? वैसे भी मैं बहुत डरपोक हूं ! तुम मुझसे तो कतई कोई  उम्मीद  न रखना ! वैसे मैं जानती हूं कि तुम जानती हो मुंह खोल देने के बाद के अकेलेपन के रिस्क को !

असीमा..!! आज तुम सडक पर खडी हो .........कोई भी औरत जानती है कि किसी भी स्त्री का सडक पर दो मिनट भी खडे रहना क्या होता है .............और तुम तो सडक पर खडी हुंकार उठी हो ............. यह क्या कर डाला तुमने असीमा.......!!!

Tuesday, July 24, 2007

असीमा ! मैं क्या तुम्हारी कथा कहूं.....

काली सुरंगों में भागती वह अकेली औरत

नहीं जानती कि किधर जाना है उसे

वह देखती है सर उठाकर ऊपर

तो आती है उसे आवाजें छैनी हथौडे की

जगह जगह गिरता है मलबा रोडी पत्थर

वह जानती है उसे सुरंग में धकेल डालने वाला वह

अपने पैरों तले की जमीन को छेद रहा है

बना रहा है कई मुहाने

सुरंग के रास्ते पर

और कह रहा है आस पास की भीड से-- देखो ये गटर हैं..

...वह दौडती है और तेज

...सुरंगों में धस गई कई मरी हुई औरतों की कहानी

उस सुरंग को याद है जबानी

सुनो ! अब उन्हें सुन सकती हो सिर्फ तुम ही...

...वह दौडती है और तेज

 सुनती है गुत्थमगुत्था आवाजों में उलझी पडी सैकडों कहानियां

चीखें, आहें,आंसुओं,सिसकियों में तहायी पडी सैकडों कहानियां

............

वह फिर भी डरती नहीं ,और भागती है

कदमों की चाल से चेहरे पर छिटक आए

कीच को पोंछे बिना....

वह अकेली है

-यही सुरंग में घुस जाने की नियति है!

वह दौडती है

-यह उसका अपना फैसला है!

वह लथपथ है कीच गर्द गुब्बार से 

--यह उसके दौडने की सजा है !

...............मुहानों से आती हर गूंज उसे कहती है

-अपना चेहरा तो देखो

इसे पोंछ क्यों नहीं लेती

और वह बुदबुदाती है

-अब यही मेरा चेहरा है ..यही मेरा चेहरा है .....

Sunday, July 22, 2007

मोहल्ले का तो है अंदाजेबयां कुछ और

 सामूहिक चिट्ठाकारिता का अपना अलग व्याकरण है ! इस व्याकरणशास्त्र का परिवर्धन - परिमार्जन लगातार हो रहा है और हमने उस पर नजर भी रखी हुई है! हमने देखा कि किस तरह से उसका निजी चिट्ठाकारिता से अलग एक स्वरूप व उद्देश्य है -यह चिट्ठाकारिता का एक नया तेवर है जिसकी गंभीर पडताल बाद में लिंकित मन पर की जाएगी ! पर फिलहाल तो ऎसे ही एक "लोकप्रिय" चिट्ठे मोहल्ले के साथ कुछ-कुछ पंगा शैली में लिख बैठे हैं --पंगा यह जानते हुए लिया गया है कि पत्रकार बिरादरी को छेडना बहुत खतरनाक भी हो सकता है ! अब छपास पीडा का शमन न करना होता तो लिख भर देते ,पोस्ट न करते ;) पर फिलहाल तो निज पीडा ही बडी जान पड रही है !!!! 

 तो देखा जाएगा परिणाम आप तो मुलाहिजा फरमाऎं---

 

    चिट्ठा करि करि जग बौराना, अंधकूप गिरा तहहि समाना
    वादी विवादी अधिक उकसाना,चिंतनशील विकट हैराना !!

 

पत्रकार के चिट्ठे पे कबहु विवेकी न जाइ

उत्सुकतावश यदि जाइ तो कबहु न टिपियाइ !!

       चिट्ठों के चौबारे पर लगी रहा चिट्ठा मेला

      ढूंढे से भी न मिले तहां चिट्ठाकार अकेला !!

स्त्री दलित हिंदुमुस्लिम चालू आहे बाजार

धाट धाट से चुनि चुनि लगि रहा यह अंबार!!

      इक ही विषय पर आइ रहा मति -कुमति का रेला

      लेख-कुलेख धकियाइ के लाइम लाइट में ठेला !!

चिंतन करि करि ऊपजे ऎसा विमर्श -पहाड

छुटपुट लेखक चढि पडा सूझे न कोई उतार !!

 

       जहां तहां से उद्धृत करें सम- समभावी विचार

        बेनामी टिपियाय रहे पड्तु निरंतर मार !!

 कहें विमर्श करतु संघर्ष न निकले निष्कर्ष

ऋन धन,धन ऋण होई जात है कैसे हो उत्कर्ष !!

 

      वा गली वा कुंजनिन में लगी रही संतन भीड

     हल्का -फुल्का एकु न,एकौ ते एक गंभीर !!

      एकु ते एकु गंभीर, मिली-मिली ग्य़ान बधारें 

      बनी परकास-स्तंभ करत हैं जग उजियारे !! 

     जग महि करें प्रकास नहीं हैं इन्हें अवकास

     ग्यान  चक्षु हैं खुलि गए बाकी सब बकवास !!

 

क्षमा करें बंधु हमें हमरा है नहीं दोस

टिपियाकर परगट करें अपना सब आक्रोस !!

Friday, July 20, 2007

खुल्लमखुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों.........

प्यार और उसकी अभिव्यक्ति के मामले में अब हमारे शहर बदल रहे हैं , हमारे मन बदल रहे हैं ! प्यार करने के लिए अब प्रेमी जोडों को खेत खलिहान झाडी की ओट नहीं तलाशनी पडती न ही जमाने की घूरती नजर की परवाह करनी पडती है ! प्यार किया तो डरना क्या की तर्ज पर अपने आस पडोस की मानव आकृतियों की फिक्र किए बिना प्यार करने वाले प्यार भी कर रहे हैं और उसका इजहार भी !

अपने घर की बाल्कनी में खडे हों तो अक्सर नीचे सडक पर हाथ में हाथ डाले प्रेमी लडके - लडकियां घूमते दिखाई दे जाते हैं ! मेट्रो से यात्रा करें तो सब ओर मेट्रोमय प्रेम और प्रेममय मेट्रो ही होती है ! मॉलों की सीढियां प्रेमबद्ध युगलों को पार करके ही चढना संभव होता है !शहर के सारे पार्कों में हर बॆंच पर प्रेम में आकंठ डूबा जोडा लौकिक जगत के बोध से रहित प्रेमालाप करता दिखाई देता है !

ऎसा खुल्ला प्यारमय माहौल हमें तो सब ओर पॉजिटिव ही पॉजिटिव होता मानने को मजबूर कर देता है ! मन कहता है काहे का पिछडापन भई हम तो लगातार विकास कर रहे हैं ! आत्मा से आवाज निकलती है कहां है मध्यकालीनता , कौन- सी बंद सोसायटी ? हम तो एक आधुनिकतम खुला समाज हैं जहां कोने - कोने पे प्रेम की नदियां बह रही हैं .....

क्या है कि हम मसिजीवी जी की तर्ज पर कहें तो ठहरे मास्टर.. न न.. मास्टरनी .....! अब पिछले दो साल से पढा रहे हैं फर्स्ट इयर के लडकों को रीतिकाल ! कहने को कोऎड कॉलेज है पर हमारी क्लास में एक भी लडकी नहीं ! तो भाई लोगों कवि पद्माकर, मतिराम देव आदि आदि के प्रेमकाव्य की सप्रसंग व्याख्या करने की मुसीबत से हफ्ते में 3 बार गुजरते हैं....अब पद्माकर कह गये कि बच्चों देखो कैसे रति क्रीडा के बाद सुबह प्रेममग्न नायिका रति कक्ष की देहरी पर हाथ रखे खडी होती है ..कि कैसे उसके बाल उसके गले के हारों से गुत्थमगुत्था हो गए हैं ....कि कैसे वह नायक को मादक दृष्टि से देखती है और यह कि फलां छंद में विपरीत रति का चित्रण है फलां में नख और दंत छेदन ..और यहां मुग्धा नायिका है ....यहां प्रौढा.............................! अब क्या करें जब वात्सयायन जी कामसूत्र की रचना कर ही गए हैं , हमारे रीतिकालीन कवि उस पर आधारित नायिका- भेद व रति -चित्रण कर ही गए हैं तो हम भी उसे बिना हकलाए, बच्चों से बिना नजर चुराए और व्याख्या को बिना सारांश में बदले पढा ही डालते हैं ........

ऎसे में हमें हमारे पार्कों में लतावेष्टित आलिंगन में बंधे चुंबन के अनेकों वात्सायनी पाठों को आजमाते नायक नायिका ध्यान जरूर आते हैं ! वे स्कूल या कॉलेज से भागे हुए कच्ची पक्की उम्र के युवा .....! हम भरसक कोशिश करते हैं उन्हें न देखने की पर वे कोई कोशिश नहीं करते हमें न दिखने की .........मानो हम उनके लिए अदृश्य हैं !.....पार्क में खेलने गए किसी बच्चे की बॉल अपने पास आकर गिरने या फिर पिकनिक मनाने आए किसी बडे से परिवार के छोटे बडे सदस्यों वाले झुंड के अपने पास से गुजरने पर भी वे अपने शयन- कक्ष वाली मुद्रा को त्यागे बिना रत रहते हैं ......ऎसे में लगता है कि हम पीछे छूट गए और आउटडेटिड हैं ...कि यही ट्रेंड है ....यही अदा है नए प्यार की ....आप जले या नएपन को कोसें ....नजर चुराऎ या नजर भर देखॆं...... या फिर अपने बीत गए जमाने में प्यार करने की दिक्कतों को लेकर कुंठित हों........

..........हम इसे पब्लिक डिस्प्ले ऑफ अफेक्शन मानें या उन्मुक्त यौन अभिव्यक्ति......अपनी फिल्मों में यौनिक अभिव्यक्ति का स्वागत करते हम अपने आसपास क्यूं न करें इसे स्वीकार ? कला और यथार्थ में आती खाई को आओ पाट दें........या फिर अपनी आंखो के दोगलेपन पर करें फिर से विचार.....बहरहाल हम पता नहीं कब तक रीतिकाल को पढाऎगे और यह भी हमारी ही सरदर्दी है कि कैसे पढाऎगे.......वैसे एक बात है कि मन में कई बार उठ्ता है कि विभाग में बाकी सभी 9 पुरुष हैं...वे ही क्यों नहीं पढा लेते यह एक पेपर ! पंतु तभी मन में एक कोने से कोई आवाज सुनाई देती मैं क्यों नहीं ............ !

Wednesday, July 18, 2007

गालियों से रिसता चिपचिपा पदार्थ

अनामदास जी बोधिसत्व जी तथा और भी जितने भी जी गाली शास्त्र पर अपने विचार व्यक्त करते पाए गए उन सभी से क्षमा प्रार्थना के बाद ही मुझ जैसी-गाली अकुशल वर्ग की प्राणी इस विषय पर कुछ कहने की कुव्वत कर सकती है !बात यह है कि गाली प्रेषण में सम्पन्न पुरुष वर्ग से खुद को हीन समझने का एक और कारण हमॆं मिल गया है ,जिसे पाकर हम उस तरफ से अनदेखा नहीं कर पा रहे हैं !हमने पहले भी गाली को मर्दवादी ,वीर्यवादी समाज की भाषा संरचना कहा था ,आज भी कहेंगे! अभी हाल ही में उठा साहित्य भाषा,गाली और बहस का तर्क झंझावात साफ तौर पर हमें, हमारी सामाजिक स्थिति को डिफाइन करने का एक और प्रयास भर ही है शायद !एक स्त्री विहीन विमर्श का दायरा सुनिश्चित करता तमाम बौद्धिक वर्ग....!

......और हम रोज देखते हैं गली मोहल्ले मेट्रो यहां तक कि शिक्षण संस्थानों में गालियों से आकंठ भरे मदमस्त बेपरवाह अपकी -अधपकी -पकी उम्र के मर्दों को !ऎसे में हमें दिखना होता है अनजान..कि हमने नहीं सुना कुछ..कि हमें नहीं पडता फर्क क्योंकि यह जो गाली तुम दे रहे मेरे जननांगों या चरित्र पर नहीं लक्षित है..कि नहीं नहीं सब कुछ ठीक ही तो है ....!किसी चौराहे पर सिर्फ 7-8साल के फटेहाल या फिर गली में खेलते तीसरी क्लास मॆं पढने वाले बच्चे को ऎसी' ' भद्र' भाषा का इस्तेमाल करते सुनकर मात्र यह शुक्र मनाना होता हि कि अभी तक हमारे घर का बच्चा यह नहीं सीखा है !वैसे क्यूं इतनी आपत्ति है हमें गालियों से ..इसे पुरुष वर्ग की यौन कुंठा का उत्सर्ग द्वार मानकर भी तो भूला जा सकता है ! स्त्री के शरीर मात्र को लक्ष्य बनाकर करने दो इन्हॆं आपसी छीछालेदर! यहां पिता यह मानकर संतोषी होकर रह सकता है कि उसका पुत्र भाषा का यह तेवर न जानता होगा अपनाता होगा और पुत्र यह भ्रम पाले रहता है कि उसका पिता गालियों की भाषा बोल ही नहीं सकता ....कितने सहज हैं ये भाषिक व्यवहार अपनी- अपनी मर्यादा के खोलो को निभाने में भी कितने उन्मुक्त ....

कभी कभी ' विमल जाऎं तो जाऎं कहां' के विमल सिर्फ उस उपन्यास में ही नहीं रहते! विमल जानते हैं कि "पाजामे में पडे पिलपिले पत्थरों का' इतिहास...

हमारी एक मित्र हैं जो शिक्षा विभाग में प्राध्यापिका हैं ....उन्होंने ऎसी ही किसी भावना की रौ में बहकर पुरुष  लक्षित गालियों का संधान किया था इस बात को आज 7-8 वर्ष हो गए हैं ...लेकिन अभी तक उन्होंने उन गालियो का इस्तेमाल नहीं किया है ...शायद कर नहीं  पायीं...

Monday, July 16, 2007

समीर जी, दिल्ली ब्लॉगर मीट में साधुवाद वर्सिस असहमति पर हुआ द्वंद्व

यहां तो बहुत गडबडझाला हुआ जा रहा है! हमारे अतिप्रिय समीर जी को मैं स्पष्ट करना चाहूंगी कि दिल्ली ब्लॉगर मीट में उठे जुमले --'साधुवाद युग का अंत "--केवल एक शाब्दिक प्रतीक भर था जिसका प्रचलन आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणियों में आने वाले साधुवाद शब्द मात्र से हुआ है!
समीर जी ,आपका ब्लॉग लेखन हिंदी ब्लॉग जगत में जो भूमिका रखता है उसे जाहिर करने के लिए एक टिप्पणी मात्र काफी नहीं होगी ! मैं यहां इतना ही कहना चाहती हूं कि उपरोक्त जुमले का पूरे प्रसंग में उद्देश्य यही था कि हिंदी ब्लॉगिंग मेच्योर हो रही है और हम असहमतियों और विवादों को बढता देख रहे हैं ! वहां यह कहा गया था कि अब परस्पर उत्साह बढाने वाले माहौल के स्थान पर विरोधी विचारों को रखने की परंपरा की नींव पड रही है ! यह भी कहा गया कि नए ब्लॉगरों को उत्साह वर्धन की जरूरत हमेशा रहेगी लेकिन एक सीमा के बाद हर चिट्ठाकार अपने विचार रखेगा जो जाहिराना तौर पर आपस में मेल नहीं खाते होंगे और विमर्श को जन्म दॆंगे! ब्लॉग जगत के हालिया बदलावों के मद्देनजर इस बात की और भी ज्यादा पुष्टि होती है ! फुरसतिया जी के यहां सृजन जी की टिप्पणी में भी इस संबंध में बातें रखी गई हैं !
आपकी भावनाओं को ठेस पहुंचाने का इरादा वहां मौजूद किसी भी ब्लॉगर का नहीं था ! मसिजीवी ने अपने लेख में जो बात रखी वह उस मीट में पैदा हुए विमर्श से जुडी थी !यूं तो आपके पदचिन्हों पर चलकर हम सब भी साधुवाद के जुमले को बहुत इस्तेमाल करते हैं , लेकिन नए असहमतियों के दौर में इस साधुवाद करने की प्रवृत्ति के स्थान पर सार्थक विरोधी विचार रखने की प्रवृत्ति के बलवती होने की संभावनाओं पर विचार किया गया था! यहां लक्षय ----"हम सभी ब्लॉगरों की प्रवृत्ति पर था '!----आप के लेखन की सार्थकता या इस जगह पर आपकी उपस्थिति को कट्घरे में डालने का विचार कमसे कम मै जितना उक्त लेख के लेखक को जानती हूं सबसे आखिरी विचार होगा!आप से मौज की आप द्वारा ही दी हुई छूट का अगर यह अर्थ होना था तो वाकई यह एक कमजोर शैली के लेख के कारण ही हुआ होगा !

Friday, July 13, 2007

मेरे शहर में शाम


मेरे शहर में शाम हर रोज आती है ! रोज उतनी ही बासी, उतनी ही भागदौड भरी और उतनी ही उदासीन !अब शाम कवि की काव्य प्रेरणा उस तरह से नहीं रही है शायद जैसी पहले हुआ करती थी ! संझा का झुटपुट, चिडिया की टुट-टुट वाली कविता भावना उपजाने में नाकाम शहरी शाम ! ये शामें ललाती सी , लुभाती सी कहां रही हैं, न कवि का मन अब कहने को करता होगा---मेघमय आसमान से उतर रही संध्या -सुंदरी परी - सी- धीरे धीरे धीरे..! भीडे लालडोरे इलाकों या फिर ऊंची सोसायटियों की ऊंची बिल्डिंगों के ऊपर के आकाश में कब शाम रात से समझौते का सौदा कर बैठती है और कब डूब जाती है शहराती नहीं जान पाता ,न जानना चाहता है


!मेरे शहर में दोपहर ढलने का नोटिस हाथ में लिए उजास निर्वासित सा निकल पडता है ! शाम बडकुंवरिया की सी पथरीली भंगिमा लिए आन खडी होती है बेकली का भाव अपने चेहरे पर लिए , बेकली अंधेरे की भीमकाया में खो जाने की.... !


मेरे शहर की धमनियों में बहती है मेट्रो मेरी शान ! इस छोर से उस छोर !उडेलती चलती है तरल शहराती झुंड--छोटे छोटे क्षुद्र कटोरों जैसे घरों में ! ऊपर आकाश में लाल और काले रंग का पारंपरिक मिलन और उसकी छाया में यमुना के पुशतों पर दौडता साइकिलों का रेला ...रोज रोज के लिए यूं ही प्रोग्रांड है ये दृष्य..मेरे शहर के केनवास पर ! यहां हर शाम थका - मांदा सा सूरज दिन भर की ड्यूटी से पसीज जाता है पर इन साइकिलों पर सवार कामगरों का मेला दस -दस घंटों की काम की पारी से भी क्या नहीं थकता ?....कम से कम साइकिलों के पैडलों पर पडते उनके पैरों की गति तो यही कहती है ....शाम के बेतरतीबे कोलाज में बेमेली से चिपके निरर्थक हिज्जे से चिपके जीते जन ...लाकों जन....


दिन में हल्की शर्म का झीना नकाब ओढे मेरा शहर हर शाम मॉलों में नंगा होने पर उतारू सा लगता है ! चमक, यौवन मूड और मौके का अद्भुत हाट !नया मूल्य , नया तेवर लिए शाम वहां बाजारू सी होने पर आमादा हर सकुचाये को निमंत्रण देती है....नए नेह का निशा निमंत्रण...


कैसे ठुकरा दिया जाए ये निमंत्रण....बहुत संयम की बात है..




ऊपर आकाश मॆं विरोधी रंगों का कितनी कुशलता से किया गया मिश्रण और यहां शहर की जमीन पर अंधेरे और चमक का साफ साफ बंटवारा.....यहां शाम जानती है दोनो छोरों की परिभाषा ......हम जाने या न जाने .....और जानना चाहें या न चाहें...

Friday, July 06, 2007

ये दो और इनके सिर्फ तेईस...




रायटर ऐजेंसी से प्राप्‍त ये तस्‍वीर आज हिदुस्‍तान टाईम्‍स में छपी है! बड़े आकार के लिए क्लिक करें

Tuesday, July 03, 2007

अविनाश जी ! मोहल्ले के मर्दवादी भाषिक तेवरों को लगाम दीजिए

मोहल्ले पर जाना पहली बार एक दुखद अनुभूति रहा ! बडे विचारकों की साहित्य की जमीन पर की हुई विष्टा से जी मितला गया ! बहस की भाषा मर्दवादी , बदमजा और मुठभेडी ! चिंतन खोखला तो भाषा थुलथुली , लिजलिजी ! मन बना लिया था कि इस विवाद से दूर का नाता नहीं रख्ना है पर वहां नोटपैड जी टिप्पणियों में एक कोशिश देखकर मैंने सुबह अविनाश जी से बात की ! वह बहस तो अधूरी रह गई किंतु मोहल्ला बनाम अविनाश जी की सोच कुछ हद तक सामने आई--

me: क्या गदर मचा रहे हैं जनाब आप
avinash: आदाब... कुछ गड़बड़ हो गया है क्‍या....
me: आप को भी तो कुछ महसूस हो रहा होगा न गडबड जैसा ;)
avinash: मैं किसी गड़बड़ी को लेकर साकांक्ष नहीं हूं... अगर ऐसा है, तो मुझे बताया जाए कि मुझे क्‍या करना चाहिए...
me: नए लोगों को न डराओ यहां मैं तो अभी देख ही रही हूं सब अभी अमझ में नहीं आया है मामला पर जानना है आप क्या कुछ नहीं देख रहे क्या यही सब होना चाहिए ??क्लियर स्टेंड क्या है बताऎ तो यही भाषा हो सकती है कुछ और नहीं या हम सब नए और आम लोग बहुत नासमझ हैं
avinash: देखिए... मेरी मंशा है कि हिंदी पर बात हो... हिंदी में लिखे जा रहे पर बात हो... हममें से कइयों को लगता है कि हिंदी में जो कुछ भी आज लिखा जा रहा है, उसके सरोकार नहीं हैं... अभी भी सवर्ण मानस की अभिव्‍यक्तियां हिंदी साहित्‍य के केंद्र में हैं... तो हिंदी की मुख्‍यधारा में इन दिनों क्‍या-कैसी बहस चल रही है, उसकी एक झलकी ही आप यहां देख रही हैं... मसिजीवी ने सही लिखा- कि अगर हिंदी की दुनिया यही है, तो ऐसी दुनिया में हमें नहीं जाना...
क्लियर स्‍टैंड जैसा कभी कुछ होता नहीं... विमर्श की दुनिया में कम से कम... राजनीति की ज़मीन पर ज़रूर इस तरफ या उस तरफ रह कर बात की जा सकती है...
me: हां या तो यह सब दरकिनार होगा या आम लोग यहां से जाऎगे -यही भविष्य है
avinash: आम लोग कौन है
me: वैसे भाषा को लेकर स्टेंड की बात की थी मैंने
avinash: हमारे आपके समाज में जो अभिव्‍यक्तियां हैं, जो शब्‍द हैं, वही पन्‍ने पर उतरेंगे... भाषा दस तरह की आए, उसका मैं कायल हूं आपकी ही भाषा में जो अठखेलियां हैं- वह हिंदी के लिए नई हैं
me: यही तर्क तो आज के हिंदी सीरियल वाले , एकता कपूर देती हैं
avinash: तो भाषाई परहेज़ एक तरह से लोकतंत्र का निषेध है
तब तो आप दलित साहित्‍य को खारिज़ कर देंगी, जिसमें धड़ल्‍ले से गालियों का प्रयोग हो रहा है एकता कपूर क्‍यों‍ कह रही है, और साहित्‍य में इसकी मांग क्‍यों उठ रही है, इसकी अलग-अलग वजहें हैं... भाषाई गरिमा में हिंदी का दम घुटता रहा है बहुत सारी बातें निकलकर नहीं आ पायी हैं
me: भाषा में यह चूतिया वाली शब्दावली कभी किसी महिला की तो नहीं दिखी ? न ही महिला कहीं ऎसी किसी बहस में दिखती है ?
avinash: मैं इस शब्‍द या किसी भी गाली का प्रयोग नहीं करता...
me: चूतिया कहते ही सारी अभिव्यक्ति पा जाते हैं आप ?
avinash: व्‍यक्तिगत रूप से...
avinash: अभिव्‍यक्ति एक शब्‍द से नहीं फूटती आपने ब्‍लैक फ्राइडे फिल्‍म देखी होगी उसमें इस शब्‍द का धड़ल्‍ले से प्रयोग किया गया है पुरुषों की दुनिया में इस शब्‍द का इस्‍तेमाल चुइंगम की तरह किया जाता है
me: शब्द तो पूरी भाषिक संरचना हैं अकेले वजूद नहीं रखते
avinash: हमारे समाज में तमाम गालियां स्‍त्री विरोधी हैं
आप देखिए... बोधिसत्‍व हिंदी के बड़े कवि हैं...
me: तभी तो कह रही हूं पुरुषों की बहस जिसमें सारी यौन कुंठाओं की बारास्ता साहित्य अभिव्यक्ति हो रही है
avinash: उन्‍होंने चूतिया का इस्‍तेमाल किया... हां, अब आपने सही बात कही क्‍या होना चाहिए, क्‍या नहीं होना चाहिए... बात इस पर करनी ही नहीं चाहिए बात ये है कि जो जैसा है वो वैसा दिख जाए
me: साहित्य की भाषा और बहस की भाषा में फर्क होता है जनाब
avinash: तो जब बोधिसत्‍व जैसे बड़े कवि इस शब्‍द का इस्‍तेमाल करते हैं, तो हमें समझना चाहिए कि हिंदी में इन दिनों अभिव्‍यक्तियों का कैसा दौर चल रहा है ! मैं दूसरों की भाषा सेंसर करने के पक्ष में नहीं हूं... मैं अनुरोध ही कर सकता हूं मैंने किया भी है
me: बहुत गलत बात कि वे बडे कवि हैं तो क्या वे फिलमी एक्टर की तरह हमें भाषा का फैशन बताऎगें ?
avinash: ये आप उन्‍हें बताइए...
me: आप भी तो जानिए हमारी बात! आपके यहां ही यह सब चल रहा है आप उस सब से वास्ता तोड कर साइड में नहीं खडे हो सकते हैं न
avinash: यही तो मैं कह रहा हूं... मैं दूसरों की भाषा सेंसर नहीं कर सकता। या तो मैं पूरा वाक्‍य ही नहीं छापूंगा... मेरे पास अभी 19 आर्टिकल है, जिसे नहीं छाप रहा... इस‍ी वजह से, क्‍योंकि वो छापने के काबिल नहीं है लेकिन विमर्श में कोई उग्र हो गया है या कोई बदज़ुबानी कर दी है, तो उसे खामोश नहीं कर देना चाहिए पूरी बात आने देनी चाहिए...
me: तो यह काबिल था यानि ?
avinash: इतना धैर्य हममें होना चाहिए... क्‍यों हम गालियों से परहेज़ करेंगे, अगर सिर्फ गाली के लिए गाली न दी गयी हो हमारे संस्‍कारों कें स्रोत दरअसल हमारी सुहागिन परंपराएं हैं, कोई आज़ाद और अपनी निर्मिति नहीं इसलिए हम हरे-हरे कहने लगते हैं... और शिव शिव कहने लगते हैं
me: बात घूम कर वहीं मत पहुंचाइए न ! गाली ! मर्दवादी अंदाज में गाली जिससे स्त्री के बारे में दबी हुई उनकी मानसिकता सामने आती है उन सब के दावों को खारिज करती हुई कि वे नए समय के स्त्रीवादी विमर्शों से ताल्लुक रखते हैं
avinash: तो ये तो अच्‍छी बात है... पर्दाफाश ज़रूरी है जो जिस मानसिकता का है, उसकी मानसिकता ज़ाहिर होनी चाहिए
me: तो मतलब यह कि उन सब को चूतिया कहने की आजादी होनी चाहिए बिना उसके एक मर्दवादी सटीक अभिव्यक्ति कर ही नहीं सकता
avinash: न आप मेरी बात समझ रही हैं... न मैं आपकी बात समझ रहा हूं... दरअसल मैं सेंसर के पक्ष में नहीं हूं.... ईस्‍वामी ने एक बार ठीक कहा था कि आप उधर मत जाओ, जिधर कुछ गंदी हवाएं बह रही हैं... चौपटस्‍वामी ने भी विवाद की अविनाशप्रियता में यही कहा था..
. me: अर्थात?
avinash: अभिव्‍यक्तियों का एक कोना ऐसा भी रहने देना चाहिए...
me: और वहां स्त्रियां जाऎ या नहीं ? और अगर जाऎ तो किस भाषा का इस्तिमाल करें ?
avinash: देखिए नोटपैड ने आकर अपनी बात कही कि नहीं... बहुत वाजिब बात कही है... स्त्रियां आएंगी... और आईना दिखा कर जाएंगी...
me: जाऎ तो यह मान कर कि वहां उनके गुप्तांगों पर बनाई गई गली वाली गालियों में बहस होगी avinash: क्‍या अक्‍सर ऐसा होता है
me: नोट पैड गई थी क्या हुआ वे जनाब मासूम बन गए नोट पैड ? कहां हो अविनाश जी ;)?
avinash: अभी सुबह-सुबह उठा ही था... चाय-पानी भी नहीं चढ़ाया है...
me: ओह ;)
avinash: कभी मिलेंगे तो बात करेंगे
me: चलो बाद में बहसेंगे
avinash: शुक्रिया
me: वैसे यह तो एक चिट्ठा तैयार हो गया है
avinash: आप इसे डाल दो
me: छाप दें ?
avinash: छाप दीजिए...

Sunday, July 01, 2007

कौन है असल फुरसतिया ?

आजकल हिंदी ब्लॉग जगत परेशान है ! सब ब्लॉगियों की समस्या है कि लिखना बहुत कुछ है पर वक्त बडा कम है ! उसका ज्यादातर हिस्सा तो नौकरी, घर आदि-आदि पचडों में जाया जा रहा है फुरसत की घोर कमी के काल में ब्लॉग जगत की बादशाही की तमन्ना दम तोड रही है ! अब जायज है कि ऎसे विकट समय संकट में मजे से लिखते फुरसतमय ब्लॉग लेखक से जलन हो बैठे ! ऎसे में जले पर नमक के छिदकाव सा करते ब्लॉग एग्रीगेटरों का उदय होने से वाकई मैं भी परेशान हूं ! ये बिन चाहे ही आपको आपकी औकात बता दे रहे हैं और बिन “ मांगे मोती मिले ...वाले दोहे के सत्यापित मतलब को एक बार फिर से शक के घेरे में डाल रहे हैं ! उधर ब्लॉगिए धड़ाधड पोस्टें दाग रहे हैं _हिट होने के तरीके , दो मिनट में पोस्ट लिखने के तरीके , पंगा लेके हिट होने के तरीके , कम समय में टिपियाकर ग्राहक बटोरने के तरीके , लिंक दो लिंक लो वाले तरीके., गाली देके हिट होने के तरीके............एक से एक जालिम और खुराफाती आजमाए हुए ! समझ नहीं आता किसकी दुकान में जाऎ ! हमें तो लगता है ये सारा मामला इतना सीधा नहीं है होता तो फुरसतिया जी बता न देते कि उनकी इस फुरसत का राज क्या है ! अब कई ब्लॉगर उनको उकसा बैठे कि भी कभी तो फंसेंगे ---- इयत्ता वाले लिख रहे हैं असल फुरसतिया कौन है ! अनुराग जी पानी के बतासे खिलवाकर भुलावे में उगलवान चाह रहें कि जैसे ही तीखा लगे और फुरसतिया जी पानी मांगे तो पानी का गिलास दूर से दिखला- दिखला के कहें कि पहले बताओ फुरसत का राज क्या है ? आलम यह है कि उनके यहां टिप्पणी में में एक सज्जन कह रहे हैं कि --आज कि आपकी पोस्ट आपके नाम को सार्थक नहीं कर कर रही—मानो जवाब मॆं धोखे से वे गुप्त रहस्य पर से पर्दा उठा बैठेंगे !
अब वैसे फुरसतिया तो कम अरुण भाईसा भी नहीं हैं देखिए न इतनी फुरसत में कि प्यारे से डागी के सजीलेपन की ओर हम सब गैरफुरसतियों का ध्‍यान दिलवा रहॆं है! अब कुत्ते तो कई हमारी गली में भी घूमते हैं और उनमें से दो एक सजीले भी हैं पर हममें कभी इतना फुरसतियापा होता तो वे सजीले सुकुमार हमारी भी काव्य प्रेरणा बन पाते ! वैसे आलोक जी से बडा फुरसतिया कौन होगा – जिस चीज में हम ऎब निकाल- निकाल कर रोंते हैं वे हर उस चीज में मजा ढूंढ लेते हैं! हमें तो भएया रोने को भी वक्त कम पड जाता है और वे हैं कि हंसते हैं और हंसाते भी है ! अब प्रमोद भइया का फुरसतपना उनसे ससुर कुछ भी लिखवा बैठता है ! यहां तक कि बकरी की लॆंडी उनकी रचना प्रेरणा का मूल आधार ही है! वे जड- मूल पर लिखते हैं , गहरा और मौलिक ! बकरी जैसी निरीह और सुकुमार प्राणी का महत्व प्रतिपादन करने की फुरसत वह भी इस आपाधापी के युग में निश्चय ही वे सच्चे फुरसतिया होंगे ! मोहल्ला तो फुरसत में ही चलाया जा रहा सामूहिक प्रयास है वरना कौन अपने दरवाजे से निकलकर दो मिनट गली मोहल्ले में रुकता है आजकल ! हमारा तो हाल यह है कि अपने ही विचार इकट्ठे नहीं कर पाते और मोहल्ला इतने सारे विद्वानों की अमृतवाणी संजोकर आ घमकता है और वह भी बिना नागा ! अब ज्ञानदत्त जी को ही देखो बेहद बिजी भारतीय प्लेटफार्म पर बैठकर ही वे कितनी फुरसत से अपने मन में हलचल होने देते हैं !वैसे हलचल तो हमारे मन मंदिर में भी होती है बहुत , पर क्या करें जब तक फुरसत में आते हैं मन शांत हो चुका होता है और आप सब एक बेहतरीन- लाजवाब पोस्ट से वंचित रह जाते हैं! उत्तराखंडियों की फुरसत बहुत ही सामयिक है जिस दिन भी उन्हॆं फुरसत होती है भुगतना हमें पडता है जनाब और यदि उस दिन हमारा चिट्ठाचर्चा की ड्यूटी हुई तो भगवान ही जानता है कि हमें अपनी काहिली पर कितनी शर्मिंदगी होती है !
वैसे मुझे अब लग रहा है कि पोस्ट अब कुछ ज्यादा ही लंबा गई है क्या मैं भी फुरसतिया हो गई हूं ? बिलकुल मुमकिन है जनाब !फुरसत पर बात करना कोई हंसी ठट्ठा नहीं है और जिसके भीतर फुरसतिया नहीं है वह तो कभी फुरसत पर अपनी लेखनी चला ही नहीं सकता ! यह वक्त की कमी या ज्यादती का सवाल नहीं है यह तो मूल्य है जिसे आज बहुत कमतर समझने वाले समय मॆं हम जी रहे हैं और ब्लॉगरी कर रहे हैं ! नेतागिरी , चमचागिरी , भाईगिरी , गुंडागिरी सब बने बनाए सेट रास्तों को छोड ब्लऑगिरी – आह ! तो आइए न पूछें फुरतिया जी से उनकी फुरसत का राज और ढूंढें अपने- अपने भीतर -- फुरसतिया -----एक असल फुरसतिया !