Monday, April 09, 2007

.क्योंकि बिल्ली और बकरी इनकी टीचर हैं


आपका वास्ता कभी न कभी तो ऎसों से पडा ही होगा जिनके लिए दुनिया उन्हीं से शुरू होकर उन्हीं पर खत्म होती है ! वैसे आप टालने के लिए कह सकते हैं कि नहीं जनाब कभी नहीं ,पर हम समझ जाएंगे कि आप हमें टरका रहे हो ! खैर आपका अनुभव चाहे जो हो हमारा तो यह साफ -साफ देखना रहा है कि जहां भी कोई छोटा सा स्ट्र्क्चर खडा होता है वहां आनुपातिक तौर पर कुछेक मैंवादी किस्म के जन अपने मवाद के साथ आ खडे होते हैं ! कोई नहीं जानता कि बकरी और बिल्ली से इनकी पहली मुलाकात कैसे हुई परंतु इनके मुख द्वारा उच्चरित ध्वनियां इन अनाम टीचरों की याद अवश्य दिलाती है! इन शिष्यों की पहचान यह होती है कि संरचना के हर कोने पर ये अपनी छाप बनाने के लिए किसी भी किस्म की जेहमत उठाते हैं ! ये मानकर चलते हैं कि इनके पास दुनिया का सबसे अकाट्य तर्क होता है और इनके कुतर्क-शास्त्र के हर पन्ने पे दुनिया के महान तर्कों को काटने की अचूक विधाओं का जिक्र रहता है !ये मवादी जन अपने नाजुक कंधों पर सारे जग का भार ढोए चलते हैं और चलते चलते बीच- बीच में गा उठते हैं- "न था कुछ तो मैं था कुछ न होगा तो मैं रहूंगा ' ....

वैसे हमारे सरकारी दफ्तरों में ऎसे जन बहुतायत में मिलते हैं आप काम पड्ने पर इन दफ्तरों में जाते हैं तो ये आपकी ओर इस भांति नजर उठा कर देखॆगे मानो आप दुनिया के दीनतम प्राणियों में से एक हों इनकी काम में व्यस्त आखें अपको इस कदर घूर सकती हैं मानो कह रहीं हों कि आप ही दुनिया के सबसे फालतू इंसान हो जिसे खुदा ने धरती के कामों में विघ्नकारी तत्वों के रूप में पैदा करके छोड दिया है ! इस प्रकार के जरूरी किस्म के इंसानों की सारी एनर्जी इस बात में खर्च होती है कि बढिया चीजों का क्रेडिट उन्हें ही मिले और लोग उनके होने को सिस्टम का एक बडा सौभाग्य मानें ! इन प्राणियों की टांगे जरूरत से ज्यादा लंबी और अनुभवी होती हैं यानि इन्हें पता होता है कि किस बात पर कहां कितनी लंबी टांग अडाए जाने से इच्छित फल की प्राप्ति होगी !

सरकारी महकमों के कमरों में बैठे कई छोटे बाबुओं ने हमें हमारी औकात बताई है और छोटे कामों के लिए इतने चक्कर कट्वाए हैं कि हम अंततः अपनी गफलत को दूर कर लें और मानने लगें कि किसी भी काम को छोटा नहीं समझना चाहिए ! यूं ही नहीं न बदीउज्जमां को खुद सरकारी अफसर होते हुए भी सरकारीतंत्र के चूहों पर , चूहेमारी पर और सारी संरचना में एक रचनात्मक - सीधे- सादे व्यक्ति की अदनी स्थिति पर लिखना पडा ! वे लिख गए कि कैसे सिस्टम में सिर्फ मैंवादी ही बचा रहता है चूहा बनकर और जिसने चूहेपन के खिलाफ जाकर लोहा लिया , बेनाम हो जाता है ! इसी से मैंवादियों का इतना बोलबाला दिखाई देता है और चारों ओर उनका मवाद भी सडांध पैदा करता है !

रचनात्मकता की भूमि पर भी एक से एक मैंपने के मुरीद आ बैठे हैं जिनका मानना है कि रचनात्मकता का सारा जिम्मा मां शारदा ने उनके कंधों पर ही डाल दिया है और अब वे यथाशक्ति इस दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं प्रत्येक रात्रि को मां उनके स्वप्न आकर सृजनात्मक जगत की सारी खबरें लेती है जिससे सुबह उठकर वे साहित्य और कला जगत के मल को साफ कर अपने होने की सार्थकता पर सीना फुलाए डोलते हैं ! चिट्ठा जगत की वर्चुएलैटी में भी ऎसे "अगर हम न होते तो तुमहारा क्या होता ?" मार्का मैंवाद का फन फैलाए खडे स्वयंसिद्ध गिद्ध हो सकते हैं जिन्हें ये लग सकता है कि ये चिट्ठा जगत उनसे है ...... लेकिन यहां तो अंत तक वही होगा जो समर्पित रचनाकार होगा , अन्य कोई नहीं......

Wednesday, April 04, 2007

क्यों न करें हम चिट्ठा , क्योंकर करें विवाद

हम सब इस चिट्ठाजगत की संतानें हैं। ये चिट्ठाजगत हमारी कर्म- भूमि भी है और रंग (रण)–भूमि भी । यहां विवादों को पैदा करने का अपना मजा है(चाहे ये विवाद हमारी जारज संतानें ही क्यों न हों) । यदि विवाद न उठा पा रहे हों तो विवाद मे पडना भी कोई कम मजेदार नहीं है (यह आ बैल मुझे मार न प्लीज वाली कहावत को चरितार्थ करने वाला काम है जनाब!) और ऎसी बैलों की मार खाने का आनंद गूंगे के गुड के समान है ! अभी हाल में ही हुए _मुखौटा विवाद , मोहल्ला विवाद , रसोई विवाद , इरफान विवाद आदि विवादों में विवादकर्ताओं ने और इन विवादों में टांग अडाऊ टिप्पणीकारों ने बहुत-बहुत मजे लूटे हैं।

इन बहसी मसलों में नामी-गिरामी कमेंटकारों के अलावा बहुत से गुप्त रोगियों अ अ मुआफ करें गुप्त टिप्पणिकारों ने अफवाहों के तीतर लडवाए हैं अब यही वजह है कि मसिजीवी, आलेचक , खुद मैं ,निर्मल जी ,( काकेश जी का पता नहीं) आदि ने , जो कि बिंदास पोस्ट मारा करते हैं ( थोडी देर को मौजें लेना छोडकर) टिप्पणी बाधक-शोधक तकनीकों की शरण गही। निर्मल आनंद में बहते एक पोस्टकार को तो सेंत मेंत में अपने गिरेबान में झांकना पडा साहब।;);) (दो-दो इस्माइली चेपी हैं सर जी नोटपैड की सोहबत से अकल लेके)
हां तो हम कह रहे थे कि यह विवाद-भूमि हमें प्राणों से भी प्यारी है जब से हम इस विवाद रस को टेस्ट किए हैं घर –पडोस- दफ्तर के रगडे- झगडे बेमजा लगने लगे हैं। अब तो बाहर कोई टांट मारे या कि टांग खींचे हमें बिल्कुल परवाह नहीं होती ! यही सब से आजू – बाजू वाले सामाजिकों को यह अंदेशा हो गया है कि हम किंही बाबा या मां के चंगुल में फंस गए हैं जिससे हमारे सारे सांसारिक मोह सिमटते जा रहे हैं। हे हे हे। मूर्ख प्राणी सब- के –सब। भौतिक जगत के टंटों में पडे ये क्या जानें हमें किस स्वर्गिक आनंद की प्राप्ति होने लगी है आजकल कसम से ! यहां कइयों की पीठ में खुजली उठती है कइयों उसे खुजाते हैं ,कइयों के हाथ की अंगुलियों में चरपरी खुजली होती है , कोई गुप्त पीडा का सार्वजनिक प्रदर्शन करता है तो कोई( जिनकी बातों को बाहर कोई सीरियसली नहीं लेता) हास्य-व्यंग्य के बाण-पे-बाण मारके वहवाही लूटते नहीं अघाते----एक से एक यूनीक पीस ! ;)
सबकी अपनी डफ्ली अपना-अपना राग और तो और किसी की अपनी डफली फटी हुई है तो किसी आन की डफली पे दो - दो हाथ मारने की उतावली में हांफ रहा है ! अपन की कहानी अलग है ! हम तो अपने चिट्ठाबाज शिरीमान जी की चिट्ठाखोरी से उकता के त्रिलोचन की चंपा की तर्ज पे बोल बैठे -- चिट्ठाजगत पे बजर गिरे... पर फिर ठंडे दिमाग से सोचा इत्ती जल्दी भी क्या है जरा देखें तो क्या बला है ये जगह! एक दिन हम देख्ते हैं कि हम भी चिट्ठा बना रहे हैं - वाद-संवाद ....पर राम कसम वाद किया संवाद किया पर विवाद कभ्भी नहीं ! अब क्या हैं कि जैसे हमारे भारतीय शास्त्रीय संगीत में वादी संवादी विवादी तीनों स्वर होते हैं तो भाई जी यहां क्या न हों !

खैर छोडें जनाब चिट्ठाकारी का लुत्फ हो या अपने भाई बंदों की पोस्टों को आपरेशन टेबल पर लिटाकर उनकी चीराफाडी का मजा हो या विवादों की चिंगारियों को हवा देने का भीतरी सुख हो – चिट्ठाजगत में आए हैं तो इनके लिए ही तो ! तो फिर क्यों न करें हम अपनी इस चिट्ठा-भूमि को शत-शत नमन !

Monday, April 02, 2007

आप कितने किलो की हैं? उर्फ 34-24-36 जिंदाबाद

स्त्री की देह समाज के लिए सदा से कौतुहल का विषय रही है। सीमोन से लेकर जर्मेन ग्रीयर और मृणाल पांडेय से लेकर प्रभा खेतान के द्वारा स्त्री देह से जुडे शोषण के संरचनात्मक पहलुओं पर काफी लिखा जा चुका है लिखा जा रहा है। लेकिन स्त्री के आस पास की सामाजिक संस्थाएं इस स्त्री विमर्श और स्त्री के आडे आती रहीं हैं । यही कारण है कि एक आम भारतीय स्त्री को रसोई , सौंदर्य , सोना , घर ,रिश्ते अपने अस्तित्व से जुडे अभिन्न पहलू लगते हैं जिनके खिलाफ संधर्ष का ऎलान वह कभी नहीं कर पाती। आज बाजार स्त्री देह के नए नए उपमान गढ रहा है और जिस स्त्री छवि को वह समाज के सामने आक्रामक ढंग से परोस रहा है उसमें स्त्री स्वातंत्र्य और स्त्री के अस्तित्व के सारे विमर्श परिधि पर पहुंच गए हैं । स्त्री की रचनात्मकता, कोमलता, सुंदरता आदि के मिथों को गढकर स्त्री को मृग मारीचिकाओं में भटकते रहने के लिए छोड दिया गया है ...घर-बाहर दोनों जगह ही.....जिस तर्क से स्त्री का रसोई में रहना सिद्ध किया जाता है उसी तर्क के सहोदरधर्मी तर्कों से स्त्री का प्रदर्शनकारी भूमिकाओं में होना सिद्ध किया जाता है । खबर है कि इंडियन एयरलाइंस की विमानपरिचारिकाएं 200 ग्राम वजन ज्यादा होने पर विमान सेवाओं के अयोग्य हो जाती हैं तथा उन्हें इसके अतिरिक्त के कार्य सौंप दिए जाते हैं इस संबंध में कोर्ट का निर्देश है कि उन्हें ऎसे कार्यकाल में भत्तों के अतिरिक्त पूरा वेतन दिया जाना चाहिए । स्त्री की देह बाजार की सबसे बडी आय का माध्यम है। वह अन्यों के द्वारा बनाई गई अपनी छवि को पाने में रत समाज का हाशिए पर पडा नितांत अकेला कुनबा है...कौन है उसका सच्चा साथी... कोई तो होगा ही कभी न कभी.......